तुलनात्मक साहित्य का अर्थ, परिभाषा एवं प्रकार

तुलनात्मक साहित्य का अर्थ

तुलना मानव की सहज प्रवृत्ति है। तुलना विकसित मस्तिष्क की पिपासा से परिनित ज्ञान-यात्रा है। मानक हिंदी कोश में ‘तुलना’ शब्द के अर्थ दिए हैं- ‘‘) काँटे, तराजू आदि पर रखकर तौला जाना। ) दो या अधिक वस्तुओं के गुण, मान आदि के एक-दूसरे से घट या बढ़कर होने का विचार।) तारतम्य, बराबरी, समता, उपमा या गिनती।’’ उसी प्रकार ‘तुलनात्मक’ शब्द को स्पष्ट करते हुए लिखा है- ‘‘जिसमें दो या कई चीजों के गुणों की समानता और असमानता दिखलाई गई हो। जिसमें किसी के साथ तुलना करते हुए विचार किया गया हो। 

जैसे-कबीर और नानक का तुलनात्मक अध्ययन।’’ ‘अध्ययन’ के बारे में स्पष्ट किया है- ‘‘किसी विषय के सब अंगों या गूढ़ तत्त्वों का ज्ञान प्राप्त करने के लिए उसे देखना, समझना तथा पढ़ना।’’ इन शब्दों को ज्ञात करने पर तुलना का सरल एवं व्यावहारिक अर्थ है- किन्हीं दो वस्तुओं या व्यक्तियों का कतिपय समान गुणों के आधार पर पूर्णतया जानने के लिए परीक्षण या तुलना करना।

तुलना शब्द उपरोक्त सरल अर्थ से हटकर शोध के क्षेत्र में एक विशिष्ट, निश्चित एवं संकुचित अर्थवाची हो गया है। इसे भाषा-विज्ञान में अर्थ संकोच कहा जाता है। तुलना करते समय किन्हीं दो वस्तुओं में शत प्रतिशत तुलना-समानता संभव नहीं है अत: तुलना में कुछ विषमता, असमानता एवं विपरीतता भी सहज आती है। वैषम्यमूलक अध्ययन भी तुलनात्मक अध्ययन का एक अंग है। 

तुलनात्मक अध्ययन के अंतर्गत किन्हीं दो समकालीन या विषमकालीन समान गुणात्मक प्रतीत होनेवाली कृतियों का अध्ययन किया जाता है। यह अध्ययन दो युगों, दो भाषाओं एवं दो व्यक्तियों का हो सकता है। यह अध्ययन गंभीर, वैज्ञानिक, तटस्थ, सांगोपांग एवं निष्कर्षमूलक होना चाहिए।

तुलनात्मक साहित्य की परिभाषा 

अनुसंधान के समान तुलनात्मक साहित्य तथा तुलनात्मक अनुसंधान पश्चिम से आयातित है। तुलनात्मक अध्ययन को अनके पाश्चात्य एवं भारतीय विद्वानों ने परिभाषित करने की कोशिश की है।

विश्वकोशात्मक आक्सफोर्ड डिक्शनरी में तुलना के विषय में लिखा है- ‘‘तुलना, किन्हीं दो वस्तुओं में समान गुणों एवं अंतरों का उद्घाटन या प्रस्तुतीकरण अथवा इन्हीं विशेषताओं का संयोजन है। तुलना कभी-कभी आरंभ में संभावनापूर्ण लग सकती है। पर अंतत: उससे कुछ भी सिद्ध न हो सके, यह भी होता है।’’ उपर्युक्त परिभाषा तुलना-प्रक्रिया को स्पष्ट करती है। तुलना में वस्तुओं का साम्य-वैषम्य मिलना निश्चित नहीं मानती।

प्रसिद्ध विश्वकोशकार वेबस्टर ने तुलना के अर्थ और आशय को बहुत विश्वसनीय ढंग से स्पष्ट किया है- ‘‘दो या दो से अधिक वस्तुओं के समान एवं असमान तत्वों को ज्ञात करने के लिए उन्हें साथ रखकर परिक्षित करना। दो वस्तुओं की असमानता की मात्रा का पता लगाने के लिए भी तुलना की जाती है। दो वस्तुओं के साम्य-वैषम्य की निष्पक्ष जाँच के लिए तथा निष्कर्ष प्राप्ति के लिए भी तुलना की जाती है।’’

