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माध्यमिक शिक्षा भारतवर्ष में माध्यमिक शिक्षा देश की शिक्षा का अत्यन्त ही महत्वपूर्ण स्तर है। यह वह स्तर है जो माध्यमिक शिक्षा व उच्च शिक्षा के मध्य एक पुल का कार्य करता है व दोनों को जोड़ता है सामान्यत: इस स्तर पर पढ़ने वाले छात्र किशोरावस्था के होते हैं। इसलिए इस अवस्था का महत्व और भी बढ़ जाता है। माध्यमिक शिक्षा ऐसा केन्द्र बिन्दु है, जो प्राथमिक शिक्षा व विश्वविद्यालयी शिक्षा के बीच सम्बन्ध स्थापित करता है। इसके महत्व को हम निम्न बिन्दुओं में लिख सकते हैं-
- यह प्राथमिक शिक्षा तथा उच्च शिक्षा के बीच कड़ी का काम करती है।
- इस स्तर पर किशोर/किशोरियाँ जो अध्ययन करते हैं, उनके व्यक्तित्व की शैली उसी पर निर्धारित होती है।
- यहीं से उनके व्यवसाय की तैयारी आरम्भ हो जाती है।
- माध्यमिक शिक्षा समाज व राष्ट्र के लिए भी अति महत्वपूर्ण हैं।
- यह व्यक्तित्व का विकास करती है।
- यह सामाजिकता व सामुदायिकता का विकास करती है।
- माध्यमिक शिक्षा छात्र-छात्राओं की उच्च शिक्षा के लिए आधार तैयार करती है।
- यहीं से छात्र-छात्राएँ जीवन जीने की कला सीखते हैं।
इसलिए प्रो. हुमायूँ कबीर
लिखते हैं - माध्यमिक शिक्षा, शिक्षा की एक ऐसी कड़ी है जो प्राथमिक व उच्च शिक्षा
को एक दृढ़ता के साथ एक कड़ी में बाँधती है।
सम्पूर्ण शिक्षा प्रणाली तथा मानव जीवन में माध्यमिक शिक्षा इतना महत्व होते हुए भी यह आज तक अनेक दोषों से ग्रसित रही है। माध्यमिक शिक्षा के दोषों की ओर संकेत करते हुए प्रो. के.जी. सैयदन लिखते हैं- सारे संसार के शैक्षणिक क्षेत्रों में माध्यमिक शिक्षा के आम ढर्रे के प्रति गहरा असंतोष रहा है और वे काफी समय से यह अनुभव करते रहे हैं कि उसकी आमूल पुनर्रचना तत्काल आवश्यक है। यद्यपि प्राथमिक शिक्षा के क्षेत्र में बहुत से बहुमूल्य परिवर्तन हुए हैं और स्वयं हमारे देश में बुनियादी शिक्षण पद्धति ने उसकी समस्याओं के प्रति एक बिल्कुल ही नया रवैया अपनाया है, पर माध्यमिक शिक्षा अभी कुछ समय से पहले तक कुल मिलाकर गतिहीन व अपरिवर्तित रही है।
एस.एन.मुखर्जी ने माध्यमिक शिक्षा को तीन भागों में विभाजित किया है-
सम्पूर्ण शिक्षा प्रणाली तथा मानव जीवन में माध्यमिक शिक्षा इतना महत्व होते हुए भी यह आज तक अनेक दोषों से ग्रसित रही है। माध्यमिक शिक्षा के दोषों की ओर संकेत करते हुए प्रो. के.जी. सैयदन लिखते हैं- सारे संसार के शैक्षणिक क्षेत्रों में माध्यमिक शिक्षा के आम ढर्रे के प्रति गहरा असंतोष रहा है और वे काफी समय से यह अनुभव करते रहे हैं कि उसकी आमूल पुनर्रचना तत्काल आवश्यक है। यद्यपि प्राथमिक शिक्षा के क्षेत्र में बहुत से बहुमूल्य परिवर्तन हुए हैं और स्वयं हमारे देश में बुनियादी शिक्षण पद्धति ने उसकी समस्याओं के प्रति एक बिल्कुल ही नया रवैया अपनाया है, पर माध्यमिक शिक्षा अभी कुछ समय से पहले तक कुल मिलाकर गतिहीन व अपरिवर्तित रही है।
