क्षेत्रवाद क्या हैं भारत में क्षेत्रवाद के प्रमुख कारण

क्षेत्रवाद या क्षेत्रीयता एक क्षेत्र-विशेष में निवास करने वाले लोगों के अपने क्षेत्र के प्रति वह विशेष लगाव व अपने (अपनेपन) की भावना है जिसे कि कुछ सामान्य आदर्श, व्यवहार, विचार तथा विश्वास के रूप में अभिव्यक्त किया
जाता है। क्षेत्रवाद के अर्थ में हम कह सकते हैं कि एक देश में या देश के किसी भाग में निवास करने वाला, लोगों के छोटे समूह से है जो आर्थिक, भौगोलिक, सामाजिक आदि कारणों से अपने पृथक अस्तित्व के लिए जागरूक हो। साधारण से अर्थ में क्षेत्रवाद किसी क्षेत्र के लोगों की उस भावना व प्रयत्नों से है जिनके द्वारा वे अपने क्षेत्र विशेष के लिए आर्थिक, राजनीतिक तथा सामाजिक हितों में वृद्धि चाहते हैं।

क्षेत्रवाद के कारण

बहुधा भौगोलिक कारक क्षेत्रीयता के विकास का एक अत्यन्त प्रभावपूर्ण कारक बन जाता है। भौगोलिक कारकों की भाँति ऐतिहासिक कारक भी क्षेत्रीयता के विकास में सहायक सिद्ध हो सकते हैं। अनेक राजनैतिक कारक भी क्षेत्रीयता के विकास में अपना योगदान देते हैं। राजनैतिक संगठन या पार्टियाँ ऐसी हैं जो कि क्षेत्रीयता को भड़काकर लोकप्रिय होने का प्रयत्न करती हैं। प्रादेशिक भाषा के बोलने वालों को अपनी भाषा के प्रति अत्यधिक संवेगात्मक लगाव होता है जिसके फलस्वरूप वे यह मान बैठते हैं कि उनकी ही भाषा की शैली, शब्दावली, साहित्यिक समृद्धि तथा गहनता अन्य सभी भाषाओं से कहीं अधिक आकर्षक व श्रेष्ठ है। 

क्षेत्रीयता के कई दुष्परिणाम भी हैं। विभिन्न क्षेत्रों के बीच आर्थिक, राजनीतिक यहाँ तक कि मनोवैज्ञानिक संघर्ष और तनाव बढ़ सकता है। प्रत्येक क्षेत्र अपने स्वार्थों को सर्वोच्च स्थान दे बैठता है और उसे अपनी ही चिन्ता होती है। भाषा की भी समस्या जटिल हो जाती है तथा राष्ट्रीय एकता को चुनौती देती है। 

भारत में क्षेत्रवाद के प्रमुख कारणों का वर्णन है -

भाषा

भारत में भाषा के कारण कई समस्याएँ उत्पन्न हुई हैं। भाषा के मुद्दे पर देश में हमेशा से राजनैतिक आन्दोलन व मुद्दे अहम भूमिका में रहे हैं।

क्षेत्रवाद के भौगोलिक कारण 

भारत में भौगोलिक वातावरण के और भी प्रमुख तत्त्व हैं जैसे धरातल, जलवायु, वनस्पति, मिट्टी आदि में भी भिन्नताएँ हैं। हर राज्य में वहाँ की प्राकृतिक भिन्नता के कारण अपना अलग विशेष दर्जा प्राप्त हो रहा है। बड़े राज्य हैं जैसे उत्तर-प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश, राजस्थान। इनमें भी कई छोटे-छोटे राज्य बन सकते हैं। यदि राजस्थान में मेवाड़ और मारवाड़ के क्षेत्र आदि को अलग राज्य बनाया जाए तो वे केरल, नागालैंड से बड ़े राज्य ही बनेंगे। वर्ष 2000 में छत्तीसगढ, झारखण्ड व उत्तराखण्ड का निर्माण इसी का परिणाम रहा है। अत: हम कह सकते हैं कि भौगोलिक कारणों से भी क्षेत्रवाद बढ़ा है। 

क्षेत्रवाद के सांस्कृतिक कारण 

भारत में अनेक विविधता होते हुए भी मूल रूप में भारतीय संस्कृति इसे एकता प्रदान करती है। इन संस्कृतियों के आपसी सम्पर्क तथा आदान-प्रदान ने देश में सांस्कृतिक विलयन को जन्म दिया है। इसी विलयन के कारण देश में एकता स्थापित है। प्राचीन काल में समस्त भारत में बौद्धिक सभ्यता का विस्तार था। संस्कृत तथा फारसी भाषा के माध्यम से देश के विभिन्न वर्गों में एक सांस्कृतिक एकता प्रदान की है। भारत में हिन्दू तथा इस्लाम धर्म की विविध परम्पराएँ एक-दूसरे से गूथंकर भारतीय संस्कृति को विशिष्ट संस्कृति बना देते हैं। 