रेने वेलेक पासनेट के अनुसार, ‘‘साहित्यिक विकास के सामान्य सिद्धांतो का अध्ययन निश्चय ही तुलनात्मक साहित्य का महत्वपूर्ण अंग है।’’ 

पैरिस जर्मन स्कूल के अनुसार, ‘‘तुलनात्मक साहित्य विविध साहित्यों के पारस्परिक संबंधों का अध्ययन है अथवा अंतर्राष्ट्रिय साहित्यिक संबंधो का इतिहास है या फिर वह साहित्येतिहास की एक शाखा है।’’

क्लाइव स्टाक क्लाइव स्टाक के अनुसार, ‘‘तुलनात्मक साहित्य में विभिन्न भाषाओं में लिखित साहित्यों अथवा उसके संक्षिप्त घटकों की साहित्यिक तुलना होती है और यही उसका आधार तत्त्व है।’’

डॉ. नगेंद्र तुलनात्मक साहित्य को स्पष्ट करते हुए लिखते हैं- ‘‘तुलनात्मक साहित्य जैसे नाम से ही स्पष्ट है साहित्य का तुलनात्मक दृष्टि से अध्ययन प्रस्तुत करना है। तुलनात्मक साहित्य एक प्रकार का साहित्यिक अध्ययन है जो अनेक भाषाओं को आधार मानकर चलता है और जिसका उद्देश्य होता है, अनेकता में एकता का संधान।’’

डॉ. रवींद्रकुमार जैन के अनुसार, ‘‘तुलनात्मक अनुसंधान के अंतर्गत किन्हीं दो समकालीन या विषमकालीन समान गुणात्मक प्रतीत होनेवाली कृतियों का अध्ययन किया जाता है। यह अध्ययन दो युगों, दो भाषाओं एवं दो व्यक्तियो का हो सकता है। यह अध्ययन गंभीर, वैज्ञानिक, तटस्थ, सांगोपांग एवं निष्कर्षमूलक होना चाहिए।’’ प्रस्तुत परिभाषा तुलना के व्यापक क्षेत्र को तथा स्वरूप का ेसूक्ष्मता से स्पष्ट करती है। इसमे तुलना के समान गुणो पर अधिक बल दिया है। तुलना के गंभीर, वैज्ञानिक, तटस्थ एवं निष्कर्षमूलक जैसी महत्त्वपूर्ण विशेषताओ को भी इंगित किया है।

वसंत बापट के अनुसार, ‘‘तुलना को अधिक व्याख्यायित करने का हो तो साधम्र्य और वैधम्र्य, उद्गम और प्रभाव इन चार दृष्टियों से किया गया शोध, ऐसा कहना होगा।’’ बापट जी की परिभाषा शोध की प्रक्रिया एवं अंगो की आरे इंगित करती है। तुलना में आधारभूत बातें कौन-सी हो स्पष्ट करती है।

डॉ. सरगु कृष्णमूर्ति तुलना के बारे में लिखते हैं- ‘‘तुलनात्मक अनुसंधान विभिन्न भाषा-साहित्यों की कृतियों एवं स्थितियों का तुलनात्मक विवेचन प्रस्तुत करता हुआ, विभिन्न भाषाओं एवं क्षेत्रों में ध्वनित मानव जाति के हृदय एवं मस्तिष्क में परिलक्षित भाव साम्य का समुद्घाटन कर विश्व-मानवता की एकता का निरूपम-विश्लेषण करता है।’’ कृष्णमूर्ति जी की परिभाषा तुलना के एक उद्देश्य को स्पष्ट करनेवाली है। तुलनात्मक अध्ययन के माध्यम से विश्वमानव की एकता स्पष्ट होनी चाहिए, इस पर बल देती है।

डॉ. आनंद पाटिल के अनुसार, ‘‘तुलना केवल साम्य या सममूल्य ढँढ़ना नहीं है, साम्य और भेद इनके बीच का वह द्वंद्व है। जो बातें समान दिखती हैं उनमें भेद और जो भिन्न लगती है उनमें साम्य ढूँढ़ना ऐसी यह प्िरक्रया है।’’

इंद्रनाथ चौधरी के अनुसार, ‘‘तुलनात्मक शब्द में तुलने की प्रक्रिया जुड़ी हुई है और तुलना में वस्तअुों को कुछ इस प्रकार प्रस्तुत किया जाता है, जिससे उनमें साम्य या वैषम्य का पता लग सके।’’

