भारतीय संस्कृति की विशेषताएं और व्याख्या

संस्कृति एक पारिभाषिक शब्द है इसकी शब्दगत व्युत्पत्ति है सम्+कृ+क्तित्र संस्कृति। अर्थात् कृ धातु से क्तिन प्रत्यय और सम् उपसर्ग लगाने से ‘संस्कृति‘ शब्द बनता है, जिसका अर्थ होता है- परिमार्जन अथवा परिष्कार।

भारतवर्ष प्राचीन देश है। अपनी भौगोलिक स्थिति और सांस्कृतिक इकाई के रूप में भारतीय संस्कृति का समस्त मानवीय उपलब्धियों के अध्ययन में प्रमुख स्थान है। इसकी संस्कृति में राष्ट्रीय जीवन का उत्थान-पतन तो स्वभावतः: है ही इसकी विविधता के स्वरूप में समन्वयवादी चतेना भी व्याप्त है। प्राचीनता के आधार से भारतीय संस्कृति विश्व की प्राचीन सभ्यताओं में से एक है। भारतीय संस्कृति मिस्र, यूनान, रोम, सुमेर आदि से प्राचीन ही है। 

हमारी संस्कृति में आज भी वैदिक परम्परा जो हजारों वर्ष पूर्व थी, उसके गुण विद्यमान हैं। इस सनातन अस्तित्व की दृष्टि से भारतीय संस्कृति अनोखी है। इसी विषय पर इकबाल की प्रसिद्ध पंक्तियाँ हैं - यूनान, मिस्र और रोमा, सब मिट गए जहाँ से। कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी।। 

भारतवर्ष भौगोलिक विभिन्नताओं का देश है। एक आरे उत्तर मे हिमालय द्वारा बनी सीमा जो अन्य एषिया देशों से उसे अलग करती है। तो दूसरी आरे दक्षिण में समुद्र भारत के स्वरूप का निर्धारण करता है, जो देश को सांस्कृतिक प्रसार का व्याप्क दृष्टिकोण तथा अवसर प्रदान करता है। भारत की धरती एसेी है जिसमें बाह्य जातियाँ और प्रभाव एक बार आने के बाद यहीं घुल-मिल जाते हैं। 

भारतवर्ष प्राकृतिक रूप से भी समृद्ध देश है। इसकी प्राकृतिक समृद्धि में भारतीयता के अटूट विकास के अवसर आदि से चले आ rhe हैं। भारतीय संस्कृति में वैदिक काल से लेकर आधुनिक वाड़्मय तक इस बात की सर्वत्र ध्वनि सुनाई देती है। नदियों द्वारा बनाया गया उपजाऊ क्षेत्र संस्कृति के विकास का प्रमुख कारण रहा है।

भारतीय संस्कृति

भारतीय संस्कृति विश्व की प्राचीनतम संस्कृतियों में से है। प्रत्येक देश की अलग पहचान उसकी संस्कृति के कारण होती है। चूंकि प्रत्येक देश के नागरिकों का व्यवहार उनकी संस्कृति द्वारा निर्धारित मूल्यों के अनुरूप होता है, जो कि सम्पूर्ण राष्ट्र के व्यक्तित्व का प्रदर्शन करते है। संसार में भारतीय संस्कृति को सबसे उच्च स्तर का होना स्वीकार किया गया है, जिसका मूलाधार यहाँ की संस्कृति के शाश्वत एवं चिरस्थायी मूल्य है। भारतीय संस्कृति मनुष्य और समाज के मध्य संबंध का एक सुव्यवस्थित आदर्श है, जिसमें परिवर्तनों को स्वीकार करने की अदम्य क्षमता है।

प्राचीन भारतीय संस्कृति का निर्माण राजनैतिक, आर्थिक आधार की बजाए धार्मिक आधार पर हुआ है। इसी कारण जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में धर्म की प्रावधान रही है, जिसमें वृहत्तर आध्यात्म ज्ञान की ओर संकेत है। यही कारण है कि भारतीय संस्कृति कर्तव्यनिष्ठा के भाव से सदैव ओत-प्रोत रही है। इसका अभिप्राय है कि फल की अपेक्षा कर्तव्यभाव से कार्य करना, जिसमें त्याग, तपस्या और बलिदान का महत्व है। हमारी प्राचीन वर्ण-व्यवस्था और आश्रम व्यवस्था का आधार कर्तव्य ही रहा है। 