माध्यमिक शिक्षा का अर्थ
अब प्रश्न है कि माध्यमिक शिक्षा किसे कहते हैं ? अर्थात् इसका क्या अर्थ है? इसका उत्तर हम कई प्रकार से दे सकते हैं। स्कूली शिक्षा को प्राय: तीन भागों में बाँटा जाता है- प्री प्राइमरी शिक्षा, प्राइमरी शिक्षा व सेकण्डरी शिक्षा। ये तीनो स्तर व्यक्ति की तीन अवस्थाओं के साथ संबंधित है। प्री-प्राइमरी शिक्षा शैशवकाल के साथ संबंधित है। प्राइमरी शिक्षा बचपन के साथ संबंधित है और सैकण्डरी शिक्षा के किशोरावस्था के साथ संबंधित मानी जाती है। स्पष्ट है कि प्री-प्राइमरी व प्राइमरी शिक्षा के पश्चात् जिस शिक्षा की व्यवस्था होती है उसे सैकण्डरी शिक्षा कहते है।एस.एन.मुखर्जी ने माध्यमिक शिक्षा को तीन भागों में विभाजित किया है-
- स्थिति के रुप में - माध्यमिक शिक्षा वह शिक्षा है तो प्राथमिक शिक्षा के बाद आती है।
- प्रकार के रुप में - माध्यमिक शिक्षा वह है जिसका संबंध निश्चित व बौद्धिक वस्तुओं के विभाजीकरण से है। इसके तीन रुप होते हैं-(1) भ्रमित नाम, (2) मानवीयता तथा (3) उदार शिक्षा
- स्तर के रुप में- माध्यमिक शिक्षा वह शिक्षा है जिसे हम बौद्धिकता की कसौटी कह सकते हैं। क्योंकि किसी पर विश्वविद्यालयी शिक्षा आश्रित है।
कोठारी शिक्षा आयोग की दृष्टि से माध्यमिक शिक्षा का अर्थ वर्षों में व्यक्त किया है। कोठारी शिक्षा आयोग के अनुसार 7,8 वर्ष तक की प्राइमरी शिक्षा होती है और उसके बाद 4 या 5 वर्ष की माध्यमिक शिक्षा होती है।
माध्यमिक शिक्षा के उद्देश्य
सन् 1947 ई. में, जब भारत स्वतंत्र हुआ, तो शिक्षा के इस महत्वपूर्ण स्तर के लिए उद्देश्यों का पुनर्निधारण करने की आवश्यकता हुई, क्योंकि स्वतंत्र भारत में नये समाज का निर्माण करना था तथा नई परिस्थितियों के अनुकूल बालकों का विकास करना था। माध्यमिक शिक्षा के सुधार हेतु आवश्यक सुझाव देने के लिए माध्यमिक शिक्षा आयोग (मुदालियर आयोग) का गठन किया गया। आयोग ने अपने प्रतिवेदन में माध्यमिक शिक्षा के लिए बड़े स्पष्ट तथा महत्वपूर्ण उद्देश्य निर्धारित किये। आयोग ने निम्नांकित उद्देश्यों का निर्धारण किया-1. जनतन्त्रात्मक नागरिकता का विकास करना- भारतवर्ष विश्व का सबसे बड़ा जनतन्त्रात्मक
देश है। जनतन्त्रात्मक शासन प्रणाली बड़ी कोमल होती है। इसके असफल होने की अनेक
सम्भावनाएँ रहती हैं। जनतन्त्रात्मक शासन-व्यवस्था की सफलता सुनागरिकों पर निर्भर करती
