ध्वनि उत्पत्ति की प्रक्रिया या ध्वनि की उत्पत्ति कैसे होती है?

जब दो वस्तुओं के आपस में टकराने से वायु में कंपन हो और कर्ण-पटह तक पहुँचने से इसका अनुभव हो, तो उसे ध्वनि कहते हैं। प्रत्येक ध्वनि में कंपन होती है और प्रत्येक कंपन में ध्वनि होती है। कभी-कभी हाथ, पैर, डाली या पत्ती हिलने पर ध्वनि का आभास नहीं होता है। इसका कारण है- ध्वनि की तीव्रता का अभाव। विशेष यंत्र के माध्यम से ऐसी कंपन में भी ध्वनि सुन सकते हैं। 

हमारे कान सामान्यत: कम से कम गीस आवृति प्रति सैकेंड वाली कंपन से ध्वनि सुन सकते हैं। यदि यह आवृत्ति लगभग बीस हजार प्रति सेकेंड से अधिक हो जाती है, तब भी ध्वनि का आभास नहीं होता है। स्पष्ट ध्वनि की प्रति सेकेंड आवृत्ति 200 और 2000 के बीच मानी गई है।

भाषाविज्ञान के अंतर्गत मुख्यत: मानव-मुख-उच्चरित ध्वनि का अध्ययन किया जाता है। इस प्रकार कह सकते हैं कि ध्वनि-उत्पादन प्रक्रिया में वाक् इंद्रिय का सहयोग लिया जाता है। यहाँ वाक् शब्द मुख के अर्थ में प्रयुक्त होता है। मुख के संदर्भ में यह ध्यातव्य है कि यह शरीरांग जीवन-यापन के लिए खाने-पीने तथा यदा-कदा साँस लेने का भी आधार है। मुख के द्वारा उक्त मुख्य कार्यों के साथ बोलने का गौण किंतु महत्त्वपूर्ण कार्य भी संभव होता है। इस प्रकार मुख एक ऐसा शरीरांग है जो जीवन-यापन के साथ ध्वनि-उत्पादन प्रक्रिया की भूमिका अदा करता है। 

कुछ धवनियों के उत्पादन में मुख के साथ नासिका की भी सहयोगी तथा महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। नासिक्य और अनुनासिक ध्वनियाँ इसी प्रकार की हैं।

ध्वनि उत्पत्ति की प्रकिया

ध्वनि-उत्पादन प्रक्रिया को व्यवस्थित रूप देने के लिए दो चरणों में विभक्त कर सकते हैं। प्रथम चरण-प्रेरणात्मक प्रक्रिया, द्वितीय चरण-गतिशील प्रकिया। ध्वनि की उत्पत्ति कैसे होती है

1. प्रथम चरण - प्रेरणात्मक प्रक्रिया-ध्वनि-उत्पादन प्रक्रिया में सर्वप्रथम प्राणि-चेतना बुद्धि का सहारा लेकर किसी वस्तु, व्यक्ति या भाव के संदर्भ में इच्छानुसार अभिव्यक्ति के लिए मन को प्रेरित करती है। प्राणि की चैतन्यता तथा बुद्धि की प्रखरता के ही अनुरूप मन गति पाने के लिए चंचल हो उठता है। एक ही प्राणि में विभिन्न भाव-संदर्भों की प्रेरणात्मक प्रक्रिया तथा मन की गति में भिन्नता होती है। जब किसी आश्चर्यजनक स्थिति को देखकर एकाएक मुख से ‘वाह-वाह’ निकलता है, तो यह प्रक्रिया बहुत ही तीव्र गति से होती है। 

जब किसी को पहली बार कुछ लागों के सामने बोलना पड़ता है, तो उस समय चेतना तथा बुद्धि का उपयोगी समन्वय न होने के कारण स्पष्ट रूप से बोल पाना कठिन हो जाता है। ऐसे में प्रेरणात्मक प्रक्रिया अत्यंत शिथिल होती है। इस प्रक्रिया में मन की प्रबल भूमिका होती है। मन शारीरिक शक्ति को प्रेरित करता है। 