उपर्युक्त परिभाषा में साम्य और वैषम्य पर अधिक बल दिया है। इसमें तुलना वस्तुओं से तात्पर्य दो कृतियों, लेखकों, साहित्यिक प्रवृत्तियों, विचारप्रणालियों आदि का साम्य-वैषम्य निहित है। 

तुलनात्मक साहित्य का स्वरूप

उपर्युक्त परिभाषाओं के आधार पर तुलनात्मक साहित्य का स्वरूप स्पष्ट होता है। तुलनात्मक साहित्य साहित्यिक समस्याओं का वह अध्ययन है, जहाँ एक से अधिक साहित्यों का उपयोग किया जाता है। तुलनात्मक साहित्य के अध्ययन में प्रत्येक अध्याय या पृष्ठ में तुलनात्मक होने की आवश्यकता नहीं पर उसकी दृष्टि, उद्देश्य तथा कार्यान्वयन को तुलनात्मक होना चाहिए। यहाँ एक से अधिक से तात्पर्य एक से अधिक भाषाओं, रचनाकारों, कृतियों, युगों, प्रवृत्तियो से है। 

भाषा, देश, युग, रचनाकार, कृति, प्रवृत्ति के अनुसार तुलनात्मक साहित्य के अध्ययन के व्यापक तथा सीमित स्वरूप में अंतर आता है। तुलना के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए डॉ. सावित्री सिन्हा ने लिखा है, ‘‘किन्हीं दो वस्तुओं में शत-प्रतिशत तुलना-समानता सहज नहीं है अत: उसमें कुछ विषमता, असमानता एवं विपरीतता भी सहज हो जाती है। 

वैषम्यमूलक अध्ययन भी तुलनात्मक शोध का एक अंग है। परंतु इससे साम्यमूलक ज्ञानवर्धन न होकर वैषम्यमूलक ज्ञानवर्धन ही होता है।’’

तुलनात्मक साहित्य में साम्य-वैषम्य का उद्घाटन कर अध्येता को दोनों विषयों की पूर्ण प्रकृति और सीमाओं का पूर्ण ज्ञान हो जाता है। तुलनात्मक अध्ययन की पूर्णता तथा वैज्ञानिकता के लिए कृतियों पर पड़े प्रभावों एवं साम्य-वैषम्य के कारणों का अन्वेषण करना पड़ता है।

डॉ. पी. आदेश्वर राव तुलनात्मक अध्ययन की प्रक्रिया को दो भागों में विभाजित करते हैं- पहला स्थूल रूप दूसरा सूक्ष्म रूप। ‘‘तुलनात्मक शोध का स्थूल रूप वह है जिसमें एक ही साहित्य के या भिन्न साहित्यों के दो युगों या दो प्रवृत्तियों के वण्र्य-विषय, काल-विभाजन, सामाजिक व सांस्कृतिक परिस्थितियाँ और उनके अंतर्गत आनेवाले कवियों तथा उनसे प्रयुक्त छंदों एवं अलंकारों आदि का उल्लेख हो। तो सूक्ष्म रूप में आलाच्ेय साहित्यों में किस प्रकार मानव के उच्चतर मूल्यों, विचार धाराओं, चिंतन-प्रणालियों तथा अनुभूतियों को अभिव्यक्ति मिली है आदि का समावेश हो।’’ 

डॉ. पी. आदेश्वर राव तुलनात्मक शोध के स्थूल रूप को केवल तथ्यों का संकलन एवं सत्य के उद्घाटन में सहायक मानते हैं। उनके अनुसार शोध का सूक्ष्म रूप तुलनात्मक अध्ययन की आत्मा होती है।

उपर्युक्त विवेचन के आधारपर तुलनात्मक साहित्य के कुछ लक्षण सामने आते हैं-
  1. ‘तुलनात्मक साहित्य’ साहित्य की सार्वभौम संकल्पना है जो साहित्य को राष्ट्रीय तथा भाषिक सीमाओं से परे, उसके समग्र रूप में ग्रहण करती है।
  2. यह साहित्य के बाह्य रूपों को महत्व न देकर उसके आंतरिक तत्त्वों को ही रेखांकित करता है।
  3. सभी प्रकार के पूर्वग्रहों से अविकृत, सभी प्रकार की मूल्यवान मानव-अनुभूतियाँ उसकी विषय-वस्तु है और उसकी अभिव्यक्ति का निर्माण सार्वभौम भाषिक रूपों से होता है।
  4. भिन्न साहित्यों के जातीय, सामाजिक, राजनीतिक एवं भाषिक रूप भेदों से तो इसका कोई संबंध नहीं रहता है।
  5. तुलनात्मक साहित्य का अविर्भाव अनेकता में एकता के संधान की भावना से प्रेरित, अनेक साहित्यों के तुलनात्मक अध्ययन से हुआ है।

