ब्रजभाषा का विकास और ब्रजभाषा की विशेषताएं

ब्रजभाषा

साहित्य समाज का उपजीव्य है और मनुष्यों के समूह से बनता है। ब्रजभाषा काव्य का व्यवस्थित इतिहास अष्टछाप के कवियों से ही प्राप्त होता है इससे पहले यत्र-तत्र स्फुट रचनाएँ तो प्राप्त होती हैं किन्तु प्रामाणिक रूप से ब्रजभाषा की किसी भी रचना या रचनाकार का उल्लेख नहीं प्राप्त होता भाषा की दृष्टि से सूर और परमानन्द से पहले ब्रजभाषा में रचना करने वाले किसी कवि का परिचय इतिहास नहीं देता।

ब्रजभाषा का विकास

आदिकाल से लेकर वर्तमान काल के पूर्वार्ध तक ब्रजभाषा काव्य की महत्ता को नकारा नहीं जा सकता। प्रमुख रूप से पूर्व मध्यकाल और उत्तर मध्यकाल की समग्र काव्य चेतना ब्रजभाषा के ही सुदृढ़ कंधों पर आरूढ़ रही है। इस ब्रजभाषा ने ग्राम्यांचलों की पगडंडियों से लेकर दिव्य प्रसादों के राजमार्गों तक की रचनायात्रा तय की है और हर पड़ाव पर अपने कीर्ति स्तम्भ स्थापित किए हैं।

ब्रजभाषा के विकास का चरम उत्कर्ष हिन्दी साहित्य के मध्यकाल में दृष्टिगोचर होता है। यद्यपि हिन्दी साहित्य के ‘आदिकाल’ (वीरगाथाकाल) के साहित्य में भी ब्रजभाषा के बीज मिलते हैं। यह पहले ही कहा जा चुका है कि ब्रजभाषा पुरानी सार्वदेशिक काव्यभाषा का विकसित रूप है। ‘पृथ्वीराज रासों में ही इसके रूप का बहुत कुछ आभास मिल जाता है, यथा- 

‘‘तिहि रिपुजय पुरहरन को भए प्रथिराज नरिंद।’’  

हेमचन्द्र की रचनाओं में अपभ्रंश का जो रूप मिलता है उसमें ब्रजभाषा के बीज वर्तमान है, यथा- 

‘‘पिअ काई करऊँ हउँ’’


हिमांचल की बर्फीली घाटियों से लेकर गंगा यमुना के रससिक्त मैदानों से होकर मध्यभारत की सपाट वसुन्धरा को छूकर महाराष्ट्र, बंगाल, दक्षिण के दुर्गम्य प्रदेशों का जो स्पर्श किया है उसे सहज ही विस्मृत नहीं किया जा सकता। ब्रजभाषा वस्तुत: एक प्रांतीय बोली के रूप में उद्भूत हुई और शीघ्र ही समग्र भारत वर्ष में काव्य भाषा के रूप में उसने अपना साम्राज्य अधिस्थापित कर दिया। 

ब्रजभाषा का मध्यकाल वस्तुत: संस्कृत साहित्य की गौरवमयी बौद्धिक काव्यांग विवेचनाओं पर आधारित था, जिसमें भरत का नाट्यशास्त्र भामह का काव्यालंकार, उद्भट का काव्यालंकार-सार संग्रह था। 

आनन्दवर्द्धनाचार्य का ध्वन्यालोक, भोज की सरस्वती कंठाभरण, पंडितराज जगन्नाथ का रस गंगाधर, भानुदत्त की रसमंजरी थी। 

इसी प्रकार संस्कृत की महिमामयी काव्यकृतियों में कालिदास के काव्य ग्रन्थों ने भी इस ब्रजभाषा को प्रभूत रूप में उत्प्रेरित किया। अत: ब्रजभाषा का विकास का परिचय प्राप्त करने के लिए ‘मध्यकाल’ तथा ‘रीतिकाल’ अवलोकनीय है।

