सार्वजनिक ऋण के उद्देश्य


सार्वजनिक ऋण, राज्य द्वारा आय प्राप्त करने का एक साधन है। लोक अथवा सार्वजनिक ऋण उस ऋण को कहते हैं जिसे कि राज्य (state) अपनी प्रजा से अथवा अन्य देशों के नागरिकों से लेता है। सरकार जब उधार लेती है तो उससे लोक ऋण का जन्म होता है। सरकार बैंकों, व्यावसायिक संगठनों, व्यवसाय गृहों तथा व्यक्तियों से उधार ले सकती है। सरकार देश के अन्दर से उधार ले सकती है और देश के बाहर से भी, अथवा दोनों जगहों से भी। 

लोक ऋण आमतौर पर बॉण्डों के रूप में (अथवा यदि ऋण थोड़े समय के लिए चाहिए, तो राजकोषीय-पत्र के रूप में) होता है। इन बॉण्डों में सरकार यह वायदा करती है कि वह निर्धारित समय में मूलधन की वापिसी के साथ ही, बॉण्डों के धारकों को पूर्ण निर्धारित दर से भी नियमित समयान्तरों पर अथवा अन्त में एकमुश्त धनराशि के रूप में ब्याज की भी अदायगी करेगी। ऋण सरकार की आय का अन्तिम स्रोत होता है। 

डाल्टन के अनुसार, सार्वजनिक अधिकारियों की आय प्राप्त करने का एक ढंग सार्वजनिक ऋण भी है।

प्रो. जे. के. मेहता के अनुसार, सार्वजनिक ऋण अपेक्षाकृत आधुनिक घटना है तथा विश्व में जनतान्त्रिक सरकारों के विकास के साथ व्यवहार में आया है। 

एडम स्मिथ का कथन था कि सार्वजनिक ऋण से युद्ध एवं फिजूलखर्ची जैसी परिस्थितियाँ उत्पन्न हो जाती हैं। परन्तु आधुनिक अर्थशास्त्री इसे बुरा नहीं मानते।

सार्वजनिक ऋण के उद्देश्य

1. आय तथा राजस्व (Revenue)—लोक ऋण का उद्देश्य सामान्यत: उस खाई को पाटना होता है जो कि किसी वर्ष में प्रस्तावित खर्च तथा प्रत्याशित आय (expected revenue) के बीच उत्पन्न हो जाती है। जब कभी भी बढ़े हुए प्रशासनिक व्यय के कारण अथवा बाढ़, अकाल, भूचाल, व छूत के रोग जैसे अप्रत्याशित आकस्मिक संकटों से निपटने के कारण सरकार की आय उसके व्यय से कम पड़ जाती है तो सरकार देशी अथवा विदेशी स्रोतों से धन उधार लेकर काम चलाती है। यह सरकार की वह आय होती है जो कि सभी करों तथा अन्य राजस्व स्रोतों से पृथक् होती है।

2. मन्दी के दिनों में (In times of Depression)—मन्दी उस दशा को कहते हैं जबकि कीमतें गिर रही होती हैं, लोगों में धन उद्यमों में लगाने के साहस का अभाव होता है और भविष्य में लाभ प्राप्ति की आशा नहीं होती। यह स्थिति तब दूर की जा सकती है जबकि वस्तुओं व सेवाओं की माँग में वृद्धि कर दी जाए और ऐसा तब हो सकता है जबकि देश में सार्वजनिक निर्माण कार्यों पर अथवा अत्यावश्यक जनोपयोगी तथा अवस्थापना सेवाओं (infra structure services) पर किये जाने वाले लोक खर्च में वृद्धि कर दी जाए। पर, सरकारी खर्च में वृद्धि तो तभी हो सकती है जबकि सरकारी आय में वृद्धि हो और लोक आय में वृद्धि कराधान के द्वारा नहीं की जा सकती क्योंकि इसके प्रभाव में काम करने तथा निवेश करने की प्रेरणा पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है जो कि समर्थ माँग में और कमी कर देता है। 

अत: सरकार के सामने उधार लेने का ही रास्ता बचता है। सरकार विशेष रूप से बैंकों से उधार लेती है ताकि निवेश के लिए वित्त प्राप्त कर सके और आय व रोजगार में तथा उसके फलस्वरूप समर्थ माँग में वृद्धि कर सके। इस प्रकार गिरती हुई कीमतों को रोका जा सकता है और सरकार अर्थव्यवस्था को मन्दी की स्थिति में उभारने में तथा समृद्धि लाने में समर्थ हो जाती है।

