साम्प्रदायिकता का अर्थ, परिभाषा, सम्प्रदाय एवं साम्प्रदायिकता में अंतर

साम्प्रदायिक शब्द की उत्पत्ति समूह अथवा समुदाय से हुई है, जिसका अर्थ होता है व्यक्तियों का ऐसा समूह जो अपने समुदाय को विशेषरूप से महत्व देता है या अपने धर्म या नस्लीय समूह को शेष समाज से अलग हटकर पहचान देता है। एक सम्प्रदाय के दूसरे सम्प्रदाय के विरुद्ध संयुक्त विरोध को साम्प्रदायिकता कहते हैं। 

साम्प्रदायिकता के अन्तर्गत वे सभी भावनाएं अन्तर्निहित है जो किसी धर्म अथवा भाषा के आधार पर किसी समूह विशेष के हितों पर बल देती हैं और इस प्रकार के हितों को राष्ट्रीय हित से ऊपर माना जाता है। उस समूह में पृथकता की भावना उद्भूत की जाय और उनको ऐसा करते रहने को व करने पर प्रोत्साहन दिया जाय। 

विसेंट स्मिथ का मानना है कि एक साम्प्रदायिक व्यक्ति या व्यक्ति समूह वह है जो कि प्रत्येक धार्मिक अथवा भाषायी समूह को एक ऐसी पृथक सामाजिक तथा राजनीतिक इकाई मानता है, जिसके हित अन्य समूहों से पृथक होते हैं और उनके विरोधी भी हो सकते हैं। ऐसे ही व्यक्तियों अथवा व्यक्ति समूह की विचारधारा को साम्प्रदायवाद या साम्प्रदायिकता कहा जायेगा। संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि “साम्प्रदायिकता वह संकीर्ण मनोवृत्ति है जो एक धर्म अथवा सम्प्रदाय के लोगों में अपने आर्थिक एवं राजनैतिक स्वार्थों की पूर्ति के लिए पायी जाती है और उसके परिणाम स्वरूप विभिन्न धार्मिक समूहों में तनाव एवं संघर्ष पैदा होते हैं।

साम्प्रदायिकता का अर्थ

‘साम्प्रदायिकता’ शब्द की उत्पत्ति सम्प्रदाय से है। कोई एक विशेष सम्प्रदाय के अनुयायी, उसी सिद्धान्त को अनुगमन करने वाले, अन्य सम्प्रदाय के प्रति द्वेष, रखने वाले साम्प्रदायिक कहलाते हैं। इन अनुयायियों के क्रियाओं से ‘साम्प्रदायिकता’ जैसा शब्द दूषित हो जाता है। समाज में उसको सभी कलंकित समझने लगते हैं। ‘साम्प्रदायिकता’ ‘साम्प्रदायिक’ से बनता है।

कोई एक विशेष सम्प्रदाय के अनुयायी, उसी सिद्धान्त का अनुगमन करने वाले, अन्य सम्प्रदाय के प्रति द्वेष रखने वाले, साम्प्रदायिक कहलाते हैं। इन अनुयायियों के क्रियाओं से ‘साम्प्रदायिकता’ जैसा शब्द दूषित हो जाता है। समाज में उसको सभी कलंकित समझते हैं। ‘साम्प्रदायिकता’ ‘साम्प्रदायिक’ से बनता है। विश्व सूक्ति कोश-खण्ड-पाँच में भी ‘साम्प्रदायिकता’ के दूषित तत्व को पाया जा सकता है।

एक सम्प्रदाय का अनुयायी अपने सम्प्रदाय को ही श्रेष्ठ और दूसरे सम्प्रदाय को हीन मानता है। किसी भी सम्प्रदाय के अनुयायी होने से वे अपने सम्प्रदाय के प्रति साम्प्रदायिक होते हैं। अन्य सम्प्रदायों को दूषित करते हैं। अपनी सम्प्रदाय की प्रशंसा करते हैं। अपने ही हित के लिए सोचते हैं। जब अपनी ही सम्प्रदाय के ही हित के लिए सोचते हैं, तो कट्टर हो कर ही सोचते हैं। अत: साम्प्रदायिक बनकर साम्प्रदायिकता को फैलाते हैं

