चेतना का अर्थ, परिभाषा, स्वरूप एवं महत्व

चेतना का अर्थ

चेतना का अर्थ

चेतना मन की एक स्थिति ही है - जिसके अन्तर्गत बाह्य जगत के प्रति संवेदनशीलता तीव्र अनुभूति का आवेग, चयन या निर्माण की शक्ति इन सबके प्रति चिन्तन विद्यमान रहता है ये सब बातें मिलकर किसी भी व्यक्ति की पूर्ण चैतन्य अवस्था का निर्माण करती है।  

चेतना समझने की वस्तु है उसे परिभाषित करना सरल नहीं है। व्यक्ति चेतना कारण ही क्रियाशील रहता है। चेतना रूप अत्यन्त सूक्ष्म और जटिल है। इसकी व्याख्या नियंत्रित शब्दों में नहीं की जा सकती है। फिर भी विचारकों ने अपने-अपने दृष्टिकोण से चेतना की व्याख्या करने का प्रयास किया है। ‘चेतना’ शब्द ‘चित’ से सम्बन्धित है। 

संस्कृत आचार्यों ने चेतना को बुद्धि-ज्ञान, जीवन-शक्ति, भावना या विचार के अर्थ में ग्रहण किया है। घी:, मति, चित, सवित्त, प्रतिपत, ज्ञाप्ति, सत्व एवं जीवंत के अर्थ में भी चेतना शब्द का प्रयोग किया जाता है। ‘चैतन्य लक्षणा जीव:’ अथार्त् जीवन का लक्षण ही चेतना है।  

चेतना की परिभाषा

चेतना का कोषगत अर्थ है - चैतन्य, ज्ञान, होष, याद, बुद्धिगत, जीवन शक्ति आदि। 

रामचन्द्र वर्मा अपने मानक हिंदी कोष में चेतना के विषय में लिखते हैं - चेतना जीव या प्राणी के अन्तर्बाह्य तत्वों या बातों का अनुभव या मान करती है। 

उपरोक्त परिभाषाओं से स्पष्ट है कि चेतना के बिना मनुष्य जीवित नहीं बल्कि मृत के समान है। चेतना से ही हमारा जीवन गति व विकास करने की शक्ति लेता है। चेतना जागरूकता लाने और संकल्प लेने में अहम् भूमिका निभाती है जिससे कार्य सम्पन्न हाते हैं। 

‘चेतना’ शब्द का प्रयोग प्राय: मनोवैज्ञानिक तथा दार्शनिक अर्थों मे ही किया जाता है। चेतना मानव की प्रमुख विषेशता है जिसे वस्तुओं, विशयों, व्यवहारो का ज्ञान भी कहा जा सकता है। मनोवैज्ञानिक अर्थ मे - ‘चेतना सभी प्रकार के अनुभवों का संग्रहालय है।’

इस प्रकार से कह सकते हैं कि चेतना व्यक्ति की वह केन्द्रीय शक्ति है जो अनुभूित, विचार, चिन्तन, संकल्प, कल्पना आदि क्रियाएँ करती है।

चेतना का स्वरूप

चेतना और मनुष्य का मौलिक संबंध है। चेतना वह विशेष गुण है जो मनुष्य को सजीव बनाती है आरै चरित्र उसका वह संपूर्ण संगठन है। किसी मनुष्य की चेतना और चरित्र केवल उसी की व्यक्तिगत संपति नहीं होते। ये बहुत दिनों के सामाजिक प्रक्रम के परिणाम होते हैं। प्रत्येक मनुष्य स्वयं के वंषानुक्रम प्रस्तुत करता है। वह विशेष प्रकार के संस्कार पैतृक सम्पत्ति के रूप में पाता है। वह इतिहास को भी स्वयं में निरूपित करता है क्योंकि उसने विभिन्न प्रकार की शिक्षा तथा प्रशिक्षण को जीवन में पाया है। 

इसके अतिरिक्त वह दूसरे लोगों को भी अपने द्वारा निरूपित करता है, क्योंकि उसका प्रभाव उसके जीवन पर उनके उदाहरण, उपदेश तथा अवपीड़न के द्वारा पड़ा है।

एक बार मनुष्य की चेतना विकसित हो जाती है, तब उसकी प्राकृतिक स्वतन्त्रत चली जाती है। वह ऐसी अवस्था में विभिन्न प्रेरणाओं और भीतरी प्रवृतियो से प्रेरित होता, परन्तु वह उन्हें स्वतन्त्रत से प्रकाशित नहीं कर सकता। इस प्रकार मनुष्य की चेतना अथवा विवेकी मन उसके अवचेतन अथवा प्राकृतिक मन पर अपना नियंत्रण रखता है। मनुष्य और पशु में यही विशेष भेद है। मनुष्य की चेतना जागतृ होती है परन्तु पशु की नहीं।

चेतना का महत्व 

चेतना का हमारी जीवन-शैली में बहुत महत्व है। मनोविज्ञान की दृष्टि में चेतना मानव में उपस्थित वह तत्त्व है जिसके कारण उस ेसभी प्रकार की अनुभूतियाँ होती हैं। चेतना के कारण ही हम देखते, सुनते, समझते और अनेक विशयों पर चिंतन करते हैं। इसी के कारण हमें सुख-दु:ख की अनुभूति हातेी है। मानव चेतना की तीन विशेषताएँ हैं। वह ज्ञानात्मक, भावात्मक और क्रियात्मक हातेी है। चेतना ही सभी पदार्थों की जड़-चतेन, शरीर-मन, निर्जीव-सजीव, मस्तिष्क-स्नायु आदि को बनाती है। उनका रूप निरूपित करती है। 

 चेतना के विषय में हम स्पष्ट रूप से कह सकते हैं कि मनुष्य के मस्तिष्क में हाने वाली क्रियाओं अर्थात् कुछ नाड़ियों के स्पंदन का परिणाम ही चेतना है। यह अपने में स्वतन्त्र कार्इ अन्य तत्व नहीं है। शरीर चेतना के कार्य करने का यंत्र मात्र है, जिसे वह कभी उपयोग में लाती है और कभी नहीं लाती है। परन्तु यदि यंत्र बिगड़ जाए या टूट जाए तो चेतना अपने कामों के लिए अपंग हो जाती है। चेतना के बिना सुना व देखा नहीं जा सकता है। 

यह हमें अनुभव और भावनाओं की पहचान करने की अनुमति देता है। यही चेतना सही है जोकि भौतिक नहीं है लेकिन कुछ आध्यात्मिक है। इस प्रकार चेतना मानसिक अनुभूति है। मानसिक गतिविधि और सोच के साथ भावना भ्रमित मत करो, दानेों वास्तव में भावना की प्रतिक्रिया नहीं है। सकारात्मक और नकारात्मक भावनाओं का स्तर है। 
सकारात्मक क्रियाएँ जैसे - प्यार, क्षमा, दया-भाव व नकारात्मक क्रियाएँ जैसे - अज्ञान, स्वार्थ, घृणा आदि है। ये सब चेतना के तत्व नहीं हैं। इस प्रकार चेतना मानसिक होकर भी सामाजिक आरै सांस्कृतिक बनती जाती है।

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