भाषा की परिभाषा, प्रकृति, विशेषताएं, महत्व

उच्चरित ध्वनि संकेतों की सहायता से भाव या विचार की पूर्ण अथवा जिसकी सहायता से मनुष्य परस्पर विचार-विनिमय करता या सहयोग करते हैं, उस यादृच्छिक रूढ़ ध्वनि-संकेतों की प्रणाली को भाषा कहते हैं’’। यहां तीन बातें विचारणीय हैं-
  1. ’’सार्थक शब्दों के समूह या संकेत को भाषा कहते हैं। यह संकेत स्पष्ट होने चाहिए। मनुष्य के जटिल मनोभावों को भाषा व्यक्त करती है किन्तु केवल संकेत भाषा नहीं है।
  2. भाषा यादृच्छिक संकेत है यहां शब्द और अर्थ में कोई तर्क संगत सम्बन्ध नहीं रहता। बिल्ली, कौआ, घोड़ा आदि को क्यों पुकारा जाता है यह बताना कठिन है। इनकी ध्वनियों को समाज ने स्वीकार कर लिया है। इसके पीछे कोई तर्क नहीं है।
  3. भाषा के ध्वनि संकेत रूढ़ होते हैं। परम्परा या युगों से इनके प्रयोग होते आये हैं’’।

भाषा की परिभाषा

भाषा की परिभाषा इस प्रकार दी गई है-
  1. महर्षि पतंजलि ने पाणिनि की अष्टाध्यायी के महाभाष्य में भाषा की परिभाषा इस प्रकार दी गई है- व्यक्ता वाचि वर्णा येषां त इमे व्यक्तवाच:।
  2. भतरृहरि ने शब्द उत्पत्ति और ग्रहण के आधार पर भाषा को परिभाषित किया है- शब्द कारणमर्थस्य स हि तेनोपजन्यते। तथा च बुद्धिविषयादर्थाच्छब्द: प्रतीयते। बुद्धयर्थादेव बुद्धयर्थे जाते तदानि दृश्यते। 
  3. अमर कोष में भाषा की वाणी का पर्याय बताते हुए कहा गया है- ब्राह्मी तु भारती भाषा गीर् वाक वाणी सरस्वती।
  4. कामताप्रसाद गुरु ने अपनी पुस्तक हिंदी-व्याकरण’ में भाषा की परिभाषा इस प्रकार दी है-भाषा वह साधन है जिसके द्वारा मनुष्य अपने विचार दूसरों पर भली-भांति प्रकट कर सकता है और दूसरों के विचार आप स्पष्टतया समझ सकते हैं।
  5. दुनीचंद ने हिंदी-व्याकरण’ में भाषा की परिभाषा को इस प्रकार लिपिबद्ध किया है-हम अपने मन के भाव प्रकट करने के लिए जिन सांकेतिक ध्वनियों का उच्चारण करते हैं, उन्हें भाषा कहते हैं।
  6. आचार्य किशोरीदास के अनुसार विभिन्न अर्थों में सांकेतिक शब्द-समूह ही भाषा है जिसके द्वारा हम अपने विचार या मनोभाव दूसरों के प्रति बहुत सरलता से प्रकट करते हैं।
  7. डॉ. राम बाबू सक्सेना के मतानुसार-जिन ध्वनि-चिन्हों द्वारा मनुष्य परस्पर विचार-विनिमय करता है, उसे भाषा कहते हैं।
  8. श्यामसुन्दर दास ने ‘भाषा-विज्ञान’ में भाषा के विषय में लिखा है-मनुष्य और मनुष्य के बीच वस्तुओं के विषय में अपनी इच्छा और मति का आदान-प्रदान करने के लिए व्यक्त ध्वनि-संकेतों का जो व्यवहार होता है, उसे भाषा कहते हैं।
  9. डॉ. भोलानाथ ने भाषा को परिभाषित करते हुए ‘भाषा-विज्ञान’ में लिखा है-भाषा उच्चारण अवयवों से उच्चारित मूलत: प्राय: यादृच्छिक ध्वनि-प्रतीकों की वह व्यवस्था है, जिसके द्वारा किसी भाषा समाज के लोग आपस में विचारों का आदान-प्रदान करते हैं।
  10. आचार्य देवेन्द्रनाथ शर्मा ने ‘भाषा-विज्ञान की भूमिका’ में लिखा-उच्चारित ध्वनि-संकेतों की सहायता से भाव या विचार की पूर्ण अभिव्यक्ति भाषा है।
  11. डॉ. सरयूप्रसाद के अनुसार-भाषा वाणी द्वारा व्यक्त स्वच्छंद प्रतीकों की वह रीतिबद्ध पद्धति है, जिससे मानव समाज में अपने भावों का परस्पर आदान-प्रदान करते हुए एक-दूसरे को सहयोग देता है।
  12. डॉ. देवीशंकर के मतानुसार-भाषा यादृच्छिक वाक्यप्रतीकों की वह व्यवस्था के, जिसके माध्यम से मानव समुदाय परस्पर व्यवहार करता है।
  13. प्लेटो ने विचार को भाषा का मूलाधार मानते हुए कहा है-विचार आत्मा की मूक बातचीत है, पर वही जब ध्वन्यात्मक होकर होंठों पर प्रकट है, तो उसे भाषा की संज्ञा देते हैं।
  14. मैक्समूलर के अनुसार-भाषा और कुछ नहीं है, केवल मानव की चतुर बुद्धि द्वारा आविष्कृत ऐसा उपाय है जिसकी मदद से हम अपने विचार सरलता और तत्परता से दूसरों पर प्रकट कर सकते हैं और चाहते हैं, कि इसकी व्याख्या प्रकृति की उपज के रूप में नहीं बल्कि मनुष्यकृत पदार्थ के रूप में करना उचित है।
  15. ब्लाक और ट्रेगर के शब्दों में भाषा, मुखोच्चरित यादृच्छिक ध्वनि-प्रतीकों की वह व्यवस्था है, जिसके माध्यम से एक समुदाय के सदस्य परस्पर विचार विनिमय करते हैं।
  16. हेनरी स्वीट का कथन है-जिन व्यक्त ध्वनियों द्वारा विचारों की अभिव्यक्ति होती है, उसे भाषा कहते हैं।
  17. ए. एच. गार्डियर का मंतव्य है-विचारों की अभिव्यक्ति के लिए जिन व्यक्त एवं स्पष्ट ध्वनि-संकेतों का व्यवहार किया जाता है, उनके समूह को भाषा कहते हैं।