मध्यकाल में ब्रजभाषा का विकास

ब्रजभाषा का विकास मध्यकाल से प्रारम्भ हुआ। तत्कालीन धार्मिक आन्दोलन की जागृति ने ब्रजभाषा को अत्यधिक महत्व प्रदान किया। कृष्ण भक्ति के अधिक प्रचार ने ब्रजभाषा को प्रधानता प्रदान की। 16वीं सदी के प्रारम्भ में सूर ने इसे सर्वप्रथम साहित्यिक रूप प्रदान किया। उस समय तक काव्य भाषा ने ब्रजभाषा का पूरा-पूरा रूप पकड़ लिया था। कृष्ण भक्ति के साथ-साथ ब्रजभाषा समस्त उत्तर भारत में फैल गई। बंगाल में चण्डीदास, गुजरात में नरसी मेहता और महाराष्ट्र में सन्त तुकाराम ने इसी भाषा में काव्य रचना की। 

कृष्ण भक्ति काव्य का चरमोत्कर्ष महाकवि सूर के साहित्य में देखने को मिलता है इनके द्वारा रचित ग्रन्थों में सूरसागर, साहित्य लहरी, सूर-सारावली में उल्लेखनीय है। सूरसागर तथा सूर-सारावली में कृष्ण की लीलाओं का वर्णन है तथा साहित्य लहरी की रचना शृंगार रस तथा नायिका भेद को दृष्टि में रखकर की गई है। कृष्ण के लोकरंजक स्वरूप को सूर ने अपनी भक्ति का आलम्बन बनाया है। वह सूर के सखा भी हैं, इष्ट देव भी। सूर ने मुख्य रूप से कृष्ण के बाल तथा यौवन पक्षों को अपने काव्य का विषय बनाया है। 

सूर के पदों में भावों की गम्भीरता तथा संगीत का माधुर्य कूट-कूटकर भरा है। उनमें ब्रजभाषा की प्रौढ़ता दर्शनीय है।

कृष्ण साहित्य के अतिरिक्त ब्रजभाषा का उत्कृष्ट रूप राम-भक्ति साहित्य में भी देखने को मिलता है। गोस्वामी तुलसीदास, अग्रदास, नामदास आदि रामभक्ति शाखा के कवियों में ब्रजभाषा के दर्शन होते हैं। तुलसी की विनय पत्रिका, गीतावली, कवित्त रामायण आदि ब्रजभाषा की उत्कृष्ट रचनाएँ हैं।

रीतिकाल में ब्रजभाषा का विकास

मध्यकाल की ब्रजभाषा में पर्याप्त गम्भीरता तथा शक्ति आ गयी थी। रीतिकाल में आकर उसकी प्रांजलता, सौन्दर्य तथा शक्ति अपने चरम रूप में दिखायी दी। रीतिकाल की ब्रजभाषा की प्रमुख विशेषता है उसकी विशुद्धता। बिहारी, देव, मतिराम, केशव, चिन्तामणि, घनानन्द, सेनापति आदि ने इसका ख् ाूब शृंगार किया। भूषण ने उसे वीररस का पुट दिया। सूर के समय तक ब्रजभाषा पूर्ण रूप धारण कर चुकी थी उस पर प्राचीन काव्यभाषा का प्रभाव था। उसमें क्या क्रिया, क्या सर्वनाम, क्या अन्य शब्द सब पर प्राकृत तथा अपभ्रंश का प्रभाव दिखायी पड़ता है। परन्तु घनानन्द तक आते-आते भाषा की शुद्धता पर पुन: ध्यान दिया जाने लगा। इस विशुद्धता को लाने की अगुवाई की घनानन्द ने।

ब्रजभाषा का स्वरूप

ब्रज क्षेत्र के विस्तार से भी अधिक ब्रजभाषा का विस्तार रहा। ब्रजभाषा न केवल क्षेत्र की भाषा बनी रही बल्कि एक समय समस्त उत्तराखण्ड में बंगाल, असम से लेकर गुजरात, महाराष्ट्र तक उत्तर में पंजाब और सीमान्त प्रदेश तक तथा दक्षिण में विन्ध्य के पार तक ब्रजभाषा का आधिपत्य रहा लम्बे समय तक यह न केवल साहित्य की भाषा ही रही बल्कि शासन की भी भाषा बनी। स्वभावत: ऐसी भाषा के अनेक रूप प्रचलित हो गये थे। 

ब्रजभाषा का स्वरूप जब जगह कभी एक-सा नहीं रहा। हम यहाँ केवल साहित्यिक ब्रजभाषा के स्वरूप पर विचार करेंगे। स्थान भेद के आधार पर साहित्यिक ब्रजभाषा के तीन रूप या चार रूप बताये जाते हैं। 

