माध्यमिक शिक्षा का अर्थ, परिभाषा, उद्देश्य, महत्व

माध्यमिक शिक्षा का अर्थ, परिभाषा, उद्देश्य


माध्यमिक शिक्षा वह शिक्षा है जो विद्यार्थियों में अनुशासन, देश प्रेम, सहयोग, सहिष्णुता, स्पष्ट विचार आदि गुणों का विकास करती है। माध्यमिक शिक्षा विद्यार्थियों के व्यक्तित्व के सर्वांगीण विकास में सहायक है। शिक्षा का द्वितीय स्तर माध्यमिक शिक्षा है जो 11-14 वर्ष की आयु के बालक-बालिकाओं को प्रदान की जाती है। इसमें कक्षा छठी से आठवीं तक की कक्षाओं को सम्मिलित किया जाता है। मध्यप्रदेश में माध्यमिक शिक्षा की अवधि 3 वर्ष निर्धारित की गई है।

माध्यमिक शिक्षा का अर्थ

माध्यमिक शब्द का अर्थ है - मध्य की । माध्यमिक शिक्षा प्राथमिक और उच्च शिक्षा के मध्य की शिक्षा है । अंग्रेजी में इसके लिए सेकेण्डरी शब्द का प्रयोग किया जाता है जिसका अर्थ है - दूसरे स्तर की । पहले स्तर की प्राथमिक और उसके बाद दूसरे स्तर की यह सेकेण्डरी शिक्षा । आज किसी भी देश में माध्यमिक शिक्षा प्राथमिक और उच्च शिक्षा के बीच की कड़ी होती है । 

हमारे देश में प्राचीन और मध्यकाल में शिक्षा केवल दो स्तरों में विभाजित रही - प्राथमिक और उच्च । इस देश में माध्यमिक शिक्षा का श्री गणेश तो आधुनिक युग में ईसाई मिशनरियों ने किया । सर्वप्रथम तो उन्होंने यहाँ प्राथमिक विद्यालय खोले, उसके बाद उन्होंने यहाँ प्राथमिक शिक्षा उत्तीर्ण बच्चों के लिए अंग्रेजी माध्यम के माध्यमिक विद्यालयों की स्थापना की । दूसरी तरफ ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने भी अपने कर्मचारियों के बच्चों की शिक्षा के लिए माध्यमिक विद्यालयों की स्थापना की । परन्तु यह माध्यमिक शिक्षा आज की माध्यमिक शिक्षा से भिन्न थी, भारत में आधुनिक माध्यमिक शिक्षा का स्वरूप निश्चित करने में सबसे बड़ी भूमिका वुड के घोषणा पत्र, 1854 की रही । उसमें माध्यमिक शिक्षा के उद्देश्य और पाठ्यक्रम निश्चित किए गए । 1882 में ब्रिटेन सरकार ने भारतीय शिक्षा आयोग का गठन किया । 

माध्यमिक शिक्षा के लक्ष्य व उद्देश्य

माध्यमिक विद्यालयों में अध्ययनरत विद्यार्थियों के लिये माध्यमिक शिक्षा को उन्नत बनाने के लिये मध्यप्रदेश शासन ने निम्न लक्ष्य व उद्देश्यों को निर्धारित किया है —
  • विद्यार्थियों की भौतिक, मानसिक, भावनात्मक, नैतिक तथा आध्यात्मिक आवश्यकताओं को पूरा करके उनके व्यक्तित्व का विकास करना ।
  • विद्यार्थियों में वैज्ञानिक भाव उत्पन्न करना।
  • विद्यार्थियों को वास्तविक क्रियाओं और अनुभव की जानकारी करवाकर भावी जीवन के लिये तैयार करना ।
  • विद्यार्थियों में श्रम के प्रति आदर भाव उत्पन्न करना ।
  • विद्यार्थियों में देश प्रेम, अपने रीति-रिवाजों और संस्कृति के प्रति प्रेम भाव तथा उसमें नागरिकता के गुण उत्पन्न करना, जिससे वह देश प्रेमी तथा कर्तव्यनिष्ठ नागरिक बन सके।
  • विद्यार्थियों में ऐसे कौशलों का विकास करना जो कि बालक के शारीरिक स्वास्थ्य की रक्षा कर सके।
  • विद्यार्थियों में बौद्धिक कौशल का विकास करना ।
  • विद्यार्थियों में शिक्षा के प्रति रूचि उत्पन्न करना ।
सन् 1947 ई. में, जब भारत स्वतंत्र हुआ, तो शिक्षा के इस महत्वपूर्ण स्तर के लिए उद्देश्यों का पुनर्निधारण करने की आवश्यकता हुई, क्योंकि स्वतंत्र भारत में नये समाज का निर्माण करना था तथा नई परिस्थितियों के अनुकूल बालकों का विकास करना था। माध्यमिक शिक्षा के सुधार हेतु आवश्यक सुझाव देने के लिए माध्यमिक शिक्षा आयोग (मुदालियर आयोग) का गठन किया गया। आयोग ने अपने प्रतिवेदन में माध्यमिक शिक्षा के लिए बड़े स्पष्ट तथा महत्वपूर्ण उद्देश्य निर्धारित किये। आयोग ने निम्नांकित उद्देश्यों का निर्धारण किया-

