भारत में संयुक्त परिवार प्रथा, भूतकाल से चली आ रही है संयुक्त परिवार जिसमें कम से कम 5 से 25 व्यक्तियों का समूह होता है जहाँ परिवार का मुखिया दादा या बड़ा सदस्य होता है। वह परिवार की भलाई के लिए समय-समय पर निर्णय लेते है। और उसका निर्णय मान्य होता है। सब उसका आदर करते है। परिवार के सभी सदस्य मिलजुल कर कार्य करते है।
संयुक्त परिवार ज्यादातर गाँव में रहते है। जहाँ परिवार के पुरुष खेत या व्यापार में मिलकर कार्य करते है वही परिवार की महिलाएं रसोई में मिलकर कार्य करती है। बच्चे जब तक छोटे होते है परिवार पर निर्भर होते है और जैसे-जैसे वह बड़े होते जाते है उनकी निर्भरता परिवार के प्रति कम हो जाती है।
संयुक्त परिवार (जिसे विस्तृत परिवार भी कहा जाता है) एक गृहस्थ समूह है जिसमें माता-पिता, दादा-दादी, चाचा-चाची, भाई-भाभी, चचेरे भाई-बहन तथा अविवाहित भाई-बहन सम्मिलित होते हैं। इस प्रकार, संयुक्त परिवार में कई पीढि़यों के सदस्यों का एक सामान्य निवास-स्थान होता है, वे एक रसोई का पका भोजन करते हैं तथा सामान्य संपत्ति रखते हैं।
संयुक्त परिवार की परिभाषा
कर्वे-‘‘एक संयुक्त परिवार उन व्यक्तियों का समूह है जो एक ही छत के नीचे रहते हैं, जो एक रसोई में पका भोजन करते हैं जो सामान्य संपत्ति के अधिकारी होते है, जो सामान्य पूजा में भाग लेते हैं तथा जो परस्पर एक-दूसरे से विशिष्ट नातेदारी से संबंधित हैं।’’
कुछ अन्य (जैसे एपफ.जी.बेली, टी.एन.मदान) संयुक्त सम्पत्ति-स्वामित्व को अधिक महत्व देते हैं, और कुछ (जैसे आई.पी.देसाई) नातेदारों के प्रति दायित्यों को पूरा करने को महत्व देते हैं, भले ही उनके निवास अलग-अलग हों तथा सम्पत्ति में सहस्वामित्व न हो। ‘दायित्व को पूरा करने’ का अर्थ है अपने को परिवार का सदस्य मानना, विनीय और अन्य प्रकार की सहायता देना तथा संयुक्त परिवार के नियमों को मानना।
हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 के अनुसार ‘सह सम्पत्ति’ तथा ‘संयुक्त सम्पत्ति’ शब्दों का अर्थ है कि सभी जीवित स्त्री व पुरुष सदस्य तीन पीढ़ियों तक पैतृक सम्पत्ति के हिस्सेदार न ही किसी को दी जा सकती है। इस प्रकार, एक व्यक्ति को अपनी पत्नी, दो पुत्रों, दो पुत्रियों, दो पौत्रों तथा दो पौत्रियों के साथ अपनी सम्पत्ति को अपनी पत्नी व चार बच्चों में बराबर बाटना होगा। पौत्र संतति अपने माता-पिता की सम्पत्ति में से ही हिस्सा लेंगे। पुत्र व पुत्री प्रत्येक की पूर्व मृत्यु पर उनके उत्तराधिकारी एक एक भाग लेंगे।
आई.पी.देसाई मानते हैं कि सह-निवास तथ सह-रसोई को संयुक्त परिवार की परिसीमा के लिए आवश्यक समझना ठीक नहीं है क्योंकि ऐसा करने से संयुक्त परिवार को सामाजिक सम्बन्धों का समुच्चय एवं प्रकार्यात्मक इकाई नहीं माना जायेगा। उनका कहना है कि एक घर के सदस्यों के बीच के आपसी सम्बन्धों तथा अन्य घरों के सदस्यों के साथ सम्बन्धों पर ही परिवार के प्रकार का निर्धारण किया जा सकता है। एकाकी परिवार को संयुक्त परिवार से अलग देखने के लिए भूमिका सम्बन्धों (role relations) के अन्तर को एवं विभिन्न रिश्तेदारों के बीच व्यवहार के मानदंडीय प्रतिमान (normative pattern) को समझना पड़ेगा। उनकी मान्यता है कि जब दो एकाकी परिवार नातेदारी सम्बन्धों के होने पर भी अलग-अलग रहते हों, लेकिन एक ही व्यक्ति के अधिकार क्षेत्र में कार्य करते हों तो वह परिवार संयुक्त परिवार होगा।
