संसाधन को प्रभावित करने वाले कारक

पर्यावरण में जैविक संसाधन में जीव-जन्तु तथा वनस्पति अति महत्वपूर्ण हैं, जबकि अजैविक संसाधनों में मिट्टी, जल, वायु, आदि मुख्य हैं। ये सभी तत्व एक दूसरे को प्रभावित करते हैं। प्रकृति में भूतल के प्रत्येक भाग में वनों का सृजन किया हैं, जहाँ पर्यावरण के अनुकूल विभिन्न प्रकार के जीवधारी रहते हैं। जीव-जन्तु व वनस्पति ही पर्यावरण के संतुलन बनाये रखते हैं। जैवीय संसाधन का मनुष्य के साथ अत्यन्त घनिष्ठ सम्बन्ध हैं। 

वर्तमान में मानव को 85 प्रतिशत भोज्य पदार्थ पेड-़ पौधों द्वारा तथा शेष 15 प्रतिशत पशुओं से प्राप्त होता हैं। अत: स्पष्ट हैं कि मानव के लिए जैविक संसाधन अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं। इनके अतिरिक्त प्रकृति प्रदत्त संसाधनों में मृदा, जल, खनिज, आदि प्रमुख हैं। ये संसाधन विकास के प्रमुख उपकरण हैं। 

संसाधन को प्रभावित करने वाले कारक

संसाधन को प्रभावित करने वाले कारक (sansadhan ko prabhavit karne wale karak) संसाधन को प्रभावित करने वाले कारक है :-

(i) जलवायु - जलवायु पर्यावरण को नियंत्रित करने वाला प्रमुख कारक हैं, क्योंकि जलवायु से प्राकृतिक वनस्पति मिट्टी, जलराशि तथा जीव जन्तु प्रभावित होते हैं। कुमारी सैम्पुल ने कहा हैं कि ‘‘पर्यावरण के सभी भौगोलिक कारको में जलवायु सर्वाधिक महत्वपूर्ण घटक हैं। सभ्यता के आरम्भ और उद्भव में जहाँ तक आर्थिक विकास का सम्बन्ध रहता हैं, जलवायु एक वृहत् शक्तिशाली तत्व हैं।’’’ जलवायु मानव की मानसिक एवं शारीरिक क्रियाओं पर प्रभाव डालती हैं। 

प्रो0 एल्सवर्थ हटिंग्टन के अनुसार ‘‘मानव पर प्रभाव डालने वालेतत्वों में जलवायु सर्वाधिक प्रभावशील हैं क्योंकि यह पर्यावरण के अन्य कारको को भी नियंत्रित करता हैं।’’’ पृथ्वी पर मानव चाहे स्थल पर या समुद्र पर, मैदान या पर्वत पर, कहीं पर भी रहे व अपने आर्थिक कार्य करे उसे जलवायु अवष्य प्रभावित करती हैं। जलवायु के पाँच तत्व क्रमश: वायुमण्डलीय तापमान एवं सूर्यताप, वायुभार, पवने, आर्द्रता तथा वर्षा आदि मानव को प्रभावित करते हैं। 

तापमान जलवायु के महत्वपूर्ण कारक के रूप में वनस्पति को सर्वाधिक प्रभावित करता हैं। इससे अनेक वनस्पति क्रियायें जैसे - प्रकाश संश्लष्ेाण हरितलवक बनना, श्वसन तथा गमीर् प्राप्त कर अंकुरण आदि प्रभावित होती हैं। वनस्पति की प्रकृति एवं वितरण भी तापमान से प्रभावित होता हैं। जलवायु कृषि पेटियों को भी निर्धारित करती हैं। 