भाषा की प्रकृति 

भाषा का उपयोग संप्रेषण तथा अन्य क्रिया के लिए होता है भाषा एवं परम्परा आधारित तंत्र है। समुदाय के सदस्यों ने संप्रेषण एवं अन्य क्रिया के लिए जो तंत्र विकसित किया है, वह परम्पराओं पर आधारित है। भाषा में वाचिक ध्वनि या संकेत के रूप में उपयोग की जाती है। मातृभाषा सीखते समय बालक को ध्वनि विशेष का ध्यान रखना होगा। भाषा सीखने की आयु में बालक किसी भी भाषा की ध्वनियों का उच्चारण सीख सकता है। किसी एक प्राणी या वस्तु के लिए अलग-अलग भाषाओं में अलग शब्दों का उपयोग होता है। 

उदाहरणार्थ जिसे हिन्दी में हाथी के नाम से जाना जाता है, उसी को अंग्रेजी में एलिफेंट के नाम से जाना जाता है। बालक में भाषा अर्जन की नैसर्गिक क्षमता होती है इसमें माला पिरोए हुए फूलों के समान शब्दों की श्रृखंला नहीं होती है। 

बालक की अवस्था जब एक वर्ष की होती है, तब बोलना शुरू करता है और तीन वर्ष की आयु तक चार-पाँच शब्दों के व्याकरण सम्मत वाक्यों का उपयोग करने लगता है। चार वर्ष की आयु के बाद उसे अपनी भाषा के लिखित उपयोग वाले मिश्रित वाक्यों की संरचना करने लगता है। छ: वर्ष की आयु तक अभिव्यक्ति की क्षमता सौ फीसदी होने लगती है।

भाषा का महत्व

भाषा मनुष्य को अन्य पशुओं से अलग करती है पशु केवल वर्तमान की घटना अथवा आवश्यकता की अभिव्यक्ति के लिए संप्रेषण का उपयोग करते हैं मनुष्य अपने वर्तमान की ही नहीं वरन् भूतकाल की घटना और भविष्य की संभावित घटनाओं का संप्रेषण भाषा के माध्यम से करते हैं। 

आज से हजारों वर्ष पहले पशुओं की अनेक प्रजातियों एवं मनुष्य ने समूह में रहना शुरू किया। भाषा मनुष्य को अन्य पशुओं से अलग करती है। 

भाषा समुदाय की परम्परा एवं संस्कृति की निरंतरता बनाये रखने का साधन है। अपने पूर्वजों की जीवनचर्या उनकी सामाजिक परम्पराओं आदि की जानकारी आज भी हमें मिलती है। भाषा ही चिंतन एवं मनन का माध्यम है।

भाषा की विशेषताएं

मूल रूप से 9 अभिलक्षणों की चर्चा की जाती है -

1. यादृच्छिकता-  ‘यादृच्छिकता़’ का अर्थ है -माना हुआ । यहां मानने का अर्थ व्यक्ति द्वारा नहीं वरन् एक विशेष समूह द्वारा मानना है । एक विशेष समुदाय किसी भाव या वस्तु के लिए जो शब्द बना लेता है उसका उस भाव से कोई संबंध नहीं होता । यह समाज की इच्छानुसार माना हुआ संबंध है इसलिए उसी वस्तु के लिए भाषा में दूसरा शब्द प्रयुक्त होता है ।भाषा में यह यादृच्छिकता शब्द और व्याकरण दोनों रूपों में मिलती है । अत: यादृच्छिकता भाषा का महत्वपूर्ण अभिलक्षण है । 