हैं। जनतन्त्र देश के लिए सत्यवादी स्वतन्त्र तथा निष्पक्ष विचार वाले अनुशासित, सहयोगी तथा
उदार राष्ट्रीय भावना से ओत-प्रोत नागरिकों की आवश्यकता पड़ती है। इन सभी बातों को
ध्यान में रखकर आयोग ने सिफारिश की कि माध्यमिक शिक्षा को छात्रों में इस प्रकार के
आवश्यक गुणों का विकास करना चाहिए।
2.व्यावसायिक दक्षता का विकास करना-वर्तमान युग में विश्व के सभी राष्ट्रों में औद्योगिक
प्रगति की होड़ लगी है। अपनी औद्योगिक प्रगति में हम अन्य राष्ट्रों के साथ उस समय तक
नहीं चल सकते हैं। जब तक कि हमारे नवयुवक इस प्रकार की प्रगति में सक्षम न हों। दूसरे,
आजकल की शिक्षा पूर्णतया सैद्धान्तिक है, वह बालकों का कोई व्यावहारिक ज्ञान प्रदान नहीं
करती है। वह केवल पुस्तकीय है तथा वर्तमान शिक्षा बालकों में शारीरिक श्रम के प्रति कोई
अच्छी आस्था विकसित नहीं करती है। अत: आयोग ने सुझाव दिया कि शिक्षा का माध्यमिक
स्तर ही एक ऐसा स्तर है जिस पर हम अपने भावी नागरिकों को व्यावसायिक दक्षता प्रदान कर
सकते हैं। इस उद्देश्य की पूर्ति हेतु आयोग ने पाठ्यक्रम के विभिन्नीकरण का सुझाव दिया।
3.व्यक्तित्व का विकास करना-आयोग की दृष्टि में माध्यमिक शिक्षा को किशोर छात्रों के सम्पूर्ण
व्यक्तित्व का विकास करने के प्रयत्न करने चाहिए। आयोग का विचार था कि माध्यमिक शिक्षा
को इस प्रकार से संगठित तथा व्यवस्थित करना चाहिए कि छात्रों के जन्मजात गुणों का
वांछनीय विकास हो सके तथा अपने सांस्कृतिक वैभव को आगे बढ़ा सके। आयोग के अनुसार
माध्यमिक शिक्षा का यह कर्तव्य है कि वह बालकों के सर्वांगीण व्यक्तित्व का विकास करें।
4.नेतृत्व का विकास करना-आयोग की दृष्टि में यह माध्यमिक शिक्षा का ही कार्य है कि बालकों
में उचित तथा आदर्श नेतृत्व का विकास करे। माध्यमिक शिक्षा को ऐसे नागरिक उत्पन्न करना
है जो जनसाधारण का नेतृत्व जनतान्त्रिक विधि से कर सकें, उन्हें उचित मार्ग प्रदर्शित कर
सकें, जो हर क्षेत्र में स्वयं बुद्धि तथा विवेक से कार्य करें और जनसाधारण में सहयोग,
सहकारिकता तथा सामुदायिकता की भावना का विकास कर सकें। इन गुणों के विकास के लिए
आयोग ने माध्यमिक शिक्षा के पाठ्यक्रम में विभिन्न प्रकार के क्रियात्मक विषय तथा अन्य ऐसे
विषयों को समावेशित करने का परामर्श दिया जो बालकों में उपर्युक्त सभी गुणों का विकास
कर सकें।
इस प्रकार मुदालियर आयोग ने माध्यमिक शिक्षा के उद्देश्यों का पहली बार
स्पष्टीकरण किया। इस आयोग के उपरान्त कोठारी शिक्षा आयोग ने देश तथा समाज की
परिवर्तित परिस्थितियों को ध्यान में रखकर सन् 1964-66 में एक प्रतिवेदन प्रस्तुत किया। इस
प्रतिवेदन में आयोग ने लिखा कि वर्तमान समय में देश के सामने निम्नांकित चार आवश्यकताएँ
