जैन धर्म के सिद्धांत और जैन धर्म की उत्पत्ति कब और कैसे हुई

भारतीय दार्शनिक चिंतन के मुख्य श्रोत वेद हैं। कुछ दर्शन वेद बाह्य भी हैं। उनमें आजीवक, चार्वाक, जैन एवं बौद्ध दर्शन मुख्य हैं। प्रारंभ में जैन मत धर्म के रूप में विकसित हुआ था, परंतु आगे चलकर विद्वानों ने उसके दर्शन को विकसित किया। जैन धर्म के प्रवर्तक एवं आद्य तीर्थंकर मनुवंश महिपति नाभि के पुत्र श्री ऋषभदेव (जन्म 850, ई.पू.) थे।

जैन जनश्रुति के अनुसार ऋषभदेव के पुतरा राजा भरत के नाम पर ही हमारे देश का नाम भारतवर्ष पड़ा है। कुछ विद्वान जैन धर्म के तीर्थंकर पाश्र्वनाथ (जन्म 817 ई. पू.) को इस धर्म का मूल प्रवर्तक मानते हैं। पाश्र्वनाथ काशीनरेश अवश्सेन के पुत्र थे। उन्होंने 30 वर्ष की आयु में गृह त्याग कर घोर तपस्या की थी और उसके परिणामस्वरूप कैवल्य ज्ञान प्राप्त किया था। इन्होंने ही सर्वप्रथम जैन धर्म का प्रचार कार्य किया था। इस धर्म के 24वें और अंतिम तीर्थंकर वैशाली गणराज्य के कुडलपुर के प्रधान राज्याध्यक्ष सिद्धार्थ के पुत्र वर्धमान (महावीर स्वामी, 599-527 ई. पू.) थे। वर्धमान को बचपन में सारे सुख-वैभव के साधन प्राप्त थे, परंतु उनकी उनमें कोई रुचि नहीं थी, वे परोपकार में रुचि लेते थे। उन्होंने राज्य के स्थान पर जन सेवा को स्वीकार किया। 

वर्धमान (महावीर स्वामी) ने सांसारिक रागद्वेष रूपी शत्रुओं पर पूर्ण विजय प्राप्त कर ली थी, इसलिए उन्हें जिन अर्थात् शत्रुओं पर विजय प्राप्त करने वाले की उपाधि से अलंकृत किया गया और उसके बाद उनके मत को मानने वालों को जैन कहा जाने लगा।

महावीर स्वामी ने 23 वें तीर्थंकर पाश्र्वनाथ के चार महाव्रतों (सत्य, अहिसा, अस्तेय और अपरिग्रह) में एक महाव्रत ब्रह्मचर्य जोड़कर मनुष्यों को पाँच महाव्रतों-सत्य, अहिसा, अस्तेय, अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य के पालन करने का उपदेश दिया। उन्होंने यह उपदेश उस समय की जनभाषा मागधी में बड़े सीधे-सच्चे और सरल तरीके से दिया था। कालांतर में उनके इन धार्मिक उपदेशों का दार्शनिक विवेचन प्रारंभ हुआ जो जैन दर्शन के नाम से जाना जाता है। 

जैन धर्म को दर्शन का रूप देने में मुख्य भूमिका उमास्वाति एवं कुद कुदाचार्य (प्रथम शताब्दी), समस्त भद्र (तृतीय शताब्दी), सिद्धसेन एवं दिवाकर (पंचम शताब्दी), हरिभद्र एवं भट्ट अकलंक (आठवीं शताब्दी), विद्यानंद (नवीं शताब्दी), वादिराज सूरि (ग्यारहवीं शताब्दी), देवसूरि एवं हेमचंद्र (बारहवीं शताब्दी), गुण रत्न (पंद्रहवीं शताब्दी) और यशोविजय (सत्रहवीं शताब्दी) की रही।