1. जनतन्त्रात्मक नागरिकता का विकास करना- भारतवर्ष विश्व का सबसे बड़ा जनतन्त्रात्मक देश है। जनतन्त्रात्मक शासन प्रणाली बड़ी कोमल होती है। इसके असफल होने की अनेक सम्भावनाएँ रहती हैं। जनतन्त्रात्मक शासन-व्यवस्था की सफलता सुनागरिकों पर निर्भर करती हैं। जनतन्त्र देश के लिए सत्यवादी स्वतन्त्र तथा निष्पक्ष विचार वाले अनुशासित, सहयोगी तथा उदार राष्ट्रीय भावना से ओत-प्रोत नागरिकों की आवश्यकता पड़ती है। इन सभी बातों को ध्यान में रखकर आयोग ने सिफारिश की कि माध्यमिक शिक्षा को छात्रों में इस प्रकार के आवश्यक गुणों का विकास करना चाहिए।

2.व्यावसायिक दक्षता का विकास करना-वर्तमान युग में विश्व के सभी राष्ट्रों में औद्योगिक प्रगति की होड़ लगी है। अपनी औद्योगिक प्रगति में हम अन्य राष्ट्रों के साथ उस समय तक नहीं चल सकते हैं। जब तक कि हमारे नवयुवक इस प्रकार की प्रगति में सक्षम न हों। दूसरे, आजकल की शिक्षा पूर्णतया सैद्धान्तिक है, वह बालकों का कोई व्यावहारिक ज्ञान प्रदान नहीं करती है। वह केवल पुस्तकीय है तथा वर्तमान शिक्षा बालकों में शारीरिक श्रम के प्रति कोई अच्छी आस्था विकसित नहीं करती है। अत: आयोग ने सुझाव दिया कि शिक्षा का माध्यमिक स्तर ही एक ऐसा स्तर है जिस पर हम अपने भावी नागरिकों को व्यावसायिक दक्षता प्रदान कर सकते हैं। इस उद्देश्य की पूर्ति हेतु आयोग ने पाठ्यक्रम के विभिन्नीकरण का सुझाव दिया।

3.व्यक्तित्व का विकास करना-आयोग की दृष्टि में माध्यमिक शिक्षा को किशोर छात्रों के सम्पूर्ण व्यक्तित्व का विकास करने के प्रयत्न करने चाहिए। आयोग का विचार था कि माध्यमिक शिक्षा को इस प्रकार से संगठित तथा व्यवस्थित करना चाहिए कि छात्रों के जन्मजात गुणों का वांछनीय विकास हो सके तथा अपने सांस्कृतिक वैभव को आगे बढ़ा सके। आयोग के अनुसार माध्यमिक शिक्षा का यह कर्तव्य है कि वह बालकों के सर्वांगीण व्यक्तित्व का विकास करें।

4.नेतृत्व का विकास करना-आयोग की दृष्टि में यह माध्यमिक शिक्षा का ही कार्य है कि बालकों में उचित तथा आदर्श नेतृत्व का विकास करे। माध्यमिक शिक्षा को ऐसे नागरिक उत्पन्न करना है जो जनसाधारण का नेतृत्व जनतान्त्रिक विधि से कर सकें, उन्हें उचित मार्ग प्रदर्शित कर सकें, जो हर क्षेत्र में स्वयं बुद्धि तथा विवेक से कार्य करें और जनसाधारण में सहयोग, सहकारिकता तथा सामुदायिकता की भावना का विकास कर सकें। इन गुणों के विकास के लिए आयोग ने माध्यमिक शिक्षा के पाठ्यक्रम में विभिन्न प्रकार के क्रियात्मक विषय तथा अन्य ऐसे विषयों को समावेशित करने का परामर्श दिया जो बालकों में उपर्युक्त सभी गुणों का विकास कर सकें।

