कथक नृत्य की उत्पत्ति एवं विकास, इतिहास

कथक नृत्य की उत्पत्ति एवं विकास, इतिहास

‘कथक’ शब्द व्युत्पत्ति- ‘कथक अथवा ‘कत्थक’ दोनों शब्दों का आशय एक ही प्रकार की शास्त्रीय नृत्य शैली से है। कथक संस्कृत व्याकरण की दशमगण की ‘कथ्’ धातु से (कथनकत्र्तरिबूल) विनिर्मित एक कृदन्त शब्द है। इसकी उत्पत्ति निम्नांकित प्रकार से की गई है। ‘कथयति य: स कथन’ अर्थात् जो कथन करे वह कथक है।

कथक नृत्य की उत्पत्ति एवं विकास

भारतीय शास्त्रीय नृत्यों में कथक नृत्य उत्तर भारत का सर्वप्रमुख एवं अति लोकप्रिय नृत्य है। कई सदियों में कथक के अनेक उच्चकोटि के कलाकारों ने इस नृत्य में अपना नाम रोशन किया व इसको लोकप्रियता की बुलन्दी पर पहुंचाया। कथक नृत्य की प्रस्तुति में शिव का ताण्डव तथा श्रीकृष्ण की लीलाओं का नृत्यांकन इसकी प्रमुख विशेषता है। इसे कभी-कभी नटवरी नृत्य के नाम से भी सम्बोधित किया जाता है। 

नृत्य मानव के आनंद को अभिवयक्त करने का सर्वप्रथम और प्राकृतिक आधार रहा है इसलिए नृत्य की उत्पत्ति संभवत: मानव उत्पत्ति के साथ ही हुई होगी।

डॉ. माया टाक के अनुसार - कथक का आरम्भ ही मंदिरों से माना जाता है। कथाओ को प्रस्तुत करने वाला और मंदिरों में कथा वाचकों कों ही कथक की उत्पत्ति से जोड़ कर देखा जाता है।

कथक नृत्य की उत्पत्ति के सम्बंध में एक मत स्वामी हरिदास जी से सम्बंधित है। कहा जाता है कि स्वामी हरिदास जी ने जिन शिष्यों को गायन की शिक्षा दी वह गायक बने जिनको वादन की शिक्षा दी वह किन्नर बनें और जिनको नृत्य सिखाया वे कथक बने।

डॉ. प्रेम दवे के अनुसार - ‘‘वैष्णव भक्त स्वामी हरिदास के सम्मुख नृत्य किया करते थे’’। स्वामीजी के जिन शिष्यों ने उनसे नृत्य की शिक्षा प्राप्त की वे कथक बने। आज भी वृन्दावन में रास के बीच-बीच में कथक के बोलों का प्रयोग किया जाता है जैसे-तकिट-तकिट, धिलांग, गदिगंन, तादीम-तादीम, तत तथा थे आदि।

डॉ. माया टाक के अनुसार - वैष्णव साहित्य में ऐसा उल्लेख मिलता है कि प्रसिद्ध सन्त स्वामी हरिदास जी हरीकीर्तन के समय भावविभोर होकर नृत्य करने में लग जाते थे। धीरे-धीरे यह नृत्य मंदिरों से दरबारों की ओर बढ़ा।

डॉ. प्रवीन आर्या जी के अनुसार - कथक नृत्य की जो उत्पत्ति हुई है वह भगवान कृष्ण के रास से मानी जाती है और उस समय रास के साथ प्राचीन काल से ही पखावज बजता आया है उसके बाद तबला आया। कहने का तात्पर्य है कि नृत्य की शुरूआत ही पखावज के साथ हुई है और कथक के साथ जो सर्वप्रथम अवनद्ध वाद्य बजा वह पखावज ही था। कथक नृत्य द्वापर युग लगभग 5000 वर्ष भगवान कृष्ण के समय से ही प्रचलन में है और अवनद्ध वाद्यों का सम्बन्ध तभी से चला आ रहा है। 

एक अन्य मतानुसार कथक नृत्य की उत्पत्ति रास से मानी जाती है, कत्थक नृत्य का उद्भव रासलीला से ही है इसलिए इस नटवरी नृत्य भी कहते हैं। भारतीय संस्कृति में पौराणिक युग से ही गायन, वादन एवं नृत्य आदि कलाओं को धर्म साधना का प्राण माना गया है। वैदिक काल से ही नृत्य कला न केवल विभिन्न धार्मिक क्रिया कलापों, अपितु सामाजिक जीवन का भी अभिन्न अंग रही।

कथक नृत्य का इतिहास

1. वैदिक काल में कथक नृत्य 

भारत में सबसे प्राचीन ग्रंथ वेद माने जाते हैं। वैदिक साहित्य में नृत्य को न केवल प्रत्येक शुभ अवसर पर किया जाता था, अपितु मनोरंजन के लिए भी किया जाता था। 

