1789 की फ्रांसीसी क्रांति के कारण, घटनाएं एवं प्रभाव

1789 की फ्रांसीसी क्रांति के कारण

जे. ई. स्वाइन के अनुसार, फ्रांस में 1789 में एक महान क्रान्ति हुई जो वहां की निरंकुश शासन व्यवस्था तथा तत्कालीन दोषपूर्ण सामाजिक व्यवस्था, विशेषाधिकारों और नौकरशाही के विरूद्ध थी। इस क्रान्ति के परिणामस्वरूप कालान्तर में यूरोप की पुरातन व्यवस्था का अन्त हो गया तथा सामाजिक राजनीतिक एवं आर्थिक जीवन में महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए। वस्तुतः विश्व में एक नवयुग के निर्माण में इस क्रान्ति का महत्वपूर्ण योगदान है।

1789 की फ्रांसीसी क्रांति के कारण

1. 1789 की फ्रांसीसी क्रांति के सामाजिक कारण - फ्रांस का समाज असमान और विघटित था। यह सामन्तवादी प्रवृत्तियों और विशेषाधिकारों के सिद्धान्त पर आधारित था। यह समाज तीन श्रेणियों में बंटा था-प्रथम एस्टेट- पादरी, द्वितीय एस्टेट-सामन्त तथा तृतीय एस्टेट-जन साधारण। सामाजिक हैसियत और अधिकारों के आधार पर उच्च पादरी तथा कुलीन सामन्त वर्ग विशेषाधिकार वर्ग के अन्तर्गत तथा समस्त जनता-किसान, मजदूर, नौकरी और व्यापार करने वाले आदि अधिकारहीन वर्ग के अन्तर्गत आते थे। उच्च पादरी और कुलीन सामन्त सम्पन्न और अधिकांश भूमि के स्वामी होने के बाबजूद करमुक्त थे। उनके पद खरीदे जा सकते थे, जिस कारण उच्च पदाधिकारी और पादरी अयोग्य, भ्रष्ट और चापलूस हो गये थे। 

चर्च के पादरी समाज के प्रत्येक अंग पर प्रभावी थे। सामन्त वर्ग विलासिता का जीवन व्यतीत करता था और उसे किसानों से कई प्रकार के करों को वसूलने और बेगार कराने का विशेषाधिकार प्राप्त था। मध्यम वर्ग धन और योग्यता में सम्पन्न होने के बाबजूद सुविधाहीन था, जिस कारण उसमें अत्यधिक असंतोष था। सबसे दयनीय स्थिति किसानों और मजदूरों की थी, जो जनसंख्या में 80 प्रतिशत थे तथा जिन्हें अपनी आय का आधा भाग सामन्तीय, धार्मिक और राजकीय करों के रूप में देना होता था। समाज की यह विशमता धीरे धीरे आपसी तनाव का कारण बनी।

2. 1789 की फ्रांसीसी क्रांति के राजनैतिक कारण - फ्रांस में लुई 14वें के समय सत्ता का पूर्ण केन्द्रीकरण हो गया था। उसने पूर्ण निरंकुशता और शान-शौकत से राज्य किया। कई युद्धों और नई राजधानी वर्साय की स्थापना पर अत्यधिक व्यय करने के बावजूद उसने अपने उत्तराधिकारी को युद्ध न करने और जनहित के कार्य करने की सलाह दी। परन्तु उसका उत्तराधिकारी लुई 15वाँ कमजोर और विलासी था। उसने अपने पड़ोसियों के साथ कई असफल युद्ध लड़े तथा अपने सलाहकारों की शासन और आर्थिक स्थिति में सुधार करने की सलाह को यह कहकर टाल दिया कि मेरा समय तो निकल ही जायेगा। लुई 16वाँ गद्दी पर बैठा तो फ्रांस की स्थिति निराशाजनक थी। उसमें स्थिति को सुधारने की क्षमता नहीं थी। लुई 16वा न तो स्वयं निर्णय ले पाता था और न अपने मंत्रियों की उचित सलाह पर कार्य कर पाता था। उस पर अपनी रानी मेरी एन्टोयनेट का प्रभाव था। वह राजनीति और प्रशासन में निरन्तर हस्तक्षेप करती थी। वह आस्ट्रिया की राजकुमारी थी तथा फ्रांस की जनता उसे पसन्द नहीं करती थी। क्रांति के समय उसने राजा की कठिनाईयों को बढ़ाया।

फ्रांस की प्रतिनिधि सभा स्टेटस जनरल का अधिवेशन 1614 के बाद से नहीं हुआ था। प्रांतों पर केन्द्र का नियंत्रण कमजोर पड़ गया था। सम्पूर्ण देश अनेक प्रकार की इकाइयों मे बंटा था तथा स्थान-स्थान पर भिन्न भिन्न कानून प्रचलित थे। न्याय व्यवस्था जटिल और खर्चीली थी। एक प्रकार के वारंट ‘लेत्र द काशे’ द्वारा किसी को भी कभी भी गिरफ्तार किया जा सकता था। व्यापार की दृश्टि से भी देश कई भागो में बंटा था और जगह-जगह चुंगी की सीमाएं थीं। कर्मचारी अनियंत्रित और भ्रष्ट थे।

इस प्रकार फ्रांस में निरंकुश और अयोग्य शासकों, प्रतिनिधि सभाओं के अभाव, अक्षम प्रशासनिक व्यवस्था, भ्रष्ट न्याय और कानून व्यवस्था आदि ने राजनैतिक व्यवस्था को क्षीण कर दिया था।

