केम्ब्रिज सम्प्रदाय क्या है ?

अनिल सील के शोधा प्रबंध इमरजेंस ऑफ इंडिया नेशनलिज्म (1968) का निर्देशन केम्ब्रिज के जॉन गेलेधर ने किया था। इस शोध ग्रंथ में जॉन गेलेधर की अभिधारणा को ही आगे बढ़ाया गया। अनिल सील के प्रथम पीढ़ी के छात्रों खासतौर पर जुडिथ ब्राउन, जिन्होंने गांधीजी राईज टू पावर (केम्ब्रिज 1972) लिखी, ने भी इस परंपरा को आगे बढ़ाया। इनके अनुसार अंग्रेजी पढ़े-लिखे संभ्रांत वर्ग के लोग सबसे पहले बंगाल बंबई और मद्रास के अल्पसंख्यक उच्च जाति के थे और पिछड़ी जातियों और क्षेत्रों की राजनीति इस अंग्रेजी शिक्षित राष्ट्रवाद के खिलाफ अल्पसंख्यकों का प्रतिरोध था। हालांकि बाद में जॉन गेलेधर और उनके विद्यार्थियों ने अपने विचार में तेजी से परिवर्तन किया और केम्ब्रिज सम्प्रदाय इसी बदले हुए विचार का प्रतिफलन है। 

जॉन गेलेधर ने रोनाल्ड रॉबिन्सन के साथ पहले ‘अफ्रीका एण्ड द विक्टोरियन्स’ (1961) शीर्षक पुस्तक लिखी थी जिसमें 1960 के दशक के आरंभ में साम्राज्यी अध्ययन को आलोचनात्मक दृष्टि से देखने का काम किया।

संक्षेप में गेलेधर और रॉबिन्सन ने यह कहा था कि साम्राज्यवाद यूरोप में नई आर्थिक शक्तियों का प्रतिफलन नहीं था बल्कि अफ्रीका और एशिया में स्थानीय कारणों से हुए राजनीतिक ह्रास का परिणाम था। देशी समाजों के आंतरिक कलह से पैदा हुई राजनीतिक शून्यता को भरने के लिए साम्राज्यवाद को मजबूरन आगे आना पड़ा। गेलेधर के एक कुशाग्र युवा शिष्य अनिल सील ने भारत में आधुनिक राजनीति के उदय की व्याख्या करते हुए भारतीय समाज के आंतरिक राजनीतिक कलह पर प्रकाश डाला और खासतौर पर जाति तथा विभिन्न क्षेत्रों, समुदायों और जातियों के बीच अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त करने की होड़ को जाएज बताया। 

1970 के दशक के आरंभ में जॉन गेलेधर, अनिल सील और गार्डन जॉनसन के इर्द-गिर्द शोधार्थियों का एक नया समूह खड़ा हुआ। (गार्डन जॉनसन मॉर्डन एशियन स्टडीज के संपादक थे और ये अनिल सील के छात्र थे जिन्होंने महाराष्ट्र की राजनीति पर शोध किया था इनका शोध अनिल सील और जुडिथ ब्राउन से काफी मिलता जुलता है)। यह समूह केम्ब्रिज सम्प्रदाय के नाम से जाना गया। इस समूह ने अपने को पहले से चले आ रहे संभ्रांत सिद्धांत से अलग किया और जारी बहस के सवालों के नए जवाब पेश किए।

हालांकि इनका भी यह मानना था कि राष्ट्रवाद मूलत: सत्ता प्राप्त करने का एक खेल था। इस दौरान जो नई दृष्टि विकसित हुई उसमें आधुनिक राजनीति के पीछे अंग्रेजी शिक्षा की उतनी महत्त्वपूर्ण भूमिका नहीं थी और न ही औपनिवेशिक शासन के दौरान हुए आर्थिक परिवर्तन। बल्कि इसके विपरीत उपमहाद्वीप में सरकार का बढ़ता केन्द्रीकरण और इसके ढाँचे के तहत प्रतिनिधित्व के बढ़ते तत्व की महत्त्वपूर्ण भूमिका थी। इसके द्वारा ग्रामीण क्षेत्र में सरकार की मौजूदगी महसूस की गई और विधाई प्रतिनिधित्व की नई शैली के जरिए दूर-दराज के इलाकों को केन्द्र से जोड़ा गया। सरकार के हस्तक्षेप से अंग्रेजी राज में आधुनिक राजनीति के लिए जगह बनी। 

