गुरु गोविंद सिंह का जीवन परिचय, प्रमुख रचनाएं

सिक्खों के दसवें और अन्तिम गुरू, गुरु गोविंद सिंह का जन्म संवत् 1723 विक्रमी की पौष सुदी सप्तमी अर्थात् 22 दिसम्बर, 1666 ई0 को भारतीय संस्कृति की उस प्राचीन पवित्र पटना नगरी में हुआ जिसका नाम कभी पाटलीपुत्र था।  यह जन्म गुरु गोविंद सिंह के शरीर का नहीं अपितु उस परम आत्मा और दिव्य ज्योति का था जिसने समस्त भारत को एक नवीन विचार क्रांति द्वारा आलोकित किया। उस परम-दिव्य ज्योति का नाम रखा गया ‘नानक’। 

बालक गोबिन्द राय ने जीवन के प्रारम्भिक 6 वर्ष अपनी माता तथा मामा के संरक्षण में पटना में ही व्यतीत किए। उनके पिता जिस समय पूर्वी भारत के राज्यों में सिक्ख गुरूओं की परमपरागत विचार-वाणी को प्रचारित कर रहे थे तब बालक गोबिन्द समान्य बालकों के रूचिपरक खेलों की अपेक्षा अस्त्र-शस्त्र के खेलों को खेलते थे। नकली दुर्ग बनाकर उन्हें विध्वंस करना, खेतों और खलिहानों पर कृतिम सेना का सेनापति बन अपने मित्रों को युद्ध की सभी क्रियायें सिखाया करते थे। 

लगभग 6 वर्ष तक पटना में रहने के पश्चात् बालक गोबिन्द पिता के बुलावे पर माता गूजरी, दादी नानकी, व अन्य लोगों के साथ पटना से आन्नदपुर की ओर चल पड़े। पटना से विदाई के समय विशाल जनसमूह, जिसमें हिन्दू, मुस्लिम राजा फतेह चंद मैनी, उसकी रानी, पण्डित शिवदत्त तथा गोबिन्द के अन्य बाल मित्र उनके समूह के साथ-साथ चलते रहे। इस समूह यात्रा के दौरान वाराणसी, अयोध्या और लखनऊ में लम्बे समय तक रूका। अम्बाला के समीप लखनूर में जो यह समूह लगभग छ: महीने तक पड़ाव डाले रहा। 

इसके अतिरिक्त मार्ग में दानापुर, प्रयाग, कानपुर, हरिद्वार, मथुरा, वृन्दावन आदि विभिन्न तीर्थ स्थलों के दर्शन और वहाँ के सांस्कृतिक परम्परा को उन्होंने आत्मसात करने का प्रयास किया। हर पड़ाव के दौरान अनेक लोग बालक गोबिन्द के तेजस्वी व्यक्तित्व की चर्चा सुनकर उस दिव्यात्मा के दर्शनों हेतु पहुँच जाते। इस यात्रा के दौरान ही घुरम के पीर भीखम-शाह और काबुल के पीर आरिफदीन से उनकी भेंट हुई।

पटना से आन्नदपुर साहब की दूरी तय करने में बालक गोबिन्द राय को लगभग एक वर्ष का समय लगा, जब उनका यह समूह आन्नदपुर साहब पहुँचा तो इनके दर्शनों के लिए दूर-दूर से हजारों की संख्या में लोग पहुँच गए। बालक गोबिन्द राय की शिक्षा का प्रारम्भिक केन्द्र पटना रहा। वहाँ की स्थानीय भाषा पूर्वी हिन्दी उन्होंने अच्छी तरह सीखी। इसी तरह गोबिन्द ने अपनी माँ से गुरूमुखी पढ़ना भी सीखी, इसी तरह गोबिन्द ने अपनी माँ से गुरूमुखी पढ़ना भी सीखा और उनकी मागघी-मिश्रित भाषा सुनकर ही आन्नदपुर के नागरिक उनकी इस विचित्रता से अत्यन्त प्रसन्न होते। पंजाबी की विधिवत् शिक्षा उन्हें साहबचंद ग्रंथी से तथा फारसी की शिक्षा मुसलमान शिक्षक पीर मुहम्मद से प्राप्त हुई।

गुरु गोविंद सिंह का विवाह

गुरु गोविंद सिंह के दो विवाह हुए थे। उनका प्रथम विवाह लाहौर निवासी सुमिखिया क्षत्री की सुपुत्री जीतो देवी के साथ संवत् 1734 विक्रमी में आषाढ़ की 23वीं तिथि को हुआ। गुरू जी के वीरत्व और उनके व्यक्तित्व की विशिषटता के कारण कई अन्य लोग भी अपनी पुत्रियों का विवाह उनसे कराना चाहते थे। गुरू जी ने ऐसे सभी प्रस्ताव अस्वीकार कर दिए, किन्तु उनकी माता गुजरी देवी के आदेश पर सन् 1682 में रामसरन क्षत्री की पुत्री सुन्दरी को गुरू जी ने स्वीकार कर उनसे विवाह कर लिया। 

कुछ अन्य विद्वान उनके एक अन्य स्त्री ‘साहिबा देवी’ से भी उनके विवाह का उल्लेख करते हैं। गुरू जी का इस कन्या से कोई शारीरिक सम्बन्ध नहीं था उन्होंने उसके पुत्र-प्राप्ति के आग्रह को स्वीकारते हुए उन्हें समस्त खालसाओं की माता बनकर रहने को कहा। 