3. 1789 की फ्रांसीसी क्रांति के आर्थिक कारण - फ्रांस की वित्तीय नीति दोषपूर्ण थी। राज्य का कोई बजट नहीं था। राजा की व्यक्तिगत सम्पत्ति और राजकोश में कोई अन्तर नहीं था। राजपरिवार विलासिता और युद्धों पर अत्यधिक अपव्यय करता था। आय से अधिक व्यय होने के कारण फ्रांस की अर्थव्यवस्था कर्ज आधारित हो गयी थी। फ्रांस मध्यम वर्ग के व्यापारियों का ऋणी बनता जा रहा था। फ्रांस के शासकों द्वारा कृषि और उद्योग के विकास की ओर कोई ध्यान नहीं दिया गया। कर व्यवस्था भी दोषपूर्ण थी। विशेषाधिकार वर्ग से सम्पन्न होने के बावजूद कोई कर नहीं लिया जाता था। सम्पूर्ण करों का भार किसानों, मजदूरों और सामान्य जनता को वहन करना पड़ता था। अप्रत्यक्षकर जैसे नमक कर आदि को वसूलने के लिए ठेका प्रथा प्रचलित थी। ठेकेदार करवसूली करते समय गरीब किसानों पर अत्याचार करते थे। 

1778 की मंदी और अकाल ने स्थिति को अधिक खराब कर दिया। किसानों और मजदूरों में भूखमरी की स्थिति उत्पन्न हो गयी। व्यापारियों ने भी राज्य को ऋण देने से मना कर दिया। परन्तु राजपरिवार और कुलीन वर्ग की विलासिता में कोई कमी नहीं आई। अंतत: फ्रांस को वित्तीय संकट का सामना करना पड़ा।

4. 1789 की फ्रांसीसी क्रांति के अन्य कारण - फ्रांस में दार्शनिकों और लेखकों ने फ्रांसीसी समाज में व्याप्त असमानता, भ्रष्टाचार, धार्मिक अंधविश्वास आदि की कटु आलोचना कर जनता को परिवर्तन करने को प्रेरित किया। अनेक गोश्ठियों (सैलो) और संस्थाओं (कारदीलिए आदि) में यह दार्शनिक वर्तमान व्यवस्था की बुराइयों पर विचार विमर्श करते थे। इनका प्रभाव मध्यम वर्ग पर पड़ा। इन्हें क्रांति का जन्मदाता नहीं कहा जा सकता तथापि फ्रांस में परिवर्तन हेतु वैचारिक आधार प्रदान करने का कार्य इन लेखकों ने किया।

मान्टेस्क्यू ने अपनी पुस्तक ‘द स्पिरिट ऑफ लॉज’ में शक्ति के पृथक्करण का सिद्धान्त प्रस्तुत किया। वह संवैधानिक शासान पद्धति के पक्ष में था। वाल्टेयर ने प्राचीन रूढ़ियों, कुप्रथाओं और अंधविश्वासों का विरोध किया। विशेषरूप से कैथोलिक चर्च और पादरियों के विलासमय जीवन को जनता के समक्ष रखा। रूसो ने ‘सोशल कांट्रैक्ट’ नामक पुस्तक में स्पष्ट किया कि शासक को जनता के प्रति उत्तरदायी होना चाहिए। 

इनके अतिरिक्त दिदरो, क्वेस्ने, हॉलबैक, हैल्वेशियस आदि ने अपनी लेखनी से असमानता, शोषण, धार्मिक असहिष्णुता, भ्रष्ट और निरंकुश राजतंत्र, प्रशासनिक दोष आदि के प्रति जनता को जाग्रत किया।

फ्रांस की क्रांति समकालीन विश्व से भी प्रभावित हुयी थी। अमेरिका की स्वतंत्रता तथा इंग्लैण्ड की गौरवशाली क्रांति के पश्चात वहां लागू संवैधानिक शासन व्यवस्था ने फ्रांस के शिक्षित मध्यम वर्ग को व्यवस्था परिवर्तन हेतु प्रेरित किया।

5. 1789 की फ्रांसीसी क्रांति के तात्कालिक कारण - आपको बताया गया है कि फ्रांस में वित्तीय संकट उत्पन्न हो गया था। लुई 16वें ने अपने अर्थमंत्रियों क्रमश: तुर्गो, नेकर, कालोन, और ब्रीएन की सलाह से इस संकट को दूर करने हेतु कई प्रयास किए। रानी और दरबारी सामन्तों के शड़यन्त्रों और सहयोग न करने के कारण सभी प्रयास असफल रहे। अंतत: लुई 16वें ने अध्यादेशों के द्वारा सामन्त वर्ग पर कर लगाना चाहा, पेरिस की पार्लमां ने कर लगाने सम्बन्धी कानूनों को पंजीकृत करने से इंकार कर दिया। उसने स्पष्ट किया कि राजा को नया कर लगाने का अधिकार नहीं है, केवल राज्य को ही ‘स्टेटस जनरल’ के माध्यम से कर लगाने का अधिकार है। 

इस प्रकार विशेषाधिकार सम्पन्न सांमत वर्ग ने राजा का विरोध करके फ्रांस को क्रांति की ओर धकेल दिया।

1789 की फ्रांसीसी क्रांति की घटनाएं

स्टेटस जनरल की बैठक बुलाने की पार्लमां की मांग का जनता द्वारा भारी समर्थन किया गया। राजा ने पार्लमां को भंग करना चाहा, तो कई शहरों में प्रत्यक्ष विरोध प्रदर्शन हुआ। अंतत: विवश होकर राजा को स्टेटस जनरल की बैठक बुलानी पड़ी।