धर्म के रूप में जैन दर्शन के दो रूप हैं-दिगंबर और श्वेतांबर। दिगंबर महावीर स्वामी की मूल शिक्षाओं को मानते हैं। उनका विश्वास है कि केवली (मोक्ष के इच्छुक) को वस्त्र धारण नहीं करने चाहिए। कैवल्य (मोक्ष) के लिए घोर तपस्या आवश्यक समझते हैं। उनकी दृष्टि से स्त्रियाँ मोक्ष की अधिकारिणी नहीं हैं, वे पुरुष जीवन प्राप्त करने के बाद ही मोक्ष प्राप्त करने का प्रयास कर सकती हैं। श्वेतांबर महावीर स्वामी द्वारा प्रतिपादित कठोर नियमों में थोड़ी ढील देते हैं। इस संप्रदाय के प्रवर्तक श्री संघभद्र (ई. पू. द्वितीय शतक) हैं। इनके अनुसार केवली के लिए नग्न रहना आवश्यक नहीं है, उन्हें श्वेत वस्त्र धारण करने चाहिए। इसी आधार पर इस संप्रदाय का नाम श्वेतांबर पड़ा है। 

इनके अनुसार स्त्रियाँ भी मोक्ष की अधिकारिणी हैं। परंतु तत्वमीमांसा एवं ज्ञान मीमांसा की दृष्टि से दोनों संप्रदायों में कोई भेद नहीं है। आज तो दोनों संप्रदाय के जैन अपने तीर्थंकरों को भगवान के रूप में पूजते हैं, उनका आरती वंदन और अभिषेक करते हैं और इस प्रकार भारत की मुख्य जीवन धारा ‘भक्ति’ से जुड़ गए हैं। आज यह धर्म एवं दर्शन भारतीय संस्कृति में पूर्णरूप से समाहित है।

जैन दर्शन की परिभाषा

जैन दर्शन की तत्व मीमांसा, ज्ञान एवं तर्क मीमांसा और मूल्य एवं आचार मीमांसा के आधार पर उसे निम्नलिखित रूप में परिभाषित किया जा सकता है- जैन दर्शन भारतीय दर्शन की वह विचारधारा है जो इस ब्रह्माण्ड को अनेक द्रव्यों से निर्मित मानती है और यह मानती है कि इंद्रियग्राह्य वस्तु जगत और अंतःकरण द्वारा अनुभूत आत्मा, दोनों सत्य हैं। यह प्रत्येक आत्मा का स्वतंत्र अस्तित्व मानती है और ईश्वर में विश्वास नहीं करती और यह प्रतिपादन करती है कि मनुष्य जीवन का अंतिम उद्देश्य अपनी बद्ध आत्मा को उसका शुद्ध-बुद्ध रूप प्रदान करना है, जिसे रत्नत्रय (सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान तथा सम्यक् चरित्र) के द्वारा प्राप्त किया जा सकता है।

जैन दर्शन के मूल सिद्धांत 

हम सिद्धांतों के रूप में क्रमबद्ध करना चाहें तो निम्नलिखित रूप में कर सकते हैं- 

1. यह ब्रह्मांड अनेक द्रव्यों से बना है-जैन दर्शन के अनुसार यह सृष्टि अनेक द्रव्यों से बनी है। ये द्रव्य दो प्रकार के हैं-अस्तिकाय (जीव और अजीव) और अनिस्तिकाय (काल)। जैन दर्शन की मान्यता है कि प्रत्येक जीव (आत्मा) और अजीव (पुद्गल) का अपना-अपना स्वभाव एवं गुणधर्म होता है। भिन्न-भिन्न अजीव द्रव्यों के संयोग का नाम बनना और वियोग का नाम बिगड़ना है। 

विभिन्न प्रकार के जीवधारियों के बारे में जैन दर्शन का मत है कि प्रत्येक जीव (आत्मा) अपने कर्मों के अनुसार अजीव द्रव्यों को धारण करता है और इस प्रकार संसार में अनेक प्रकार के जीव उत्पन्न होते हैं। मनुष्य शरीर धारण करने पर यह तप द्वारा अपने शुद्ध रूप को प्राप्त करता है। 

इसी को जैन दर्शन में कैवल्य (मोक्ष) कहते हैं। 

2. यह वस्तु जगत वास्तविक है-जैन दर्शन समस्त द्रव्यों को अनादि और अनंत मानता है। इसकी दृष्टि से द्रव्यों से बना यह जगत वास्तविक है। जीव (आत्मा) को भी यह द्रव्य मानता है और एतदर्थ वास्तविक मानता है। 