वीरेन्द्रनाथ ने चार रूप माने हैं-
  1. केन्द्रीय ब्रजभाषा
  2. सीमान्त ब्रजभाषा
  3. ब्रजेतर हिन्दी प्रान्तों में प्रयुक्त ब्रजभाषा
  4. हिन्दीतर प्रान्तों प्रयुक्त ब्रजभाषा।
जैसा कि प्राय: सभी भाषाओं के विषय में होता है एक सीमित क्षेत्र में बोली जाने वाली भाषा ही परिनिष्ठित भाषा होती है। उदाहरण के लिए लन्दन की अंग्रेजी या पेरिस की फ्रेन्च या पूना की मराठी या ठाकुर की बंगला शुद्ध मानी जाती रही है। ब्रजभाषा के विषय में भी यह कहा जाता है कि मथुरा के आसपास की ब्रजभाषा केन्द्रीय ब्रजभाषा या परिनिष्ठित ब्रजभाषा है। सीमान्त ब्रजभाषा में ब्रजभाषा क्षेत्र के निकटवर्ती जिले आते हैं। पूर्व में पीलीभीत, फर्रुखाबाद, शाहजहाँपुर, हरदोई, कानपुर आदि जिलों में अवधी के कुछ प्रभाव लिए हुए सीमान्त ब्रजभाषा का एक रूप मिलता है। मैनपुरी, एटा, इटावा, बदायूँ तथा बरेली की भाषा पर यह प्रभाव नहीं है। 

दक्षिण में भरतपुर, धौलपुर, करौली, पश्चिमी ग्वालियर तथा पूर्वी जयपुर में प्राप्त होने वाली ब्रजभाषा राजस्थानी से प्रभावित है। इसे पिंगल नाम से भी जाना जाता है। इसी प्रकार बुन्देली भी ब्रज की दक्षिणी उपबोली कही जा सकती है। 

इसी प्रकार उत्तरी तथा पश्चिमी सीमान्त प्रदेशों में क्रमश: पहाड़ी एवं खड़ी बोली से प्रभावित सीमान्त ब्रजभाषा का स्वरूप मिलता है। ब्रजेतर हिन्दी प्रान्तों में प्रयुक्त ब्रजभाषा के अन्तर्गत डॉ0 वीरेन्द्रनाथ मिश्र ने अवधी, भोजपुरी, छत्तीसगढ़ी, बुन्देली, राजस्थानी, खड़ी बोली आदि के क्षेत्रों में रचित ब्रज साहित्य को रखा है, उन्होंने इसे शुद्ध ब्रज क्षेत्र में रचित साहित्य से किसी प्रकार कम महत्वपूर्ण नहीं माना है। इसी प्रकार हिन्दीतर प्रान्तों में प्रयुक्त ब्रजभाषा में असम महाराष्ट्र, गुजरात, बंगाल, पंजाब आदि प्रदेशों के अनेक कवियों की ब्रज की रचनाएँ रखी गयी हैं। 

हिन्दीतर प्रान्तों में प्रयुक्त ब्रजभाषा का उसके प्रसार एवं महत्व की दृष्टि से विशेष स्थान है। इस प्रकार ब्रजभाषा के स्वरूप में भी व्यापक परिवर्तन परिलक्षित हुए यह स्वाभाविक भी था। अपभ्रंश काल के साथ ही साथ ब्रजभाषा के निर्माण के लक्षण भी देखे जा सकते हैं। 

इस प्रकार ब्रजभाषा काल को सं0 1200 के आसपास से प्रारम्भ माना जा सकता है। मोटे तौर पर ब्रजभाषा को चार कालखण्डों में रखा जा सकता है।
  1. संक्रान्तिकालीन ब्रजभाषा (सं0 1200 से 1411 वि0 तक)
  2. प्रारम्भिक ब्रजभाषा (सं0 1411 से 1560 ई0 तक)
  3. मध्यकालीन ब्रजभाषा (सं0 1560 से 1900 वि0 तक)
  4. आधुनिककालीन ब्रजभाषा (सं0 1900 के पश्चात)
डॉ0 अम्बाप्रसाद ‘सुमन’ ने अपनी ब्रजभाषा का उद्गम एवं विकास नामक रचना में संक्रान्ति कालीन ब्रजभाषा के लक्षण हेमचन्द्र व्याकरण ‘1142 ई0’ सन्देश रासक ‘12वीं-13वीं शती ई0 ‘प्राकृत पैंगलम’ ‘1300 -1325 ई 0’ आदि से उदाहरण देकर सिद्ध किये हैं।