मन की प्रेरणा के अनुरूप ही शारीरिक शक्ति का सहयोग प्ररेणा-प्रक्रिया में मिल पाता है।प्रेरणात्मक प्रक्रिया में अंतिम भूमिका शारीरिक शक्ति की होती है। शारीरिक शक्ति शरीरस्थ-फैफड़े की वायु को प्रभावित करती है।

संस्कृत के प्रसिद्ध आचार्य पाणिनि ने ध्वनि-उत्पादन प्रक्रिया के संदर्भ में इसी प्रकार का विचार व्यक्त किया है-

आत्म बुद्धया समेत्यार्थान् मनो युड्केत विवक्षया।
मन: कायाग्निमाहन्ति से प्रेरयति मारुतम्।। पाणिनीय शिक्षा ।। 6 ।।

अर्थात् आत्मा बुद्धि के साथ संयुक्त होकर अपने अभीष्ट भाव की अभिव्यक्ति के लिए मन को प्रेरित करता है। मन शारीरिक शक्ति को प्रेरित करता है। तथा शारीरिक शक्ति से फेफड़े की वायु पे्ररणा प्राप्त कर गतिशील होती है। इस प्रकार ध्वनि (भाषा) उद्भव का आधार चेतना है। चेतना के द्वारा बद्धि सहयोग पर ही ध्वनि-उत्पादन प्रक्रिया संभव है। बुद्धि के अभाव में प्रक्रिया संभव नहीं है। 

ध्वनि उत्पादन के समय भाषाई, चेतना बुद्धि और मन जितना सुंदर समन्वय होगा, ध्वनि उतनी ही उत्तम और अनुकूल होगी।

2. द्वितीय चरण - गतिशील प्रक्रिया-ध्वनि-उत्पादन के द्वितीय चरण में वायु की भूमिका सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है। वायु के माध्यम से बजने वाले वाद्य-यंत्रों-हारमोनियम, ऑर्गन-पाइप आदि की भाँति ही मनुष्य वायु के सहारे ध्वनि करता है। मनुष्य की श्वसन प्रक्रिया में दो भिन्न-भिन्न प्रवृत्तियों की वायु आपस में एक-दूसरे के विपरीत दिशागामी होती है। एक प्रकार की वायु मानव-नाक या मुख के माध्यम से अंदर की ओर प्रवेश कर फेफडे़ तक पहुँचती है। दूसरे प्रकार की वायु फेफडे़ में स्थित अनुपयोगी दूषण को लेकर फेफडे़ से लेकर वापस होकर मुख या नाक के माध्यम से बाहर आती। श्वसन की इस प्रक्रिया में फेफडे़ की ओर गतिशील वायु संबंधी प्रक्रिया को श्वास-प्रश्वास कहते हैं।

श्वास में शुद्ध वायु अर्थात् ऑक्सीजन अंदर जाती है और नि:श्वास में अंदर की दूषित वायु अर्थात् कार्बन डाईऑक्साइड बाहर आती है। श्वास-नि:श्वास की प्रक्रिया जीवन पर्यंत लगातार चलती रहती है। श्वास-प्रक्रिया की वायु के माध्यम से विरल भाषा की विरल ध्वनि का उच्चारण संभव है। इसे क्लिक ध्वनि कहते है। नि:श्वास की वायु ही मुख्यत: ध्वनि-उच्चारण में सहयोगी होती है। हिंदी की ध्वनियाँ भी नि:श्वास प्रक्रिया के माध्यम से ही संभव है।

फैफडे़ में प्रतिपल धैंकनी की भाँति गति होती रहती है। ध्वनि-उत्पादन के द्वितीय चरण में फेफडे़ ही प्रारंभिक आधार हैं। नि:श्वास में वायु फेफडे़ से श्वास नलिका द्वारा बाहर की दिशा में वापस चल पड़ती है।

