पिता का अर्थ, परिभाषा, दायित्व और कार्य

पिता का अर्थ 

पिता संस्कृत शब्द ‘‘पितृ’’ मूलत: भारोपीय युग का शब्द है। अत: पिता की उत्पत्ति तथा इसकी मूल भावना भी भारोपीय है। इस शब्द की व्युत्पत्ति ‘पा’ धातु से हुई है, जिसका अर्थ होता है, ‘रक्षा करना’ तथा पालन करना।, अत: पिता का कार्य है अपने परिवार के सदस्यों की रक्षा करना तथा पालन करना। यह रक्षा वह दो दृष्टियों से करता है, सामाजिक मर्यादा तथा शारीरिक विकास के सम्बन्ध में। 

यह अर्थ न केवल संस्कृत में वरन् भारोपीय कुल की समस्त भाषाओं में उपलब्ध है। इस सम्बन्ध में पारसीक ग्रन्थ ‘‘अवेस्ता’’ जो ऋग्वेद के बहुत निकट है का उल्लेख करना महत्वपूर्ण एवं प्रासंगिक होगा।

इस ग्रन्थ में ‘‘पितृ’’ के अनेक सग्रोत्र शब्द प्राप्त है। पतरॅम (PARTAYREM), पिथ्री (PITHRE), फदरॉय (FEDROI), पता (PATA) तथा पता (PTA) जैसे शब्द प्राप्त होते है, जो संस्कृत शब्दों पितरम् पितर: पितृ या पिता के समकक्ष है। यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि भारोपीय कुल की अन्य भाषाओं में फादर, पेटर, तथा आवैस्तिक फरदाय जैसे शब्द प्राप्त है। इनमें निहित धातु शब्द ‘पा’ (पालन करना, रक्षा करना) का अर्थ सर्वत्र समान है। इसलिए सभी पुरातन ग्रन्थों मं पिता के लिए परिवार में बड़े ही समाद्रित स्थान का वर्णन है।

ऋग्वेद मां ‘‘पितु’’ शब्द अनेकश: प्राप्त होता है जिसका अर्थ है भोजन या पोषक पदार्थ। इससे भी पिता शब्द में निहित अर्थ की ही पुष्टि होती है। इसे आवैस्तिक शब्द ‘‘वायु’’ के समकक्ष रखा जा सकता है। पायु भी अवैस्ता में पोषणभाव रखता है। इन दो शब्दों से यह ज्ञात होता है कि धातु शब्द ‘‘पा’’ का सम्बन्ध रक्षण तथा पोषण दोनों ही कार्यो से है। अत: पिता के पालक रूप में रक्षण तथा पोषण दोनों ही कार्य सम्मिलित है।

कुटुम्ब का संचालक कार्यो का संयोजक और धन-सम्पत्ति का व्यवस्थापक परिवार का ही सबसे वरिष्ठ सदस्य होता था, जो कर्ता कहा जाता था। प्राय: पिता ही इस पद को सुशोभित करते हुए उत्तरदायित्व ग्रहण करता था। उसका परिवार पर पूर्ण अधिकार और स्वत्व होता था। वह गृहपति या गृहस्वामी भी कहा जाता था। परिवार के सभी सदस्य उसे आदर और सम्मान की दृष्टि से देखते थे। समाज में उसका महत्वपूर्ण स्थान था। उसका मान और महत्व असाधारण था। वह अपने कार्यो से परिवार का निर्विवाद, सर्वोच्च, सम्मानित व्यक्ति था। 

पिता के दायित्व और कार्य 

पिता के दायित्व और कार्य पर विचार करते हुए मनु ने अपना मत व्यक्त किया है कि माता पिता सन्तान उत्पन्न करने में जो क्लेश सहते है: उसका बदला 100 वर्ष में भी उनकी सन्तान नहीं दे सकती है।

ऋग्वेद की ऋचा में पिता को सभी भलाइयों और दया का प्रतीत बताया गया है। राम ने अपनी माता से पिता की महिमा बताते हुए कहा है कि पिता का स्थान देवताओं से भी श्रेष्ठ है और उनकी आज्ञा देवाज्ञा है। पिता ही पुत्रों को प्रारम्भिक शिक्षा देता है। जब वह स्वयं किसी विषय का पारंगत विद्वान होता था तो उस विषय की विशिष्ट शिक्षा भी वही देता था। अरूणेय स्वयं बड़ा विद्वान था, अतएव उसने अपने पुत्र श्वेतकेतु को भी विद्वान बना दिया। पिता का स्थान इतना समाद्रित है कि इसे अति गुरू की संज्ञा दी गयी है। इसे माता और गुरू की कोटि में रखा गया है। 

मनुस्मृति में भी कहा गया है कि ‘पिता मूर्ति: प्रजापतयते अर्थात् पिता अपनी संतान के लिए आदर्श होता है। तैतिरीय उपनिषद् में समावर्तन समारोह के अवसर पर आचार्य स्नातकों को उपदेश देते हुए कहते हैं ‘मातृ देवो भव, पितृ देवो भव’ अर्थात् पिता और माता को देवता मानो।