1. स्टेटस जनरल का अधिवेशन - 1614 में स्टेटस जनरल का अधिवेशन अन्तिम बार हुआ था। 1789 में जब स्टेटस जनरल के चुनाव के लिए पादरी ,सामंत और तृतीय वर्ग के अलग-अलग प्रतिनिधि चुनने की पुरानी पद्धति अपनायी गयी तो इस व्यवस्था के विरूद्ध तृतीय वर्ग ने विरोध किया। फलत: तृतीय वर्ग के सदस्यों की संख्या बढ़ा दी गयी। 25 वर्ष से अधिक आयु का जो व्यक्ति राज्य को कर देता था या किसी विशेष कार्य में दक्ष था, मत दे सकता था।

5 मई को स्टेटस जनरल का अधिवेशन वर्साय में हुआ, परन्तु मतदान प्रणाली को लेकर मतभेद उत्पन्न हो गया। पुरानी पद्धति में तीनों वर्गों के प्रतिनिधि अलग-अलग सदनों में अपने सदन का एक मत देते थे, जिससे दो सदनों का एक मत होने पर वही स्वीकृत हो जाता था। तृतीय वर्ग ने इसे मानने से इंकार कर दिया। लगभग डेढ़ माह तक गतिरोध चलता रहा। तृतीय वर्ग ने अन्य वर्गों को अपने साथ बैठने के लिए आमंत्रित किया। विरोध के बावजूद प्रथम वर्ग से कुछ छोटे पादरियों ने तृतीय सदन के साथ बैठना स्वीकार किया। 

अंतत: 16 जून,1789 को स्टेटस जनरल ने अपने को राष्ट्रीय सभा घोषित कर दिया। 20 जून, 1789 को जब तृतीय वर्ग के प्रतिनिधि सभा भवन पहुँचे तो राजा ने सभा भवन बंद करा दिया। 

तृतीय वर्ग ने समीप स्थित टेनिस कोर्ट में एकत्र होकर शपथ ली कि राष्ट्रीय सभा देश के लिए नया संविधान बनाने तक भंग नहीं की जायेगी। 23 जून, 1789 को राजा ने तीनों वर्गों के प्रतिनिधियों को सम्बोधित किया तथा पृथक-पृथक सदन में बैठकर निर्णय करने को कहा तो राष्ट्रीय सभा ने इसे मानने से इंकार कर दिया। यह जनता की पहली जीत थी।

2. बास्तील का पतन और जनता का विद्रोह - पेरिस के लोग वर्साय में स्टेटस जनरल का अधिवेशन करने से नाराज थे। धीरे-धीरे बेरोजगार और गरीब सांज क्यूलोत ने कारखाना मालिकों और व्यापारियों पर हमला कर दिया और दंगे बढते गये इसी समय राजा ने लोकप्रिय मंत्री नेकर को बर्खास्त कर दिया, जिसका पेरिस की जनता ने विरोध किया।

13 जुलाई को अफवाह फैली की विरोध का दमन करने सैनिकों को भेजा जा रहा है। इससे उत्तेजित हो लोगों ने शस्त्र संग्रह करने का निर्णय लिया। 14 जुलाई को पेरिस के समीप स्थित बास्तील के दुर्ग पर वहाँ के हथियारों पर कब्जा करने के उद्देश्य से जनता ने आक्रमण कर दिया। बास्तील का किला पूरी तरह नष्ट कर दिया गया। इस घटना के क्रान्तिकारी परिणाम हुए। फ्रांस की जनता को सीधी कार्यवाही करने की प्रेरणा मिली और इससे प्रभावित हो सम्पूर्ण फ्रांस में सामंतीय प्रतीकों और दस्तावेजों को लूटा और जलाया गया। पेरिस कम्यून ने लाफायत के नेतृत्व में ‘नेशनल गार्ड’ की स्थापना कर ली। 

इससे सैनिक शक्ति मध्यम वर्ग के हाथ में आ गयी। बास्तील का पतन फ्रांस के इतिहास का निर्णायक मोड़ साबित हुआ। इस कारण 14 जुलाई फ्रांस में राष्ट्रीय दिवस के रूप में मनाया जाने लगा।

3. राष्ट्रीय संवैधानिक सभा - तृतीय स्टेट ने अपने को राष्ट्रीय सभा घोषित करने के बाद नवीन संविधान का निर्माण करने का निश्चय किया था। उस समय सम्पूर्ण देश में क्रांति अपने चरम पर थी। अत: देश में शान्ति और सुव्यवस्था स्थापित करने के लिए राष्ट्रीय सभा ने अगस्त, 1789 से सितम्बर, 1791 तक शासन में सुधार और कई महत्वपूर्ण कार्य किए।

(i) प्रमुख घोषणाएं एवं कार्य- राष्ट्रीय सभा में कुछ सामंतीय प्रतिनिधियों ने 4 अगस्त को अपने विशेषाधिकारों को छोड़ने की घोषणा कर दी, तब राष्ट्रीय सभा ने प्रस्ताव पारित करके सभी नागरिकों पर एक सामान कर व्यवस्था लागू की और विशेषाधिकारों को समाप्त कर दिया। सदियों पुरानी व्यवस्था, जो क्रांति का प्रमुख कारण थी, का अन्त हो गया। इस घटना के बाद कुछ असन्तुष्ट सामन्त और राजा के सम्बन्धी विदेश भाग गये और क्रांति के विरूद्ध शडयन्त्र रचने लगे। राष्ट्रीय सभा ने रूसो के ‘सोशल कांट्रैक्ट’ से प्रेरित होकर 27 अगस्त, 1789 को मानव अधिकारों की घोषणा की। 

इस घोषणानुसार समस्त जनता को समानता, सुरक्षा, स्वतंत्रता, सम्पत्ति रखने, योग्यता के आधार पर पद प्राप्त करने तथा समान न्याय और समान कानून का अधिकार दिया गया। 