(i) श्वास नलिका-श्वास नलिका के माध्यम से श्वास-नि:श्वास प्रक्रिया संभव है। श्वास नली के साथ ही भोजन-नलिका आगे बढ़ती है। श्वास नलिका की ओर झुका हुआ अभिकाकल या स्वर-यंत्र मुख आवरण हैं। जब खाद्य या पेय पदार्थ भोजन नलिका के मुख के पास आता है, तो यह आवरण श्वास नलिका को बंद कर देता है। यह आवरण भोजन और पानी को श्वास नलिका में जाने से बचा लेता है। ऐसा होने पर प्राणघातक स्थिति हो सकती है। जब कभी किसी भाँति भोजन के कण या पानी की बूँदे इस नलिका में बढें तो मस्तिष्क के आदेशानुसार स्वर-व्यंजन की झिल्लियाँ तुरंत आपस में निकट आकर मार्ग बंद कर देती हैं। इसके कारण भोजन-कण फेफडे़ तक नहीं पहुँच पाता। इसके बाद तुरंत फेफडे़ पर तेज दवाब पड़ता है और-फेफडे़ से हवा तीव्र गति से चलकर उसे बाहर कर देती है। जब वायु मुख मार्ग के साथ-साथ नासिका मार्ग से भी निकलती है, तो अनुनासिक ध्वनियों का उच्चारण होता है।

(ii) स्वर-यंत्र-फेफडे़ से कुछ उपर श्वास नलिका में स्वर-यंत्र नाम की एक रचना होती है। यह ध्वनि उत्पन्न करने वाला प्रधन अवयव है। फेफडे़ से आने वाली वायु स्वर-यंत्र से होकर बाहर आती है। स्वर-यंत्र की रचना दो पतली झिल्लियों से होती है। इन्हीं दो लचीली झिल्लियों के माध्यम से आवश्यकतानुसार सामान्य अथवा सीमित कपाट बनता है, इन झिल्लियों को स्वर-तंत्री भी कहते हैं। स्वर-यंत्र के माध्यम से विभिन्न प्रकार की ध्वनियों का उत्पादन संभव होता है। कभी दोनों स्वर-तंत्रियों को उच्चारण के अनुसार कम या अधिक खोलते हैं। किसी काम में शक्ति लगाने के लिए साँस खींचकर उसे रोकने की प्रक्रिया इन्हीं तंत्रियों के आधार पर होती है। 

स्वर-तंत्रियों के पास-दूर होने से कई स्थ्तियाँ सामने आती हैं। इनमें से कुछ प्रमुख इस प्रकार हैं-

  1. प्रथम अवस्था में स्वर-तंत्रियाँ सामान्य अवस्था में होने से शिथिल पड़ी होती हैं। इसी सामान्य अवस्था में श्वास-नि:श्वास की प्रक्रिया चलती रहती है। नि:श्वास में स्वर-तंत्रियाँ श्वास अवस्था की अपेक्षा कुछ अधिक निकट आ जाती हैं। स्वर तंत्रियों की इसी अवस्था में अघोष ध्वनियों का उच्चारण संभव है।
  2. द्वितीय अवस्था में स्वर-तंत्रियाँ एक-दूसरे के निकट आकर सट जाती हैं नि:श्वास की इस प्रक्रिया में वायु स्वर-तंत्रियों को ध्क्का देकर बाहर आती है। इसीलिए घर्षण होने से उनमें कंपन्न होता है। इस अवस्था में घोष ध्वनियों का उच्चारण होता है।
  3. तृतीय अवस्था में स्वर-तंत्रियों का लगभग तीन-चौथाई भाग एक-दूसरे से मिलकर नि:श्वास मार्ग अवरुद्ध कर देता है और लगभग एक-चौथाई भाग एक-दूसरे से मिलकर नि:श्वास मार्ग अवरुद्ध कर देता है और लगभग एक-चौथाई भाग, सीमित मुख रूप में खुला रहता है। इस स्थिति में फुसफुसाहट ध्वनि का उत्पादन संभव होता है। कान के निकट मुख करके की जाने वाली मंद ध्वनियाँ इसी अवस्था में निकलती है। फुसफुसाहट में उत्पन्न सभी ध्वनियाँ अघोष होती हैं।