डॉ0 शिवप्रसाद सिंह ने अपनी रचना ‘सूरपूर्व ब्रजभाषा और उसका साहित्य’ में प्रारम्भिक ब्रजभाषा को अपभं्रश के साहित्यिक रूप के साथ विकसित होते दिखाया है। इसमें न केवल सूरपूर्व के सभी ब्रजभाषा साहित्य को सम्मिलित कर लिया गया है। बल्कि सूरकालीन रचना छीहल बावनी (सं0 1584 ) को भी सम्मिलित कर लिया गया है। इसे न भी सम्मिलित किया जाये तो भी उस युग तक ब्रजभाषा का पर्याप्त विकास देखने के लिए अनेक रचनाएँ हैं। इनमें प्रद्युम्न चरित (1411 वि0) से लेकर बैताल पचीसी (1546 वि0) और छिताई वार्ता (सं0 1550 वि0) प्रमुख हैं। 

डॉ0 वीरेन्द्रनाथ मिश्र के अनुसार- ‘‘उक्त रचनाओं के साथ गोरखपंथी ग्रन्थों को भी सम्मिलित किया जा सकता है।’’ मध्यकालीन ब्रजभाषा को सूर के प्रादुर्भाव के साथ जोड़ा जा सकता है यह अकबर के दृढ़ प्रतिष्ठित शासन के काल से प्रारम्भ होती है और अत्यन्त परिनिष्ठित एवं प्रांजल रूप को धारण करती हैं। सूरदास के अतिरिक्त अष्टछाप के अन्यकवि और सत्रहवीं शती के देव, घनानन्द, भिखारीदास, पद्माकर, लल्लूलाल आदि की रचनाओं में मध्यकालीन ब्रज अपने चरम उत्कर्ष में देखी जा सकती है। संवत् 1900 वि0 के पश्चात आधुनिक ब्रजभाषा के दर्शन होते हैं। 

प्रारम्भिक रचनाकार लल्लूलाल (सं0 1819 से 1882 वि0) ने ब्रजभाषा को पहले ही अवधी की ओर मोड़ दिया था। यह कार्य पोर्ट विलियम कालेज के अध्यापक जान जिलक्राइस्ट के आदेश पर किया गया था। लल्लूलाल जी की प्रसिद्ध रचना ‘प्रेमसागर’ में इसे स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। इसी प्रकार बैताल पचीसी, सिंहासन बत्तीसी, लालचन्द्रिका, बिहारी सतसई की टीका भी ख्ड़ी बोली में है जिनमें यत्र तत्र ब्रजभाषा की छाप दिखाई पड़ती है। लल्लूलाल जी जिस संक्रमण युग में हुए थे उसमें भाषा को एक परिवर्तित रूप देना परिस्थिति जन्य अनिवार्यता थी। अनेक लेखकों को फिर इसी साँचे में चलना पड़ा। इसलिए डॉ0 धीरेन्द्र वर्मा ने अपनी रचना ‘ब्रजभाषा’ में भाषा विकास की दृष्टि से परवर्तीकाल की इस ब्रजभाषा को पिछली शताब्दियों के लेखकों की भाषा की नकल कहा है।

खड़ी बोली और अंग्रेजी के सम्पर्क से ब्रजभाषा में पर्याप्त परिवर्तन हुआ और धीरे-धीरे उसका स्थान कम से कम शासनतंत्र में खड़ी बोली ने ले लिया। स्वभावत: ब्रजभाषा का प्रयोग कोमल कमनीय भावों की अभिव्यक्ति के लिए केवल काव्य में ही सिमट कर रह गया। बाद में जब अंग्रेजी प्रभाव के कारण मुक्त छन्द ‘ब्लैंकवर्स’ का दौर चल पड़ा तो ब्रजभाषा की काव्य क्षेत्र में भी उपयोगिता घटने लगी क्योंकि छन्द के बन्धन को स्वीकारना कठिन हो गया जो ब्रजभाषा की अनिवार्य शर्त थी। इसका यह अर्थ नहीं है कि ब्रजभाषा का कोई उपयोग नहीं रह गया। आज भी ब्रजभाषा में कोमल, कमनीय, काव्य की रचना बराबर हो रही है। साथ ही ब्रजभाषा ने खड़ी बोली का भी शृंगार अपने हाथों से किया है। खड़ी बोली में मनोरम लय, ताल की सृष्टि करने का कार्य ब्रजभाषा ने किया है। 