गुरु गोविंद सिंह के पुत्र

गुरु गोविंद सिंह की पहली सन्तान माता सुन्दरी के गर्भ से सन् 1686 में हुई। गुरू जी ने उसका नाम अजीत सिंह रखा। उसके पश्चात् माता जीतो देवी से तीन पुत्र जुझार सिंह जोरावर सिंह तथा फतेह सिंह क्रमश: सन् 1690, 1696 तथा 1698 में हुए। ये चारों पुत्र अपने पिता के समान ही वीर एवं राष्ट्र-भक्त थे। भारत राष्ट्र की रक्षार्थ इन्होंने पिता का जीवनभर साथ दिया एवं देश पर अपने को न्योछावर कर दिया।

गुरु गोविंद सिंह का अभिषेक

औरंगजेब की धर्मान्धता और आंतकमयी परिस्थितियों से हिन्दुओं की रक्षा के लिए दो महान राष्ट्र नायकों ने दायित्व ग्रहण किया। एक थे मराठा शक्ति शिवाजी और दूसरे पंजाब के हिन्दूपति दशमेश गुरु गोविंद सिंह। समूचा भारत मुस्लिम शासकों के अत्याचारों के विरूद्ध धधक रहा था, ऐसे समय में शिवाजी और गुरु गोविंद सिंह के नेतृत्व में पूरे भारत में विद्रोह की आग भड़क उठी। गुरू तेगबहादुर के बलिदान ने समूचे पंजाब में विद्रोह की भावना को जगा दिया। पंजाब की वीर जातियों की इस प्रतिकार की भावना को दिशा देने के लिए मात्र नौ वर्ष की अल्पायु में ही बालक गोबिन्द राय को गुरू पद का उत्तरदायित्व ग्रहण करना पड़ा। उस समय केवल वही थे जो उस प्रतिकार की भावना के विद्राही स्वरूप का नेतृत्व कर पाने में सक्षम थे। 

यहीं से बालक गोबिन्द का जीवन गुरु गोविंद सिंह की साधना के रूप में परिवर्तित हो गया। गुरू पद की महता और उसके महान लक्ष्य को बनाए रखने के लिए ही गुरु गोविंद सिंह ने शक्ति संचयन को प्रथम कर्म स्वीकार किया। शक्तिशाली और सुदृड़ से सेनानायकों का नेतृत्व पाकर सदियों से सोई हिन्दू शक्ति ने पुन: संगठित होकर मुगल साम्राज्य का अंत कर दिया।

गुरु गोविंद सिंह के सैनिक संगठन तथा विभिन्न युद्ध

गुरु गोविंद सिंह के जीवन की सबसे महत्वपूर्ण घटना ‘खालसा पंथ’ की स्थापना है। मुस्लिम आक्रमणकारियों ने जहाँ एक ओर राजनीतिक दृष्टि से भारत को प्रभावित किया, वहीं तत्कालीन समाज में हिन्दू और मुसलमान इन दो वर्गों में वर्षों में चले आ रहे संघर्षों के कारण इनमें आंतरिक क्षोभ अपनी जड़े जमा चुका था। एक-दूसरे के प्रति साम्प्रदायिक दृष्टि से अधिक विजित और विजेता का भाव इनमें विद्यमान था। सम्पूर्ण समाज में अंध-भावना, मिथ्या, अंहकार, बाह्मडम्बर, छुआछूत आदि विद्यमान थे। 

रूढ़िवादी कर्मकाण्डों के कारण समाज में निराशा का भाव व्याप्त हो गया। सामाजिक व्यवस्था चरमराने लगी और परिणामस्वरूप ऊँच-नीच और साम्प्रदायिक्ता की भावना ने समूचे राष्ट्र में व्याप्त होकर भारत की संगठित शक्ति को विनष्ट कर दिया। ऐसे ही वातावरण में गुरु गोविंद सिंह की जीवनधारा और उनकी साहित्यिकता की पृष्ठभूमि तैयार हुई। 

समाज की परिस्थितियों को दृष्टिगत रखकर ही गुरु गोविंद सिंह ने भारत राष्ट्र को अपनी परम्परा और इतिहास के प्रति परिचित कराया। रूढ़ अन्ध-भावनाओं से न केवल समाज को सचेत किया अपितु ‘खालसा-पंथ’ की स्थापना कर सभी जातियों, उपजातियों और सम्प्रदायों को एक आस्था और विश्वास के ध्वज के नीचे संगठित कर शक्तिशाली बना दिया। अत्याचारी मुगल शासकों के पंजों से निर्बल और असहाय लोगों की मुक्ति तथा सेवकों में वीरता, साहस और मर्यादा का मंत्र फूँकने के लिए गुरु गोविंद सिंह ने ‘खालसा पंथ’ का निर्माण किया।

