संत शब्द का अर्थ और परिभाषा


सामान्यत: ‘संत’ शब्द का प्रयोग प्राय बुद्धिमान, पवित्रात्मा, सज्जन, परोपकारी, सदाचारी आदि के लिए प्रयोग किया जाता है। कभी-कभी साधारण बालेचाल में इसे भक्त, साधु या महात्मा जैसे शब्दों का भी पर्याय समझ लिया जाता है। जहाँ तक ‘सतं’ शब्द के शाब्दिक निर्वचन का प्रश्न है उस संदर्भ में संस्कृत के शब्द ‘सन्त:’ से निर्मित हुआ है और ‘सन्’ सत् का पुल्लिंग है जो ‘त’ प्रत्यय के योग से बना है। जिसका शाब्दिक अर्थ हैं- होने वाला या रहने वाला। इस प्रकार यह कहने की आवश्यकता नहीं है कि इस नष्वर संसार में वही व्यक्ति यष:काय रूप में स्थिर रहता है जिसके चित में मानवीय उत्कर्श का मगंल भाव समाविश्ट है। जहाँ तक इस शब्द की व्युत्पत्ति का प्रश्न है कुछ लागे इसे ‘शांत’ शब्द का रूपान्तर मानते हैं तो कुछ अन्य इसे ‘सन्ति’ या ‘सत्य’ का विकृत रूप मानते हैं। यदि इस शब्द को अंग्रेजी शब्द ‘सेंट’ का समानार्थी समझकर उसका हिंदी रूपान्तर माना तो।  ‘Saint’ वस्तुत: लैटिन Sanico (पवित्र कर देना) के आधार पर निर्मित Sanctus शब्द से बनता है। जिसका अर्थ पवित्र होता है। 

संत शब्द का अर्थ और परिभाषा 

अंग्रेजी हिंदी शब्दकोष के आधार पर Saint - संत, सिद्ध पुरुष, मतावलंबी होता है। व्युत्पति की दृष्टि से देखा जाए तो’संत’ शब्द मलूत: संस्कृत के ‘सत्’ शब्द से बना है जो’अस्’ धातु (विद्यमान के अर्थ में) से निश्पन्न हुआ है। संत से अभिप्राय है - जिसे ‘सत’ की अनुभूति हो गई है। इसका अर्थ शांत माना जाए तो इसका अभिप्राय हागेा जिसकी कामनाएँ शांत हो चुकी है। 

‘संत’ शब्द के अर्थ और प्रयोग को समझाने का व्यवस्थित और सुन्दर प्रयास डॉ. राजदेव सिंह ने ‘शब्द और अर्थ : संत साहित्य के संदर्भ में’, ‘सन्तो का भक्ति योग’, ‘संत-साहित्य : पुर्नमूल्यांकन’ आदि कृतियो में किया है। हिंदी मे संत शब्द के प्रयोग पर विचार करते हुए उन्होंने संत के दो तरह के अर्थों का उल्लेख किया है - ‘जहाँ तक संत शब्द के सही अर्थ का सवाल है ऋग्वेद से लेकर आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं के साहित्य तक इस पर कोई विवाद नहीं है। कोषग्रंथों मे भी संत शब्द के अर्थ को लेकर काईे विवाद नहीं मिलता। 

इस अर्थान्तर को उजागर करने वाला प्रथम कोषग्रंथ है - ‘हिदीं-साहित्य कोष’ भाग-ख। लेकिन इस बात को मानना पड़ेगा कि बीसवीं शताब्दी में, हिंदी आलाचेना की पारिभाषिक शब्दावली में जब संत शब्द को स्वीकार किया गया, उस समय इसके दो अर्थ वर्तमान थे- एक इसका सही अर्थ और दूसरा इसका प्रचलित अर्थ। संत शब्द की पारिभाशिक मर्यादा को समझने के लिए इन सही और प्रचलित अर्थों को समझना आवश्यक है।’