इस घोषणा ने क्रांति को व्यापकता प्रदान की और समस्त विश्व को प्रभावित किया। राजा के द्वारा घोषणा पत्र पर हस्ताक्षर करने में देरी की गयी। जनता को भय था कि लुई 16वाँ क्रांति विरोधियों के साथ मिलकर क्रांति का दमन करने के लिए सेना भेज सकता है। वर्साय में क्रांति विरोधियों द्वारा शानदार दावत का आयोजन भी किया गया था। अत: 5 अक्टूबर, 1789 को पेरिस की कई हजार स्त्रियों ने वर्साय की ओर प्रस्थान करके राजा तथा उसके परिवार को पेरिस में चलकर रहने पर विवश किया।

जुलाई,1790 में पादरियों का कानून पारित किया गया, जिसके अनुसार पादरियों और विशपों का निर्वाचन अब जनता द्वारा किया जायेगा तथा प्रत्येक प्रान्त में एक विशप नियुक्त होगा, जो पोप के अधीन न होकर राज्य का वैतनिक कर्मचारी होगा। इस लौकिक संविधान की शपथ फ्रांस के सभी पादरियों को लेनी थी। इससे पोप और कैथोलिक जनता नाराज हो गयी और पादरियों ने इसे मानने से इंकार कर दिया। 6 फरवरी, 1791 को एक अन्य घोषणा द्वारा सन्यासियों के मठों का अन्त करके उन्हें सांसारिक जीवन व्यतीत करने को कहा गया। 

राष्ट्रीय सभा ने आर्थिक स्थिति सुधारने हेतु निर्धनों के लिए ‘चैरिटी वर्कशाप’ स्थापित किए। किसानों से भूमिकर के अतिरिक्त कोई भी कर लेना बन्द कर दिया। अनाज के व्यापार को कर मुक्त किया और देश छोड़कर गये कुलीन लोगों की सम्पत्ति को राष्ट्रीय सम्पत्ति घोषित किया।

(ii) नवीन संविधान का निर्माण- राष्ट्रीय सभा ने 1791 का संविधान, जो फ्रांस के इतिहास में पहला लिखित संविधान था, बनाया। इसके द्वारा फ्रांस में संवैधानिक राजतंत्र की स्थापना की गयी। इसमें जनता की इच्छा और अनुमति को सरकार की सभी शक्तियों का स्रोत माना गया। कार्यपालिका, व्यवस्थापिका और न्यायपालिका को पूर्णत: अलग-अलग कर दिया गया। एक सदन वाली प्रतिनिधि सभा को कानून बनाने का अधिकार दिया गया। राजा तथा उसके मंत्री व्यवस्थापिका द्वारा पारित कानून के आधार पर ही शासन कर सकते थे। न्याय सस्ता और सुलभ बनाया गया और जूरी व्यवस्था लागू की गयी। प्रशासन का विक्रेंदीकरण कर दिया गया। सबसे छोटी इकाई कम्यून थी। राजा के व्यक्तिगत व्यय हेतु एक निश्चत राशि भी निर्धारित कर दी गयी। 

21 सितम्बर, 1791 को राजा ने नए संविधान को स्वीकार करके उसके अनुसार र्का करने का वचन दिया। 30 सितम्बर, 1791 में राष्ट्रीय सभा विसर्जित कर दी गयी।

4. व्यवस्थापिका सभा - 1791 के संविधान अनुसार फ्रांस में संवैधानिक राजतंत्र की स्थापना हेतु व्यवस्थापिका सभा का निर्वाचन किया गया। नई विधान सभा, जिसमें 745 सदस्य थे, का प्रथम अधिवेशन 1 अक्टूबर, 1791 में हुआ। इस सभा में कई दलों के प्रतिनिधि विजित हुए- राजतंत्रवादी, संविधानवादी, सेण्टर पार्टी और गणतंत्रवादी। गण्तंत्रवादियों में भी दो गुट थे- जिंरोदिस्त और जैकोबिन। इस सभा को कई कठिनाइयों का सामना करना पड़ा।
  1. फ्रांस में राजतंत्र के समर्थक बहुत से सामन्त और राजा के भाई विदेश भाग गये थे, जहां वह यूरोप के अन्य राजतंत्रों के साथ मिलकर क्रांति विरोधी शड़यन्त्र रच रहे थे। व्यवस्थापिका सभा ने विदेश गए सामन्तों को दो माह के अन्दर लौट आने अन्यथा देशद्रोही घोशित करने का आदेश दिया। राजा ने इस आदेश पर हस्ताक्षर करने से इंकार कर दिया।
  2. लौकिक संविधान की शपथ न लेने वाले पादरियों को सभा ने यह आदेश दिया कि यदि वह शपथ नहीं लेंगे तो उनको पद से हटा दिया जायेगा और उनकी सम्पत्ति जब्त कर ली जायेगी। राजा ने इस आदेश को भी अस्वीकार कर दिया।
  3. फ्रांस के राजा के समर्थन में 27 अगस्त, 1791 को आस्ट्रिया और प्रशा के शासकों ने पिलनित्स की घोषणा की जिसमें कहा कि फ्रांस की समस्या सभी राज्यों की समस्या है और हम इसको समाप्त करने के लिए फ्रांस में सशस्त्र हस्तक्षेप करेंगे।
अंतत: राजतंत्र को समाप्त करने के उद्देश्य से व्यवस्थापिका सभा में गणतंत्रवादी दल ने युद्ध को आवश्यक मानकर युद्ध करने का प्रस्ताव रखा, जो बहुमत से पास हुआ। 20 अप्रैल, 1792 को आस्ट्रिया के विरूद्ध युद्ध की घोषणा कर दी गयी। प्रशा के सेनापति ने घोषणा की कि फ्रांस की जनता ने लुई 16वे तथा उसके परिवार को कोई क्षति पहुंचाई तो पेरिस को नष्ट कर दिया जायेगा। फ्रांस की जनता इससे उत्तेजित हो गयी और लुई 16वें को देशद्रोही मानकर उसके महल तुइलरी पर धावा बोल दिया। 