गुरु गोविंद सिंह का वनगमन् गुरु गोविंद सिंह अपने पूरे परिवार की बलिदानी के बाद अंदर से पूरी तरह टूट चुके थे, लेकिन ‘अकाल-पुरख’ की रक्षा हेतु उन्होंने अपना यह दु:ख अपनी संगत पर प्रकट नहीं होने दिया। उनकी पत्नियों ने जब अपने बालकों के बारे में जानना चाहा तो गुरू जी ने संगत में बैठे सिक्खों की ओर संकेत करके कहा- इन पुत्रन के सीस पर वार दिए सुत चार। चार मुए तो क्या हुआ, जीवत कई हजार। 

इसके पश्चात् गुरू जी अकेले ही नंगे पाँव रात्रि के समय काँटेदार झाड़ियों की परवाह किए बिना जंगल की ओर निकल पड़े। शाही फौज ने कुछ दूर तक उनका पीछा किया, लेकिन उन्होंने समझा गुरू जी समाप्त हो गए हैं, और गुरू जी चुपचाप रात्रि के अन्तिम चरण में कस्बा माछीवाड़ा पहुँचे, जहाँ उनकी याद में ‘चरण कंवल’ के नाम से एक यादगार बनी हुई है।

गुरु गोविंद सिंह की प्रमुख रचनाएं 

गुरु गोविंद सिंह स्वयं कवि होने के साथ कवियों से सच्चे पारखी भी थे। इसिलिए उनकी राजसभा में 52 कवियों का ‘विद्या-दरबार’ लगता था। इन कवियों के माध्यम से वे भारतीय संस्कृति के महान ग्रंथों ‘महाभारत’ तथा ‘उपनिषदों’ का हिन्दी में अनुवाद करवा रहे थे।  दशम गुरू के ‘दशम-ग्रंथ’ में 17 कृतियाँ संकलित है।
  1. जापु
  2. अकाल स्तुति
  3. विचित्र नाटक
  4. चण्डी चरित्र
  5. चण्डी चरित्र द्वितीय
  6. वार सी भगउती जी की (चण्डी दी वार)
  7. ज्ञान प्रबोध
  8. चौबीस अवतार
  9. मेंहदी मीर
  10. ब्रह्मवतार
  11. रूद्रावतार
  12. शब्द हजारे
  13. सवैये
  14. शस्त्रनाममाला
  15. पाख्यान चरित्र
  16. जफरनामा
  17. अस्फोटक कवित्त
1- जापु - जापु गुरु गोविंद सिंह की सर्वप्रथम रचना है। यह दार्शनिक कृति है और इस प्रौढ़ कृति में दशम गुरू ने वेदों की शैली के अनुरूप ब्रह्म के निराकार रूप को विविध विशेषणो द्वारा सम्बोधित किया है। जिस प्रकार सिक्खों की धार्मिक आस्था के प्रतीक ‘गुरू-ग्रंथ साहिब’ का प्रारम्भ ‘जपु जी’ से होता है उसी प्रकार ‘दशम-ग्रंथ’ का प्रारम्भ भी ‘जापु’ से होता है। यह कृति छोटी होने के बावजूद दशम गुरू जी की श्रेष्ठ कृति मानी जाती है। आज भी सिक्ख धर्म के नित्य पाठ में इसका स्थान हैं, जिसमें ईश्वर की उपासना विविध नामों से की गई है। 

इस कृति की भाषा मूलत: ब्रज में है लेकिन फारसी, अवधी, संस्कृत और पंजाबी के शब्दों को भी इसमें स्थान दिया गया है। जापु 199 छंदों की एक मुक्तक रचना है। इसमें संस्कृत के तत्सम् और तदभव् शब्दों द्वारा ईश्वरीय गुणों की सुन्दर अभिव्यक्ति हुई है।

2- अकाल स्तुति - जापु के समान ही ईश्वर-महिमा ज्ञान सम्बन्धी दूसरी विशुद्ध भक्तिपरक रचना ‘अकाल-स्तुति’ है। यदि यह कहा जाए कि गुरू जी ने ‘जापु’ में जीव को ब्रह्म से परिचित करवाया है और ‘अकाल-स्तुति’ में उसी परम अराध्य की प्राप्ति के साधनों को जुटाया है तो युक्ति संगत होगा। जापु के समान ही इसमें व्याप्त ब्रह्म के अनेक रूपों की व्याख्या की गई है किन्तु ब्रह्म को सर्वव्यापक और निराकार मानते हुए भी एक अकाल पुरुष स्वीकार किया है। मुक्त शैली में रची गई 271 छंदों की यह रचना सम्पूर्णत: ईश्वर-स्तुति की ही रचना है।

इसमें प्रौढ़ ब्रजभषा का प्रयोग हुआ है। मुक्तक रचना होने के कारण चौपाई, कवित, सवैया, दोहा, त्रिभंगी, तोटक, भुजंगप्रयात आदि छंद प्रयोग में लिए गए हैं। 

3. विचित्र नाटक - विचित्र नाटक गुरु गोविंद सिंह की आत्मकथा है इस कृति में उन्होंने वंशावली के विशद वर्णन के साथ-साथ अपने पूर्व जीवन का विस्तारपूर्वक वर्णन किया है तथा अपने संसार में आने का प्रयोजन बताया है। इसमें गुरू जी की आन्नदपुर तक की जीवन-यात्रा की कथा वर्णित है। कुल 14 अध्यायों और 471 पदों की यह रचना दशमेश गुरू की सर्वाधिक लोकप्रिय रचना स्वीकार की जाती है। 