1. ऋग्वेद में ‘नृत्यमानो देवता’ ऐसा वर्णित है। अर्थात् नृत्य करते हुए देवता अथवा देवतागण नृत्य करते हैं। 

2. यजुर्वेद में कहा गया है, ‘नृताय सूतं गीताय शैलूषम्’ अर्थात् नृत्य करने वाले सूत एवं गीत गाने वाले शैलूष होते थे। वैदिक काल में संगीत एवं नृत्यकला में मतभेद रहा हो, ऐसा किसी भी ग्रन्थ में उल्लेख नहीं है। वैदिक यज्ञों के अवसरों पर किए जाने वाले नृत्य अध्यात्मिक एवं आनंदोत्पादक थे। 

हिन्दू मन्दिरों में इष्टदेव की उपासना निश्चित गायकों, नर्तकों द्वारा विस्तृत नियमों के अनुसार होती थी। ऐसा विश्वास था कि मन्दिर केवल भगवान के रहने का स्थान नहीं है, यह ब्रह्माण्ड का स्वरूप है, जिसमें विभिन्न प्रतीकों द्वारा सृष्टि की नियामक शक्तियों का चित्रण किया जाता है, विभिन्न देवी-देवताओं के अनुरूप नर्तक विभिन्न प्रकार मुद्राऐं, अंगहार तथा रचनाएं प्रस्तुत करते थे।

अथर्व वेद में लिखा है’’यास्याय गायन्ति नृत्यन्ति भूम्याम् मृत्यव्र्येलवा’’ अर्थात् आनन्द भरी किलकारी को कंठ से निनादित करने वाले जिस भूमि पर नाचते रहते हैं। इस प्रकार सभी वेदों में नृत्य का वर्णन मिलता है। वेदकाल में प्रकृति की शक्तियों को देवता मानकर पूजा जाता था, जैसे वरुण, इन्द्र आदि। ऋग्वेद में इन्द्र को एक नर्तक के रूप में स्वीकार किया है।

2. महाकाव्य काल में कथक नृत्य

इसके पश्चात रामायण एवं महाभारत काल आया। इसे महाकाव्य काल भी कहते हैं। इन दोनों महाकाव्यों का रचना काल ईसा से 1500 वर्ष पूर्व माना गया है। दोनों ग्रन्थों में नृत्य के अनेक उल्लेख प्राप्त है। इन काव्यों से ज्ञात होता है कि नृत्य-तत्कालीन सामाजिक जीवन का अंग था। यह एक उच्चकोटि की कला थी जो देवी, देवताओं द्वारा अधिष्ठित ऋषि मुनियों द्वारा प्रशिक्षित एवं राजा महाराजाओं द्वारा प्रतिष्ठित थी।

3. पौराणिक काल में कथक नृत्य

इस काल में भी नृत्य का अति विकसित रूप हमारे सामने आता है। 
  1. ‘शिव पुराण’ में शिव के मन्दिर में पूजन करते समय नृत्य एवं संगीत में पारंगत सौ कन्याओं द्वारा पूजन का विधान मिलता है।
  2. ‘अग्नि पुराण’ में नृत्य करते समय शरीर के विभिन्न अंग संचालन के प्रयोग के बारे में एक अलग अध्याय लिखा गया है।
  3. भागवत की ‘रास-पंचाध्यायी’ एवं ‘विष्णु पुराण’ में रास का उत्कृष्ट रूप देखने को मिलता है।

4. ऐतिहासिक काल में कथक नृत्य

श्रीमती शोभना नारायण के अनुसार- स पाणिनी ने अपने ‘अष्टाध्यायी’ जिसका रचनाकाल ईसा से 500 वर्ष पूर्व माना गया है, में शिलाली एवं कुशाश्व द्वारा लिखित ‘नट सूत्रा’ (अनुपलब्ध) नामक ग्रंथ का उल्लेख किया है। स इसके अतिरिक्त पतंजलि के महाभाष्य जिसकी रचना 200 ई. पू. मानी गई है, में नृत्य का वर्णन मिलता है।

5. मध्य काल में कथक नृत्य

मध्य काल में कथक नृत्य ने अनेक उतार-चढ़ाव देखें। इस काल में भारत के वह क्षेत्र जिनमें कथक नृत्य पफला-पूफला तथा पल्लवित हुआ, उनमें जहाँ एक ओर हमें नृत्य पर संस्कृत में ग्रंथ लिखे जाने के प्रमाण मिलते हैं, वहीं नृत्य करने के लिए विषय वस्तु के लेखन की परम्परा भी दिखाई देती है। जिसके प्रमाण स्वरूप कुछ तथ्य इस प्रकार से हैं स बंगाल में जयदेव द्वारा नृत्य के लिए ‘अष्टपदी’ लिखी गई।