इस प्रकार मुदालियर आयोग ने माध्यमिक शिक्षा के उद्देश्यों का पहली बार स्पष्टीकरण किया। इस आयोग के उपरान्त कोठारी शिक्षा आयोग ने देश तथा समाज की परिवर्तित परिस्थितियों को ध्यान में रखकर सन् 1964-66 में एक प्रतिवेदन प्रस्तुत किया। इस प्रतिवेदन में आयोग ने लिखा कि वर्तमान समय में देश के सामने निम्नांकित चार आवश्यकताएँ हैं-
  1. उत्पादन क्षमता वृद्धि।
  2. राष्ट्रीय एकता का विकास,
  3. राजनैतिक चेतना का विकास,
  4. सामाजिक नैतिक व आध्यात्मिक मूल्यों का निर्माण।
उपर्युक्त आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर ही आयोग ने शिक्षा के उद्देश्य निर्धारित किये कि उसे बालकों की उत्पादन क्षमता में वृद्धि करनी चाहिए। उनमें राष्ट्रीय एकता तथा राजनैतिक चेतना का विकास करना चाहिए और वांछनीय सामाजिक, नैतिक तथा आध्यात्मिक मूल्यों का निर्माण करना चाहिए। आयोग ने इन उद्देश्यों की प्राप्ती हेतु उपयुक्त साधनों का भी उल्लेख किया है।

माध्यमिक शिक्षा के उद्देश्यों की चर्चा करते हुए डॉ. एस.एन. मुखर्जी ने लिखा है कि माध्यमिक शिक्षा स्वयं में पूर्ण होनी चाहिए और उसे छात्रों को उच्च शिक्षा के लिए तैयार करना चाहिए। उसे कुछ छात्रों को जीवन में प्रवेश करने के लिए तथा दूसरों को विश्वविद्यालय में प्रवेश करने के लिए तैयार करना चाहिए।
संक्षेप में श्री मुखर्जी ने माध्यमिक शिक्षा के कारण बताये हैं-
  1. छात्रों को उच्च शिक्षा के लिए तैयार करना।
  2. छात्रों को जीविकोपार्जन हेतु तैयार करना।
  3. छात्रों का शारीरिक व मानसिक रुप से विकास करना।
  4. छात्रों में नागरिकता के गुणों का विकास करना।
  5. छात्रों में व्यावसायिक कुशलता का विकास करना।

माध्यमिक शिक्षा की मुख्य धाराएँ

सी.बी.एस.ई व आई.सी.एसई. के सन्दर्भ में पाठ्यक्रम व परीक्षा प्रणाली आज की शिक्षा प्रणाली मुख्य रुप से तीन बोर्ड पर आधारित है, जो कि है- 
  1. सी.बी.एस.ई.
  2. आई.सी.एस.ई.
  3. राष्ट्रीय स्तर का बोर्ड ( स्टेट बोर्ड )
उपर्युक्त तीनों बोर्ड की मुख्य भूमिका छात्रों के सर्वांगीण विकास में महत्वपूर्ण है। हम यह जानते हैं कि सी.बी.एस.ई व आई.सी.एस.ई. दो मुख्य बोर्ड प्रणाली है, जो कि भारत में करोड़ों छात्रों को एक गुणात्मक शिक्षा प्रदान करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही है। इस विषय में अभिभावकों के अलग-अलग दृष्टिकोण हैं। कुछ शिक्षकों, अभिभावकों व छात्रों के अनुसार सी.बी.एस.ई बोर्ड एक उत्तम बोर्ड है व कुछ के अनुसार आई.सी.एस.ई. बोर्ड। इस विषय में अभिभावकों के मन में अनेक प्रश्न हैं। कुछ के अनुसार राज्य स्तर का बोर्ड उत्तम है। अत: इसी उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए हम यहाँ पर सी.बी.एस.ई व आई.सी.एस.ई. बोर्ड का तुलनात्मक अध्ययन करेंगे।

पाठ्यक्रम में परिवर्तन एक सतत् प्रक्रिया है। अत: सी.बी.एस.ई व आई.सी.एस.ई. बोर्ड के द्वारा प्रत्येक वर्ष इसमें कुछ-न-कुछ नये परिवर्तन अवश्य ही किये जाते हैं। यह परिवर्तन किताबों से, कोर्स से तथा पाठ्यक्रम से संबंधित होते हैं।