दशम गुरू ने प्रभु को शक्ति के विशेषण द्वारा सम्बोधित कर उनकी स्तुति की है। अपनी समकालीन परिस्थितियों में राष्ट्र में वीरता की भावना को भरने के प्रयास में गुरु गोविंद सिंह ने ईश्वर और शक्ति को अभिन्न माना है।

सृष्टि की उत्पति का वर्णन करते हुए दशम गुरू ने जीवन की कथा आरम्भ की है। उन्होंने इस अध्याय के अन्र्तगत अपना सम्बन्ध सूर्यवंश से बताया है। सूर्यवंश प्रतापी राजा श्रीराम चन्द्र के दोनों पुत्रों लव और कुश से क्रमश: सोढ़ी वंश तथा वेदी वंश के उदभव् और विकास का पूर्ण परिचय दूसरे और तीसरे अध्याय में किया गया है। गुरु गोविंद सिंह ने सोढ़ी वंश से स्वयं अपना तथा वेदी वंश से गुरू नानकदेव का जन्म स्वीकार किया। 

तृतीय अध्याय में लव और कुश तथा उनके वंशजों के पारस्परिक युद्धों का सजीव वर्णन किया गया है। पाँचवें अध्याय में वेदी वंश में गुरू नानकदेव के जन्म का वर्णन और गुरू परम्परा के अन्य आठ गुरूओं के शरीर में उन्हीं की आत्मा की ज्योति के प्रकाशित होने का उल्लेख है। 

इसी अध्याय में गुरु गोविंद सिंह ने अपने पिता श्री तेग बहादुर के बलिदान का वर्णन किया है। इसके अतिरिक्त इस कृति में गुरु गोविंद सिंह ने अपने समय के प्रचलित बाह्मडम्बरों का विरोध अपने शिष्यों में उदात् भावों की जागृति हेतु उन्हें अपने मन को वश में रखने तथा त्याग और प्रेम की महत्ता बताकर अन्याय और अत्याचार के विरूद्ध संघर्ष करने की प्रेरणा देते हुए अपने जन्म स्थान, लालन-पालन और शिक्षा प्राप्ति की व्यवस्था, अपने एवं पुत्रों के युद्धों का सजीव वर्णन किया है।

इस रचना में विषय की सार्थकता के अनुरूप प्रौढ़ ब्रजभाषा का प्रयोग किया गया है। इसमें भुजंगप्रयात, नाराज, रसावत, तोटक, चौपाई, अडिल्ल, त्रिभंगी, दोहा, सवैया, आदि छंदों का बाहुल्य है। आत्मकथा काव्य की कोटि में इस रचना का कोई विशेष स्थान नहीं है। 

डॉ0 महीप सिंह तो फ्इसे ‘आधी-अधुरी आत्मकथा’ कहकर सम्बोधित करते हैं। फिर भी भारत राष्ट्र के जीवन मूल्यों की परम्परा को बनाए रखने में इस कृति के अमूल्य योगदान को नकारा नहीं जा सकता। 

4. चण्डी चरित्र - उक्ति विलास दशम गुरू अपने राष्ट्र के लोगों में वीरता और उत्साह की भावना भरने के लिए उनके अपने ही धार्मिक अवतारों को अपनी रचनाओं का आधार बनाते थे। इसीलिए हिन्दुओं की पौराणिक देवी चण्डी अर्थात दुर्गा, जिसे ईश्वर की शक्ति का प्रतिरूप ही माना जाता है।, को आधार बनाकर तीन रचनायें की। जिसमें से दो रचनायें ब्रज और एक पंजाबी में रचित है। 

‘चण्डी चरित्र उक्ति विलास’ मार्कण्डेय पुराण में वर्णित दुर्गा सप्तशती का स्वतन्त्र अनुवाद है। स्वतन्त्र इसलिए क्योंकि मूल ‘सप्तशती’ तेरह अध्यायों में विभक्त है। सप्तशती की कुछ रचनाओं का वर्णन इस रचना में नहीं दिया गया है। और कुछ घटनाओं को कल्पना के आधार पर रचा गया है। 

अत: मुख्य उद्देश्य सत्ता द्वारा पीड़ित और शोषित जन-समुदाय को अत्याचारी शासकों के विरूद्ध संघर्ष की प्रेरणा देना था। भारतीय जनमानस अपने प्राचीन वैभव के प्रति सदैव आसक्त रहा है, इसलिए अतीत के अन गौरवशाली प्रभावों के माध्यम से उसमें नवोत्साह फूंकने के उद्देश्य से दशम-गुरू ने इस कृति की रचना की। 

इसमें वीर रस के लिए सर्वाधिक उपयुक्त ‘कवित’ छंद का प्रयोग प्रमुख रूप से किया गया है। इसके अतिरिक्त दोहा, सवैया, रेखता, तोटक आदि छंद भी प्रयुक्त किए है।

5. चण्डी चरित्र द्वितीय - ‘चण्डी चरित्र उक्ति विलास’ की भांति इस कृति का सम्बन्ध भी दुर्गा सप्तशती से ही है। यह कृति भी ‘उक्ति विलास’ की भांति आठ अध्यायों में विभक्त है। इस कृति की शुरूआत मंगलाचरण से न होकर महिषासुर कथा से होती है। इस कृति में भी वीर रसात्मक भावों द्वारा दशम-गुरू ने अधर्म पर धर्म की विजय का वर्णन किया है। 