तुलनात्मक साहित्य के प्रकार 

तुलनात्मक शोध विषयों का वर्गीकरण देखें बिना उसके स्वरूप में पूर्णता नहीं आ सकती। तुलनात्मक शोध पद्धति के विद्वानों द्वारा अनेकानेक प्रकार किए हैं। 

डॉ. सरगु कृष्णमूर्ति के अनुसार, ‘‘साहित्यिक तुलना, भाषा-वैज्ञानिक तुलना तथा सांस्कृतिक तुलना महत्वपूर्ण हैं।’’ 

तो डी. पी. आदेश्वर राव एवं ई. मोहन दास निम्नांकित तीन प्रकारों में तुलनात्मक विषयों का वर्गीकरण करते हैं- ‘‘हम तुलनात्मक शोध को तीन रूपों में बाँट सकते हैं और विषय के स्वभाव के अनुरूप हर रूप को पुन: विभिन्न भागों में विभाजित कर सकते हैं।’’

1. एक भाषा के अंतर्गत तुलनात्मक अध्ययन : विषय की सीमा के अनुरूप इसे भी तीन भागों में विभाजित किया जा सकता है-
  1. दो लेखकों या कवियो की तुलना- जैसे- ‘कबीर और जायसी के रहस्यवाद का तुलनात्मक अध्ययन’
  2. दा ेप्रवृत्तियों की तुलना- जैसे- ‘द्विवेदी युगीन कविता और छायावाद का तुलनात्मक अध्ययन’।
  3. दो युगों की तलुना- जस-े ‘हिंदी के भक्तिकाल और रीतिकाल के काव्य का तुलनात्मक अध्ययन’।
2. एक भाषा साहित्य का अन्य साहित्यों पर प्रभाव : यह प्रभाव तीन रूपों में प्रदर्शित होता है।
  1. एक साहित्य का दूसरे साहित्य पर प्रभाव- जैसे- ‘हिंदी साहित्य पर संस्कृत साहित्य का प्रभाव’।
  2. एक साहित्यिक व्यक्तित्व का अन्य साहित्यों पर प्रभाव- जैसे- ‘हिंदी कवियों पर रविंद्रनाथ ठाकुर का प्रभाव’।
  3. एक साहित्य प्रवृत्ति या काव्य धारा का दूसर े साहित्य की प्रवृत्ति या काव्य धारा पर प्रभाव- जैसे- ‘अंग्रेजी स्वच्छंदतावाद पर छायावाद का प्रभाव’।
3. दो या उससे अधिक साहित्यों का तुलनात्मक शोध : विषय सीमा के अनुसार इसके अंतर्गत चार प्रकार आते हैं-
  1. दो लेखक अथवा कवियों की तुलना- जैसे- ‘संत कबीर और भक्त तुलसी’ का तुलनात्मक अध्ययन’।
  2. दा ेविशिष्ट कृतियों की तुलना- जैसे- ‘कंब रामायण और रामचरितमानस का तुलनात्मक अध्ययन’।
  3. दो प्रवृत्तियों या युगों की तुलना- जैसे- ‘हिंदी और बंगला के वैष्णव कवियों का तुलनात्मक अध्ययन’।
  4. किसी साहित्यिक विधा की तुलना- जैसे- ‘हिंदी और तेलुगु नाटक साहित्य का तुलनात्मक अध्ययन’।
उपर्युक्त तीनों प्रकारों के अध्ययन में प्रथम में तो एक साहित्य के अंतर्गत तुलना होने से उसका महत्त्व भी उसी साहित्य तक सीमित रहता है।

दूसरे प्रकार में तुलनात्मक अध्ययन से एक साहित्य का प्रभाव अन्य साहित्यों के दृष्टिकोणों, भावों, विचारों एवं चिंतन-प्रणालियों पर किस प्रकार पड़ता है और ऐसे प्रभावित साहित्य के प्रांत की संस्कृति तथा सभ्यता में किस प्रकार परिवर्तित हुई है, स्पष्ट होता है।

