रूप परिवर्तन के कारण एवं दिशाएं

भाषा निरन्तर परिवर्तनशील या विकाशील है। भाषा के विकास के साथ-साथ शब्द-रूपों में परिवर्तन होना स्वाभाविक हैं यही भाषा विज्ञाान में रूप परिवर्तन कहलाता है।

रूप परिवर्तन के कारण

रूप परिवर्तन के कारण ‘रूप’ का सम्बन्ध ध्वनियों से है। 

1. सरलीकरण की प्रवृत्ति - सरलीकरण की प्रवृति मानव की वृत्ति रही है। साथ ही कठिनता से सरलता की ओर बढ़ना भाषा की भी प्रकृति होती है। अत: इस प्रकृति और प्रवृति ने रूप-परिवर्तन में योगदान किया है। हिन्दी में कारकों वचनों एवं लिंगों की रूप-संख्या में न्यूनता इसी प्रवृत्ति का परिणाम है। भाषा-व्याकरण के इन रूपों में पहले संख्याधिक्य के कारण जहाँ क्लिष्टता का अनुभव होता था वहाँ इनकी संख्यात्मक न्यूनता के कारण सरलता आ गयी है। 

कुछ उदाहरण और भी लिए जा सकते हैं। वैदिक व्याकरण का ‘लेट लकार’ संस्कृत में लुप्त हो गया है तथा संस्कृत के ‘सुप्’ और ‘तिघ्’ प्रत्यय हिन्दी में लुप्त हो चुके हैं। 

इस तरह रूप-रचना में सरलीकरण की प्रवृत्ति ने एक नए भाषा रूप को जन्म दिया है।

2. नवीनताबोध -  नये के प्रति ललक का भाव मानवीय प्रकृति है। शब्दों की रूप-रचना में भी उसकी यह प्रवृत्ति देखी जा सकती है। परम्परागत शब्दों के प्रयोग से उफबकर मानव-मेध अभिनव शब्दबोध के प्रति जिज्ञासु बनती है और इसी कड़ी में उसके द्वारा नवीन और सुन्दर पद-रूप गढ़ लिये जाते हैं, जैसे-सुन्दरता से सौन्दर्य, विविधाता से वैविध्य, विशेषता से वैशिष्ट्य, नवीनता से नव्य एवं मृदुता से मार्दव आदि।

3. सादृश्य-समीकरण - रूप-रचना में वैविध्य लाने के लिए सादृश्य-समीकरण का प्रयोग किया जाता है। रूप-परिवर्तन में सादृश्य-विधन का उपयोग संसार की प्राय सभी जीवित भाषाओं ने किया है। संस्कृत और हिन्दी भाषाओं से कुछ उदाहरण लिये जा सकते हैं। संस्कृत में करिन् + आ = करिना (करिणा) एवं दण्डिन् + आ = दण्डिना जैसे शब्दों में ‘ना’ का संयोग व्याकरणसम्मत है। इन शब्दों के सादृश्य पर हरि + आ = हरिणा एवं वारि + आ = वारिणा जैसे शब्द प्रयोग व्याकरणविरुद्ध हैं परन्तु सादृश्य-समीकरण के कारण इनके प्रयोग चलने लगे। इसी तरह हिन्दी में ‘तीनों’ के सादृश्य पर ‘दोनों’ शब्द चलने लगा है जबकि ‘दो’ शब्द व्याकरणसम्मत है।

4. स्पष्टता - भाषिक स्पष्टताबोध ने रूप-परिवर्तन में नये प्रयोग किये हैं। भाषा का प्रयोक्ता अपनी अभिव्यक्ति को अधिक स्पष्ट करने के लिए भाषा के अपने ही फराने रूप को बदल देता है। उसे जब तक लगता रहता है कि उसकी बात ठीक से नहीं समझी जा रही है जब तक अपनी भाषा को भिन्न-भिन्न रूपों में रचता रहता है। इस रचाव की मनोदशा उसकी भाषा को अधिक स्पष्ट आकृति देती है। इस तरह की रूप-रचना व्याकरणसम्मत तो नहीं होती किन्तु स्पष्ट होती है, जैसे-’दरअसल में’ एवं ‘सर्वश्रेष्ठ’ सरीखे स्पष्टतावादी शब्दों को लिया जा सकता है। ‘दर’ का अर्थ ही होता है ‘में’, फिर भी स्पष्ट होने की दशा में ‘दरअसल में’ जैसा नया रूप चल पड़ा है। इसी तरह ‘श्रेष्ठ’ का अर्थ ही होता है ‘सबसे अच्छा’, फिर भी अधिक स्पष्टता के लिए ‘सर्वश्रेष्ठ’ जैसा नया रूप चलाया जा चुका है।

5. अज्ञान - भाषा-व्याकरण की जानकारी के अभाव में आजकल अनेक शब्द-रूपों के प्रचलन चल पड़े हैं। अत: कतिपय रूप-रचना ज्ञान के अभाव में एक कारण के रूप में होती रहती है। इस तरह के रूप-परिवर्तन हिन्दी में अधिक हिन्दी में अधिक मिलते हैं। इसका भी एक प्रधन कारण है। चूँकि हिन्दी ने दूसरी भाषाओं के शब्दों को अधिक आत्मसात् किया है। इसलिए जब तक दूसरी भाषाओं की व्याकरण-संस्कृति का ज्ञान नहीं होगा तब तक हिन्दी-भाषी ऐसी अज्ञानता का परिचय देते रहेंगे। 