व्यवस्थापिका सभा ने 11 अगस्त, 1792 को राजा लुई 16वें को निलम्बित कर दिया तथा गणतंत्र की स्थापना करने के लिए नवीन संविधान का गठन करने हेतु राष्ट्रीय सम्मेलन का चुनाव करने का निश्चय किया। तत्पश्चात पेरिस कम्यून को अन्तरिम सरकार चलाने का कार्यभार सौंप कर व्यवस्थापिका सभा ने स्वयं को भंग कर दिया।

पेरिस कम्यून की अन्तरिम सरकार ने लुई 16वें को बन्दी बना लिया और 2 सितम्बर से 6 सितम्बर, 1792 में हजारों की संख्या में राजतंत्र के समर्थकों और क्रांति विरोधियों को मौत के घाट उतार दिया। 20 सितम्बर, 1792 को फ्रांस ने आस्ट्रिया और प्रशा की सेनाओं को वाल्मी के युद्ध में पराजित किया। 

इसी दिन राष्ट्रीय सम्मेलन का चुनाव हुआ और फ्रांस में गणतंत्र की स्थापना हुयी।

5. राष्ट्रीय सम्मेलन (नेशनल कन्वेंशन) - राष्ट्रीय सम्मेलन फ्रांस की तीसरी क्रांतिकारी सभा थी, जिसने 21 सितम्बर, 1792 से 20 अक्टूबर, 1795 तक शासन किया। इसमें कुल 782 सदस्यों में 200 जिरोंदिस्त, 100 जैकोबिन तथा 482 स्वतंत्र सदस्य थे।

राष्ट्रीय सम्मेलन ने गणतंत्र की घोषणा करके देश के लिए नया कैलेण्डर बनाया। राजा लुई 16वें को देशद्रोही घोषित किया तथा 21 जनवरी, 1793 को उसे गिलोटिन पर चढ़ाकर मृत्युदण्ड दिया। विदेशी आक्रमणों का सामना करने के लिए तीन लाख सैनिकों की एक विशाल सेना का गठन किया। 6 अप्रैल, 1793 को लोक सुरक्षा समिति गठित की, जिसे कार्यपालिका और व्यवस्थापिका के असीमित अधिकार दिए गए। इसके प्रमुख सदस्य उग्र जैकोबिन दल के राब्सपियरे और कार्नो थे। एक अन्य समिति ‘सामान्य रक्षा समिति’ की भी स्थापना की, जिसका कार्य देश में शान्ति और व्यवस्था बनाये रखना था। इसे भी असीमित अधिकार दिए गए। 

क्रांति विरोधियों को दंडित करने के लिए क्रान्तिकारी न्यायालय की भी स्थापना की। इसके द्वारा आतंक का शासन स्थापित किया गया। इस दौरान राज परिवार के सदस्यों, हजारों की संख्या में क्रांति विरोधियों तथा प्रमुख जिरोंदिस्त सदस्यों को गिलोटिन पर चढ़ाया गया। 

28 जुलाई, 1794 को राब्सपियरे की मृत्यु के साथ आतंक के शासन का अन्त हुआ।

राष्ट्रीय सम्मेलन ने फ्रांस में दासता प्रथा तथा वर्ग भेद समाप्त करके सामाजिक और आर्थिक समानता स्थापित करने का प्रयास किया। फ्रेंच को राष्ट्रभाषा घोषित किया तथा स्कूलों और पुस्तकालयों की स्थापना की। बुद्धि पूजा को महत्व दिया गया। विवाह और तालाक के नियम सरल बनाये गए। वित्तीय समस्या के समाधान हेतु वित्त विशेषज्ञ परिषद का गठन किया। राजा को प्राणदण्ड देने के कारण कई यूरोपीय देश फ्रांस के विरोधी हो गये। 

आस्ट्रिया, प्रशा के साथ इंग्लैण्ड, स्पेन, हालैण्ड, सार्डिनिया ने मिलकर फ्रांस के विरूद्ध संगठन बनाया और फ्रांस पर आक्रमण कर दिया। प्रारम्भ में फ्रांस को पराजित करने के बाबजूद यह प्रथम संगठन फ्रांस का अहित करने में असफल रहा।

राष्ट्रीय सम्मेलन की स्थापना का उद्देश्य संविधान का निर्माण करना था। अत: उसने 1795 में संविधान तैयार किया, जिसे तृतीय वर्ष का संविधान कहा जाता है। तत्पश्चात 26 अक्टूबर, 1795 को राष्ट्रीय सम्मेलन को भंग कर दिया गया।

6. निदेशक मण्डल (डायरेक्टरी) - राष्ट्रीय सम्मेलन द्वारा निर्मित तृतीय वर्ष के संविधान में दो सदन वाली विधान सभा और पाँच सदस्यों के निदेशक मण्डल वाली कार्यपालिका का प्रावधान रखा गया था। उसके अनुसार पाँच सदस्यों -बर्रास, कार्नो, एबेसिया, रूबेल और ला रिबेलियरे का चयन करके निदेशक मण्डल का गठन किया गया। इस डायरेक्टरी ने 27 अक्टूबर,1795 से 19 अक्टूबर, 1799 तक शासन किया। डायरेक्टरी का चार वर्ष का कार्यकाल अनिश्चितता और संकटपूर्ण रहा। इसके सदस्य अयोग्य और भ्रष्ट तथा अपने स्वार्थों में निहित थे। फलत: शासन व्यवस्था कमजोर पड़ने लगी और डायरेक्टरी के विरूद्ध शड़यन्त्र रचे जाने लगे। डायरेक्टरी का कार्यकाल यूरोपीय देशों के साथ लड़े गये युद्धों और उनमें तेजी से उभरते सेनापति नेपोलियन की 