3. मुद्रा-स्पफीति को समाप्त करना (To Curb Inflation)—मुद्रा-स्फीति बढ़ती हुई कीमतों की स्थिति का नाम है। अत: सरकार ऋण लेकर लोगों के हाथों में से काफी मात्रा में क्रय-शक्ति वापिस ले सकती है और इस प्रकार कीमतों को बढ़ने से रोक सकती है। किन्तु आधुनिक अर्थशास्त्री यह मानते है कि सरकारी ऋण के मुकाबले कराधान मुद्रा-सफीति दूर करने का अधिक महत्त्वपूर्ण उपाय सिद्ध होता है, क्योंकि सरकारी उधार द्वारा प्राप्त धन को यदि उत्पादकीय उपयोग में न लगाया जाए, तो सरकार पर उसकी वापसी का उत्तरदायित्व अलग से बढ़ जाता है। परन्तु फालतू कर-आय को राजकोष में बड़ी आसानी से बेकार डाले रखा जा सकता है ताकि अर्थव्यवस्था में उत्पन्न स्फीतिजनक दबावों को समाप्त किया जा सके।

4. विकास योजनाओं के लिए धन जुटाना (To Finance Development Plans)—अल्प-विकसित अर्थव्यवस्था में सदा ही धन की कमी बनी रहती है। ऐसे देशों में चूँकि लोगों की करदेय क्षमता कम होती है, अत: सरकार भारी कराधान का भी आश्रय नहीं ले सकती। परन्तु देश से गरीबी दूर करने के लिए यह भी अत्यन्त आवश्यक तथा महत्त्वपूर्ण होता है कि विकास योजनाओं के वित्त की व्यवस्था की जाए। ऐसी स्थिति में, एकमात्र रास्ता लोक ऋण का ही बचता है। अत: अल्पविकसित देशों की सरकारें विकास योजनाओं की वित्तीय व्यवस्था के लिए देश के अन्दर से अथवा विदेशों की सरकारों अथवा व्यक्तियों से उधार लेती है।

5. सरकारी उद्यमों के लिए धन प्राप्त करना (To Finance Public Enterprises)—सरकार अपने द्वारा चलाये जाने वाले वाणिज्यिक उद्यमों की वित्तीय व्यवस्था के लिए भी धन उधार लेती है। ऐसे उद्यम आमतौर पर उत्पादकीय उद्यम होते हैं और उन्हें कुशलता के साथ संचालित करने का दायित्व सरकार का ही होता है।

6. शिक्षा तथा स्वास्थ्य सेवाओं का विस्तार (Expansion of Education and Health Services)— सरकार शिक्षा तथा स्वास्थ्य सेवाओं एवं ऐसी ही अन्य सेवाओं के निर्माण व विस्तार के लिए भी उधार ले सकती है जो कि सामान्य सामाजिक कल्याण में तो वृद्धि करती है किन्तु उनसे कोई प्रत्यक्ष वित्तीय प्रतिफल प्राप्त नहीं होता और जो मौद्रिक दृष्टि से उत्पादक (productive) भी नहीं होती।

7. युद्ध के लिए धन प्राप्त करना (To Finance War)—सरकार प्रतिरक्षा कार्यों के लिए भी उधार ले सकती है। बढ़ते हुए अन्तर्राष्ट्रीय तनाव तथा आणविक युद्ध के वर्तमान युग में किसी भी विदेशी आक्रमण से अपनी रक्षा करने के लिए प्रतिरक्षा सेवाओं तथा आधुनिकतम साज-सज्जा की व्यवस्था हेतु बड़ी मात्रा में धन की आवश्यकता होती है। किन्तु केवल कराधान (taxation) के द्वारा ही आधुनिक युद्धों के लिए धन जुटाना बड़ा कठिन होता है। क्योंकि भारी कराधान का उत्पादन पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। अत: इस स्थिति से निपटने के लिए सरकार देश के अन्दर से तथा देश के बाहर से लोक ऋणो का आश्रय ले सकती है।

8. सामाजिक समाज की स्थापना के लिए-समाजवादी समाज की स्थापना के लिए वर्तमान समय में सरकार उद्योग व व्यापार का राष्ट्रीयकरण कर रही है और उनका संचालन भी स्वयं कर रही है, लेकिन आधुनिक उद्योगों के संचालन के लिए बड़ी मात्रा में पूँजी की आवश्यकता होती है, जिनकी पूर्ति सरकार केवल ऋणो द्वारा ही करती है।