दूसरे क्षेत्र या राष्ट्र के बजाए स्थानीय स्थल विशेष को राजनीति का वास्तविक आधार माना गया। राजनीति से जुड़े ये ‘वास्तविक हित’ स्थानीय हित थे न कि ये मिथकीय राष्ट्रीय हित या यहाँ तक कि क्षेत्रीय-सांस्कृतिक हित भी नहीं थे। स्थानीय हित ने सम्पूर्ण देश के राष्ट्रीय हित या क्षेत्र के सांस्कृतिक हित को विस्थापित कर दिया। 

तीसरे, राजनीति में जाति या समुदाय या वर्ग के आधार पर नहीं बल्कि स्थान विशेष से संरक्षक-आश्रित संबंध के आधार पर निर्मित गुटों के रूप में इकाइयाँ स्थापित हुई। मालिक-ग्राहक का यह गठजोड़ वर्ग, जाति या समुदाय की सीमाओं का अतिक्रमण करता था। स्थान के अनुसार संरक्षक जिनके हित में गुटबंदी की जाती थी वह स्थानीय तौर पर बाहुबली लोग होते थे, वे या तो शहर में रहने वाले नामी-गिरामी होते थे या गाँव में रहने वाले प्रभावशाली लोग थे। स्थानीय बाहुबलियों को अंग्रेजी पढ़े-लिखे पेशेवर शिक्षित संभ्रांतों की अपेक्षा अधिक शक्तिशाली माना जाता था। सरकार में बढ़ती प्रतिनिधिकता और सभी स्थलों पर सरकार की बढ़ती मौजूदगी के फलस्वरूप राष्ट्रीय राजनीति में स्थानीय संरक्षकों का महत्त्व बढ़ गया।

केम्ब्रिज सम्प्रदाय की विशिष्टताएँ

केम्ब्रिज सम्प्रदाय में स्थानीयता और वहाँ मौजूद संबंधों पर विशेष बल दिया गया है। सी.ए. बेली ने उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य में इलाहाबाद शहर की राजनीति का विश्लेषण करते हुए स्थानीय राजनीति का हवाला दिया है और बताया है कि किस प्रकार प्रभावशाली लोग अपने प्रभाव में रहने वाले लोगों को संतुष्ट करने का प्रयास करते हैं। शहर में बड़े-बड़े सेठ साहूकार रहा करते थे जिन्हें रईस यानी प्रसिद्ध व्यक्ति का दर्जा प्राप्त था। इन सेठ साहूकारों और रईसों के विभिन्न प्रकार के प्रभाव क्षेत्र थे जिनमें कई प्रकार के समूह शामिल थे। रईसों के सम्पर्क में सभी जातियों और समुदायों के लोग थे। बाद में यही सम्पर्क इलाहाबाद की राष्ट्रीय राजनीति में महत्त्वपूर्ण हो गई। बंबई की राजनीति का अध्ययन करते हुए गोर्डन जॉनसन ने इससे सहमति व्यक्त की।

प्रत्येक भारतीय राजनीतिज्ञ की एक खास विशिष्टता यह थी कि प्रत्येक राजनीतिज्ञ को भारतीय समाज के सभी स्तरों से जुड़े विविध और एक-दूसरे के विपरीत हितों की देखभाल करनी पड़ती थी और ऐसा करते हुए वे वर्ग, जाति, क्षेत्र और धार्म का अतिक्रमण करते थे। अनिल सील ने अपनी पुस्तक लोकेलिटी, प्रोविन्स और नेशन्स की प्रस्तावना लेख ‘इम्पेरियलिज्म एण्ड नेशनलिज्म इन इंडिया’ में इसी बात पर विशेष बल दिया था। 