उष्ण कटिबन्धीय तथा मानसूनी प्रदेशों में चावल की कृषि होती हैं, जबकि शीतोष्ण घास के प्रदेशों में गहे ूँ की कृषि होती हैं। मरूस्थलीय मरूद्यानो में खजूर एवं छुआरो की कृषि की जाती हैं। पृथ्वी पर जनसंख्या वितरण भी जलवायु के कारको द्वारा प्रभावित होता हैं। पृथ्वी के समस्त क्षेत्र के केवल 30 प्रतिशत भाग पर संसार की सम्पूर्ण जनसंख्या निवास करती हैं। 70 प्रतिशत स्थलीय भाग जलवायु की दृष्टि से जनसंख्या निवास के अनुकूल नही हैं। जिसका विवरण इस प्रकार हैं :- 
  1. शुष्क मरूस्थल 20 प्रतिशत 
  2. हिमाच्छदित ठण्डे क्षेत्र 20 प्रतिशत 
  3. पर्वतीय क्षत्रे 20 प्रतिशत 
  4. अति ऊष्ण-आदर््र क्षेत्र 10 प्रतिशत जलवायु के कारक पारिस्थितिक तन्त्र को भी नियंत्रित रखते हैं।
जलचक्र के रूप में वर्षा, वाष्पीकरण तथा जल का संचरण करते हैं। वर्षा की मात्रा के अनुसार ही वनस्पति एवं अन्य जैव विविधता क्रियाशील रहती हैं, इस प्रकार जलवायु पर्यावरण को एक महत्वपूर्ण नियंत्रक कारक के रूप में प्रभावित करती हैं। 

(ii) उच्चावच (Relief) - पृथ्वी पर पर्यावरण के धरातलीय आकृतियों का प्रभाव जलवायु पर दृष्टिगत होता हैं। जलवायुवीय दशाओं के आधार पर ही भौतिक एवं सांस्कृतिक वातावरण की प्रकृति निश्चित होती हैं। धरातलीय भू-आकृतियों को मुख्य रूप से तीन भागों में वर्गीकृत किया गया हैं। पृथ्वी पर धरातल का 26 प्रतिशत भाग पर्वतीय, 33 प्रतिशत भाग पठारी तथा 41 प्रतिशत भाग मैदानी हैं, जबकि भारत के क्षेत्रफल का 29.3 प्रतिशत भाग पर्वतीय, 27.77 प्रतिशत भाग पठारी तथा 43 प्रतिशत भाग मैदानी हैं। पर्वतीय भाग असमतल होते हैं तथा कठोर जलवायु युक्त होते हैं। यहाँ प्रत्येक आर्थिक क्रिया सुगमता पूर्व सम्पादित नहीं हो सकती। यहाँ पारिथितिकीय सन्तुलन श्रेष्ठ पाया जाता हैं। पठारी भाग धरातल से एकदम ऊँचा उठा हुआ समतल सतह वाला वह भाग होता हैं जहाँ चोटियों का आभाव पाया जाता हैं। 

पठारी क्षेत्र मानव के लिए कठोर परिस्थितियाँ प्रदान करता हैं, जबकि मैदानी भाग मानव जीवन के लिए अनुकूल परिस्थितियाँ उपलब्ध कराता हैं। विदित हो कि विश्व की प्रमुख सभ्यताएं सिन्धु-गंगा, नील नदी, मैसोपोटामिया, àांगो आदि मैदानों में विकसित हुई। उच्चावच का प्रत्यक्ष प्रभाव जलवायु पर पड़ता हैं जलवायु के तत्व क्रमश: तापमान, वर्षा, आर्द्रता तथा पवन आदि उच्चावच से नियंत्रित रहते हैं। ऊँचाई पर प्रति 1000 मीटर पर 6.50 तापमान का àास होता हैं। ऐसा माना जाता हैं कि भारत में हिमालय पर्वत न होता तो सम्पूर्ण उत्तरी भारत सहारातुल्य मरूस्थलीय परिस्थितियां े से युक्त रहता। पर्वतीय स्थिति के कारण भारत में साइबेरिया से आने वाली ठण्डी हवाएँ प्रवेश नहीं कर पाती। पठार भी आर्थिक क्रियाओं के लिए बहुत उपयोगी नही माने गये हैं। ये शुष्क व अर्द्धशुष्क होते हैं। ये सामान्यत: कृषि के अनुकूल नही होते। केवल ज्वालामुखी उद्गार से निर्मित धरातल वाले पठार ही कृषि के लिए अनुकूल दशाये प्रदान करते हैं। 