भारतीय इतिहास का सूक्ष्म अवलोकन करने से निष्कर्ष प्रस्तुत होता कि भारत का इतिहास आक्रमण और विजय-पतन तथा उत्थान व सुषप्ति जागरण का अद्वितीय इतिहास है। भारत का इतिहास विश्व-परिदृश्य प्रस्तुत करता है, क्योंकि सोने की चिडि़या के नाम से प्रसिद्ध भारत अनेक धन-लोलप विदेशी आक्रमणकारियों से जुड़ा रहा है। सामान्यतः इन आक्रमणकारियों की तीन मांगों में विभाजित किया जा सकता है - 

प्रथम भाग में - उन आक्रमणकारियों का समावेश होता है, जिन्होंने यहाँ के मूल निवासियों को हराकर यही राज्य किया और धीरे-धीरे अपनी संस्कृति व स्वतंत्रता खोकर यहाँ की संस्कृति में ही घुल मिल गए। 

द्वितीय प्रकार के - आक्रमणकारी वे थे, जिन्होंने विश्व विजय की अभिलाषा के वशीभूत होकर भारत पर आक्रमण किया और उद्देश्य पूर्ति हो जाने पर यहाँ से स्वदेश वापस चले गए। 

तृतीय प्रकार के आक्रमणकारी वे थे जिन्होंने यहाँ पर राज्य करते हुए भारत की संस्कृति तथा उस पर आधारित मूल्यों, शिक्षा व्यवस्था तथा सामाजिक स्वरूप में आमूल-चूल परिवर्तन किया एवं अपनी स्वतंत्रता बनाए रखी ये आक्रमणकारियों की संस्कृति का भी भारत की संस्कृति पर प्रभाव पड़ा तथा एक नवीन मूल्य लेकर संस्कृति सृजित हुई। यह न तो आक्रमणकारियों की संस्कृति की हू-ब-हू नकल ही थी और न ही भारतीय संस्कृति, बल्कि दोनों संस्कृतियों का एक समन्वित रूप प्रस्तुत हुआ। इससे आध्यात्मवादी दर्शन के स्थान पर भौतिकवाद या यर्थाथवाद का प्रादुर्भाव हुआ। विज्ञान के कारण ईश्वर के अस्तित्व पर संदेह किया जाने लगा।

भारतीय संस्कृति सदैव से ही संचयशील और सहिष्णु बनी रही है। इसके मूल में भारतीय समाज की आध्यात्मिकता दृष्टिगोचर होती है, जिससे भारतीय सांस्कृति विश्व की श्रेष्ठतम संस्कृति बनी हुई है। प्राचीन भारतीय संस्कृति का प्रतिदर्श आधुनिक भारतीय समाज में भी मिलता है। यद्यपि विज्ञान के आविष्कारों तथा पश्चिम के अंधानुकरण से यह संस्कृति भी अपना स्वरूप परिवर्तित कर रही है। तथापि हमारे प्रचलित संवैधानिक मूल्य-समानता, सामाजिक न्याय, भ्रातत्वभाव, धर्मनिरपेक्षता इस संस्कृति की विशाल हृदयता की ही परिणति हैं, जिसमें विश्व मानवता का गहरा भाव जुड़ा हुआ है।

भारतीय संस्कृति की विशेषताएं 

भारतीय संस्कृति उत्तम संस्कृति मानी जाती है भारतीय संस्कृति की विशेषताएं हैं-

1. आध्यात्मिकता 

आध्यात्मिकता भारतीय संस्कृति की सबसे प्रमुख विशेषता है। वैदिक काल से ही भारतीय संस्कृति में आत्मिक उत्कर्ष सिद्धान्त चला आ रहा है। वैदिक ऋशिया े ने जीवन में उच्च नैतिक आदर्श से ऊपर उठकर मन की शक्ति और आत्मा के महत्व की स्थापना की है। वे कारे ज्ञान के समर्थक नहीं थे, उन्होंने धर्म और दर्शन की स्थापना करके मनुष्य के जीवन आरै सृष्टि को मोक्ष साधना और वैचारिक सहिष्णुता के रूप ने भारतीय संस्कृति की प्रमुख धाराएँ प्रदान की हैं। वेद, पुराण, उपनिषद और अन्य धर्म शास्त्रों में आत्मिक ज्ञान और जीवन के क्रमिक विकास के सिद्धान्तों के प्रतिपादन से ही भारतीय सभ्यता की मौलिक स्थापना हुई है। 