तीसरे प्रकार में तुलनात्मक अध्ययन अपने समग्र रूप में प्रकट होता है। इसमें अनुसंधाता को दो साहित्यों का समुचित अध्ययन करना पड़ता है, साथ-ही-साथ साहित्यिक प्रदेशों की संस्कृति, सभ्यता एवं वातावरण का सम्यक ज्ञान होना चाहिए।

तुलनात्मक अध्ययन के बारे में निष्कर्ष रूप में कहेंगे कि विद्वान अध्ययन-सुविधा के लिए कितने भी प्रकार करें, तुलना के विषयो की कोई सीमा नहीं है। सभी विषयों पर तुलना कर सकते हैं या सभी में तुलना के विषय आ सकते हैं, जिससे ज्ञान की पूर्णता ही होती है।

तुलनात्मक साहित्य का प्रारंभ

 किसी भी विधा या पद्धति के प्रारंभ एवं विकास के अध्ययन से उसके इतिहास का पता चलता है। जिसस े अध्ययन में स्पष्टता एवं वास्तवता आ जाती है। कल, आज और कल का पता चलता है। तुलनात्मक साहित्य अंग्रेजी के ‘कम्पैरेटिव लिटरेचर’ का हिंदी अनुवाद है। ‘‘इस पद का प्रथम प्रयोग ‘अंग्रेजी के मैथ्यू आर्नल्ड ने सन् 1848 में अपने एक पत्र में’ किया था।’’ 

प्रारंभ में इसके शाब्दिक अर्थ को लेकर विवाद रहा क्योंकि साहित्य विधा कलाकार की सृजनशील अभिव्यक्ति होती है, फिर वह तुलनात्मक कैसे हो सकती है? अत: ‘तुलनात्मक शब्द’ साहित्य सृष्टि के संदर्भ में प्रयोग में नहीं लाया जा सकता। ‘ऐतिहासिक अर्थविज्ञान’ के सहारे रेने वेलेक ने इस समस्या को हल करने का प्रयास किया। 

उनके अनुसार, ‘‘तुलनात्मक शब्द में तुलना करने की प्रक्रिया जुडी हुई है और तुलना में वस्तुओ को कुछ इस प्रकार प्रस्तुत किया जाता है, जिससे उनमें साम्य या वैषम्य का पता लग सके।’’ इसी दृष्टि से अंग्रेजी में तुलनात्मक शब्द का प्रयोग लगभग सन् 1598 ई. से हो रहा है। तत्पश्चात सन् 1886 ई. में अपनी किताब का शीर्षक ‘कम्पैरेटिव लिटरेचर’ रखकर सर्वप्रथम एच. एम. पॉसनेट ने इस विद्याशाखा को स्थायित्व प्रदान करने का प्रयास किया था। 
इन बातों से यह अवश्य स्पष्ट होता है कि बीसवीं सदी के प्रारंभ से ‘कम्पैरेटिव लिटरेचर’ पद का प्रयोग शुरू हो गया था। 

भारत में सन् 1907 ई. में रवींद्रनाथ ठाकुर ने ‘विश्व साहित्य’ का उल्लेख करते हुए साहित्य के अध्ययन में तुलनात्मक दृष्टि की आवश्यकता पर जोर दिया था। भारत में तुलनात्मक अध्ययन के प्रारंभ के संबंध में ए. बी. साई प्रसाद ने कहा है, ‘‘बीसवी सदी से ही हम तुलना शब्द को कंपारिटिव शब्द का पर्यायवाची शब्द मान इस्तेमाल करते आ रहे हैं। इसके पहले यह शब्द भारत में प्रचलित नहीं था।’’ 

डॉ. पी. एम. वामदेव ने भी भारत में तुलनात्मक अध्ययन स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद तीव्र गति से चलने की बात कही है। हिंदी में भक्ति एवं रीति कालीन कवि तुलसी, सूर, केशव आदि ने अपने कवि रूप के संबंध में जो अनूठी उक्तियाँ कही हैं, उनमें हिंदी के तुलनात्मक अनुसंधान के बीज निहित हैं। भारतेंदु जी ने नाटकों के विवेचन में तुलनात्मक चेतना को प्रदर्शित किया। पदम्सिंह शर्मा, मिश्रबंधु आदि ने देव, बिहारी की तुलना कर श्रेष्ठ-कनिष्ठ को स्थापित किया। महावीर प्रसाद द्विवेदी, शचीरानी देवी, आ. रामचंद्र शुक्ल ने भी इसे विकसित किया। 