2. सृजनात्मकता-  मानवीय भाषा की मूलभूत विशेषता उसकी सृजनात्मकता है। अन्य जीवों में बोलने की प्रक्रिया में परिवर्तन नहीं होता पर मनुष्य शब्दों और वाक्य-विन्यास की सीमित प्रक्रिया से नित्य नए नए प्रयोग करता रहता है ।सीमित शब्दों को ही भिन्न भिन्न ढंग से प्रयुक्त कर वह अपने भावों को अभिव्यक्त करता है । यह भाषा की सृजनात्मकता के कारण ही संभव हो सका है । सृजनात्मकता को ही उत्पादकता भी कहा जाता है । 

3. अनुकरणग्राहता-  मानवेतर प्राणियों की भाषा जन्मजात होती है ।तथा वे उसमें अभिवृद्धि या परिवर्तन नहीं कर सकतें ंिकंतु मानवीय -भाषा जन्मजात नहीं होती । मनुष्य भाषा को समाज में अनुकरण से धीरे धीरे सीखता है ।अनुकरण ग्राह्य होने के कारण ही मनुष्य एक से अधिक भाषाओं को भी सीख लेता है ।यदि भाषा अनुकरण ग्राह्य न होती तो मनुष्य जन्मजात भाषा तक ही सीमित रहता । 

4. परिवर्तनशीलता- मानव भाषा परिवर्तनशील होती है । वही शब्द दूसरे युग तक आते आते नया रूप ले लेता है ।पुरानी भाषा में इतने परिवर्तन हो जाते हैं। कि नई भाषा का उदय हो जाता है ।संस्कृत से हिन्दी तक की विकास यात्रा भाषा की परिवर्तनशीलता का उदाहरण है । 

5. विविक्तता-  मानव भाषा विच्छेद है । उसकी संरचना कई घटकों से होती है ।ध्वनि से शब्द और शब्द से वाक्य विच्छेद घटक होते है। इस प्रकार अनेक इकाइयों का योग होने के कारण मानव भाषा को विविक्त कहा जाता है । 

6. द्वैतता-  भाषा में किसी वाक्य में दो स्तर होते हैं । प्रथम स्तर पर सार्थक इकाई होती है ।और दूसरे स्तर पर निरर्थक ।कोई भी वाक्य इन दो स्तरों के योग से बनता है ।अत: इसे द्वैतता कहा जाता है । भाषा में प्रयुक्त सार्थक इकाइयों को रूपिम और निरर्थक इकाइयों को स्वनिम कहा जाता है ।स्वनिम निरर्थक इकाइयां होने पर भी सार्थक इकाइयों का निर्माण करती हैं ।इसके साथ ही ये निरर्थक इकाइयांॅ अर्थ भेदक भी होती हैं ।जैसे क+अ+र+अ में चार स्वनिम है जो निरर्थक इकाइयां हैं पर कर रूपिम सार्थक इकाई हैं । इसे ही ख+अ+र+अ कर दे तो खर रूपिम बनेगा किंतु ‘कर’ और ‘खर’ में अर्थ भेदक इकाई रूपिम नहीं स्वनिम क और ख है। इस प्रकार रूपिम अगर अर्थद्योतक इकाई है तो स्वनिम अर्थ भेदक । इन दो स्तरों से भाषा की रचना होने के कारण भाषा को द्वैत कहा गया है । 

7. भूमिकाओं का पारस्परिक परिवर्तन- भाषा में दो पक्ष होते हैं - वक्ता और श्रोता। वार्ता के समय दोनों पक्ष अपनी भूमिका को परिवर्तित करते रहते हैं। वक्ता श्रोता और श्रोता वक्ता होते रहते हैं। इसे ही भूमिकाओं का पारस्परिक परिवर्तन कहते है । 

8. अंतरणता- मानव भाषा भविष्य एवं अतीत की सूचना भी दे सकती है ।तथा दूरस्थ देश का भी । इस प्रकार अंतरण की विशेषता केवल मानव भाषा में है । 
संदर्भ -
  1. भाषा विज्ञान - डाॅ भोलानाथ तिवारी, किताब महल, इलाहाबाद
  2. हिंदी भाषा का संरचनात्मक अध्ययन - डाॅ सत्यव्रत, मिलिंद प्रकाशन, हैदराबाद
  3. भाषा और भाषा विज्ञान - गरिमा, संजय प्रकाशन, दिल्ली
  4. डाॅ. भोलानाथ - भाषा विज्ञान - 2002 - प्रकाशक किताब महल, 22 ए सरोजनी नायडू मार्ग इलाहाबाद।
  5. डाॅ. देवेन्द्रकुमार शास्त्री - भाषा शास्त्र तथा हिन्दी भाषा की रूपरेखा - 1990 - विश्वविद्यालय प्रकाशन, वाराणसी।
  6. डाॅ. कपिलदेव द्विवेदी - भाषा विज्ञान एवं भाषा शास्त्र - 1992 - विश्वविद्यालय प्रकाशन, वाराणसी।
  7. डाॅ. बदरीनाथ कपूर - परिष्कृत हिन्दी व्याकरण - 2006 - प्रकाशन प्रभात प्रकाशन 4/19 आसफ अली रोड, नई 8. दिल्ली।

3 Comments

Previous Post Next Post