कुछ उदाहरण लिये जा सकते हैं-श्रेष्ठ से श्रेष्ठतर, श्रेष्ठतम, सर्वश्रेष्ठ, उपर्युक्त से उपरोक्त, फिजूल से बेफजूल पूजनीय से पूज्यनीयऋ सौन्दर्य से सौन्दर्यताऋ अनुगृहीत से अनुग्रहीत एवं संयासी से सन्यासी इत्यादि।

6. बल-प्रयोग - बल देने अथवा कथन पर जोर देने के लिए भी भाषा के रूप में परिवर्तन हो जाता है। उदाहरण के लिए कुछ रूप-रचना के नमूने लिये जा सकते हैं-खालिस के स्थान पर ‘निखालिस’, खिलाफ के स्थान पर ‘बेलिलाफ’, अनेक स्थान पर ‘अनेकों’ एवं इस्तीफा के स्थान पर ‘इस्थीपा’ इत्यादि।

7. आवश्यकता - आवश्यकता के कारण आविष्कार का होना सर्वविदित बात है। भाषा की रूप-रचना में भी इस तथ्य को स्वीकारा जा सकता है। भाषा में हमें जो सम्प्रेषित करना है यदि वह सम्प्रेषण नहीं हो पा रहा है तो भाषा के उस रूप को हम बदल देते हैं जिसमें पहले बात कही गयी थी। उदाहरण के लिए हिन्दी में कबीर एवं बिहारी के भाषिक नमूने पर्याप्त होगें। अपनी साधना की रीति पर कबीर ने ‘साधू’ की जगह ‘साधे-रूप चलाया’ जिसका अभिप्राय था ‘साधना’। इसी तरह बिहारी ने प्राकृतिक सौन्दर्य को पत्र की पंक्तियों में तलाश्ते हुए ‘पत्र ही तिथि पाइयत’ जैसे शब्द रूपों की रचना की है। नवीनता-बोध के कारण शब्द के रूप परिवर्तन का पाठ से इतर उदाहरण दीजिए।

रूप परिवर्तन की दिशाएं

1. पुराने रूपों का लोप: रूप-परिवर्तन की दिशाओं में एक दिशा पुराने प्रचलित रूपों के विलोप की है। ध्वनि-परिवर्तन की स्थिति में फराना प्रयोग होने के कारण सम्बन्धतत्त्व लुप्त हो जाते हैं। परिणामत: अर्थबोध की बाधा आने पर सम्बन्धतत्त्व के नये रूप जोड़ लिये जाते हैं। इस तरह नये रूप प्रचलित होकर पुराने का धीरे-धीरे परित्याग कर देते हैं। उदाहरण के लिए संस्कृत के प्रयोग रूप को छोड़कर हिन्दी के प्रयोग रूप ने अपने को परिवर्तित कर लिया है। आज हिन्दी में तीन कारक रह गये हैं जबकि संस्कृत में आठ कारक रूप-पचलित थे। इसी तरह हिन्दी में दो ही वचन और दो ही लिंग रह गये हैं जबकि संस्कृत में तीन वचन और तीन लिंग के प्रचलन मिलते हैं।

2. सादृश्य के कारण नये रूपों का उद्भव: रूप-परिवर्तन की एक दिशा सादृश्य-विधि है। सादृश्य के कारण सम्बन्धतत्त्व के नये रूप विकसित होकर अनेकरूपता का परिचय देते हैं। इस विधि में नवीनता का आकर्षण रहता है। हिन्दी में परसर्गों का विकास यही सादृश्य-विधन है। ‘चलिए’ और ‘पढ़िए’ के सादृश्य का आधार लेते हुए ‘कीजिए’ के स्थान पर ‘करिए’ का उदाहरण लिया जा सकता है।

3. प्रत्यय और शब्दों में अधिकपदत्त्य: रूप-परिवर्तन के कुछ अस्वाभाविक अभिलक्षण मिलते हैं जिनके प्रयोग जाने-अनजाने बहुत से लोग करते हैं। अर्थात् एक प्रत्यय के होते दूसरे प्रत्यय का प्रयोग तथा उपयुक्त शब्द के होते दूसरे शब्द का प्रयोग लोगों द्वारा किया जाता है, जैसे-’कागजात’ से ‘कागजातों’, ‘अनेक’ से ‘अनेकों’ शब्द-प्रयोगों में क्रमश: ‘आत्’ एवं ‘इक’ प्रत्यय मौजूद हैं। इनके साथ क्रमश: ‘ओं’ भी जोड़कर अतिरिक्त प्रत्यय लगाये गये हैं। इसी तरह ‘सर्वश्रेष्ठ’ एवं ‘दरअसल’ शब्दों में ‘सर्व’ तथा ‘दर’ शब्द अधिक हैं, परन्तु रूप रचना में ऐसे भी अधिकपदत्व मिलते हैं।

4. अभिनव रूप-रचना: कुछ पुराने और कुछ नये रूपों को ग्रहण कर आजकल प्रत्ययों के अभिनव रूप प्रचलित हैं। उदाहरण के लिए ‘छठा’ पुराना रूप है तो ‘छठवाँ’ नया रूप है।

5. रूप-परिवर्तन की मौलिक दिशा: पदों की आकृति में समूल परिवर्तन करके नयी पद-रचना की एक स्वतन्त्र संस्कृति इधर दिखलाई पड़ती है। उदाहरण के तौर पर ‘तुझको’ के स्थान पर ‘तेरे की’, ‘किया’ के स्थान ‘करी’ तथा ‘मुझको’ के स्थान पर ‘मेरे को’ देखे जा सकते हैं।

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