प्रारम्भिक सैनिक सफलताओं के कारण याद किया जाता है। नेपोलियन इन युद्धों के कारण इतना लोकप्रिय हो गया कि उसके द्वारा डायरेक्टरी के शासन का अन्त करने पर जनता ने कोई विरोध नहीं किया।

फ्रांस की क्रान्ति में तत्कालीन प्रमुख दार्शनिक/प्रमुख नेता

जैसे - माॅन्टेस्क्यू, वाॅल्टेयर, रूसो और दिदरो का सर्वाधिक महत्व है। दार्शनिकों के साथ-साथ क्रान्ति के प्रमुख नेता जैसे-मिराबो, लाफायेत, दांतो, राॅब्सपियर, मारा, ब्रीसो एवं कार्नो का योगदान भी इतिहास में अस्मरणीय रहेगा।

फ्रांसीसी क्रांति का प्रभाव

एक ओर कुछ विद्वानों ने फ्रांस को विनाशकारी, अप्रगतिशील तथा अराजकतावादी आंदोलन कहा है, तो दूसरी ओर विद्वानों ने इसे विश्व की महातम घटना कहा है। यह विश्व क्रांति थी, जिसने समूची मानव जाति के इतिहास पर गहरी छाप छोड़ी। यह क्रांति फ्रांस के लिए ही नहीं अपितु विश्व के लिए वरदान प्रमाणित हुई और आगे आने वाली पीढियों के लिए निरंतर प्रेरणा का स्त्रोत बन गई। अतः इसके प्रभाव हैं।

यद्यपि क्रांति के प्रारंभ से प्रथम दशक में फ्रांस में भीषण अस्त-व्यस्तता, अस्थिरता, भारी उथल-पुथल और अमानुषिक रक्तपात हुआ, पर फिर भी उसका तात्कालिक और स्थायी प्रभाव फ्रांस पर पड़ा। इस प्रभाव का विश्लेषण अधोलिखित है।

1. फ्रांसीसी क्रांति का राजनीतिक प्रभाव 

1. निरंकुश शासन का अंत और गणतंत्र की स्थापना इस क्रांति से फ्रांसमें पुराना निरंकुशता और तानाशाही का युग समाप्त हो गया। दैवी अधिकारों के सिद्धांत पर आधारित राजतंत्र समाप्त हो गया और उसके स्थान पर संवैधानिक राजतंत्र और बाद में गणतंत्र स्थापित हो गया।

2. क्रांति के बाद फ्रांस के लिए लिखित संविधान बनाया गया जिसमें व्यवस्थापिका, कार्यपालिका, और न्यायपालिका के अधिकार और कर्तव्य स्पष्ट किये गये और नागरिकों को मत देनो का अधिकार प्राप्त हुआ। यह संविधान फ्रांस का ही नहीं, अपितु यूरोप का भी प्रथम लिखित संविधान था।

3. क्रांति ने राज्य के संबंध में एक नवीन धारणा को जन्म दिया और राजनीति में नवीन सिद्धांत प्रतिपादित किये। लोकप्रियता जनता में निहित होती है। इस क्रांति ने यह प्रमाणित कर दिया कि प्रजा ही वास्तव में राजनीतिक अधिकारों की स्वामी है और सार्वभैाम या सार्वजनिक सत्ता उसके पास ही है।

4. क्रांति के दौरान मानव अधिकारों की, मनुष्य के मौलिक अधिकारों की घोषणा की गई। उसमें मनुष्य के बहुमुखी विकास के लिए आवश्यक मूलभूत अधिकारों को स्पष्ट शब्दो में अभिव्यक्त किया गया । कानून की दृष्टि में सभी नागरिकों को समानता प्रदान की गई। इससे जन सामान्य की आशा-आकांक्षा का विस्तार हुआ और फ्रांस में एक लोकतंत्रीय समाज का निर्माण हुआ।

5. क्रांति से पूर्व प्रशासन भ्रष्ट, शिथिल था, उसमें पद बेचे जाते थे। प्रान्तों के गठन और वहां के कानूनों में असमानता थी। भिन्न-भिन्न प्राकर के कानून, राीति रिवाज और नाप-तौल के विविध पैमाने थे। क्रांति के दौरान प्रशासन का पुर्नगठन किया गया। सारे फ्रांस को समान 83 भागों में विभक्त किया गया और उनको कैन्टनों और कम्यूनों में विभाजित किया। उनमें प्रशासन के लिये नागरिकों द्वारा निर्वाचित सभाएं स्थापित की गई। पदों पर सुयोगय और सक्षम अधिकारी नियुक्त किय गए। पक्षपातपूर्ण कर व्यवस्था तथा अव्यवस्थित फिजूल खर्चियों के स्थान पर समान कर-व्यवस्था और नियमित बजट प्रणाली स्थापित की गई । 

न्याय-व्यवस्था में भी परिवर्तन किया गया। न्यायालयों को कार्यकारिणी और व्यवस्थापिका के प्रभाव और नियंत्रण से मुक्त कर दिया गया। फौजदारी मुकदमों के लिये ‘ज्यूरी प्रथा‘ प्रारंभ की गई। वंशानुगत और भ्रष्ट न्यायाधीशों के स्थान पर नव निर्वाचित न्यायाधीशों की व्यवस्था की गई।