3. जीवों की स्वतंत्र सत्ता है और ईश्वर नाम की कोई वस्तु नहीं है-जैन दर्शन प्रत्येक जीव (आत्मा) की स्वतंत्र सत्ता मानता है। इसके अनुसार सभी आत्माएँ मान हैं, परंतु एक नहीं हैं। सभी आत्माएँ अपने में शुद्ध-बुद्ध एवं मुक्त हैं, सर्वज्ञ, सर्वव्यापक एवं सर्वशक्तिमान हैं, परंतु अजीव द्रव्यों से आवृत्त होने के कारण अपने इस स्वरूप को भूल जाती हैं। इसका मत है कि जीव-अजीव अपने-अपने स्वभाव (गुण-धर्मों) के आधार पर संयोग करते हैं जिससे भिन्न-भिन्न वस्तुएँ एवं यह वस्तु जगत बनता है, इसके पीछे कोई ईश्वरीय शक्ति नहीं है। 

कुछ जैनाचार्यों ने आत्मा के शुद्ध, बुद्ध एवं मुक्त रूप को ईश्वर की संज्ञा दी है। इनकी दृष्टि से ईश्वर संसार का कर्ता नहीं, शुद्ध, बुद्ध आत्मा है। संभवतः इसी आधार पर तीर्थंकरों को भगवान के रूप में जाना जाता है। 

4. मनुष्य संसार का सर्वश्रेष्ठ प्राणी है-जैन दर्शन के अनुसार जीव (आत्मा) अपने कर्मों के अनुसार अजीव (पुद्गल) संग्रहीत करता है और अपने आपको उससे आवृत्त करता है।। परिणामस्वरूप इस जगत में भिन्न-भिन्न प्राणियों का आविर्भाव होता है। इनमें से एक प्राणी मनुष्य है। जैन दर्शन के अनुसार जगत के अन्य प्राणी एक से पाँच इंद्रियों तक के होते हैं, परंतु मनुष्य छह इंद्रियों वाला प्राणी है। उसकी इस छठी इंद्रिय का नाम मन है। मन के द्वारा वह सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चरित्र को प्राप्त कर अपनी आत्मा को शुद्ध, बुद्ध एवं मुक्त करने में सफल होता है, इसी कारण वह संसार का सर्वश्रेष्ठ प्राणी है। 

5. मनुष्य जीवन का विकास उसके जीव-अजीव द्रव्यों पर निर्भर करता है-जैन दर्शन के अनुसार जीव विशेष अपने कर्मों के अनुसार अजीव द्रव्यों को संग्रहीत करता है, इसलिए संसार में अनेक प्रकार के प्राणियों का प्रादुर्भाव होता है, मनुष्य उनमें से एक है और मनुष्यों में भी जीव तो समान होता है परंतु पुद्गलजन्य भिन्नता होती है। मनुष्य का विकास उसके जीव (आत्मा) और इस पुद्गलजन्य भिन्नता, दोनों पर निर्भर करता है। 

6. मनुष्य जीवन का अंतिम उद्देश्य कैवल्य (मोक्ष) की प्राप्ति है-जैन दर्शन के अनुसार जब जीव मनुष्य के स्वरूप को धारण करता है तब वह अपने शुद्ध, बुद्ध एवं मुक्त स्वरूप को प्राप्त करने में सफल हो सकता है। तब मनुष्य जीवन का अंतिम उद्देश्य यही होना चाहिए। जैन दर्शन के अनुसार इस जगत के अतिरिक्त एक कैवल्य लोक है जिसमें सिद्धों की मुक्त आत्माएँ शुद्ध-बुद्ध रूप में रहती हैं। मुक्त आत्मा में इसके अनुसार चार गुण होते हैं-अनंत दर्शन, अनंत ज्ञान, अनंत सुख और अनंत वीर्य। इसे अनंत चतुष्ट्य कहा जाता है। 