इनके अनुसार राजनीतिक मूलत: एक स्थानीय मामला था। वहाँ प्रभाव, हैसियत और संसाधनों के लिए होड़ मची हुई थी। इस होड़ में संरक्षक अपने मातहतों को अलग-अलग गुटों में बाँटकर मदद करता था। इस प्रकार उसके मातहतों में किसी प्रकार का तालमेल या साँठगांठ नहीं हुआ करती थी। इसकी बजाए वह बड़े लोगों और उनके अनुयायियों के संघ हुआ करते थे। दूसरे शब्दों में ये गुट एक-दूसरे से जुड़े तो थे परन्तु इनका संबंध खड़ी रेखा (अर्थात् उफपर से नीचे) में था न कि पड़ी रेखा (अर्थात् अगल-बगल) का। स्थानीय टकराव कि स्थिति की विरल ही जमींदार और जमींदार का, शिक्षित और शिक्षित का, मुसलमान के साथ काम करते थे। ब्राह्मण गैर-ब्राह्मणों के साथ गुट बनाया करते थे। 

केम्ब्रिज व्याख्या के अनुसार, राजनीति की जड़ स्थानीयता अर्थात् जिला, नगरपालिका, गाँव में निहित होती थी। शहर के प्रभावी लोग और गाँव के बाहुबली तथाकथित कमजोर साम्राज्यी सरकार द्वारा बिना किसी हस्तक्षेप के संसाधनों का वितरण किया करते थे। परन्तु उन्नीसवीं शताब्दी के अंत और बीसवीं शताब्दी के आरंभ में स्थिति बदलने लगी। 

डेविड वाशब्रक के अनुसार प्रगति करने, अधिक धन कमाने और अधिक जनकल्याण और अच्छे कार्य करने के लिए साम्राज्यी शासन ने कर्इ नौकरशाही और संवैधानिक सुधार किए जिसने ज्यादा से ज्यादा स्थानीय राजनीतिज्ञों को स्थानीय राजनीति छोड़कर केन्द्र की ओर बढ़ने के लिए बाध्य किया।

जॉन गेलेधर का मानना था कि इसी सरकारी हस्तक्षेप से भारतीय राजनीति का काम करने का ढंग बदल गया। उन्होंने गलतफहमी दूर करते हुए कहा कि ‘इसका मतलब यह नहीं है कि भारतीय राजनीति को सामाजिक समूहों की आवश्यकताओं के अनुसार कार्यक्रमों के साथ दलों से जोड़ दिया गया। अभी भी संरक्षक और आश्रितों के संबंधों की प्रमुखता थी इसके अलावा स्थानीय जगहों पर पैफले सम्पर्कों और विभिन्न गुटों के बीच संधि की उलट-पेफर अभी भी प्रमुख तत्व थे। इस प्रकार ये विभिन्न प्रकार की सतही एकताओं के उफपर स्थित थे। इसके बावजूद एक परिवर्तन यह हुआ कि अधिक से अधिक इलाकों का गठबंधन हुआ और इन्हें राजनीति के बड़े क्षेत्रों से जोड़ा गया। इन चुनावी पद्धतियों के फलस्वरूप प्रशासनिक परिवर्तन भी करने पड़े।’ (जॉन गेलेधर, कांग्रेस इन डेकलाइन : बंगाल 1930 टू 1939 लोकेलिटि, प्रोविन्स और नेशन में)। अपनी पुस्तक की प्रस्तावना में अनिल सील ने भी यही बात कही है। केन्द्रीकृत और प्रतिनिधिक सरकार बनने से अब भारतवासियों के लिए राजनीतिक लाभ केवल स्थानीय इलाकों तक ही सीमित ही नहीं रह गया। सरकार के लिए केन्द्र से ज्यादा से ज्यादा मोल-भाव करने में बढ़ती शक्ति से प्रान्तीय और अखिल भारतीय राजनीति का निर्माण हुआ। गाँव जिला और छोटे शहरों की राजनीति बढ़कर केन्द्र तक पहुँचने लगी। परन्तु मद्रास नेटिव एसोसिएशन या भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस जैसे राजनीतिक संगठन प्रांतों और केन्द्र में राजनीति का नया खेल खेलने लगे।