6. कानूनों की विविधता समाप्त कर दी गई। ंनेपोलियन ने विभिन्न कानूनों को एक करके दीवानी, फौजदारी तथा अन्य कानूनों का व्यवस्थित संग्रह करवाया जिससे फ्रांस में एक सी कानून व्यवस्था स्थापित की गई। इस कानून-संग्रह को ‘‘कोड आॅफ नेपोलियन‘‘ कहते हैं। बाद में आस्ट्रिया, इटली, जर्मनी, बेल्जियम, हाॅलेण्ड और अमेरिका आदि देशों में कोड आॅफ नेपोलियन में आवश्यकतानुसार अंाशिक परिवर्तन करके उसे लागू कर दिया गया।

2. फ्रांसीसी क्रांति का धार्मिक एवं सामाजिक प्रभाव

1. क्रांति के उपरान्त फ्रांस के केथोलिक चर्च का पुनर्गठन किया गया। चर्च की सत्ता और सम्पत्ति भूमि सरकार के अधिकार में कर दी गई और पादरियों के लिये नवीन संविधान लागू किया गया और उनको सरकारी कर्मचारियों के समान वेतन दिया जाने लाग। इसी नवीन संविधान के अंन्तर्गत पोप से संबंध विच्छेद कर दिया गया और अब पोप की सर्वोपरिता समाप्त हो गई।

2. पुरातन सामन्तवादी व्यवस्था का अंत इस क्रांति का महत्वपूर्ण प्रभाव था। कुलीन सामन्तों की व्यवस्था, उनकी कर प्रणाली, उनके विशेष अधिकार समाप्त कर दिये गये। उनके द्वारा लगाये गये कर भी समाप्त कर दिये गये। सामन्त प्रणाली और दास व्यवस्था का अंत कर दिया गया। अंध विश्वासों व रूढियों पर आधारित पुरातन संस्थाएं नष्ट कर दी गई। सामाजिक समानता और सुव्यवस्था स्थापित की गई। सभी देशवासियों को समान नागरिक अधिकार प्रदान कियें गये। उन्हें बिना किसी भेदभाव के समानता व स्वतंत्रता दी गई।

3. क्रांति से पूर्व कृषकों की दशा दयनीय थी। सामन्त और पादरी विभिन्न करों द्वारा उनका शोषण करते थे। इससे कृषक निर्धन हो गये थे। क्रांति उनके लिये वरदान सिद्ध हुई। कृषकों को निर्दयी सामन्तों और जागीरदारों के अत्याचारों, करों, शोषण और दासता से छुटकारा मिला। उन्होनें सामन्तो से प्राप्त भूमि पर बड़े परिश्रम और लगन से कृषि की और उपज में वृद्धि की।

4. क्रांति के दौरान शिक्षा को केथोलिक चर्च के आधिपत्य और प्रबन्ध से हटाकर उसे गणतंत्रीय सरकार के अधीन कर दिया। इस प्रकार शिक्षा का राष्ट्रीयकरण किया। आधुनिक फ्रांस की राष्ट्रीय शिक्षा पद्धति की नींव क्रांति ने ही रखी। ज्ञान वृद्धि के लिए अनेक विद्यालय, महाविद्यालय, तकनीकी संस्थान, प्रशिक्षण संस्थाएं और पेरिस का विश्वविद्यालय स्थापित किये गये। लिखने, भाषण देने और उदारवादी प्रगतिशील विचारों का प्रारंभ हुआ।

5. जब विदेशी सेनाओं ने राजतंत्र की सुरक्षा के लिए फ्रांस पर आक्रमण किए तब विभिन्न वर्गो के लोगों ने सेना में भरती होकर अत्यंत वीरता और साहस से विदेशी सेनाओं का सामना किया और विजय प्राप्त की। इस प्रकार देश की सुरक्षा के लिए फ्रांसीसीयों में राष्ट्रीयता की भावना उत्पन्न हुई। इस राष्ट्रीय भावना और विजयों से फ्रांस के सैनिक गौरव में अधिक वृद्धि हुई। समस्त यूरोप में सम्मिलित सैन्य शक्ति का सामना जिस सफलता व दृढता से फ्रांस कर सका, उसका मूल आधार उसकी राष्ट्रीयता और एकता की भावना थी।

3. फ्रांसीसी क्रांति का आर्थिक प्रभाव

आर्थिक संकटों का निराकरण करने के लिये ही फ्रांस में क्रांति का प्रारंभ हुआ था। आर्थिक दुव्र्यवस्था सुधारने के लिये व चर्च की भूमि का राष्ट्रीयकरण कर दिया गया, सामन्तों की भूमि को कृषकों में विभक्त किया गया। मध्यम वर्ग के लोगों ने भी सम्पत्ति और भूमि क्रय कर ली। सामन्त प्रथा के अवसान के बाद करों का भार सभी वर्गो के लिये समान कर दिया गया। सभी को कर देना आवश्यक हो गया। अनुचित अन्यायपूर्ण करों का अंत कर दिया गयां शाही व्ययशीलता को समाप्त कर दिया गया। प्रशासन व्यवस्था में बजट प्रणाली और बचत के कारण आर्थिक स्थिरता आ गई

व्यापार पर लगे प्रतिबंध समाप्त कर दिये गये, नाप तोैल में दशमलव प़द्धति प्रारंभ की गई, श्रमिकों व कारीगरों के लिये दोषपूर्ण गिल्ड व्यवस्था समाप्त कर दी गई । पंूजी और साख के लिये बैंक आॅफ फ्रांस की स्थापना की गई। नेपोलियन के शासनकाल में सड़कों, पुलों और बंदरगाहों का निर्माण किया गया। इससे व्यापार और उद्योगों की बहुत प्रगति हुई।