(iii) कण्ठ-इसे ग्रसनिका, गलबिल आदि नाम भी दिए गए हैं। यह स्वर-यंत्र के उपर का स्थान है। यहाँ श्वास नलिका तथा भोजन दोनों एक-दूसरे को काटते हैं। इसलिए इसे श्वास और भोजन नलिका का चौराहा भी कह सकते हैं। इस स्थान के विभिन्न रूप धरण करने से ध्वनियों के तान में भिन्नता आती है। इस स्थान से कंठ्य-कवर्ग व्यंजन क्, ख्, ग्, घ्, घ् ध्वनियों का उत्पादन होता है।

(iv) मुख-विवर, नासिका-विवर, कौवा-ध्वनि-उत्पादन प्रक्रिया में मुख की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। श्वास नलिका और भोजन नलिका के चौराहे पर उपर की ओर जीभ के समान एक मांसल भाग होता है, जिसे कौवा या अलिजिव्हा कहते हैं। यह भी कोमल तालु के साथ मिलकर कभी-कभी मार्ग अवरुद्ध करने के लिए अवरोध्क का कार्य करता है। जब कौवा सीध होकर नासिका मार्ग को बंद कर देता है, तो वायु मात्र मुख्य मार्ग से निकलती है। ऐसी अवस्था में मौखिक स्वर तथा व्यंजनों का उच्चारण होता है। जब कौवा ढीला होकर नीचे लटक जाता है। जो मुख मार्ग अवरुद्ध हो जाता है। ऐसे में वायु नासिका-विवर से होकर बाहर निकलती है। इस स्थिति में घ्, ञ्, ण्, न् और म् नासिक्य ध्वनियों का उच्चारण होता है। जब कौवा सामान्य स्थिति में होता है, जब श्वास प्रक्रिया मुख तथा नाक दोनों भागों से साथ-साथ होती है। इस स्थिति में अनुनासिक स्वरों का उच्चारण होता है।

(v) मुख-विवर अंग-मुख-विवर में कई ध्वनि-उत्पादक अंग हैं। इनमें उपर की ओर तालु का भाग है, जो कंठ से दाँतों के मध्य तक स्थित होता है। तालु को कंठ की ओर से क्रमश: कोमल, मूर्द्धा, कठोर तालु तथा वत्र्स चार भागों में विभक्त करते हैं। इन्हीं स्थानों पर जीभ विभिन्न रूपों से, अल्पाध्कि रूप में स्पर्श कर विभिन्न ध्वनियों का उत्पादन करती है। यह कभी वायु (श्वास-नि:श्वास) को रोकने का कार्य करती है, तो कभी बाहर निकालने की प्रक्रिया अपनाती है। कंठ की ओर से जीभ को क्रमश: जिव्हामूल, जिव्हापश्य, जव्हामध्य, जिव्हा नोक पाँच भागों में विभक्त कर सकते हैं। जीभ के विभिन्न भाग ध्वनि-उत्पादन में अपने-अपने ढंग से सहयोगी होते हैं। जीभ-मुख के विभिन्न भागों का स्पर्श कर विभिन्न ध्वनियों का उच्चारण करती है यथा-जीभ के द्वारा मूर्द्धा स्पर्श से टवर्ग ध्वनियों का उच्चारण होता है, तो जीभ तब दाँत का स्पर्श करती है, तो दंत्य अर्थात् तवर्ग व्यंजनों का उच्चारण संभव होता है। मुख-विवर के अंतिम भाग में अर्थात् बाहर की ओर स्थित दाँतों और होठों का ध्वनि-उत्पादन से पर्याप्त सहयोग होता है। कभी जीभ की नोंक दाँतों का स्पर्श कर-उच्चारण प्रक्रिया में सहयोग देती है यथा-पवर्ग व्यंजन ध्वनियाँ, तो कभी दोनों होठों के मिलने से उच्चारण प्रक्रिया संभव होती है यथा-पवर्ग व्यंजन ध्वनियाँ।

इस प्रकार ध्वनि-उत्पादन प्रक्रिया में जब चेतना को बुद्धि और मन से प्रेरणा मिलती है, तो फेफडे़ में गति आती है। और फिर नि:श्वास प्रक्रिया में स्वर-तंत्री और मुख के विभिन्न भागों के सहयोग से विभिन्न ध्वनियों का उत्पादन संभव होता है।

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