इसके लिए ओजगुण युक्त ब्रजभाषा तथा भुजंगप्रयात, रसावत, नाराज, दोहा, सोरठा, तोटक, संगीत, मनोहर आदि छंदों का सफल प्रयोग किया है। 

गुरु गोविंद सिंह ने जहाँ ‘चण्डी चरित्र उक्ति विलास’ में जहाँ देवी के चरित्र चित्रण को अधिक बल दिया है। वहीं ‘चण्डी चरित्र द्वितीय’ में उनके युद्ध-कौशल को प्राथमिकता दी है। ये दोनों कृतियाँ ही गुरु गोविंद सिंह के वास्तविक व्यक्तित्व को परिलक्षित करती हैं। व्यक्तित्व के अनुरूप ही गुरु गोविंद सिंह ने तत्कालीन युग की संवेदनाओं को दृष्टिगत रख जन-सामान्य में शौर्य की भावना को भर पाए।

6- वार स्री भगउती जी की (चण्डी दी वार) - गुरु गोविंद सिंह के साहित्य में पंजाबी भाषा में रचित एकमात्र रचना ‘वार स्री भगउजी जी की’ है, जिसे ‘चण्डी दी वार’ के नाम से अधिक जाना जाता है। 55 छंदों में विरचित यह रचना भी दुर्गा सप्तशती की कथा पर आधारित है। पंजाबी भाषा में वीर रस की अनमोल कृति है। इस कृति के प्रारम्भ में गुरु गोविंद सिंह ने भगवती की महिमा का गान करने के पश्चात् पूर्ववर्ती सभी गुरूओं को आदरपूर्वक प्रणाम किया है। 

तत्कालीन परिवेश को ध्यान में रखकर दशम-गुरू ने पाप-संहारिणी शक्ति का आह्वान किया था। 

उन्होंने स्वयं उस शक्ति को अपने अंतस में स्थान दिया और राष्ट्र को सृष्टि के लौकिक बन्धनों से मुक्ति के लिए शक्ति स्वरूपा देवी दुर्गा की अराधना के लिए ज्ञान प्रदान किया। इस कृति में पंजाबी भाषा को सरल और ओजपूर्ण शब्दावली का प्रयोग किया है। सम्पूर्ण रचना पहाड़ी-छंद में लिखी गई है।

7- ज्ञान प्रबोध - गुरु गोविंद सिंह का सम्पूर्ण जीवन संघषोर्ं में बीता। जीवन में संघर्षशील रहकर भी उन्हें संसार की नश्वरता का पूर्ण ज्ञान प्राप्त था। उन्होंने संसार की नशवरता में जीवन जी रहे मनुष्य को अपने आलौकिक ज्ञान की विचारधारा के प्रबोध द्वारा आनन्नद प्रदान किया। यह कृति 336 छंदों की एक दार्शनिक रचना है। इस कृति का आधार ‘महाभारत’ के उतरार्द्ध की कथा है। कथानक की दृष्टि से इस कृति को दो भागों में विभक्त किया जा सकता है। 

पहले भाग के 125 छंदों में परम-ब्रह्म की स्तुति कथा दूसरे भाग के शेष छंदों में कलियुग के आरम्भ में हुए राजाओं का वर्णन है। कथा का आरम्भ युधिष्टिर के राजसूत्र यज्ञ चर्चा से होता है और एक मुनि नामक राजा पर समाप्त होता है। किन्तु इस रचना में कथा की समाप्ति का कोई संकेत नहीं मिलता इसीलिए अधिकांश विद्वानों ने इसे अपूर्ण कृति माना है। यह कृति प्रश्नोत्तर शैली में लिखी गई है। फारसी, अवधी, पंजाबी भाषा की शब्दावली के साथ प्रौढ़ ब्रजभाषा का प्रयोग विचारों के अनुरूप है।

8. चौबिस अवतार - भारतीय वाड.मय की विचारधारा ब्रह्मा के निर्गुण रूप में आस्था रखने के साथ हो फ्यह धर्म-नाशक दुष्टों के दलन एवं धर्म की संस्थापना करने के लिए लौकिक जगत में उनके अवतरण में भी विश्वास रखती है।2 पुराणों तथा श्रीमदभागवत में अवतार कथाओं को आधार बनाकर गुरु गोविंद सिंह ने दशम ग्रंथ में चौबीस अवतारों-मत्स्थ, कच्छम, नर-नारायण, महामोहिनी, वाराह, नरसिंह, वामन, परशुराम, रूद्र, जालन्धर, विष्णु, कालपुरुष, आरिहंतदेव, मनु, धन्वंतरि, सूर्य, चन्द्र, राम, कृष्ण, नर, बुद्ध एवं कल्कि-की कथा का विशद वर्णन किया है। 

इनमें से ‘राम’ एवं ‘कृष्ण’ की अवतार कथायें विशिष्ट होने के कारण स्वतन्त्र स्थान रखती हैं।