महावीर-बुद्धकालीन वैराग्य भावना और आत्मिक उत्कर्ष साधना के आन्दोलनों का फल जैन और बौद्ध धर्म के रूप मे मिलता है। अषाके, विक्रमादित्य और हर्श जैसे सम्राटों ने धर्म-संदेशों के प्रचार को अपना कर्तव्य समझा। मध्यकाल में शंकराचार्य ने आध्यात्मकपरक दार्शनिक पक्ष की पुनःस्थापना का महान कार्य किया। रामानन्द, कबीर, तुलसी, शंकर देव आदि कवि संतों ने आगे चलकर इसको जन-जन के लिए सुलभ किया। वर्तमान समय मे भी भारतीय विचारकों का दृष्टिकोण अध्यात्म भावना से प्रेरित दिखाई देता है। 

रामकृष्ण परमहंस, विवेकानन्द, अरविन्द, रमण महर्षि, रवीन्द्रनाथ ठाकुर गांधी इसी सत्य के प्रतिनिधि है जो भारतीय संस्कृति का प्रमुख लक्षण है।’ स्पष्टतः भारतीय विद्वतजनो ने वेद-शास्त्रों द्वारा ज्ञान अर्जित करके आध्यात्मिकता का ज्ञान विश्व को प्रदान किया है, जो भारतीय संस्कृति को विश्व की निराली संस्कृति बनाती है।

2. प्राचीनता एवं अविच्छिन्नता

भारतीय सभ्यता विश्व की प्राचीन सभ्यताओं में से है। डॉ. राधाकमल मुखर्जी ने लिखा है - ‘भारतीय सभ्यता संसार की अन्य सभ्यताओं से अधिक प्राचीन और प्राणवान है। यह तथ्य अधिक महत्त्वपूर्ण है इसलिए कि बहुत से देशों ने विदेशी जातियों की चढ़ाइयो और विजयों को सहा है। इससे भी देषों में प्राकृतिक दशाओं, रीति-रिवाजो और भाषाओं का इतना वैविध्य है। भारतीय सभ्यता की अविच्छिन्नता के  कारण है। एक कारण है कल्पना आरै यथार्थ का स्वरूप आदर्श तथा दूसरा कारण पाँच हजार से भी अधिक वर्शों के संघर्ष और क्रमिक विकास एवं समन्वय के बल पर विकसित सामाजिक व्यवस्था। 

इस विशाल भ-ूभाग पर विदेशी ताकतो ने इसको संघटित और विघटित किया किन्तु इस देश के निवासियों ने एक संस्कृति के स्थान पर दूसरी संस्कृति को प्रतिष्ठित नहीं किया है।’ इससे अभिप्राय यह है कि भारतीय सभ्यता ने बाहरी ताकतो को आत्मसात नहीं किया। इस देश ने अपनी सांस्कृतिक जड़ों को खोखला नहीं होने दिया है। वर्तमान समय में चाहे हमें विदेशी संस्कृति अपना रहे हो परन्तु बाहरी तौर पर ही अपना रहे है पूर्णतया नहीं।

डॉŒ विजयेन्द्र स्नातक लिखते हैं - ‘सर्यू की आलाके प्रदायिनी किरणों से पौधे को चाह े जितनी जीवनी शक्ति मिले किन्तु जमीन और जड़ों के बिना कोई पौधा जीवित नहीं रह सकता है।’ इससे तात्पर्य यह है कि भारतीयता संस्कृति यहाँ के जन-जन की भावनाओं में सदियों से जमा है जो बाहरी दिखावे या आकर्शण से बदलती नहीं।