4. फ्रांसीसी क्रांति का यूरोप पर प्रभाव

1. फ्रांस की क्रांति ने यूरोप को ही नहीं अपितु मानव समाज को भी स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व के शाश्वत तत्व प्रदान किये। ये सदैव जनता को स्फूर्ति देने वाले रहे। क्रांति से समाज में आर्थिक और सामाजिक समानता की भावना फेैली, धार्मिक स्वतंत्रता और सहनशाीलता का प्रचार बढ़ा, नागरिक स्वतंत्रता प्रदान की गई। व्यक्तिगत अधिकारों को मान्यता मिली। फ्रांस के क्रांतिकारी अन्य देशों की पीडि़त जनता को अपना बंधु समझते थे। स्वतंत्रता, समानता, बंधुत्व के सिद्धांत और लोकतंत्र के विचार यूरोप के अन्य देशों में शीघ्र ही फैल गये और इन विचारों के लिये संसार में तब से संघर्ष चला आ रहा है।

2. मनुष्य की व्यक्तिगत स्वतंत्रता का सिद्धांत सदा के लिए फ्रांस और बाद में यूरोप के सभी देशों में स्वीकार कर लिया गया। इससे जनता को अत्याचारी शासन का अंत करने की स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करने की प्रेरणा प्राप्त हुई। फ्रांस की क्रांति ने लोकतंत्र, समानता, स्वतंत्रता और राष्ट्रीयता की प्रेरणा दी। इन्हीं सिद्धांतों को व्यावहारिक रूप देने के लिये यूरोप में सन् 1830 एवं 1848 ई. में क्रांतियां हुईं।

3. संभवतः रूस में सन 1917 की क्रांति और कार्लमाक्र्स के साम्यवादी समाज संगठन के सिद्धांत का प्रचार फ्रांस की क्रांति के आदर्शो पर ही हुआ। इन क्रांतियों से यूरोप में निरंकुश स्वेच्छाचारी राजाओं, तानाशाहों और उनके अत्याचारी शासन का अंत हुआ और जनता की विजय हुई। फ्रांस की क्रांति के सिद्धांतों पर यूनान का स्वतंत्रता का युद्ध, इटली और जर्मनी का एकीकरण हो सका।

4. फ्रांस की क्रांति, एक अंतर्राष्ट्रीय महत्व का तीव्र आंदोलन था; जिसके विस्तृत प्रसार से फ्रांस का इतिहास परिवर्तित हो गया। फ्रांस का राष्ट्रनायक नेपोलियन यूरोप की निर्णायक सत्ता बन गया। नेपोलियन का इतिहास यूरोप का इतिहास बन गया।

5. क्रांति के बाद फ्रांस के विरूद्ध हुए युद्धों ने और फ्रांस को परास्त कर देने की भावना ने यूरोप के देशों को परस्पर एक दूसरे के समीप ला दिया। नेपेालियन को वाटरलू में परास्त करने के पश्चात यूरोप की राजशक्तियों ने यूरोप में शांति व्यवस्था और सुरक्षा व्यवस्था बनाये रखने के लिए पवित्र संघ, और यूरोपीय संयुक्त व्यवस्था की स्थापना की। इन अंतर्राष्ट्रीय संघों ने यूरोप में विभिन्न स्थानों में सम्मेलन किये। यद्यपि यूरोप की राजनीतिक समस्याओं का निराकरण ये अंतर्राष्ट्रीय संघ नहीं कर सका किन्तु इनसे यूरोप में अंतर्राष्ट्रीय भावना और कार्यप्रणाली को प्रोत्साहन प्राप्त हुआ। 20 वीं सदी की राष्ट्रसंघ और संयुक्त राष्ट्रसंघ जैसी अंतर्राष्ट्रीय संस्थाएॅं इसी अंतर्राष्ट्रीयवाद का परिणाम है।

5. फ्रांस की क्रांति के सिद्धांतों और आदर्शों से प्रेरित होकर 19 वी सदी में यूरोप के देशों के अनेकविद्वानों, कवियों, लेखकों और साहित्यकारों ने स्वतंत्रता, समानता, मानव अधिकार, लोकतंत्र, समाजवाद और जनकल्याण आदि को अपनी कृतियों के प्रमुख विषय बनाये। उदाहरण के लिये कवि वर्ड्सवर्थ की ‘प्रील्युड‘, साउथगेट की जाॅन आॅफ आर्क, विक्टर ह्यूगो की ‘ला मिजरेबल‘ कवि शैले की ‘मिस्टेक आॅफ अनार्की‘ गोटे का ‘फास्ट‘ आदि रचनाओं पर क्रांति के सिद्धांतों और विचारों की स्पष्ट छाप झलकती है।

फ्रांस में 1789 में इस महान क्रान्ति के परिणामस्वरूप ही विश्व के अनेक देशों में राष्ट्रीयता की भावना का संचार हुआ एवं स्वतंत्रता आन्दोलनों को बल मिला। यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी कि भारत के स्वतंत्रता संग्राम एवं पुनर्जागरण में अप्रत्यक्ष रूप से फ्रांस की क्रान्ति का योगदान था।

सन्दर्भ -
  1. देवेन्द्र सिंह: यूरोप का इहिास, भोपाल
  2. बी. एन.: यूरोप का इतिहास, आगरा
  3. दीनानाथ: यूरोप का इतिहास, पटना
  4. ए. के.: यूरोप का इतिहास, आगरा
  5. आधुनिक पाश्चात्य इतिहास की प्रमुख धारायें, भोपाल
  6. संजीव: आधुनिक विश्व का इतिहास, भोपाल

Bandey

I am full time blogger and social worker from Chitrakoot India.

Post a Comment

Previous Post Next Post