श्रीमद्भागवत के दशम स्कन्ध पर आधारित गुरु गोविंद सिंह की ‘कृष्णावतार’ कथा प्रबन्धात्मक काव्यों की श्रेणी में परिगणित होती है। 2492 छंदों की यह रचना अत्यन्त दीर्घ है। कवि ने इसे व्यापक और विस्तृत धरातल पर वर्णित किया है। ‘रामवतार’ की तरह ‘कृष्णावतार’ में भी कवि ने कुछ प्रसंगों में भी नवीन और मौलिक उदभावनायें प्रस्तुत की हैं। विशेष रूप से कृष्ण को योद्धा रूप में चित्रित करके कवि ने उनकी नवीन छवि को प्रस्तुत कर अपनी मौलिकता का परिचय दिया है। कृष्णावतार में ‘कृष्ण-जन्म’ से लेकर ‘भृगु-प्रसंग’ तक की सम्पूर्ण कथा विस्तार से मिलती है। 

अधिकांश विद्वान इसे स्वतन्त्र प्रबंध-काव्य की श्रेणी में रखते हैं। 

डॉ0 हरिभजन सिंह तो इसे हिन्दी साहित्य का प्रथम विस्तृत एवं संतुलित ‘कृष्ण प्रबन्ध काव्य’ स्वीकार करते हैं। संक्षेपत: गुरु गोविंद सिंह ने भारतीय संस्कृति की परम्परा के अनुरूप विष्णु के चौबीस अवतारों के माध्यम से वैदिक धर्म, सामाजिक मर्यादा, मानवीय आदर्श, मानवतावाद आदि सांस्कृतिक और सामाजिक मूल्यों की न केवल प्रतिष्ठा की अपितु उनके प्रति अपनी पूर्ण आस्था प्रकट की है।

9. मेंहदी मीर - दशम गुरू ने हिन्दुओं के पौराणिक देव विष्णु के चौबीस अवतारों के अतिरिक्त शिया मुसलमानों के एक मिथक ‘मेंहदी मीर’ को भी अपने काव्य का आधार बनाया है जिस प्रकार पौराणिक मिथक के अनुसार ‘कल्कि अवतार’ का होना आवश्यक है उसी प्रकार शिया मुसलमानों में भी एक मिथक है कि मेंहदी मीर जन्म से लेकर सज्जनों की रक्षा करेगा। इन्हीं दानों मिथकों को सम्बद्ध कर गुरु गोविंद सिंह ने कल्पना की है कि कल्कि भी जब अपनी शक्ति के दर्प में अन्धा हो गया तो मंहदी मीर का अवतार हुआ। मेंहदी मीर ने सम्पूर्ण सृष्टि पर विजय प्राप्त कर उस पर अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया। कुछ समय बाद उसमें घमण्ड जागृत हो गया। 

अकाल पुरुष ने उसके दर्प को चूर करने के लिए कीडे़ को उत्पन्न कर उसके कान में प्रवेश करा दिया। जिसके प्रभाव से मेंहदी मीर का पीड़ादायक अंत हुआ। ग्यारह तोमर छंदों में विरचित इस रचना में फारसी शब्दावली से युक्त ब्रजभाषा का प्रयोग हुआ है।

10. ब्रह्मावतार - दशम गुरू ने विष्णु के 24 अवतारों के पश्चात् ब्रह्मा के सात अवतारों बाल्मीकि, कश्यप, शुक्र, बृहस्पति, ब्यास,  तथा कालिदास की कथा का वर्णन किया है। यद्यपि पौराणिक परम्परा के अन्र्तगत ब्रह्मा के सात अवतारों का कोई उल्लेख नहीं मिलता फिर भी दशम गुरू ने अपनी मौलिक कल्पना द्वारा इन सात अवतार पुरूषों की उदभावना करा अपने कवित्व की श्रेष्ठता का परिचय दिया है। दशम गुरू ने इन अवतारों को उपावतारो की संज्ञा दी है। इस रचना में कालपुरुष द्वारा ब्रह्म को वेद रचना के उपरांत हुए अहंकार से नाराज होकर पृथ्वी पर सात बार जन्म लेने का शाप दिया है। उसी शाप के माध्यम से कवि ने सातों अवतारों की कथा का क्रमबद्ध वर्णन किया है।
 
कालपुरुष की कृपा से ही ब्रह्मा बाल्मीकि रूप में ‘रामायण’ लिखकर सृष्टि के महान कवि कहलाए। इसके उपरांत ‘कश्यप’ अवतार के रूप में उन्होंने समस्त सृष्टि को उत्पन्न किया। 

इसके पश्चात् दैव्य गुरू शुक्राचार्य के रूप में अवतरित होकर उन्होंने दैत्यों की सहायता की। जब आसुरी शक्तियों का अधिक विकास हो गया तो उनके अभिमान को दूर करने के लिए काल पुरुष की कृपा से बृहस्पति जैसे आचार्य का आश्रय देवताओं को प्राप्त हुआ। 

ब्रह्मा के सभी अवतारों में ‘पाँचवें अवतार’ ‘ब्यास’ का वर्णन विस्तार से मिलता है। इनके द्वारा वेदों का रूप निर्धारण सम्भव हुआ और पुराणों की भी इन्होंने रचना की। फ्अध्यात्मिक साधना के कारण ‘ब्यास जी’ में अहंकार प्रवेश कर गया जिसका नाश करने के लिए काल पुरुष ने उनके छह टुकड़े कर दिए। इन छह टुकड़ों से ही छह शास्त्रों की रचना करने वाले छह कवि हुए, जिन्हें ब्रह्मा का “ाट्)षि अवतार कहा गया है। तत्पश्चात् संस्कृत के महान कवि कालिदास को दशम गुरू ने ब्रह्मा के सातवें और अंतिम अवतार के रूप में स्वीकार किया। कालिदास ने महत्वपूर्ण साहित्य की रचना की।