3. साम्प्रदायिकता एकता और सहिष्णुता

‘‘भारतीय संस्कृति में धर्म की स्वीकृति है, किन्तु धर्म किसी संकीणर्ता या अंधविश्वास का पर्याय नहीं है।’’ वर्तमान समय ही नहीं बल्कि प्राचीनकाल से ही भारतीय संस्कृति का आधार धार्मिक एकता व सहिश्णुता रहा है। राम, कृष्ण, शिव तथा बुद्ध, महावीर इत्यादि की मान्यताओं के अलावा भारत में देवी-देवताओं की संख्या अनगिनत है। फिर भी इनकी विचारधाराओं में एकता का मलू है, क्योंकि विभिन्न रूप स्वीकार करने पर भी एक-ईश्वर में भारतीय मानस का विश्वास सुदृढ़ है। 

ऋग्वदे की प्रसिद्ध ऋचा - ‘एक सद्धिप्रा बहुधा वदन्ति’ के अनुसार एक शक्ति के स्वरूप अनेक है। सगुण रूप मे इष्टदेव के नामभदे होने पर भी निराकार ब्रह्म की सत्ता सब हिन्दू मतो में मान्य है। अहिंसा, दया, तप आदि सभी गृहस्थ और वैराग्य धर्मों का सिद्धान्त है। चाह े वे बौद्ध, जैन या वैश्णव किसी भी मत के मानने वाले हा।े 

भारतीय संस्कृति मे सहनशीलता का भी बड़ा विशिष्ट गुण है। इसी का परिणाम है कि देश में अनेक जातियाँ और धर्मों के लागे आपस में मिलजुल कर रहते हैं फिर भी भारतीय संस्कृति विलीन नहीं हुई है। आदान-प्रदान की प्रक्रिया द्वारा भारतीय संस्कृति अपने स्वरूप को संजोये हुए ‘अनेकता में एकता’ की स्थापना प्रकट करती है। भारत की धर्म प्राणता से न तो इस्लाम को ठेस पहुँची और न इसाईयत को काईे हानि हुई। धर्म और अध्यात्म द्वारा भारतीय संस्कृति जन-जीवन को आश्वस्त बनाने में सफल हैं। 

भारतीय संस्कृति के इस गुण को बताते हुए पृथ्वी कुमार अग्रवाल लिखते हैं - ‘आपसी भेद का कारण भारतीय संस्कृति में धर्म कभी नहीं बन सका। एक-दो उदाहरण हो तो उसके मूल में अन्य तथ्य प्रमुख है। संस्कृति की एक विशेषता को न केवल विचारक दार्षनिकों ने स्थापित किया, बल्कि राजनायिकों और सम्राटो ने भी समझा। 

स्वयं अशोक का कथन है कि उसने धार्मिक मले-जोल को बढ़ावा देने का सफल प्रयत्न किया है। इस सहिश्णुतापूर्ण समन्वय भावना को मुगल बादशाह अकबर ने भी स्वीकार किया और तदनुसार इस्लाम जैसा विपरीत मत भी भारतीयता का अंग बन गया।’ विश्व इतिहास में हम धर्म के नाम पर अनेक अत्याचारों का होना पाते हैं। यूनान में सुकरात, फिलिस्तीन में ईसा मसीह को बलि हानेा पड़ा। परन्तु भारतीय संस्कृति में हिंसा धर्मान्धता के वशीभूत नही हुई। सहिष्णुता भारतीय संस्कृति की सबसे बड़ी विशेषता है।

4. वर्णाश्रम व्यवस्था

वर्णाश्रम व्यवस्था भारतीय समाज की निजी विशेषता है। यह व्यवस्था भारतीय संस्कृति मे एकता बनाए रखने वाला मौलिक गुण है जो वैदिक काल से ही चली आ रही है। इस व्यवस्था ने भारत के विभिन्न मानव-समहूों और जातियों को एक सूत्र में पिरोये रखने का सफल प्रयत्न किया है। जीविका की प्राप्ति आरै उचित अवसर का जो समाज में सहज क्रम दिखता है अर्थात् पिता के पेशों को पुत्रों द्वारा आगे ले चलना, उसकी सामाजिक व्यवस्था भारतीय संस्कृति की अद्भुत विशेषता है। राष्ट्र कवि रामधारी सिंह दिनकर भी विलक्षण संस्कृति की विलक्षणता के बारे में अपनी पुस्तक ‘संस्कृति के चार अध्याय’ में लिखते हैं कि वैदिक धर्म चार वर्णों में विश्वास करता है। 

ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र। समाज का यह वर्गीकरण जातिगत विभेद न होकर उसकी एकता के लिए था। बुद्धिजीवियों की श्रेणी ब्राह्मण थी, शक्ति के आधार पर क्षत्रिय, कृषि आरै आर्थिक धंधों के लिए वैश्य अन्य तीनों का सहायक और सेवक वर्ग शूद्र हुआ। आगे चलकर इन वर्णों के अन्तगर्त अनेक उपजाति और उपवर्गों का जन्म हुआ, किन्तु सबका समन्वित रूप चार वर्णों में सदैव संजोया जाता रहा। 

इस व्यवस्था से समाज में जो गड़बड़ी उत्पन्न हुई है वह अन्य बातों से हुई है, वर्ण व्यवस्था से नहीं। इस व्यवस्था ने तो समाज कल्याण में योगदान दिया है जिसके प्रमाण इतिहास में कई हजार वर्षों तक मिलते हैं। पृथ्वी कुमार अग्रवाल लिखते हैं कि वर्णाश्रम, व्यवस्था का दार्शनिक पक्ष ‘कर्मवाद’ से प्रेरित है जो प्राचीन भारतीय संस्कृति का बहुचचिर्त सिद्धान्त है। इस दृष्टिकोण की पराकाष्ठा नि:स्पदृ कर्तव्य पालन के रूप मे गीता में मिलती है जो नितान्त भारतीय विचार है। 

गीता में कहा गया है - जीवन कर्ममय है; संसार कर्मभूमि है। निःसंदेह यह दृष्टि भारतीय संस्कृति की समस्त उपलब्धियों में व्याप्त है। यह सिद्धान्त कर्मवाद का पोशाक और नैतिक नियम के अनुसार कर्म में मनुष्य को प्रेरित करता है।

5. खुली दृष्टि और ग्रहणषीलता

खुली दृष्टि और ग्रहणषीलता भारतीय संस्कृति का एक मन्त्र है। बाह्य संस्कृतियों और जातियों से आदान-प्रदान प्रभावों को आत्मसात करना, नए लक्ष्य की प्राप्ति आदि उसी विचारधारा के अंग है। सामाजिक व्यवस्था की उदारता और ग्रहण क्षमता उसके लक्षण है। डॉ विजयेन्द्र स्नातक लिखते हैं कि भारतीय संस्कृति का मलूाधार - ‘‘जीyo और जीने दो है। हमारी संस्कृति की यही खुली विचारधारा है। समय-समय पर अनेक जातियाँ भारतवर्ष में आकर यही  घुल-मिल गई। राजनीतिक विजय के बावजूद भी ये भारत की संस्कृति पर विजय नहीं पा सकी। इनकी अच्छी विचारधारा को भारतीय संस्कृति ने अपने अन्दर समाहित कर लिया।

भारत भूमि अनेक आविष्कार, खोज और भौतिक उपलब्धियों की जननी रही है। उदाहरण के लिए अंकगणित, शून्य, कथा, कहनी, शतरंज का खेल, कपास के वस्त्र, अद्वैत दर्शन, बौद्ध धर्म आदि भारतीय देन है जिससे विश्व समय-समय पर लाभान्वित हुआ। चिकित्सा और कला के क्षत्रे में अनेक प्रभाव भारत के बाहर गए। विद्या के क्षत्रे में इस प्रकार सिरमौर होने पर भी मुक्त रूप से विदेषी उपलब्धियों को स्वीकार किया जैसे - यूनानी ज्योतिष। इस प्रकार विश्व के अनेक देशों पर भारतीय संस्कृति की अमिट छाप व्यापक रूप से पड़ी है। 