आज भारतवर्ष में सैंकड़ों की तादाद में तुलनात्मक अध्ययन हो रहे हैं।

तुलनात्मक साहित्य की आवश्यकता एवं महत्व 

आज इक्कीसवीं सदी में भूमंडलीकरण, बाजारवाद के कारण संपूर्ण विश्व एक ‘विश्वग्राम’ के रूप में बन गया है। ऐसे में तुलनात्मक साहित्य को अनेक कारणों से अनन्यसाधारण महत्त्व प्राप्त हुआ है।

तुलनात्मक अनुसंधान अन्य शोध पद्धतियों से विशिष्ट है। अन्य शोध में जहाँ एक ही प्रमुख आयाम रहता है, वहाँ तुलनात्मक अनुसंधान में दो या दो से अधिक आयाम रहते हैं। तुलनात्मक सामग्री भी दो या अधिक स्रोतों से इकट्ठा की जाती है। 

इस पद्धति के महत्व के बारे में डॉ. पी. आर डोडिया का मत है- ‘‘तुलनात्मक अध्ययन से विशेष लाभ यह होता है कि इसमें अनुसंधान की दृष्टि सूक्ष्म से सूक्ष्मतर होकर अधिक गहराई में स्थित काव्य की अंतरात्मा का स्पर्श कर लेती है। परिणाम स्वरूप बहुत अमूल्य निष्कर्ष की प्राप्ति होती है। ज्ञान की परिपुष्टि एवं संपुष्टि के लिए तुलनात्मक अध्ययन आवश्यक ही नहीं अनिवार्य भी है।’’ तुलनात्मक अध्ययन से वैज्ञानिक दृष्टिकोण विकसित होता है। इससे हमें उच्चतर ज्ञान की प्राप्ति होती है। 

प्रसिद्ध पाश्चात्य विद्वान मैक्समूलर ने इस संदर्भ में कहा है, ‘‘All higher Knowledge is gained by comparison and rests on comparisan.’’ अर्थात- ‘‘सभी उच्चतर ज्ञान की प्राप्ति तुलना से हुई है और वह तुलना पर ही आधारित है।’’

भारत विभिन्न भाषाओं का देश है। यहाँ पर हर एक भाषा का समृद्ध एवं विकसित साहित्य भी है। भारत के विभिन्न साहित्यों में जो समानांतर गतिविधियाँ मिलती है, उनके मूल कारणों को जानना आवश्यक है। यहाँ पर सांस्कृतिक चेतना पहले उत्पन्न हुई, राजनीतिक चेतना बाद में जन्मी है। इसी मूलवर्ती एकता का अनुसंधान अभी होना है। भारतीय साहित्यों के समग्र स्वरूप का आकलन करने के लिए उनके विभिन्न प्रादेशिक साहित्यों के बीच तुलनात्मक अध्ययन होना अत्यंत आवश्यक है। 

डॉ. भीमसेन निर्मल का मत है- ‘‘भारतीय विचारधारा प्राय: एक समान है। भाषाओं का लिबास पहने, वह एक ही भाव अनेक रूपों में प्रत्यक्ष होता है। परंतु परस्पर अपरिचय के कारण यह तत्त्व प्राय: अज्ञात ही रह गया है। इस एकता को उजागर कर, भारत की भावनात्मक एकता को सुदृढ़ बनाने की दिशा में तुलनात्मक अध्ययन का विशिष्ट महत्त्व है।’’

आज पाश्चात्य सभ्यता, बाजारवाद स्वार्थपरता एवं भोगवादिता की प्रवृत्ति भारत में प्रबल होती जा रही है। जिससे व्यक्तिवाद बढ़ा, संयुक्त परिवार टूटे, आदर भाव कम हुआ। मानव मूल्य, नैतिक मूल्य एवं जीवन मूल्य पर्याप्त गति से संक्रमित तथा परिवर्तित हुए हैं। तुलनात्मक अध्ययन दवरा अनेक समानतापरक तथ्यों एवं सत्यों की स्थापना करके भारतीय संस्कृति की मूलभूत एकता (वसुधैव कुटुंबकम्) की भावना को फिर चरितार्थ किया जा सकता है।