11. रूद्रावतार - रूद्रावतार की कथा में दशम गुरू ने रूद्र के दो अवतारों ‘दत्तात्रेय’ और ‘पारसनाथ’ को अपनी कथा का आधार बनाया है। कृति के वण्र्य विषय के अनुरूप भाषा ओज एवं माधुर्य गुण मिश्रित ब्रजभाषा है। वीरोत्वित भावों के अनुरूप वीर रस की प्रधानता है। अक्षर, सवैया, नराज, भुजंगप्रयात, मोहिनी आदि छंदों का प्रयोग कृति में किया गया है।

12- शब्द हजारे - गुरु गोविंद सिंह की रचनाओं में शब्दों का विशेष साहित्यिक महत्व है। इन ‘शब्दों’ का नियमित रूप से पाठ होता है। ‘शब्दों’ की कुल संख्या 28 हैं। इनमें सन्यास, ईश्वर भक्ति तथा काल-पुरुष के नाम-स्मरण की चर्चा की गई है। रागों पर आधारित इन शब्दों में निर्गुण ब्रह्मा के स्मरण द्वारा जीव को संसारिक्ता के बन्धनों से मुक्त कराने का ज्ञान दिया गया। विशेष रूप से छठा शब्द अत्यन्त महत्वपूर्ण है। 

13- तैंतीस सवैये - तैंतीस सवैये में गुरु गोविंद सिंह ने अकाल पुरुष के प्रति भक्ति भावना व्यक्त करते हुए जीवन को लौकिक प्रलोभनों को त्यागकर अलौकिक शक्तियों को ग्रहण करने का संदेश दिया है। तैंतीस सवैये के उपरांत कवि ने तीस अतिरिक्त सवैयों में ‘खालसा की महिमा’ तथा एक दोहे में गरीबों की सेवा का उपदेश भी दिया है।

14- शस्त्रनाममाला - गुरु गोविंद सिंह द्वारा रचित यह दृष्ट-कूट-काव्य है। जो तत्कालीन रीतिकाल की चमत्कार प्रधान प्रवृति को स्पष्ट करता है। यद्यपि इनमें सिद्धों, नाथों अथवा कबीर की उलटबासियों वाली रहस्य भावना नहीं है किन्तु अपनी बात को विचित्र ढंग से कहने का आग्रह अवश्य झलकता है। इस रचना में दशम गुरू के युद्धों में प्रयोग होने वाले शस्त्रों को ईश्वर रूप में व्यक्त किया है। 

इस रचना की भाषा ब्रज ही है। छंदों की दृष्टि से मुख्यत: दोहा, अडिल्ल, चौपाई, सोरठा, आदि छंदों का प्रयोग हुआ है।

15- पाख्यान - चरित्र मध्य-युग में नारी को केवल भोग-विलास की वस्तु समझा जाता था। आदर्शवादिता और मूल्यपरकता समाज से लुप्त सी हो चुकी थी। ऐसे समय में राष्ट्र के जीवन-मूल्यों की रक्षा के दायित्व से सम्बद्ध गुरु गोविंद सिंह के लिए यह आवश्यक था कि उनकी सेना में आदर्श और मर्यादा का भाव बना रहे। इसीलिए उन्होंने सैनिकों को परस्त्रीगमन से बचाने के लिए ‘पाख्यान-चरित्र‘ की रचना की। 

इसमें गुरु गोविंद सिंह ने 404 कथाओं और 7555 छंदों को अपने उद्देश्य की पूर्ति का माध्यम बनाया। ‘पाख्यान-चरित्र‘ रचना का मूल उद्देश्य तत्कालीन समय की पराधीन और शिथिल पड़ी जनता में शक्ति के संचार तथा उन्हें संघर्ष के लिए तैयार कर चरित्रिक दृष्टि से पूर्णत: संयमशील बनाना था। गुरू जी की यह कृति भाव, भाषा और विषयवस्तु की दृष्टि से उत्कृष्ट कृतियों में स्थान पाती है। विभिन्न रसों और नवीन छंदों द्वारा कृति को अत्यन्त सरस बना दिया गया है।

16. जफरनामा - फारसी भाषा में रचित गुरु गोविंद सिंह की एकमात्र कृति ‘जफरनामा’ है। वास्तव में यह औरंगजेब के पत्र के उत्तर में लिखा गया पद्यबद्ध पत्र है। यह पत्र गुरू जी शक्ति और राष्ट्र भक्ति का पूर्ण व्यक्तित्व उभारता है। इस पत्र में मुक्त रूप से गुरू जी ने औरंगजेब के अन्याय, अत्याचारों और फरेबों की तीखी भत्र्सना की है। ‘जफरनामा’ का दूसरा भाग ‘हिकायतों’ के नाम से प्रसिद्ध है। जिसमें ग्यारह उपदेशपूर्ण कथायें वर्णित हैं। इन हिकायतों के माध्यम से औरंगजेब को विभिन्न प्रकार के उपदेश देकर गुरू गोबिन्द जी ने उसे सत्य का मार्ग दिखाया है। 