 ‘सरकार के औपचारिक ढाँचा ने राजनीति का ढाँचा निर्मित किया और इसी ढाँचे के तहत काम करते हुए भारतवासी सत्ता और संरक्षण के वितरन का निर्धारण कर सकते थे।’ (अनिल सील, इम्पेरियिल्ज्म एण्ड नेशनलिज्म, लोकेलिटि, प्रोविन्स एण्ड नेशन) सी.जे. बेकर के अनुसार अभी तक स्थानीय प्रभावशाली व्यक्ति अपनी सत्ता का उपयोग मनमर्जी से करता था।

अब उसे ब्रिटिश राज के नए प्रशासनिक और प्रतिनिधिक ढाँचे के अनुसार बदलना पड़ा। बड़ी चौहदियों के आधार पर बने संगठनों पर आधारित राष्ट्रीय राजनीतिक ढाँचे के अनुसार उन्हें बदलना पड़ा। जस्टिस पार्टी, हिन्दू महासभा, अखिल भारतीय मुस्लिम लीग और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस कुछ ऐसे ही बड़े संगठन थे। केम्ब्रिज सम्प्रदाय से जुड़े विद्वानों का मानना था कि गांधी के आने के बाद राजनीतिक बदलाव तो आया परन्तु यह भी संभ्रांत लोगों के हाथ में था, यह जब आंदोलन नहीं बना। उनके अनुसार प्रत्येक चरण में किए जाने वाले संवैधानिक सुधार अखिल भारतीय राजनीति को स्पूफर्ति प्रदान करते रहे। 

मौटफोर्ड सुधारों ने असहयोग आंदोलन के लिए, साइमन कमीशन ने नागरिक अवज्ञा आंदोलन और क्रिप्स मिशन ने भारत छोड़ो आंदोलन का मार्ग प्रशस्त किया। जब भी सरकार केन्द्र में नया सुधार लागू करने का प्रस्ताव करती थी जो स्थानीय इलाकों में संरक्षण के बँटवारे को प्रभावित करती थी, उसी समय राजनीतिज्ञ नए राजनीति आंदोलन छेड़ने को उठ खड़े होते थे। 

गोर्डन जॉनसन के अनुसार भारत में राष्ट्रवाद का विकास कालानुक्रम नहीं दिखता है।

केम्ब्रिज सम्प्रदाय का संशयवाद

ऑक्सफोर्ड हिस्ट्री ऑफ द ब्रिटिश एम्पायर, खण्ड पाँच हिस्टोरियोग्राफी (1999) में कहा गया है कि केम्ब्रिज सम्प्रदाय कांग्रेस आंदोलन के राष्ट्रवादी दावे पर सवाल खड़ी करती है और भारतीय राष्ट्रवाद को संदेह की दृष्टि से देखती है। इस संदेह के पीछे राजनीति के बारे में एक विशिष्ट धारणा है। वह यह कि व्यक्ति सत्ता संरक्षण और संसाधनों की प्राप्ति के लिए राजनीति करता है। इसके पीछे कोई सामाजिक भावना या आर्थिक दृष्टि नहीं होती बल्कि राजनीति के अपने नियम और कानून होते हैं। 

डी. ए. वाशब्रक ने इस मान्यता को खारिज करते हुए कि किसी राजनीतिक संगठन को वर्ग समुदाय या जाति का आधार प्राप्त होता है, यह कहा है कि कुछ लोग सत्ता प्राप्त करने के लिए कुछ भी कर सकते हैं। सत्ता व्यक्ति अपने स्वार्थ के लिए चाहता है, सत्ता पद और स्थान राजनीतिज्ञों का मूल लक्ष्य होता है न कि समाज को सुधारना। 

मद्रास प्रेसिडेन्सी जैसे समाज के बारे में खासतौर पर यह बात कही जा सकती है। जहाँ धन कुछ लोगों के पास ही था और कोई भी महत्त्वपूर्ण व्यक्ति स्थिति में परिवर्तन नहीं चाहता था।