कथक नृत्य के घराने

‘घराना’ एक सामान्य शब्द है घराना शब्द की उत्पत्ति घर से हुई है। साधारण रूप से घराना शब्द का अर्थ है वर्ग, सम्प्रदाय, परिवार, कुटुम्ब, वंश परम्परा, कुनबा, घर इत्यादि। घराने का अर्थ उस विशेष वंश परम्परा से है जो एक पीढ़ी में हस्तांतरित होती है। संगीत के क्षेत्र में परम्परा का अर्थ सामान्य रूप से कला का पीढ़ी दर पीढ़ी उसी रूप में आगे बढ़ने जाने से होता है। 

कथक नृत्य के विद्वान कलाकारों द्वारा कथक नृत्य में कुछ मौलिक परिवर्तन करके नये तत्वों को समाहित किया गया तथा एक पृथक शैली को विकसित किया गया यही शैली प्रतिष्ठित होकर घराना कहलायी। 

1. जयपुर कथक घराना  

वर्तमान काल में कथक का जयपुर घराना एक विकसित और समृद्ध परम्परा के रूप में हमारे सामने है। कथक नृत्य शैली का जयपुर घराना सबसे प्राचीन माना जाता है। जयपुर घराने के प्रर्वतक भानू जी (79) माने जाते है। 

2. लखनऊ कथक घराना 

कथक के प्रसिद्ध लखनऊ घराने की शुरूआत ईश्वरी प्रसाद जी से मानी जाती है। ऐसा कहा जाता है कि ईश्वरी प्रसाद जी को सपने में भगवान श्रीकृष्ण ने दर्शन देकर इस नृत्य की भागवत बनाने की प्रेरणा दी उन्होंने यह ग्रन्थ रचकर इसकी शिक्षा अपने तीनों बेटो श्री अड़गू जी, खड़गू जी और तुलाराम जी को दी। इसके आगे अड़गू जी की वंश परम्परा ही लखनऊ कथक घराने के नाम से प्रख्यात हुई।

3. बनारस कथक घराना 

कथक के बनारस घराने का जन्म राजस्थान से ही माना जाता है किन्तु इसका सम्पूर्ण विकास बनारस में ही होने के कारण यह ‘बनारस घराने’ के नाम से प्रसिद्ध हुआ। बनारस अथवा जानकीप्रसाद घराने की परम्परा के प्रादुर्भाव के विषय में ऐसी मान्यता है कि जयपुर घराने से पूर्व ‘कथक’ का राजस्थान में एक घराना था जो ‘श्यामलदास घराना’ के नाम से विख्यात था इसी घराने से बनारस घराने की वंश परम्परा की शुरूआत हुई मानी जाती है।

4. रायगढ़ कथक घराना 

कथक का रायगढ़ घराने का जन्मस्थल म0प्र0 का छत्तीसगढ़ जिला है। यहां के राजा चक्रधर सिंह को नृत्य संगीत से अत्यंत लगाव था और वे स्वयं भी एक अच्छे कथक नर्तक थे। अच्छे संगीतज्ञ व रचनाकार होने के कारण राजा साहब ने कथक नृत्य की अनेक बंदिशें रची तथा भाव प्रदर्शन हेतु अनेक गज़लें व पदों की रचना की और इन सभी स्वरचित बंदिशों को इन्होंने अपने शिष्यों को सिखाया तथा यह परम्परा आगे बढ़ी और रायगढ़ घराने के नाम से प्रसिद्ध हुई। 

सन्दर्भ -
  1. मेसी एण्ड मेसी, दी डांसेस ऑफ इण्डिया, पृ. 11
  2. पं. तीर्थराम आजाद, कथक ज्ञानेश्वरी पृ. 18
  3. गीता रघुवीर, कथक के प्राचीन नृत्तांग, पृ. 3
  4. यजुर्वेद सांतवलेकर, पुरुषसूक्त, अध्याय-30, मंत्र संख्या-6, पृ. 126
  5. अथर्व वेद सांतवलेकर, 12-1-41द्ध पृ. 272
  6. पं. तीर्थराम आजाद, कथक दर्पण, पृ. 12
  7. गीता रघुवीर कथक के प्राचीन नृत्तांग, पृ. 4
  8. वाल्मिकी रामायण, सांतवलेकर (2-69-4)
  9. वेदव्यासप्रणीत महाभारत (विराट-पर्व श्लोक-53) पृ. 324
  10. गीता रघुवीर, कथक नृत्य के प्राचीन नृत्तांग, पृ. 4
  11. V.S. Agarwala, India as Known to Panini, Pg. 338.339
  12. गीता रघुवीर, कथक नृत्य के प्राचीन नृत्तांग, पृ. 5

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