गुरू जी ने जफरनामा के पूर्वाद्ध में जिन आदशें, नीतियों और मूल्यों को ग्रहण करने का उपदेश औरंगजेब को दिया है, उतरार्द्ध में उन्हीं से सम्बन्धित पौराणिक एवं अन्य कथायें प्रस्तुत की हैं।

17. अस्फोटक (स्फुट) - कवित दशम ग्रंथ के अंत में संकलित 49 कवित एवं सवैयों के सम्बन्ध में अभी तक यह संशय बना हुआ है कि वह गुरु गोविंद सिंह द्वारा रचित है या नहीं। फ्डॉ0 रतनसिंह जग्गी ने दशम ग्रंथ की पौराणिक पृष्ठभूमि पर विचार करते हुए इन स्फुट छंदों के सम्बन्ध में ‘प्राचीन प्रतियों की छंद संख्या’ की तुलनात्मक तालिका में ‘अस्फोटक कवित’ के अन्र्तगत मोतीबाग, संगरूर तथा पटना वाली प्रतियों में होने का संकेत दिया है। दशम ग्रंथ के अनुवादक जोधसिंह ने इस रचना के अस्तित्व को स्वीकार करते हुए इसे ‘दशम ग्रंथ’ की चौथी सैंची में अंतिम स्थान प्रदान किया है। 

इस रचना में दशम गुरू के विरचित होने के प्रमाण-स्वरूप इसके अंतिम छंद को उदघृत किया जा सकता है। जो आंशिक भिन्नता के साथ ‘विचित्र-नाटक’ तथा ‘पाख्यान-चरित्र‘ में भी दिखाई पड़ता है। यह मुक्त छंदों की कृति है।

दशम ग्रंथ की समस्त कृतियों के अध्यन्न के पश्चात् यह स्पष्ट हो जाता है कि गुरु गोविंद सिंह की रचनायें विषय वस्तु की दृष्टि से नहीं अपितु शैलीगत सौंदर्य की दृष्टि से भी हिन्दी साहित्य में महत्वपूर्ण स्थान रखती है। लगभग समूचा भारत जिस समय धार्मिक, सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक और सांस्कृतिक दृष्टियों से पतन की ओर अग्रसर था, ऐसे समय में भारत राष्ट्र के जीवन मूल्यों को बचाने के लिए गुरु गोविंद सिंह ने निरूत्साहित जनता में नवीन चेतना और उत्साह का संचार किया। 

ओजस्वी वाणी से जहाँ गुरु गोविंद सिंह ने जनमानस मे अदम्य साहस की भावना को भरा वहीं श्रृंगार के उज्जवल स्वरूप तथा भक्ति की विह्वलता द्वारा उन्हें भारतीय परम्परा से भी सम्बद्ध किया। वे लेखनी और शस्त्र दोनों के प्रयोग में निपुण थे। वीरता के ज्ौसी भावना उनके जीवन और साहित्य दोनों में मिलती है। अपने समय की काव्य शैलियों रूपों और विषयों को ग्रहण कर भारतीय जनमानस के परिचित पौराणिक पात्रों की कथाओं के माध्यम से उन्होंने भारत राष्ट्र के जीवन मूल्यों को विकास प्रदान किया। निश्चित रूप से गुरु गोविंद सिंह जेसे महान योद्धा, महान लेखक गुरु गोविंद सिंह ही हो सकते हैं, कोई अन्य नहीं।

निष्कर्षत: गुरु गोविंद सिंह युगीन भारत का इतिहास मुगल राजनीति के पराभव, सामाजिक अध:पतन, धार्मिक विकृतियों तथा मानवीय मूल्यों के ह्रास का काल था लेकिन इस युग की सर्वाधिक ऐतिहासिक घटना भक्ति आन्दोलन की रही। इस आन्दोलन के माध्यम से भारतीय संस्कृति के प्रगाढ़ चिन्तन और मानव कल्याण के लिए अनेकानेक दार्शनिक विचारकों, भक्त कवियों एवं संतों ने अपनी वाणी में इस चेतना को स्थान दिया। 

इसके द्वारा तत्कालीन मानव-समाज में व्याप्त नैतिक और मानवीय मूल्यों के पतन की प्रवृतियों के विरोध स्वरूप नवीन चेतना का संचार समाज में किया गया। इस नयी सांस्कृतिक, समाजिक और धार्मिक चेतना द्वारा मानवीय मूल्यों को पुन: प्रतिष्ठित कर समाज में प्रेम और सद्भाव की भावना को मुखरित किया गया। 

गुरु गोविंद सिंह ने भक्ति आन्दोलन की इस नवीन चेतना को विकास प्रदान करते हुए इसमें वीरता और उत्साह की भावना को भर दिया। गुरु गोविंद सिंह का व्यक्तित्व बहुमुखी प्रतिभा सम्पन्न होने के कारण उन्हें विश्व की महानतम् विभूतियों मे विशिष्ट स्थान प्रदान करता है। ‘भक्ति’ और ‘शक्ति’ की नवीन साधना द्वारा उन्हांने एक हताश जाति में प्राण का संचार किया। 

Post a Comment

Previous Post Next Post