(iii) प्राकृतिक वनस्पति - प्राकृतिक वनस्पति से अभिप्राय भौगोलिक दशाओं में स्वत: विकसित होने वाली वनस्पति से हैं; जिसमें पेड़-पौधे, झाड़ियाँ, घास तथा लताएं आदि सम्मलित हैं। वनस्पति से आशय पेड़-पौधो, घास या झाड़ियों के विशिष्ट जाति समूह से हैं, जबकि वन उस वर्ग को कहते है जिसमें वृक्षों की प्रधानता हैं। प्राकृतिक वनस्पति, जलवायु, उच्चावच तथा मृदा के सामंजस्य से पारिस्थितिकीय अनुक्रम (Ecological Succession) के अनुसार अस्तित्व में आती हैं। प्राकृतिक वनस्पति पर्यावरण के महत्वपूर्ण कारक के रूप में पारिस्थितिक तन्त्र को सर्वाधिक प्रभावित करती हैं, जिसे जलवायु सर्वाधिक नियन्त्रित करती हैं। अन्य कारकों में जलापूर्ति (Water Supply), प्रकाश (Light), पवने (Winds) तथा मृदाएँ (Soils) प्रमुख हैं। 

प्राकृतिक वनस्पति के चार प्रमुख वर्ग माने गये हैं :- (1) वन (2) घास प्रदेश (3) मरूस्थलीय झाड़ियाँ तथा (4) टुण्ड्रा वनस्पति। पर्यावरण के महत्वपूर्ण घटके के रूप में प्राकृतिक वनस्पति का विकास हुआ हैं किन्तु प्रगतिशील मानव निरन्तर उसे अवकृमित (Degraded) करने में जुटा हुआ हैं। मनुष्य अपनी परिवर्तनकारी क्रिया में आवश्यकता से अधिक आगे बढ़ता जा रहा हैं। वनस्पति को जलवायु का नियंत्रक माना जाता हैं। यह तापमान को नियंत्रित रखती हैं तथा वायुमण्डलीय आर्द्रता को संतुलित रखने का कार्य करती हैं। पेड़-पौधे विभिन्न स्रोताे से सृजित कार्बन-डाई-आक्साइड को अवशाेिषत कर वातावरण को शुद्ध रखने में सहायता करते हैं। वनो की जड़े मृदा को जकड़कर रखती हैं जिससे मृदा अपरदन नियन्त्रित होता हैं। प्राकृतिक वनस्पति जैव विविधता के रूप मे वन्य जीवन (Wild Life) का भी आश्रय स्थल बनते हैं। 

अत: प्राकृतिक वनस्पति पर्यावरण के प्रमुख घटक के रूप में मानवीय विकास के लिए आवश्यक माने गये हैं। मनुष्य का भोजन, वस्त्र तथा निवासगृह पूर्णतय: प्राकृतिक वनस्पति की ही देन हैं। वनो से फल-फलू तथा जड़ी बूटियाँ, ईधन तथा वृक्षों से रेशम प्राप्त होता हैं। वनों से जहाँ एक ओर उद्योग के लिए कागज, दियासलाई, कृत्रिम रेशम, लाख, प्लाईवुड तथा फर्नीचर के लिए कच्चा माल प्राप्त होता हैं वहीं दूसरी ओर पशुओं को चारा, पशु पालन से खाल, माँस, ऊन तथा दुग्ध पदार्थ प्राप्त होता हैं, जिनसे मानव को भोजन एवं वस्त्र उपलब्ध होता हैं। अत: मनुष्य के क्रियाकलापों पर प्राकृतिक वनस्पति का गहरा प्रभाव पड़ता हैं। 