सत्ता प्राप्त करने के लिए राजनीतिज्ञों को विभिन्न हितों, वर्गों और समुदायों की सहायता की जरूरत होती थी। साक्ष्य लक्ष्य यानी सत्ता प्राप्त करने के लिए व्यापारी, जमींदार, वकील, ब्राह्मण, अछूत हिन्दू-मुस्लिम सभी तबके के लोग कंधे से कंधा मिलाकर चलने को तैयार थे। इस दृष्टिकोण पर संदेहवाद इतना हावी है कि इसमें किसी भी आधारभूत सामाजिक या आर्थिक टकराव के स्थान की गुंजाइश नहीं है। इसके अलावा केम्ब्रिज सम्प्रदाय साम्राज्यी शासन और उसकी देसी प्रजा के बीच किसी भी प्रकार के गहरे अन्तर्विरोध से इनकार करता है। इस विचारधारा के अनुसार साम्राज्यवाद ने वस्तुत: बृहद और वैविध्यपूर्ण उपमहाद्वीप और उसकी प्रजा को कभी नियंत्रित नहीं किया, जिनका ज्यादातर स्थानीय मुद्दों से ही सरोकार था और उन्होंने इसका विरोध भी नहीं किया। 

अनिल सील द इमरजेंस ऑफ इंडियन नेशनलिज्म में पहले ही यह कह चुके थे कि अंग्रेज शासकों से हाथ मिलाने के लिए भारतवासियों में होड़ मची हुई थी। लोकेलिटी, प्रोविन्स और नेशन की प्रस्तावना में वे एक कदम और आगे बढ़ गए और कहा कि यह कोई राष्ट्रीय आंदोलन था ही नहीं और न ही इसका कोई साझा लक्ष्य था।

इसका नेतृत्व करने वाले लोगों की पृष्ठभूमियाँ अलग-अलग थीं और इनके हित और समूह भी अलग-अलग थे। उनके अनुसार यह पूरा आंदोलन जर्जर प्रतीत होता था। इसकी एकता एक गप्प से ज्यादा कुछ नहीं थी इसकी शक्ति उतनी ही काल्पनिक थी जितनी कि साम्राज्यवाद की जिसे वह चुनौती देने का दावा करता था। इसका इतिहास अतीत भारतवासियों के आपसी दुश्मनी का इतिहास अतीत है। साम्राज्यवाद के साथ इनके संबंध दो कमजोर व्यक्तियों के सहयोग के रूप में व्याख्यायित किया जा सकता है। इसलिए साम्राज्यवाद और राष्ट्रवाद की फरानी धारणाओं के आधार पर आधुनिक भारतीय इतिहास अतीत को निर्मित करना असंभव प्रतीत होता है। (अनिल सील, इम्पेरियलिज्म नेशनलिज्म, लोकेलिटी, प्रोविन्स एण्ड नेशन) सामान्य तौर पर यह संपूर्ण राजनीति और खासतौर पर भारतीय राष्ट्रवाद के प्रति संदेहवादी दृष्टि है। 

अर्थशास्त्र या समाजशास्त्र जैसे तत्व को नकारते हुए केम्ब्रिज सम्प्रदाय ने भारतीय राजनीति के अध्ययन के लिए शुद्ध राजनीतिक दृष्टिकोण अपनाया। इस दृष्टिकोण के अनुसार राजनीति और बाजार में व्यक्ति एक जैसी ही हरकत करता है। एक को सत्ता प्राप्त होती है दूसरे को मुनाफा और दोनों ही स्वार्थ से बंधे होते हैं।