आधुनिक काल की ब्रजभाषा अपने गुणधर्मों को समेटे आज भी लज्जाशील नायिका की तरह आगे बढ़ती जा रही है। हाँ उसमें वह स्वच्छन्दता नहीं है जो उसे आधुनिकता का नाम दे सके। पर जब कभी हम अतिस्वच्छन्दता वाद से ऊबते हैं ब्रजभाषा अपनी मधुर अमृत वर्षा से हममें नई शक्ति का संचार करती है। ऐसा एक जीवंत भाषा ही कर सकती है।

ब्रजभाषा की विशेषताएं

हिंदी साहित्य का इतिहास प्रधानतया ब्रजभाषा का ही इतिहास रहा है। ब्रज को यदि धार्मिक दृष्टिकोण पर देखा जाए तो इसकी सीमा मथुरा जिले तक ही सीमित है। यदि ब्रजभाषा का मूल्यांकन किया जाए तो काव्यभाषा के रूप में ब्रजभाषा उत्तर भारत में श्रेष्ठ एवं सर्वाधिक रूप से मान्य है। जहाँ समूह रूप में गायें रहती हैं, वह स्थान गोस्थली माना जाता है, तथा ब्रज का मूल अर्थ भी गोस्थली ही माना गया है। इससे यह स्पष्ट होता है कि मथुरा तथा उसके आस-पास के क्षेत्र को ब्रजमण्डल के नाम से सम्बोधित किया जाता है- ‘‘ब्रज शब्द का संस्कृत तत्सम रूप ‘ब्रज’ है जो संस्कृत धातु ‘व्रज्’ ‘जाना’ से बना है। 

‘व्रज’ शब्द का प्रथम प्रयोग ऋग्वेद संहिता में मिलता है किंतु यहाँ यह शब्द ढेरों के चारागाह या बाड़े अथवा पशु समूह के अर्थों में प्रयुक्त होता है। वैदिक साहित्य तथा रामायण महाभारत तक में यह शब्द देशवाचक नहीं हो पाया था। हरिवंश तथा भागवत आदि पौराणिक साहित्य में भी इस शब्द का प्रयोग कृष्ण के पिता नंद के मथुरा के निकटस्थ व्रज अर्थात् गोष्ठ विशेष के अर्थ में ही हुआ है। मध्यकालीन हिंदी साहित्य में तद्भव रूप व्रज अथवा बृज निश्चय ही मथुरा के चारों ओर के प्रदेश के अर्थ में मिलता है।

ब्रजभाषा साहित्यिक स्तर पर तथा भाषा की दृष्टि से भी अधिक सम्पé एवं विस्तृत रही है। आदिकाल से लेकर आधुनिक काल तक ब्रजभाषा का प्रयोग साहित्य रूप में ही किया गया है। ब्रजभाषा का साहित्यिक रूप विराट तथा अतुल्य रहा है। धार्मिक नजरिए से यदि ब्रजभाषा का मूल्यांकन करें तो यह ब्रजमंडल की सीमा रेखा अर्थात् मथुरा तक ही सीमित प्रतीत होता है, यदि गहन अध्ययन से देखा जाए तो ब्रजभाषा की सीमा रेखा मथुरा तक ही सीमित न रहकर उसके बाहर भी प्रयुक्त की जाती है एवं बोली भी जाती है।