उन्होंने इस परिवार को ‘प्रकार्यात्मक संयुक्त परिवार’ (functional joint family) कहा है। आवासीय (residential) संयुक्त परिवार में जब तक तीन या अधिक पीढ़ियां एक साथ न रह रहीं हो तब तक यह परम्परात्मक संयुक्त परिवार नहीं हो सकता। उस के अनुसार दो पीढ़ियों का परिवार ‘सीमान्त संयुक्त परिवार’ (marginal joint family) कहलाएगा। इस प्रकार देसाई ने संयुक्त परिवार के तीन आधार माने हैं: पीढ़ी की गहराई, अधिकार एवं दायित्व, तथा सम्पत्ति।
रामकृष्ण मुखर्जी ने पांच प्रकार के सम्बन्ध बताते हुए, वैवाहिक (conjugal), माता-पिता पुत्र-पुत्री (parentalfilial), भाई-भाई व भाई-बहन (inter-sibling), समरेखीय (lineal), तथा विवाहमूलक (affinal) सम्बन्ध-कहा है कि संयुक्त परिवार वह है जिसके सदस्यों में उपरोक्त पहले तीन सम्बन्धों में से एक या अधिक और या समरेखीय या विवाहमूलक या दोनों सम्बन्ध पाये जाते हैं।संयुक्त परिवार की प्रमुख विशेषताएं
परम्परागत (संयुक्त) परिवार के कुछ प्रमुख लक्षण हैं:
1. सत्तात्मक संरचना – सत्तात्मकता का यहां अर्थ है कि निर्णय तथा निश्चय करने की शक्ति एक व्यक्ति में होती है जिसकी आज्ञा का पालन बिना चुनौती के होना चाहिए। प्रजातंत्रीय परिवार में सत्ता जबकि एक या एक से अधिक लोगों में निहित होती है जिसका आधार दक्षता और योग्यता होता है, सत्तात्मक परिवार में परम्परा से सत्ता आयु एवं वरिष्ठता के आधार पर सबसे बड़े पुरुष के पास ही होती है।2. पारिवारिक संगठन – इसका अर्थ है कि व्यक्ति के हितों का पूरे परिवार के हितों के सामने कम महत्व होता है, अर्थात् परिवार क लक्ष्य ही व्यक्ति का लक्ष्य होना चाहिए, जैसे यदि बच्चा स्नातक परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद उच्च शिक्षा जारी रखना चाहता है परन्तु यदि उसे परिवार के व्यापार को देखने के लिए दुकान पर बैठने को कहा जाये तो उसे परिवार के हितों के आगे अपने हितों की अनदेखी करनी होगी।
3. आयु और संबंधों के आधार पर सदस्यों की परिस्थिति का निर्धारण – परिवार के सदस्यों की परिस्थिति का निर्धारण उनकी आयु और संबंधों द्वारा निश्चित होता है। पति का पद पत्नी से ऊचा होता है। दो पीढ़ियों में ऊची पीढ़ी वाले व्यक्ति की परिस्थिति निम्न पीढ़ी के व्यक्ति की परिस्थिति से अधिक ऊची होती है। लेकिन उसी पीढ़ी में बड़ी आयु वाले व्यक्ति की परिस्थिति कम आयु वाले व्यक्ति की परिस्थिति से ऊची होती है। पत्नी की परिस्थिति उसके पति की परिस्थिति ने निश्चित होती है।
4. सन्तान तथा भ्रातृक संबंधों की दाम्पत्य संबंधों पर वरीयता – रक्त सम्बन्धों को वैवाहिक सम्बन्धों की अपेक्षा वरीयता दी जाती है। दूसरे शब्दों में पति-पत्नि के सम्बन्ध, पिता-पुत्र या भाई-भाई सम्बन्धों की अपेक्षा निम्न माने जाते हैं।
5. संयुक्त दायित्यों के आदर्श पर परिवार का कार्य संचालन – परिवार संयुक्त परिवार के उत्तर दायित्वों के आदर्शो के आधार पर कार्य करता है। यदि पिता अपनी पुत्री के विवाह के लिए प्ण लेता है तो उसके पुत्रों का भी यह दायित्व हो जाता है कि वह उसकी वापसी का प्रयत्न करें।
6. सभी सदस्यों के प्रति समान बर्ताव – परिवार के सभी सदस्यों पर समान ध्यान दिया जाता है। यदि एक भाई के पुत्र को 4000 रुपये मासिक आय के साथ एक खर्चीले कन्वेन्ट स्कूल में प्रवेश दिलाया जाता है तो दूसरे भाइयों के (कम मासिक आय वाले) पुत्र को इन्हीं सुविधाओं के साथ अच्छे स्कूल में पढ़ाया जायेगा।