9. आय प्राप्त होने तक प्रशासनिक कार्यों का व्यय पूरा करने हेतु-सरकार को करों से जो आय प्राप्त होती है वह वर्ष के अन्त में उपलब्ध हो पाती है परन्तु व्यय तो वर्ष के प्रारम्भ से ही करना पड़ता है। अत: वर्ष के शुरू में धन के अभाव में सरकार ऋण लेकर व्यय कर देती है तथा वर्ष के अन्त में आय प्राप्त होने पर उसका भुगतान कर देती है।

10. लोकमत को अनुकूल बनाने के लिए-जब नागरिकों को कर देने की सामर्थ्य नहीं होती है तो सरकार को ऋण लेना पड़ता है। कभी-कभी जनता की करदान क्षमता अधिक होने पर भी सरकार जान-बूझकर करों में वृद्धि इसलिए नहीं करती है कि लोकमत अनुकूल बना रहे। अत: सरकार भारी कर लगाकर करदाताओं को कष्ट नहीं देती है।

सार्वजनिक ऋण और व्यक्तिगत ऋण की समानताएँ तथा असमानताएँ

निजी अथवा गैर-सरकारी ऋण और सरकारी ऋण के बीच अनेक समानताएँ तथा असमानताएँ पाई जाती हैं। प्राइवेट व्यक्ति और व्यवसाय-गृह उधार लिए गए धन का उपयोग कुछ साधनों की प्राप्ति के लिए करते हैं। अत: निजी ऋण धन को एक उपयोग से हटाकर दूसरे उपयोग की ओर स्थानान्तरित कर देता है। इसी प्रकार, लोक ऋण से आशय है कि उन उत्पादकीय उपयोगों (productive uses) का जिन्हें कि गैर-सरकारी क्षेत्र पसन्द करता है, उन उपयोगों के लिए बलिदान (sacrifice) करना जिन्हें कि सरकार पसन्द करती है। 

इस प्रकार सरकारी तथा गैर-सरकारी ऋण, दोनों में ही मूलत: धन का एक उपयोग से दूसरे उपयोग की ओर को स्थानान्तरण होता है। लोक तथा निजी ऋण के बीच पाये जाने वाले मुख्य अन्तर निम्न प्रकार हैं-

  1. सरकार के पास ऋण लेने के आन्तरिक और बाह्य दोनों ही प्रकार के स्रोत होते हैं किन्तु व्यक्तियों को ऐसे स्रोत (sources) उपलब्ध नहीं होते।
  2. सरकार द्वारा लिए गये ऋणो का उपयोग सम्पूर्ण समाज के लिए किया जाता है किन्तु निजी ऋणो के द्वारा प्राप्त धन का उपयोग केवल उधार लेने वाले व्यक्ति के लाभ के लिए ही किया जाता है।
  3. सरकार लोगों को उधार देने के लिए बाध्य कर सकती है किन्तु व्यक्ति ऐसा नहीं कर सकता।
  4. चूँकि राज्य की साख अच्छी होती है, अत: निजी ऋणो के मुकाबले सरकारी ऋणो पर ब्याज की दर नीची होती है, यद्यपि यह होता है कि कुछ निगम (corporations) सरकार जैसी ही सरल दरों पर ऋण प्राप्त कर लें।
  5. सरकार तो साधारणतया उत्पादकीय कार्यों के लिए ही उधार लेती है किन्तु व्यक्ति उपभोग के लिए भी उधार ले सकता है।
  6. लोक ऋणो की वापिसी अदायगी लोक आय से, जिसमें कि लोक उद्यमों की आय भी सम्मिलित होती है, की जाती है किन्तु व्यक्ति अपनी निजी कमाई में से ऋणों को अदायगी करता है। अत: लोक ऋण से भार की प्रकृति निजी ऋण के भार की प्रकृति (nature) से भिन्न होती है।
  7. अन्त में, सरकार एक नीति (policy) के रूप में उधार (borrowing) का आश्रय ले सकती है, भले ही उसको धन की आवश्यकता हो या न हो। हो सकता है कि उधार से आर्थिक जीवन में कुछ स्थिरता लाने में मदद मिले। मुद्रा-स्फीति के दिनो में यह लोगों के हाथों में क्रय-शक्ति की मात्रा कम कर देता है जिससे कीमतों को नीचे लाने में मदद मिलती है। मन्दी के दिनों में सरकार उधार द्वारा कुछ किस्म के खर्चे करने में समर्थ हो जाती है जिससे व्यावसायिक क्रियाओं व रोजगार का स्तर ऊँचा उठाने में मदद मिलती है। परन्तु व्यक्ति को यदि धन की आवश्यकता न हो, तो वह उधार नहीं लेता।

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