ब्रजभाषा का कई जिलों पर अधिकार रहा है। ब्रजभाषा कई जिलों के पश्चिमी भाग में भी बोली जाती है। डॉ0 धीरेन्द्र वर्मा के दृष्टिकोण से- ‘‘उत्तर भारत के मथुरा, अलीगढ़, आगरा, बुलंदशहर, एटा, मैनपुरी, बदायूँ तथा बरेली के जिले; पंजाब के गुड़गाँव जिले की पूर्वी  पÍी; राजस्थान में भरतपुर, धौलपुर, करौली तथा जयपुर के पूर्वी भाग; मध्यभारत में ग्वालियर का पश्चिमी भाग। उत्तर प्रदेश के पीली-भीत, शाहजहाँपुर, फर्रूखाबाद, हरदोई, इटावा और कानपुर के जिले भी ब्रजप्रदेश में सम्मिलित हैं।’’ इसी दृष्टिकोण में डॉ0 हरदेव बाहरी का वक्तव्य है- ‘‘व्रज का अर्थ है गोस्थली, वह क्षेत्र जहाँ गायें रहती हैं। रूढ़ अर्थ में मथुरा और उसके आस-पास 84 कोस तक के मंडल को व्रजमंडल कहते हैं। परन्तु भाषा की दृष्टि से यह क्षेत्र इससे अधिक विस्तृत है। मथुरा, आगरा और अलीगढ़ जिलों में ब्रजभाषा का शुद्ध रूप मिलता है। बरेली, बदायूँ, एटा, मैनपुरी, गुड़गाँव, भरतपुर, करौली, ग्वालियर तक ब्रजभाषा के थोड़े बहुत मिश्रण पाये जाते हैं, परंतु प्रमुखत: बोली ब्रजभाषा ही है। जनसंख्या तीन करोड़ के लगभग है।

ब्रजभाषा का साहित्य अत्यंत विशाल है।’’ ब्रज बोली साहित्य के शिखर पर सदैव विराजमान रही है किंतु सामाजिक एवं आर्थिक रूप से भी ब्रज का महत्व कम नही है। मध्यप्रदेश कृषि प्रमुख होने के कारण व्रज प्रदेश की आर्थिक व्यवस्था सम्पन्न  एवं ठोस रही है। सामाजिक रूप से यदि ब्रजभाषा को आँकें तो ब्रजप्रदेश में भाँति-भाँति के उत्सव व्रज की सामाजिक गरिमा को बनाए रखता है। मथुरा में होली जैसे उत्सव प्रसिद्ध होने के कारण व्रज प्रदेश एवं ब्रजभाषा का विस्तार आर्थिक तथा सामाजिक दोनों ही रूपों में निखर कर आता है। मथुरा धार्मिक रूप से अधिक महत्वपूर्ण रहा है, जिससे अन्य केन्द्र भी प्रभावित हुए हैं, ‘‘ब्रजप्रदेश के उत्तर में स्थित दिल्ली, एक विश्वविख्यात नगर होते हुए तथा 800 वर्षों तक भारतीय विदेशी साम्राज्यों की राजधानी रहते हुए भी,. ब्रज क्षेत्र को विशेष प्रभावित नही कर सका। दक्षिण में ग्वालियर और जयपुर ब्रज क्षेत्र के 87 आगरा तथा मथुरा के सांस्कृतिक केन्द्रों से प्रभावित हुए हैं। इसमें आदान और प्रदान दोनों ही विशेष होते रहे हैं।’’ 

 सभी भाषाओं की अपनी कुछ विशेषताएँ होती हैं। अवधी, ब्रज, बुंदेली, भोजपुरी, कौरवी आदि सभी भाषाओं का अपना एक उच्चारण होता है जो दूसरी अन्य से पृथक् होती है। ब्रजभाषा पश्चिमी हिंदी के ओकार बहुला के अन्तर्गत आती है। ओकार बहुला के अन्तर्गत ब्रजभाषा प्रमुख बोली मानी जाती है। ब्रजभाषा ‘ह्रस्व एँ और ओं’ की ध्वनियाँ है। इसी संदर्भ में डॉ0 हरदेव बाहरी का कथन है- ‘‘ब्रजभाषा ह्रस्व एँ और ओं अतिरिक्त ध्वनियाँ हैं। शब्दों के अंत में ह्रस्व इ और उ होते हैं; जैसे- बहुरि, करि, किमि, बाधु, मनु, कालु। हिंदी में पद के अंत में जो ए ओ होते हैं, उनके स्थान पर ऐ औ पाये जाते हैं; जैसे- करै, घर मैं, ऊधौ, साधु कौ। ब्रजभाषा ओकारबहुला भाषा है- लेनो, देनो, झगरो, बसेरो, भयो।’’ ‘ब्रजभाषा’ शब्दों के उच्चारण में भिन्न होती है। 