शिक्षक प्रक्रिया त्रिमुखी है। इसके 03 आयाम हैं-1 शिक्षक, 2 विधाथ्र्ाी 3 पाठ्यक्रम। शिक्षण अधिगम प्रक्रिया में शिक्षक एक महत्वपूर्ण तत्व है। उसके बिना कोई शिक्षण नहीं हो सकता। पर्याप्त ज्ञान नहीं प्रदान किया जा सकता है और विधार्थियों का उचित विकास सम्भव नहीं है। इस संदर्भ में ही पुरातन काल में भारतीय चिन्तकों ने शिक्षक को अत्यन्त आदर का स्थान दिया था।

शिक्षक के महत्व पर बल देते हुए भगवान दासकहते हैं, शिक्षा बीज और जड़ है, सभ्यता फूल और फल है। यदि कृषक विवेकपूर्ण है और अच्छे बीज बोता है तो समुदाय उत्तम दाने प्राप्त करता है और सम्पन्न होता है। यदि ऐसा नहीं है, यदि वह झाड़-झंकार बोता है तो जहरीले बेर मिलते हैं और बीमारी और मृत्यु फसल होती है। हमारे कृषक शिक्षक हैं। स्वामी विवेकान्द कहते हैं कि बिना शिक्षक के व्यक्तिगत जीवन के कोई भी शिक्षा नहीं दी जा सकती है।

किसी भी शैक्षिक संगठन में मुख्य व्यक्ति शिक्षक है। उस पर ही समाज के शैक्षिक प्रयास निर्भर हैं। इसलिए यह हमारे लिए आवश्यक है कि उसकी भूमिका को समझें।

माध्यमिक शिक्षा का महत्व

माध्यमिक शिक्षा किसी राष्ट्र की शिक्षा व्यवस्था में एक विशेष स्थान रखती है। इसी के आधार पर राष्ट की उच्च शिक्षा निर्भर करती है। किसी राष्ट्र की प्रगति का मापदण्ड उस देश की शिक्षा व्यवस्था से होता है। प्रमुख शिक्षाविदों के अनुसार विद्यार्थियों की ज्ञानात्मक, कौशलात्मक एवं भावनात्मक क्षमतायें पहले से अधिक विकसित तो होती ह परन्तु माध्यमिक स्तर के विद्यार्थियों में लिखना, सोचना, तर्क करना, कारण खोजना, शब्दों का उपयुक्त स्थान पर प्रयोग करना, वार्तालाप करना या अपनी बात को कहना आदि बातें महत्वपूर्ण होती हैं। माध्यमिक शिक्षा विद्यार्थियों में नई समस्याओं, नई दिशाओं, नई सम्भावनाओं को दिशा प्रदान करती है। विद्यार्थियों के स्वास्थ्य, शारीरिक एवं क्रियात्मक क्रियाओं, कार्य अनुभवों, नाटक, खेल, क्रियात्मक कला एवं संगीत आदि का सैद्धान्तिक एवं प्रयोगात्मक ज्ञान प्राप्त करना माध्यमिक शिक्षा के अर्न्तगत आता है । माध्यमिक शिक्षा के विद्यार्थियो को उपरोक्त कौशल प्राप्त करना आवश्यक है। विद्यार्थियों में उचित संबंधों को विकसित करने में विद्यालय महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है क्योंकि विद्यालय ही समान आयु समूह के सदस्य उपलब्ध करवाता है। कोठारी माध्यमिक शिक्षा आयोग ने माध्यमिक शिक्षा की महत्ता को बताते हुए कहा है कि "राष्ट्रीय उत्पादकता में वृद्धि करने के लिये हर बच्चे के लिये निःशुल्क एवं सार्वजनिक शिक्षा सबसे ज्यादा उपयोगी है । लोकतंत्र में जब सभी नागरिक शिक्षित व साक्षर होंगे, तभी वे देश व समाज के योग्य नागरिक बन सकते हैं" ।

फ्रायड के अनुसार व्यक्तित्व की आधार शिला, माध्यमिक शिक्षा के 3 वर्ष होते ह। ये तीन वर्ष मानव जीवन को मनोवैज्ञानिक रूप से श्रेष्ठ नागरिक बनने के लिये तैयार करते हैं । इसी कारण माध्यमिक शिक्षा अधिक महत्वपूर्ण है।

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