इसी प्रकार की विचारधारा को दिनकर जी ने भी व्यक्त किया है - ‘भारतीय संस्कृति में जो एक पक्रार की विश्वसनीयता उत्पन्न हुई, वह संसार के लिए सचमुच वरदान है। इसके लिए सारा संसार उसका प्रशंसक रहा है। निःसंदेह वर्तमान में भी यही विचारधारा भारतीय संस्कृति को संपोषित कर रही है।

6. विविधता में एकता

भारतवर्ष में भौगोलिक व सांस्कृतिक विविधता होते हुए भी यह देश अपनी एकता के लिए विख्यात है। इस देश को ’संसार का संक्षिप्त प्रतिरूप’ कहा गया है। यह धरती अनेक जनो वाली विविध भाषा, अनेक धर्म और यथेच्छ घरो वाली है। भाषा और धर्म देश में विविधता के आज भी लक्षण है। किन्तु वे एक सूत्रबद्ध है। भारतीय संस्कृति की ‘विविधता में एकता’ की विचारधारा पर रामधारी सिंह दिनकर लिखते हैं - ‘‘भारतवर्ष मे सभी जाति मिलकर एक अलग समाज का निर्माण करती हैं जैसे - कई प्रकार की औशधियों को कड़ाही में डालकर जब काढ़ा बनाते हैं तब उस काढ़ा  का स्वाद दूर एक औषधि के अलग स्वाद से सर्वथा भिन्न हो जाता है। असल में उस काढ़ा  का स्वाद सभी औषधियों के स्वादों के मिश्रण का परिणाम होता है। 

भारतीय संस्कृति भी इस देश में आकर बसने वाली अनेक जातियों की संस्कृतियों के मले से तैयार हुई है और अब यह पता लगाना मुश्किल है कि उसके भीतर किस जाति की संस्कृति का कितना अंष है।’’ अत: भारतीय संस्कृति विश्व की अनेक संस्कृतियों का मिश्रण बन गई है।

7. समानता व कल्याणकारी

भारतीय संस्कृति की सार्थक उपलब्धि उसकी समानता है। समय की कसौटी पर उसका इतिहास खरा उतरता है। संसार की इस प्राचीन सभ्यता के उदय का वैदिक साहित्य साक्षी है। सिंधु घाटी से मिले अवशेष पाँच हजार वर्ष पूर्व भारतीय उपलब्धियों और जीवन-निधि का प्रमाण देते हैं। उस संस्कृति के अनेक तथ्य और बाते आज के समय तक जीवित हैं। पूरे विश्व में भारतीय संस्कृति एसेी है जिसका पतन नहीं हुआ है। निःसंदेह इस अमरता का रहस्य समन्वयवाद, सहिष्णुता और विश्व कल्याण की भावना के सिद्धान्तो में छिपा है। 

भारतीय संस्कृति ने विश्व की किसी भी संस्कृति को हये दृष्टि से नहीं देखा है। इसने अन्य सभ्यताओं के गुणों को आत्मसात करने के साथ-साथ उनके अवगुणों का परिष्कार भी किया है। शायद यही कारण है कि हमारी संस्कृति वर्तमान में भी ज्यो की त्यों अपनी प्रसिद्धि बनाये हुए हैं। इस प्रकार हमारी संस्कृति विश्व की ओजस्वी संस्कृति है।

8. संयुक्त परिवार प्रणाली

भारतीय समाज में संयुक्त परिवार प्रथा सदियों से चली आ रही है। यह इसकी प्रमुख विशेषता है। इसके इस गुण को तो विश्व के अन्य देश भी अनुसरण कर रहे हैं। ‘अपने हैं तो आसरा है’ शीर्षक से मधुरिमा का अंक प्रकाशित है। यह ‘अन्तर्राश्ट्रीय परिवार दिवस’ के उपलक्ष्य में छपा है जिसमें संयुक्त परिवार के विषय में लिखा है - ‘संयुक्त परिवार भारत की पहचान है। इसके दायरे मे बुजुर्ग माँ-बाप, भाई-बंधु आते हैं। सभी लोग एक ही छत के नीचे रहकर आपस में एक-दूसरे का ख्याल रखते हैं।’ संयुक्त परिवार मे प्रत्येक सदस्य सुख, शान्ति व सामाजिक सुरक्षा में रहता है। यह प्रथा समाज में आज भी व्याप्त है। 