हैं-
- उत्पादन क्षमता वृद्धि।
- राष्ट्रीय एकता का विकास,
- राजनैतिक चेतना का विकास,
- सामाजिक नैतिक व आध्यात्मिक मूल्यों का निर्माण।
माध्यमिक शिक्षा के उद्देश्यों की चर्चा करते हुए डॉ. एस.एन. मुखर्जी ने लिखा है कि
माध्यमिक शिक्षा स्वयं में पूर्ण होनी चाहिए और उसे छात्रों को उच्च शिक्षा के लिए तैयार करना
चाहिए। उसे कुछ छात्रों को जीवन में प्रवेश करने के लिए तथा दूसरों को विश्वविद्यालय में
प्रवेश करने के लिए तैयार करना चाहिए।
संक्षेप में श्री मुखर्जी ने माध्यमिक शिक्षा के कारण बताये हैं-
संक्षेप में श्री मुखर्जी ने माध्यमिक शिक्षा के कारण बताये हैं-
- छात्रों को उच्च शिक्षा के लिए तैयार करना।
- छात्रों को जीविकोपार्जन हेतु तैयार करना।
- छात्रों का शारीरिक व मानसिक रुप से विकास करना।
- छात्रों में नागरिकता के गुणों का विकास करना।
- छात्रों में व्यावसायिक कुशलता का विकास करना।
माध्यमिक शिक्षा की मुख्य धाराएँ
सी.बी.एस.ई व आई.सी.एसई. के सन्दर्भ में पाठ्यक्रम व परीक्षा प्रणाली आज की शिक्षा प्रणाली मुख्य रुप से तीन बोर्ड पर आधारित है, जो कि है-- सी.बी.एस.ई.
- आई.सी.एस.ई.
- राष्ट्रीय स्तर का बोर्ड ( स्टेट बोर्ड )
पाठ्यक्रम में परिवर्तन एक सतत् प्रक्रिया है। अत: सी.बी.एस.ई व आई.सी.एस.ई. बोर्ड के
द्वारा प्रत्येक वर्ष इसमें कुछ-न-कुछ नये परिवर्तन अवश्य ही किये जाते हैं। यह परिवर्तन
किताबों से, कोर्स से तथा पाठ्यक्रम से संबंधित होते हैं।
शिक्षक प्रक्रिया त्रिमुखी है। इसके 03 आयाम हैं-1 शिक्षक, 2 विधाथ्र्ाी 3 पाठ्यक्रम।
शिक्षण अधिगम प्रक्रिया में शिक्षक एक महत्वपूर्ण तत्व है। उसके बिना कोई शिक्षण नहीं
हो सकता। पर्याप्त ज्ञान नहीं प्रदान किया जा सकता है और विधार्थियों का उचित विकास
सम्भव नहीं है। इस संदर्भ में ही पुरातन काल में भारतीय चिन्तकों ने शिक्षक को अत्यन्त आदर
का स्थान दिया था।
शिक्षक के महत्व पर बल देते हुए भगवान दासकहते हैं, शिक्षा बीज और जड़ है,
सभ्यता फूल और फल है। यदि कृषक विवेकपूर्ण है और अच्छे बीज बोता है तो समुदाय उत्तम
दाने प्राप्त करता है और सम्पन्न होता है। यदि ऐसा नहीं है, यदि वह झाड़-झंकार बोता है तो
जहरीले बेर मिलते हैं और बीमारी और मृत्यु फसल होती है। हमारे कृषक शिक्षक हैं।
स्वामी विवेकान्द कहते हैं कि बिना शिक्षक के व्यक्तिगत जीवन के कोई भी शिक्षा नहीं
दी जा सकती है।
किसी भी शैक्षिक संगठन में मुख्य व्यक्ति शिक्षक है। उस पर ही समाज के शैक्षिक
प्रयास निर्भर हैं। इसलिए यह हमारे लिए आवश्यक है कि उसकी भूमिका को समझें।
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