(iv)जैविक कारक (Biotic-Factor) - विभिन्न जीव-जन्तु और पशु , मनुष्य के आर्थिक कार्यों को प्रभावित करते हैं। जन्तुओं में गतिशीलता की दृष्टि से वनस्पति से श्रेष्ठता होती हैं। वे अपनी आवश्यकताओं के अनुसार प्राकृतिक वातावरण से अनुकलू न (Adaptation) कर लते े हैं। जीव जन्तुओं में स्थानान्तरण शीलता का गुण होने के कारण वे अपने अनुकलू दशाओं वाले पर्यावरण में प्रवास (Migration) भी कर जाते हैं, फिर भी इन पर पर्यावरण का प्रत्यक्ष प्रभाव दृष्टिगत होता हं।ै जीव-जन्तुओ का प्रभाव परिवहन, रहन-सहन तथा व्यापार पर पड़ता हैं। आज भी पशु पिछड़े क्षेत्रों में परिवहन का मुख्य साधन हैं। कई भू-भागों के मनुष्यों का रहन-सहन जीवों पर निर्भर करता हैं। रेड इंडियन, किरगीज तथा एस्कीमो पशुओं की खालो से डेरी तथा गृह निर्माण करते हैं। अनेक जानवरो के बालों से वस्त्र बनाये जाते हैं। अच्छे ऊन का उपयोग तो आज भी शान की बात मानी जाती हैं। 

पशुओं का प्रभाव मानव के आर्थिक जीवन पर स्पष्टत: परिलक्षित होता हैं। गाय, बैल, घोडा़ आदि मित्र जानवर मनुष्य के कायोर्ं मे सहयोग देते हैं। शरे , बन्दर, भालू आदि जानवर मनुष्य के कार्यों में बाधा पहुँचाते हैं। पशु-उत्पाद मानव के विभिन्न उपयोगों में आते हैं। रेण्डियर की हड्डियों से औजार तथा नसो से तांगे का कार्य लिया जाता हैं। माँस तथा दूध भोजन में प्रयोग होता हैं। चर्बी से प्रकाश पैदा किया जाता हैं। हाथी दाँत तो बहुमूल्य पदार्थ माना जाता हैं जो जंगली हाथियों से उपलब्ध होता हैं। 

(v) मृदीय कारक (Edaphic Factor) - मृदा धरातलीय सतह का ऊपरी आवरण हैं जो कुछ सेटीमीटर से लके र एक-दो मीटर तक गहरी होती हैं। मृदा की रचना मूल पदार्थ (Prent Material) में परिवर्तन के परिणामस्वरूप होती हैं, जो विभिन्न प्रकार की जलवायु में जैविक कारकों के सम्पर्क से एक निश्चित अवधि में निर्मित होती हैं। मृदा निर्माण में उच्चावच (Relief) तथा ढाल की भी महत्वपूर्ण भूमिका होती हैं। मृदा में वनस्पति एवं जीव जन्तुओं के अवशष्ेा मिलते रहते हैं, जिसे जैव तत्व (Humus) कहते हैं। जैव तत्व के कारण मृदा का रंग काला हो जाता हैं। पृथ्वी पर शाकाहारी एवं मांसाहारी, जीव-जन्तु प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप से मृदा पर निर्भर रहते हैं। शाकाहारी अपना भोजन कृषि द्वारा तथा मांसाहारी शाकाहारियों द्वारा प्राप्त करते हैं। 

अत: मानवीय उपयोग की दृष्टि से मृदा आवरण किसी भी देश की मूल्यवान प्राकृतिक सम्पदा होती हैं। सामान्यत: उपजाऊ मृदा क्षेत्रों में मानव सभ्यता अनुर्वर क्षेत्रों की अपेक्षा उच्च रहती हैं। मृदा के भौगाेलक पक्ष के अनुसार यह प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप से वनस्पति को प्रभावित करती हैं। पौधे आवश्यक जल तथा पोषक तत्व मृदा से प्राप्त करते हैं। क्षारीय तथा अम्लीय मृदा पौधो की वृद्धि में बाधक होती हैं। वर्तमान समय में मृदा की प्रमुख समस्या मृदा-क्षरण हैं जो तीव्र वन विनाश के कारण उत्पन्न हुई हैं। पर्यावरण के तत्व के रूप में मृदा पादपों को जीवन प्रदान कर कृषि व्यवस्था मं े सहायता करती हैं। अत: मृदा अनुरक्षण (Maintenance) और संरक्षण (Conservation) आवश्यक हैं।

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