साम्प्रदायिकता की परिभाषा

ऐरनकर (1999.26) तर्क देते हैं कि समुदाय और साम्प्रदायिकता दो अलग-अलग अवधारणायें है। समुदाय एक जैसी भावनाओं, चारित्रिक विशेषताओं, सहमतियों तथा संस्कृतियों वाले लोगों के समूह को कहा जाता है। 

दीक्षित का तर्क है कि साम्प्रदायिकता एक राजनैतिक सिद्धांत है, जो समाज में मौजूद धार्मिक एवं सांस्कृतिक मतभेदों को बढ़ावा देकर अपने राजनैतिक स्वार्थों की पूर्ति करता है। जब धार्मिक तथा सांस्कृतिक असहमतियों के आधार पर कोई समुदाय जानबूझकर राजनैतिक मांगें उठाता है, तब साम्प्रदायिक चेतना उत्पन्न होती है, जो अंतत: साम्प्रदायिकता में बदल जाती है।

सम्प्रदाय एवं साम्प्रदायिकता में अंतर

सम्प्रदाय किसी गुरु परम्परा का देन है। सम्प्रदाय किसी महापुरुष के द्वारा प्रस्थापित किया जाता है। सम्प्रदाय अनेक होते हैं। सम्प्रदाय अपने अपने देश, काल परिस्थिति के अनुसार जन्म लेते हैं। हर सम्प्रदाय का अपना विधि-विधान रहता है। हर सम्प्रदाय के अनुयायी होते हैं। जिसे उसके अनुयायी अपने सम्प्रदाय के विधि-विधान का अनुगमन करते हुए, उसकी रक्षा के लिए सोचते हैं, उसकी रक्षा करने में अपने आप की कुर्बानी देने के लिए तत्पर रहते हैं, वे ही साम्प्रदायिक कहलाते हैं। साम्प्रदायिक से साम्प्रदायिकता का उत्पन्न होता है। अत: सम्प्रदाय से साम्प्रदायिक, साम्प्रदायिक से साम्प्रदायिकता का जन्म होता है।

भारत में साम्प्रदायिकता के कारण 

भारत में साम्प्रदायिकता को भड़काने वाले अनेक कारण मौजूद रहे हैं। कुछ विद्वान इसके लिये अंग्रेजी शासन की आर्थिक नीतियों को जिम्मेदार मानते हैं। ब्रिटिश शासन काल में भारत की आथ्रिक दशा इतनी खराब हो गई थी कि मध्यम वर्ग के लोगों के लिये जीना मुश्किल हो गया। उस समय एक साम्प्रदाय के लोगों ने दूसरे साम्प्रदाय के लोगों की परवाह न करते हुए केवल अपने समुदाय के हित के लिये प्रयास किये, इससे दूसरे समुदायों के लोग भी साम्प्रदायिक तरीके से अपने आपको जिन्दा रखने के लिए प्रयास करने में जुट गये। फलस्वरूप, समाज साम्प्रदायिक गुटों में बंट गया। इन साम्प्रदायिक समूहों की भावना को भड़काने का काम राजनेतिक दलों ने किया और नतीजा यह हुआ कि भारत में साम्प्रदायिक तनाव की स्थिति पैदा हो गई। 

साम्प्रदायिकता की जड़ें इतनी मजबूत हुई कि इसी आधार पर 1905 में बंगाल का विभाजन हुआ। इसी के परिणामस्वरूप, 1909 में अलग-अलग चुनाव कराने की व्यवस्था को लेकर गवर्मेंट आफ इंडिया एक्ट बना। 1932 में ब्रिटिश हुकूमतों ने विभिन्न समुदायों की तुष्टिकरण का प्रयास किया और ‘कम्युनल अवार्ड’ कान ून बनाने का फेसला लिया जिसका गांधी जी तथा अन्य नेताओं ने विरोध किया। ये सभी कानून अंग्रेजी सरकार ने मुसलमान तथा अन्य अनेक समुदायों के तुष्टिकरण के लिए बनाये थे, क्योंकि उसमें उनका अपना राजनेतिक फायदा था। तभी से भारतीय समाज में साम्प्रदायिकता की जड़ें गहरी होती गई और भारतीय समाज बंटता चला गया और भारत की मुसीबत बढ़ती चली गईं। आईए अब साम्प्रदायिकता के विभिन्न कारणों विचार किया जाय।