ब्रजभाषा में व्यंजन के अल्पप्राण की प्रवृत्ति भी होती है। पश्चिम तथा दक्षिण ब्रजप्रदेश में (लड़का) को (छोरा) शब्द से संबोधित किया जाता है। वही पूर्व में (छोरा) के स्थान पर लौंडा या लड़का शब्द का प्रयोग होता है। हरदेव बाहरी ने भी ब्रजभाषा शब्दों का उल्लेख किया है जिसमें व्यंजन को अल्पप्राण होने की प्रवृत्ति का उल्लेख है। हरदेव बाहरी के दृष्टि के अनुसार- ‘‘व्यंजन के अल्पप्राण कर देने की प्रवृत्ति ब्रजभाषा में भी है : जैसे- बारा (बारह), तुमारो, भूँका (भूखा), हात (हाथ)। मूर्धन्य ण नही  है। ल और ड़ के स्थान पर र कर देने की प्रवृत्ति व्याप्त है : जैसे- पर्यो (पड़ा), झगरो (झगड़ा), पीरो (पीला), दूबरो (दुबला)। न्ह, म्ह, र्ह, ल्ह कुछ- एक शब्दों में मिलते हैं : जैसे- न्हात, लीन्हे, म्हाक (महक) उर्हानो, र्हात, ल्होरो (छोटा)। व्यंजन संयोग हैं तो बहुत-से, परंतु प्राय: संयोग को स्वरभक्ति से तोड़ देते हैं; जैसे- विरज (व्रज), सबद (शब्द) बखत (वक्त)। 

 गाम (गाँव), पाम (पाँव), सुनामन (सुनावन), चाँउर (चावल), अपएँ (अपने), इमिरित (अमृत), इमिलि (इमली), उद्द (उड़द), जन्दी (जल्दी), हिन्नु (हिरन), भौत (बहुत)। प्राय: शब्द के बीच में पड़े र का लोप हो जाता है और र् के संयोगवाला दूसरा व्यंजन द्वित्व हो जाता है; जैसे- घत्ते (घर से), सद्दीन में (सर्दियों में), मदस्सा (मदर्सा)।’’6 ब्रजभाषा में उच्चारण से लेकर व्याकरण में लिंग सर्वनाम विशेषण तथा क्रिया में कई ऐसी विशेषताओं का मिश्रण होता है जो अपनी एक निजी छाप स्पष्ट करते हैं। ब्रजभाषा में मुख्य रूप से स्त्रीलिंग का प्रयोग उल्लेखनीय है जैसे- घोड़ी-घुड़िया, पड़िताइन इत्यादि। सर्वनाम में उत्तम पुरुष सर्वनाम का प्रयोग मुख्य रूप से ब्रजभाषा में होता है। 

क्रिया के अन्तर्गत ब्रजभाषा अर्थ के रूप में मूल रूप भाव वाच्य होता है। जिसका उल्लेख धीरेन्द्र वर्मा ने भी अपनी दृष्टि से किया है- ‘‘अर्थ की दृष्टि से मूल रूप या भाव वाच्य होता है या कर्मवाच्य : पेड़ कटत है, बौ पेड़ काटत है। कर्मवाच्य मूल रूप सदा अकर्मक होते हैं तथा भाववाच्य सकर्मक तथा अकर्मक दोनों प्रकार के होते हैं। 

क्रिया के मूल रूप साधारण तथा प्रेरणार्थक दोनों प्रकार के पाए जाते हैं। ब्रज में दो प्रकार के प्रेरणार्थक प्रत्यय है- आ और ब।’’ 

संदर्भ - 
  1. ब्रजभाषा- धीरेन्द्र वर्मा, पृ0 16-17 
  2. हिंदी भाषा- डॉ0 हरदेव बाहरी, पृ0 18 
  3. ब्रजभाषा- धीरेन्द्र वर्मा, पृ0 92 
  4. ब्रजभाषा और ब्रजबुलि साहित्य- कणिका तोमर, पृ0 151 
  5. हिंदी साहित्य का अतीत, भाग-1, विश्वनाथ प्रसाद मिश्र, वाणी वितान प्रकाशन, वाराणसी, पृ0 311 
  6. श्रीकृष्णगीतावली, दो0 2-1 
  7. सूरसागर- संपा0- श्री नंद दुलारे वाजपेयी, ना0प्र0स0, दशम स्कंध, 175, पृ0 259 
  8. रीतिकाल- डॉ0 जगदीश गुप्त, पृ0 113 

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