विश्व के विभिन्न देशवासियों के बीच जाति, वर्ण और धर्म आदि के वैमनस्य के होते हुए भी उनके मस्तिष्क, मानव-हृदय में प्राय: समानता पाई जाती है। विश्व के प्रतिष्ठित कवियों एवं साहित्यकारों ने अपनी देश-काल जयी कृतियों में इसी मानव मनोभूमि की एकरूपता का प्रतिपादन किया है। स्पष्ट है कि विभिन्न प्रांतों एवं देशों के साहित्यों में विविध रूपों में व्यक्त मानव-चेतना की अखंडता, विराटता एवं सह जिजीविषा को तुलनात्मक अध्ययन द्वारा प्रस्तुत किया जा सकता है।

हिंदी एवं अन्य प्रादेशिक भाषाओं एवं साहित्यों में तलनात्मक अनुसंधान से अदान-प्रदान की भावना बढ़ेगी। दोनों भाषाएँ आपसी अदान-प्रदान से संपन्न एवं समृद्ध बनेंगी। हिंदी को राजभाषा के साथ-साथ संपर्क भाषा एवं विश्व भाषा के विराट तथा महान उत्तरदायित्व को निभाना है। इसके लिए हिंदी को अपने प्रादेशिक स्वरूप से राष्ट्रीय स्वरूप में विकसित होना है यह महान कार्य तुलनात्मक अध्ययन से ही संभव हो सकता है।

प्रत्येक भाषा एवं साहित्य की अपनी भाषिक प्रकृति होती है। तुलनात्मक अध्ययन करते समय उसके शब्द, वाक्य, पद, व्यंजना, अलंकार, प्रादेशिक छवियों आदि का उद्घाटन होता है। दोनों भाषाओं के साम्य-वैषम्य से भाषा की प्रकृति का पता चलता है। एन. ई. विश्वनाथ अय्यर के अनुसार, ‘‘तुलनात्मक अध्ययन से विभिन्न भाषाओं में रचित साहित्य का रसास्वादन तो होगा ही साथ ही हम गंभीरता से समीक्षा प्रधान अथवा काव्य-शास्त्रीय अध्ययन करना चाहते हैं तो हमें बड़ी मात्रा में सामग्री मिलेगी। चरित्र-चित्रण, प्रकृति वर्णन, परंपरा, कवि-समय, बिंब विधान, आख्यान शैली, छंद, कल्पना, मिथक, परिकल्पना आदि कितने ही क्षेत्रों में हम नए-नए अनुभव प्राप्त कर सकते हैं।’’

तुलनात्मक अध्ययन अनुवाद को महत्व देता है। अनुवाद के ज्ञान बिना तुलना संभव नहीं है। साहित्यों की तुलना से नए साहित्य सिद्धांत एवं तत्त्वों की खोज की जाती है। उसी तरह पुराने साहित्य सिद्धांतो एवं तत्त्वों की योग्यता-अयोग्यता की जाँच-पड़ताल की जा सकती है। आज तक हम साहित्य किसी व्यक्ति द्वारा निर्मित मानते थे परंतु तुलनात्मक अध्ययन उसे राष्ट्रीय अंतरराष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में देखने का नज़रिया दतेा है। दूसरों में खुद को जाँचने का माध्यम तुलनात्मक अध्ययन है। जिससे खुद की सच्ची पहचान बनती है। किसी कृति का अलगपन बिना तुलना किए समझता नहीं है।

निष्कर्ष रूप में कहा जाएगा कि तुलनात्मक अध्ययन अनेक दृष्टियों से मानव-जाति के विकास का साधन है। ज्ञान-विज्ञान की नई दिशाओं का उद्घाटन, भाषा-शैली एवं अभिव्यंजना की मनोहारी अभिनव छटाओं का दिग्दर्शन, राष्ट्रीय एवं भावात्मक ऐक्य का प्रतिपादन, विश्व मानव का गौरव, बहुमुखी प्रकट रूप जाति, धर्म एवं रूढ़ियों द्वारा आरोपित भिन्नता में एकता दर्शन, त्याग प्रधान भारतीय संस्कृति का संस्थापन एवं अनके न्यूनताओं के प्रति सतर्कता, तुलनात्मक अध्ययन द्वारा संभव है।

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