भारत के आजाद होने से पहले देय में अंग्रेजी का राज था। अंग्रेज हिन्दू ओर मुसलमानों को आपस में लड़ा कर देश में राष्ट्रीय एकता का वातावरण नहीं बनने देना चाहते थे जिससे उन्हें देश को ग ुलाम बनाये रखने में आसानी रहे। इसीलिए वे नोकरियों के अवसर प्रदान करते तथा अन्य सेवायें देने में भी हिन्दू मुसलमानों के साथ भेद-भाव का बर्ताव करते थे। इससे ये दोनों समुदायों में आपस में टकराव उत्पन्न हुआ और इनके बीच तनाव की स्थिति रहने लगी। इसी आधार पर ऐसा माना जाता हे कि हिन्दू-मुस्लिम एकता अंग्रेजी शासन के दौरान भंग हो गयी। अतः स्पष्ट है कि देश में अंग्रेजी शासन के दौरान हिन्दू-मुस्लिम साम्प्रदायिकता ने जन्म लिया।

इस मामले में प्राचीन काल तथा मध्यकाल के बीच की अवधि के इतिहासकारों में मतभेद साफ-साफ दिखाई पड़ता है। इनमें 19वीं शताब्दी के ब्रिटिश इतिहासकार जेम्समिल का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हे। उन्होंने स्पष्ट किया हे कि प्राचीन काल में भारत पर हिन्दू राजाओं का राज था, और इस काल खंड में देश बहुत संपन्न था ओर तेजी से विकास कर रहा था। जबकि मध्यकाल में भारत पर मुस्लिम शासनों ने राज किया और उनके शासनकाल के दौरान भारत का लगातार पतन हुआ। इससे स्पष्ट हो जाता हे कि भारत में नीतियों के निर्धारित धर्म का विशेष स्थान रहा है। प्राचीन काल में भारतीय समाज और संस्कृति का उत्थान हुआ, इसके पीछे धर्म का प्रभाव था। मुस्लिम शासनकाल में सांप्रदायिकता कट्टरता फली-फूली। इतिहासकारों के ऐसे उल्लेखों ने सांप्रदायिकता के विकास में भारी योगदान दिया।

राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान राष्ट्रवादी विचारधारा हिन्दू धर्म से ज्यादा प्रभावित थी। राष्टवादी आंदोलनकारी पर हिन्दू धर्म का तथा इतिहासकारों का भारी प्रभाव पड़ा और उनमें मातृभूमि पर गव्र करने की भावना विशेष रूप से उभार पर आई, ओर मुसलमान अलग-अलग पड़ गये।

सांप्रदायिकता घृणा को और दार बनाते का काम अन्य अनेक घटकों ने भी किया, जिनमें अफवाहें, विकृत समाचार आदि प्रमुख हैं, इनसे जनता में गलत जानकारी फैली। राजनेतिक दलों के सांप्रदायिक तुष्टिकरण की सोच ने सांप्रदायिकता को और बढ़ावा दिया। अलगअ लग धार्मिक व जातीय समुदायों, सांस्कृतिक समुदायों के बीच वोट लेने के लिए राजनीति ने नौकरियों के अवसरों व सेवाओं में भी पक्षपात किया। इससे विभिन्न वर्गों के लोगों के बीच अलगाव की प्रवृत्ति बढ़ती गई।

साम्प्रदायिकता के अनेकों दुष्परिणाम भारत ने झेला है, चाहे वह मुगलों का काल रहा हो या ब्रिटिश शासन काल रहा हो या स्वतन्त्र भारत सभी में साम्प्रदायिकता ने अपने विभत्स कारनामों से राष्ट्रीय एकता, भावात्मक एकता तथा सहयोगात्मक प्रवृत्तियों को खण्डित करने का कार्य किया है। साम्प्रदायिकता के परिणाम स्वरूप भारत को सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक एवं सांस्कृतिक आदि सभी क्षेत्रों में व्यापक जन-धन की हानि उठानी पड़ी हैं।

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