क्षेत्रवाद के आर्थिक कारण

भारत में हर वर्ष नई-नई परियोजनाएँ हर राज्यों में लागू होती हैं। कहीं उनका सही ढंग से प्रयोग नहीं हो पाता तो कहीं पर भ्रष्टाचार का शिकार बन जाती है, तो कई राज्यों में प्रशासन की कमी के कारण यह लागू नहीं हो पाती है, लेकिन आज भी हमारा देश आर्थिक ससांधनों में मजबूत नहीं हुआ है, परन्तु कई राज्य देश में ऐसे भी हैं जिनका आर्थिक विकास के नाम पर अलग गठन हुआ, तो इनका विकास हो गया जैसे - हरियाणा, और कुछ ऐसे भी हैं, जिनका राजनैतिक सचांलन ठीक नहीं हो पाया, लेकिन आज भी आर्थिक ससांधनों के संदर्भ में अहम् भूमिका अदा करता है जैसे झारखंड राज्य, बिहार और उत्तर प्रदेश। 

क्षेत्रवाद के राजनीतिक कारण

राजनीतिक नेताओं और उनके दलों के माध्यम से भी क्षेत्रवाद का विस्तार हुआ है। इन नेताओं ने पृथक-पृथक राज्यों को मुद्दा बनाकर स्वयं की राजनैतिक इच्छाओं को पूरा किया है, कुछ नेता ऐसे भी रहे जो अपने स्वार्थों को पूर्ण रूप से सिद्ध न होने पर क्षेत्रीय राजनीति की शुरुआत कर दी। 

क्षेत्रवाद के जाति सम्बन्धी कारण 

जहां-जहां किसी एक जाति का प्रभाव या दबदबा बना, उसी क्षेत्र में क्षेत्रवाद ऊपर उठा। इसलिए जाति का स्वरूप क्षेत्रवाद बढ़ाने का अहम् कारण बना। भारतीय राजनीति में जातिवाद ने हमेशा क्षेत्रवाद को बढ़ावा दिया है। यहां जातियों का ज्यादा प्रभाव ग्रामीण, जनपदीय, क्षेत्रीय और प्रान्तीय स्तरों पर अधिक रूप से देखा जाता है। जाति वह बधंन है जिसका प्रयोग राजनीति में हमेशा परिस्थितियों अनुसार होता रहा है। राजनेता हमेशा सत्ता प्राप्ति हेतु जातीय संगठनों को मजबूती से खड़ा करते हैं। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि जातिवाद ने भी क्षेत्रवाद को बढ़ावा दिया है।

क्षेत्रवाद के धार्मिक कारण 

महाराष्ट्र में शिव सेना, जो हिन्दू धर्म व अधिकारों से जुड़ी है तो अकाली दल सिक्ख धर्म, भाजपा के सहयोगी आर.एस.एस., बजरंग दल, विश्व हिन्दू परिषद् सभी का आधार धर्म है। ठीक उसी प्रकार मुस्लिम लीग, जमात का सम्बन्ध बाबरी मस्जिद से जुड़ा है। हिन्दू राष्ट्र में खालिस्तान व कश्मीर के नारों का सम्बन्ध भी धर्म से जुड़ा रहा है। इस प्रकार साम्प्रदयिक स्वरूप ने देश में हमेशा हिंसक माहौल बनाया है। इस धर्म के आधार पर देश में कई राजनेताओं की राजनीति का प्रचलन हुआ। 

सन्दर्भ -

  1. शर्मा पदमनाथ, महानिर्वाचन और राष्ट्रीय राजनीति, श्री पब्लिषिगं हाउस, नई दिल्ली, 1994 पृ0, 76-80 
  2. मुखर्जी भारती, पूर्वोक्त, पृ0, 45-46 
  3. मिश्रा मधुसुदन, पालिटिक्स आफ रिजनल्जिम इन इंडिया विद स्पेशल रिफ्रेन्स टू पंजाब, दीप एण्ड दीप पब्लिकेशन्स, नई दिल्ली, 1988, पृ0, 11-12 
  4.  मुखर्जी भारती, पूर्वोक्त, पृ0, 53-54 मिश्रा मधुसुदन, पूर्वोक्त पृ0, 27-31
  5. क्षेत्रवाद से आप क्या समझते हैं

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