केम्ब्रिज सम्प्रदाय की प्रमुख कृतियाँ

केम्ब्रिज सम्प्रदाय का उदय 1960 के दशक में रॉबिन्सन और गेलेधर के अप्रफीका एण्ड द विक्टोरियन्स और सील के इमरजेन्स ऑफ इंडियन नेशनलिज्म से माना जा सकता है परन्तु 1970 के दशक में लोकेलिटी, प्रोविन्स एण्ड नेशन्स के प्रकाशन के साथ केम्ब्रिज सम्प्रदाय ने अपनी उपस्थिति दर्ज की। कई लेखों और पुस्तकों के माध्यम से केम्ब्रिज सम्प्रदाय को अभिव्यक्त किया गया, इनमें प्रमुख हैं : जॉन गेलेधर गोर्डन जॉनसन और अनिल सील (संपा) लोकेलिटी, प्रोविन्स एण्ड नेशन्स (1973) गोर्डन जॉनसन, प्रोविन्सियल पोलिटिक्स एण्ड इंडियन नेशनालिज्म : बम्बई एण्ड इंडिया नेशनल कांग्रेस 1890 से 1905 (1973) : सी.ए. बेली द लोकल रूटस ऑफ इंडियन पोलिटिक्स : इलाहाबाद 1880-1920 (1975) डी.ए. वाशबु्रक, द इमरजेन्स ऑफ प्रोविन्सियल पोलिटिक्स : मद्रास प्रेसिडेन्सी 1870-1920 ;1976द्ध सी.जे. बेकर, द पोलिटिक्स ऑफ इंडिया 1920-1937 (1976) बी.आर. टॉमलिन्सन द इंडियन नेशनल कांग्रेस एण्ड द राज, 1929-1942 (1976) और सी.जे. बेकर गोर्डन जॉनसन और अनिल सील (संपा), पावर, प्रोफिट एण्ड पोलिटिक्स (1981) पहला और अंतिम केम्ब्रिज सम्प्रदाय के सदस्यों के लेखों का संकलन है। शेष अनिल सील और गोर्डन जॉनसन के निर्देशन में केम्ब्रिज और ऑक्सफोर्ड के शोधग्रंथ हैं।

इन पुस्तकों में कुछ हद तक अभिव्यक्ति और अभिप्राय की दृष्टि से विभिन्नता हो सकती है परन्तु इनमें कई समानताएँ भी हैं। टास्क ‘अंग्रेज शासकों से हाथ मिलाने के लिए भारतवासियों में होड़ मची हुई थी।’ किसने कहा?

एक साथ मिलकर केम्ब्रिज सम्प्रदाय का प्रतिनिधित्व करते हैं। अनिल सील के निदेशन में किए गए सभी केम्ब्रिज शोधग्रंथ एक ही विशिष्टता से युक्त नहीं है। उदाहरण के लिए मुश्किल हसन का नेशनलिज्म एण्ड कम्यूनल पोलिटिक्स इन इंडिया 1916-1928 (1979) और रजत काल राय का सोशल कनप्लिक्ट एण्ड पोलिटिक्स अनरेस्ट इन बंगाल 1875-1927 (1984) में सत्ता के खेल पर बल नहीं दिया गया है बल्कि इसके विपरीत विचारात्मक और आर्थिक कारकों को हवाला दिया गया। अनिल सील के निर्देशन के होने के बावजूद ये केम्ब्रिज सम्प्रदाय का प्रतिनिधित्व नहीं करते हैं। 

केम्ब्रिज सम्प्रदाय में मुख्य रूप से व्यक्ति और गुटों द्वारा सत्ता की खोज पर बल दिया गया है। वे अपनी खोज को राष्ट्र (माक्र्सवादियों द्वारा जिसे सम्पूर्ण माना गया) और क्षेत्र (संभ्रांत सिद्धांतकारों ने इसे अलग माना है) को बेधते हुए स्थानीयता तक पहुँचते हैं और इस स्थानीयता में भी उनका ध्यान वर्गों या जातियों, सामाजिक समूहों पर नहीं बल्कि उनके सामाजिक कोटियों के संबंधों पर है। उनके विश्लेषण में इन स्थानीय गुटों और सम्पर्कों के धीरे-धीरे आपस में जुड़ने और अखिल भारतीय ढाँचे के रूप में बदलने पर बल दिया गया है। 