7. कैवल्य की प्राप्ति के लिए सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान एवं सम्यक् चरित्र आवश्यक है-जैन दर्शन नोट के अनुसार जब तक जीव कर्मों से शून्य नहीं हो जाता तब तक वह अपने कर्मों के अनुसार अजीव द्रव्यों से संयोग करता रहता है और भिन्न-भिन्न योनियाँ प्राप्त करता रहता है। मनुष्य योनि में वह सम्यक् ज्ञान, सम्यक् दर्शन और सम्यक् चरित्र द्वारा अपने को कर्म शून्य कर अजीव द्रव्य धारण करने से मुक्त हो सकता है। सम्यक् दर्शन का अर्थ है तीर्थंकरांे एवं उनके द्वारा प्रतिपादित सिद्धांतों में श्रद्धा, सम्यक् ज्ञान का अर्थ है तीर्थंकरों द्वारा प्रतिपादित द्रव्य संबंधी ज्ञान का यथार्थ अनुभव और सम्यक् चरित्र का अर्थ है सम्यक् दर्शन एवं सम्यक् ज्ञान के अनुसार आचरण करना। यह बहुत कठिन मार्ग है। मोक्ष के इच्छुक व्यक्ति को इस कठिन मार्ग पर चलना ही होगा। 

8. सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान एवं सम्यक् चरित्र के लिए नैतिक जीवन आवश्यक है-जैन दार्शनिकों के अनुसार जब तक मनुष्य उच्च नैतिक जीवन को प्राप्त नहीं करता तब तक वह सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान एवं सम्यव्फ चरित्र को प्राप्त नहीं कर सकता। उच्च नैतिक जीवन के लिए जैन दार्शनिक पाँच महाव्रतों (सत्य, अहिसा, अस्तेय, अपरिग्रह एवं ब्रह्मचर्य) के पालन और चार कषायों (क्रोध, लोभ, मोह एवं अहंकार) के त्याग पर बल देता है।

जैन धर्म की उत्पत्ति कब और कैसे हुई?

जैन मत में कुल 24 तीर्थकर हुए। ऋषभदेव इस परंपरा के पहले तीर्थकर माने जाते हैं। वर्धमान या महावीर इसके अंतिम तीर्थकर थे। उनका जन्म ईसा से पूर्व छठी शताब्दी वर्ष में हुआ था। जैनों के दो संप्रदाय  है, श्वेतांबर और दिगंबर। श्वेतांबर और दिगंबर यह दोनों ही महावीर के संदेशों को मानते हैं लेकिन नियम पालन की कठोरता श्वेतांबर की अपेक्षा दिगंबर में अधिक पाई जाती है। यहां तक कि वे वस्त्रों का व्यवहार भी नहीं करते है। श्वेतांबर सन्यासी वस्त्रों का व्यवहार करते है। वे यह भी कहते हैं कि स्त्रियाँ जब तक पुरुष रूप में जन्म ग्रहण न कर ले तब तक वे मुक्ति प्राप्त नहीं कर सकती किंतु श्वेतांबर इन विचारों को नहीं मानते हैं। जैन ईश्वर को नहीं मानते। 

जैन मत के प्रवर्तकों की उपासना करते हैं। तीर्थकर मुक्त होते है। जैन दर्शन का साहित्य बहुत समृद्ध है और अधिकांशत: प्राकृत भाषा में है। 

जैन दर्शन  के मौलिक सिद्धांत को सभी संप्रदायों के लागे मानते हैं। कहा जाता है कि इन सिद्धांत के उपदेशक 24वें तीर्थकर महावीर हैं। आगे चलकर जैन दर्शन ने संस्कृत भाषा को अपनाया और फिर संस्कृत में भी जैन साहित्य का विकास हुआ। संस्कृत में उमा स्वाति का तत्वार्थाधिगम सूत्र, सिद्धसिंह दिवाकर का न्यायावतार, नेमिचंद्र का द्रव्यसंग्रह, मल्लिसेन का स्याद्वादमंजरी, प्रभाचंद का प्रमेय-कमलमातर्ंड आदि प्रसिद्ध दार्शनिक ग्रंथ हैं।  

जैन अनुश्रुति के अनुसार यह जगत् कर्मभूमि है जो पहले कभी भोगभूमि थी। भोगभूमि की अवस्था में मानव स्वर्गिम आनन्द प्राप्त करता था। मनुष्य की सारी आवश्यकतायें कल्पवृक्ष से पूरा हुआ करती थी। परन्तु यह नैसगिंक सुख अधिक दिनों तक न रह सका, जनसंख्या बढ़ी तथा मनुष्य की आवश्यकतायें नित्य नया रूप धारण करने लगीं। फलत: भोगभूमि कर्मभूमि में बदल गयी। इसी समय चौदह कुलकर या मनु उत्पन्न हुए। ये कुलकर इसलिए कहलाते थे कि इन्होंने कुल की प्रथा चलाई तथा कुल के उपयोगी आचार, रीति-रिवाज, सामाजिक अवस्था का निर्माण किया। चौदह कुलकरों में श्री नाभिराम अन्तिम कुलकर हुए। इसके पुत्र का नाम ऋषभदेव था जो जैन धर्म के आदि प्रवर्तक थे। इन्हें से जैन धर्म परम्परा का प्रारम्भ है । 