यह सिद्ध करता है कि ‘‘पिता पर दैवतं मानवाना’’....पिता के लिए पिता, जनक, पितर, पित्र, पितृृ, पितु आदि शब्द प्रयुक्त हुए है।

ऋग्वेद में पिता को त्राता और खाद्य सामग्री दाता के रूप में बड़ा सुन्दर वर्णन है। इन्द्र की स्तुति करने वाला ऋषि त्राता आदि अनेक बिशेषणों से उसकी प्रशंसा करता है, किन्तु उसे तब तक सन्तोष नहीं होता जब तक कि वह इन्द्र को पितृतम नहीं कह लेता है। क्योंकि रक्षण कर्त्ताओं में पिता से श्रेष्ठ उपमा मिलना असम्भव है। पिता के पोषक रूप का उल्लेख है। 

इन्द्र का कथन है कि मैं दानी यजमान के लिए भोजन बाँटता हूँ, अत: मुझे मनुष्य उसी प्रकार बुलाते है, जैसे अन्न देने वाले पिता को। कुटुम्ब का सर्वोच्च व्यक्ति होने के कारण पिता सदस्यों के प्रति सहृदय, जागरूक और उत्सर्जित रहता था। कभी-कभी सन्तानों द्वारा किये जाने वाले अपराधों पर वह कठोर और निर्मम दण्ड भी देता था। 

ऋग्वेद से विदित होता है कि ऋज्राश्व के अपराध पर उसके पिता ने निर्दयतापूर्वक उसकी आँखो निकालकर उसे दंडित किया। उसका केवल यह अपराध था कि उसने 100 भेड़े एक भेड़िये को खिला दी थी। पिता बहुधा पुत्रों को उनकी जुआ खेलने जैसी त्रुटियों के कारण प्रताड़ित करता है। भार्या, दास, प्रेष्य और सहोदर भाई के अतिरिक्त पुत्र को बिगड़ते देखकर पिता उसकी निर्दयतापूर्वक पिटाई भी करता था। यह पिटाई रस्सी या बाँस की छड़ी से अपराधी की पीठ पर की जाती थी। पिता का अपने कुटुम्ब पर असीमित अधिकार था। परिवार के सदस्यों का वह अधिकारी था। पुत्र को तो वह जैसा चाहता था, वैसा ही उसका उपयेाग करता था। यहाँ तक कि वह पुत्र का विक्रय या दान भी कर सकता था। 

इक्ष्वांकुवशी शासक हरिश्चन्द्र ने धर्म की रक्षा के लिए अपने पुत्र तक को बेच दिया था। नचिकेता को उसके पिता ने यमराज को दान में दे दिया था। 

मनु ने ऐसे पुत्रों का उल्लेख किया है जिसका परित्याग माता-पिता के द्वारा कर दिया गया था। ऐसा लगता है कि यह परित्याग पुत्र के द्वारा किया गया कोई अत्यन्त निम्न कर्म रहा होगा। वशिष्ठ ने भी पिता को पुत्र के विक्रय और त्याग करने का अधिकारी बताया है, लेकिन इकलौते पुत्र का दान एवं पतिग्रह निषिद्ध था। पिता द्वारा पुत्र के विक्रय एवं दान को परवर्ती शास्त्रकारों ने निन्दा की है फिर भी समाज में पिता का विशिष्ट स्थान था। कुटुम्ब का वह प्रभावशाली अधिकारी था, पिता का पुत्र पर अधिकार था। पुत्र को तो कई शास्त्रकारों ने परतन्त्र माना है। ऐसी स्थिति में परिवार में पिता का स्थान और भी महत्वपूर्ण था। 

महाभारत में चिरकारी ने पिता की महिमा का बहुत सुन्दर वर्णन किया है- ‘‘पिता अपने शील चरित्र, गोत्र और कुल की रक्षा के लिए अपने आपको पत्नी में धारण करता है, उसी से सन्तान उत्पé होती है।’’ जातकर्म व उपकर्म के समय पिता जो कुछ कहता है, पिता का गौरव निश्चय करने में वह पर्याप्त पुष्ट प्रमाण है। पोषण और शिक्षण देने वाला पहला गुरू (पिता) ही परम धर्म है। पिता जैसी आज्ञा दे वही धर्म है, यह बात वेदों में भली प्रकार निश्चित है। 

पिता के लिए पुत्र प्रीति मात्र है, किन्तु पुत्र के लिए पिता सब कुछ है। शरीर आदि जो कुछ देय पदार्थ है, उन्हें केवल पिता ही पुत्र को प्रदान करता था। अत: पिता के वचन का पालन करना चाहिए। जो पिता के वचन का पालन करते हैं, उनके पाप धुल जाते हैं। पिता ही धर्म है, पिता स्वर्ग है, पिता परम तप है, पिता के प्रसन्न होने पर सब देवता प्रसन्न होते हैं।

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