जिसके फलस्वरूप दूरदराज के इलाकों में भी केन्द्र की सत्ता का हस्तक्षेप हुआ। सरकार के लगातार हो रहे केन्द्रीकरण के साथ-साथ केन्द्रीकृत ढाँचे में प्रतिनिधिक तत्व की गुंजाइश बढ़ी। स्थानीय राजनीति को सामने लाया गया और यह राष्ट्रीय राजनीति में समाहित हो गया। इस दृष्टि से राष्ट्रवाद और साम्राज्यवाद ने चुपके-चुपके हाथ मिलाया था।

केम्ब्रिज सम्प्रदाय का अंत

जॉन गेलेधर, केम्ब्रिज विश्वविद्यालय में इम्पेरियल एण्ड नेवल हिस्ट्री के वेरे हाम्र्सवर्थ प्रोपेफसर थे। 1980 में उनकी मृत्यु हो गर्इ। उनकी याद में केम्ब्रिज समूह ने लेखों का संग्रह निकाला जिसे प्रिफस्टोफर बेकर, गोर्डन जॉनसन और अनिल सील ने संपादित किया, जिसका नाम था पावर, प्रौफिट एण्ड पोलिटिक्स : एस्सेज ऑन इम्पेरियलीज्म, नेशनलिज्म एण्ड चेंज इन ट्वोंटिएथ सेंचुरी पोलिटिक्स (केम्ब्रिज 1981)। इन लेखकों में आयशा जलाल और अनिल सील का एक संयुक्त लेख (अलटरनेटिव टू पार्टिशन : मुस्लिम पोलिटिक्स बिट्वीन वार्स) शामिल था जिसने विभाजन के बारे में विचार को फिर से जीवित कर दिया। बाद में आयशा जलाल ने एक और महत्त्वपूर्ण पुस्तक लिखी जिसका शीर्षक था द सोल स्पोक्समैन : जिन्ना, द मुस्लिम लीग एण्ड द डिमांड फॉर पाकिस्तान (केम्ब्रिज 1985)।

इसमें उन्होंने तर्क दिया है कि मुसलमानों की स्वीकृति से एक महासंघ का निर्माण संभव था और विभाजन का विकल्प मौजूद था। परन्तु पावर, प्रॉफिट एण्ड पोलिटिक्स केम्ब्रिज सम्प्रदाय का अन्तिम सामूहिक वक्तव्य था। इसके बाद भरम टूट गया और लेखक अपने-अपने रास्ते चले गए। अनिल सील के निर्देशन में आयशा जलाल ने द सोल स्पोक्समैन नामक पुस्तक लिखी और जोया चटर्जी ने बंगाल डिवाइडेड : हिन्दू कम्यूनलिज्म एण्ड पार्टिशन 1932-47 (केम्ब्रिज, 1994) लिखी। परन्तु यह किसी सामूहिक प्रयास का हिस्सा नहीं था बल्कि इनका व्यक्तिगत प्रयास था। 

1982 में इतिहास अतीत को देखने, परखने के एक और नजरिए की तरफ लोगों का ध्यान आकृष्ट हुआ। इसे सबल्टार्न स्टडीज कहा गया। इसमें इसने केम्ब्रिज सम्प्रदाय की आलोचना की परन्तु कुछ मामलों में दोनों में समानता भी है। सबल्टानीस्ट भी राजनीतिक में वर्ग विभाजन के महत्त्व से इनकार करते हैं और वर्ग संबंधों की अपेक्षा सत्ता संबंधों को महत्त्व देते हैं। वे संभ्रांत वर्ग से सबल्टान्र्स को अलग करके देखते हैं और राष्ट्रवादी संभ्रांतों पर साम्राज्यवादियों के साथ मिलकर काम करने का आरोप लगाते हैं। वे भी सबल्टार्न राजनीति की जड़ों की खोज करते हुए स्थानीयता की ओर ही लौटते हैं। इसमें केम्ब्रिज सम्प्रदाय की छाप दिखाई पड़ती है। कुल मिलाकर केम्ब्रिज सम्प्रदाय ने भारतीय इतिहास अतीत-लेखन पर अपनी छाप छोड़ी है।

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