भारतीय संस्कृति में नारी हमेशा पूजनीय रही है - ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता’ इस बात का प्रमाण यह है कि भारतीय प्राचीन इमारतों, कला केन्द्रों और अन्य स्मारकों में अंकित चित्रों में स्त्रियो को पुरुषों के साथ दिखाया गया है। संयुक्त परिवार प्रणाली है स्वामी (मुखिया) अपने स्वार्थ का त्याग करके परिवार की भलाई का कार्य करता है। वह परिवार के सभी सदस्यों को समान भाव से महत्व देता है। 

डॉ.एस.एल. नागरेी लिखते हैं - ‘‘संयुक्त परिवार प्रथा भारतीय संस्कृति का आधार है। मानवीय प्रेम, त्याग, संयम, सहनषीलता और समानता जैसे गुणों को भारतीयों ने बहुत महत्व दिया है। इन आदर्शों पर सामाजिक जीवन जीना एक भारतीय का कर्त्तव्य माना जाता है। सच में संयुक्त परिवार प्रथा भारत को विश्व में एक अलग पहचान व सम्मान दिलाती है।

9. प्रकृति प्रेम

भारतीय जनमानुश प्रकृति से भी अगाध प्रेम रखता आया है। इस प्रकार प्रकृति प्रेम भी भारतीय संस्कृति की एक विशेषता है। भारत वर्ष पर प्रकृति की विशेष कृपा रही है। यहाँ पर सभी ऋतुएँ समय पर आती है और अपने अनुकूल फल-फूलों का सृजन करती है। प्रकृति प्रेम का चित्रण करते हुए गुलाबराय ने लिखा है - ‘‘यहाँ का नगाधिराज हिमालय कवियों को सदा पे्ररणा देता रहा है आरै यहाँ की नदियाँ मोक्षदायिनी समझी जाती हैं। यहाँ कृत्रिम धूप और रोशनी की आवश्यकता नहीं पड़ती है। भारतीय मनीशी जंगल में रहना पसंद करते थे। प्रकृति प्रेम के कारण ही यहाँ के लागे पत्तों में खाना पसंद करते हैं। वृक्षों में पानी देना एक धार्मिक कार्य समझते हैं। सूर्य और चन्द्र दर्शन नैमितिक कार्यों में शुभ माना जाता है। 

आधुनिकरण और भौतिकतावाद के युग में प्रकृति का हनन हो रहा है जिससे प्राकृतिक समस्या सामने आ रही है। परन्तु हमारे समाज सुधारको ने समय-समय इस प्रकार की समस्या का समाधान कर लिया है। विभिन्न सामाजिक आरै राजनैतिक आन्दोलनों के द्वारा प्रकृति को बचाने की पहल की जाती है। इस प्रकार प्रकृति प्रेम हमारी संस्कृति की मुख्य विशेषता है।

इस प्रकार भारतीय संस्कृति की विशेषताएँ सागर की लहरों की तरह अनगिनत उपवन के फलों की तरह रंग बिरंगी हैं। इसके मूल अंगों पर पक्राष डाला गया है। भारत में विभिन्न जातियों के पारस्परिक सम्पर्क मे आने से संस्कृति की समस्या कुछ जटिल हो गई है। विभिन्न संस्कृतियों के गुणों का समन्वय हमने किया है। दूसरों की संस्कृतियों में सब बाते बुरी भी नहीं है। हमारी संस्कृति धार्मिक कार्यों में एकांत साधना पर बल देती है। परन्तु मुसलमानी और अंग्रेजी सभ्यता में सामूहिक प्रार्थना पर बल दिया गया है। हमारे कीर्तन, सत्संग आदि तथा महात्मा गांधी द्वारा परिचालित प्रार्थना सभाएँ धर्म में एकता की भावना को बढ़ावा देती हैं। वस्तुतः हमारी संस्कृति प्रकृति प्रेम की दृष्टि से भी श्रेष्ठ संस्कृति है।