भगवान् ऋषभदेव को जैन ग्रन्थों के अनुसार जिन या तीर्थकर मानते हैं। सम्पूर्ण जैन धर्म तथा दर्शन ऐसे ही चौबीस तीर्थकर मानते हैं। सम्पूर्ण जैन धर्म तथा दर्शन ऐसे ही 24 तीर्थकर के उपदेश का संकलन है । इन 24 तीर्थकरों में भगवान ऋषभदेव आद्य तथा भगवान् महावीर अन्तिम तीर्थकर माने जाते हैं।

तीर्थकरों के सम्बन्ध में एक और भी महत्वपूर्ण बात जैन अनुश्रुतियों में बतलायी गयी है- जैन परम्परा के अनुसार इस दृश्यमान जगत में काल का चक्र सदा घुमा करता है। काल का चक्र अनादि और अन्नत है तथापि उस काल-चक्र के छह विभाग हैं –

  1. अतिसुखरूप
  2. सुख-दुखरूप
  3. दुख-सुखरूप
  4. दुखरूप और 
  5. अति दुखरूप
  6. अतिदु:खरूप

यह सम्पूर्ण जगत् गाड़ी के चक्के के समान सदा घूमता रहता है, दुख से सुख की और तथा सुख से दुख की ओर जाने की अवसर्पिंणकाल या अवनतिकाल कहते हैं और दुख से सुख की आने को उत्सर्पिंणीकाल या विकासकाल कहते हैं। इन दोनों के बीच की अवधि लाखों-करोड़ों वर्षों से भी विकासकाल कहते हैं। इन दोनों के बीच की अवधि लाखों-करोड़ों वशोर्ं से भी अधिक है। प्रत्येक अवसपिर्ंणी और उत्सर्पिंणीकाल के दुख-सुखरूप भाग में चौबीस तीर्थड़्करों का जन्म होता है जो ‘जिन’ अवस्था की प्राप्त करके जैन धर्म का उपदेश कराते हैं। 

भगवान् ऋषभदेव सर्वप्रथम तीर्थकर थे। इनके अतिरिक्त और भी 23 तीर्थकर हुए-अजितनाथ, अभिनन्दननाथ, सुमतिनाथ, अनन्तनाथ, श्रेयासनाथ, वासुपूज्य, विमलनाथ, धर्मनाथ, धर्मनाथ, शान्तिनाथ, पुष्पनाथ, अरनाथ, माल्लनाथ, रामनाथ, मुनि सुव्रतनाथ इत्यादि। ये सभी महात्मा जिन कहलाते हैं। जिन्होंने केवलज्ञान को प्राप्त कर निर्वाण लाभ किया। 

अन्तिम तीर्थकर भगवान् महावीर माने जाते हैं। इनका जन्म ईसा से 600 वर्ष पहले कुण्डग्राम में हुआ था। इनके पिता का नाम सिद्धार्थ तथा माता का नाम त्रिशला था। इनका जन्म स्थान अब वैशाली के नाम से बिहार में सुप्रसिद्ध स्थान है। महावीर जन्म से ही बड़े दयालु थे। 12 वर्ष की कठोर तपस्या के बाद इन्हें केवल ज्ञान प्राप्त हुआ । 30 वर्ष तक धर्म प्रचार कर 72 वर्ष की अवस्था में इन्होंने पावा नगरी में निर्माण लाभ किया ।

संदर्भ -

  1. शिक्षा के दार्शनिक और सामाजिक आधार, माथुर, एस.एस., विनोद पुस्तक मंदिर।
  2. शिक्षा के दार्शनिक आधार, शर्मा, योगेंद्र वुफमार, मधुलिका शर्मा।
  3. शिक्षा के दार्शनिक आधार, शर्मा, ओ.पी.।

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