भारतीय संस्कृति की संस्कृति विभिन्न व्याख्यायें 

भारतीय संस्कृति के महान विद्वान् डाॅ. रामधारी सिंह जी दिनकर ने भारतीय संस्कृति की व्याख्या करते हुए लिखा है, कि भारतीय संस्कृति का महत्व स्वयं सिद्ध है। यह व्यक्ति, समाज और राष्ट्र की धरोहर है। संस्कृति के वरदहस्त से ही हमारा राष्ट्र निरंतर प्रगति के पथ पर प्रशस्त है। भारतीय संस्कृति आंतरिक भावना है। इसके अंतर्गत व्यक्ति के आचार विचार उसके जीवन मूल्य, उसकी नैतिकता, संस्कार, आदर्श, शिक्षा, धर्म, साहित्य और कला का समावेश होता है अतः भारतीय संस्कृति एक व्यापक तत्व है। निश्चित ही भारतीय संस्कृति मानव की साधना की सर्वोत्तम परिणति है।‘‘

डाॅ. हरिनारायण दुबे ने भारतीय संस्कृति पर प्रकाश डालते हुए लिखा है, कि ‘‘भारतीय संस्कृति का प्राणतत्व आध्यात्मिक है। इसमें ऐहिक एवं भौतिक सुखों की तुलना में आत्मिक अथवा पारलौकिक सुख के प्रति आग्रह देखा जा सकता है। भारतीय संस्कृति में धर्मान्धता का कोई स्थान नहीं है। इस संस्कृति की मूल विशेषता यह रही है कि व्यक्ति अपनी परिस्थितियों के अनुरूप मूल्यों की रक्षा करते हुए कोई भी मत, विचार अथवा धर्म अपना सकता है।‘‘ ’’भारतीय संस्कृति की महत्वपूर्ण विरासत इसमें अंतर्निहित सहिष्णुता की भावना मानी जा सकती है। यद्यपि प्राचीन काल से ही भारत में अनेक धर्म एवं सम्प्रदाय रहे हैं किंतु इतिहास साक्षी है कि धर्म के नाम पर अत्याचार और रक्तपात प्राचीन भारत में नहीं हुआ। इस प्रकार भारत भूमि का यह सतत् सौभाग्य रहा है कि यहां अनादिकाल से मानवमात्र को ही नहीं वरन प्राणिमात्र को एकता एवं भाईचारे की भावना में जोड़ने की प्रबल संस्कृति प्रवाहमान है।‘‘

महान् साहित्यकार कवि और विद्वान् श्री रवींद्रनाथ टैगोर के अनुसार ‘‘भारतीय संस्कृति की आध्यात्म और मानवता की भावना अनुकरणीय है। भारतीय संस्कृति का दृष्टिकोण उदार और विशाल है क्योंकि मूलतः उसका विकास प्रकृति के स्वच्छन्द वातावरण में और उसके साथ सहयोग करते हुए हुआ है। इसी कारण भारतीय संस्कृति में सहयोग समन्वय, उदारता तथा समझौते की प्रवृत्ति मूलरूप से विद्यमान है।‘‘डाॅ. एल. पी. शर्मा ने भारतीय संस्कृति की व्याख्या करते हुए उसकी निम्नलिखित विशेषताओं का उल्लेख किया है।
  1. भारतीय संस्कृति विश्व की प्राचीनतम् संस्कृति है। 
  2. भारतीय संस्कृति में विविधता होते हुए भी एकता विद्यमान है। 
  3. भारतीय संस्कृति में धार्मिक सहिष्णुता सदैव रही है।
  4.  भारतीय संस्कृति एक धर्म प्रधान संस्कृति है। 
  5. भारतीय संस्कृति सदैव प्रगतिशील रही है। 
  6. भारतीय संस्कृति में भौतिक और आध्यात्मिक प्रगति का मिश्रण है। 
  7. भारतीय संस्कृति में विश्व बंधुत्व की भावना निहित है। 
  8. भारतीय संस्कृति की प्रकृति सहयोगात्मक है। 
इस प्रकार भारतीय संस्कृति की अपनी विभिन्न विशेषतायें हैं जो उसे विश्व की श्रेष्ठतम संस्कृति बनाती हैं।

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