‘संत’ शब्द का प्रयोग भारतीय साहित्य में अत्यंत प्राचीन वैदिक काल से हो रहा है। वैदिक काल में ‘संत्’ परमात्मा या ब्रह्म के पयार्य के रूप मे प्रयोग किया जाता रहा है। ऋग्वेद मे इसका प्रयोग ‘एक’ एवं अद्वितीय परमतत्व के लिए किया गया है। श्रीमद्भगवत गीता में ‘सत्’ शब्द विभिन्न संदर्भों मे मिलता है। ‘सत’ का ब्रह्म के पर्याय के रूप में भी प्रयोग किया गया है। ‘ऊँ तत्सदिति निर्देषो, ब्रह्मणस्त्रिविध: स्मृत:’ तथा अच्छे कर्मों के लिए भी सत् शब्द का प्रयोग किया है। साधु, सदाचारी के अर्थ में भी इसका प्रयोग मिलता है -  सद्भावे साधुभावे च सदित्यते त्प्रयुज्यते, प्रषस्ते कर्मणि तथा सच्छब्द: पार्थ युज्यते। यज्ञे तपसि दाने च स्थिति: सदिति चोच्यते, कर्म चैव तदथ्र्ाीये सदित्येवाभिधीयते।। यहाँ सत् शब्द का प्रयोग सत्य भाव में और श्रेष्ठ भाव के रूप में किया गया है। कहा गया है - हैं पार्थ! उत्तम कर्म मे भी ‘सत्’ का प्रयोग किया जाता है। यज्ञ, तप आरै दान स्थिर रहने को ‘सत्’ कहा जाता है। परमात्मा के लिए किया कर्म निश्चयपूर्वक सत् है, ऐसा कहा जाता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि प्राचीन साहित्य में संत शब्द के दो अर्थ मिलते हैं। प्रथम तो परम ब्रह्म के लिए तथा दूसरे उस व्यक्ति के लिए जो पवित्रात्मा हो, सदाचारी हो, सद-असद विवेक सम्पन्न हो, सज्जन हो अर्थात् उसमें सभी गुण विद्यमान हो। मध्यकालीन हिंदी साहित्य में भी ‘संत’ शब्द का प्रयोग लगभग इसी अर्थ में मिलता है। 

कबीरदास ने उसे ’संत’ माना है जो वैर रहित हो, निश्कामी हो, ईश्वर के प्रति अनुराग रखे और विशय वासनाओं से विरक्त रहैं- निरबरैी निहकामता साई सेती नेह। विशया सु न्यारा रहे संतन का अंग एह।। दूसरी आरे तुलसीदास कहते हैं कि मैं एसे संत की वंदना करता हूँ जिसका चित सबके लिए समान है। जिसका न काईे मित्र है न कोई शत्रु। जो अञ्जलि मे आए हुई अच्छे फलू के समान दोनों हाथों को सुगंधित कर दते हैं -   बंदउ संत समान चित, हित अनहित नाहे काईे।  अंजलिगत सभ सुमन जिमि, सम सुंगध कर दोदु।। 

संत दादूदयाल ने भी ‘संत’ के संदर्भ में कहा है कि संत वो जन होते हैं जो परापेकारी होते हैं और जिनकी आत्मा में परमात्मा देखे जाते हैं -  पर उपगारी सन्त जन, साहिब जी तेरे। जाती देखी आत्मा, राम कहि टेरे।। 

इसी प्रकार संत गरीबदास जी संत और परमात्मा को एक ही मानते हुए कहते हैं- ‘साई सरीखे संत हैं, यामें मीन न मेख।’ 

संत जैतराम ने भी अपनी वाणी में संतों के बारे में कहा है कि संत तो अपने आप मे निराले होते हैं उनके समान कोई दूसरा नहीं होता है -  ‘सतं सरीखे संत और न दूजा कोई।’ 

संत घीसादास ने क्षमा, दया, परापेकार आदि संतो की विशेषताएँ बताई हैं -  ‘छिमा, गरीबी, बन्दगी, संतो में पाई।प्रेम प्रीत हिरदे बसे टुरमत वहां नाही।’’  नि:सन्देह उतरी भारत की निर्गुण साधना पर वारकरी संतो का प्रभाव संतमत के प्रारम्भिक काल में अधिक पड़ा है जिसके परिणामस्वरूप निर्गुण धारा, संतधारा आरै निर्गुणिया भक्त ‘संत’ के नाम से प्रसिद्ध हुए। कतिपय अनुसंधाता ‘सतंमत’ जैसे विवश शब्द का प्रचलन 17वी शताब्दी विक्रमी के किसी चरण से अनुमानित करते हैं। 

‘संत’ शब्द का प्रचलन की कभी ज्ञानेष्वर जैसे निर्गुण भक्तों के लिए हअुा था। पन्द्रहवीं-सालेहवीं शताब्दी तक पहुँचते-पहुँचते उतरी भारत मे निर्गुण भक्तो जैसे कबीर और उनके समकालीन कवियो के अतिरिक्त उनके परवर्ती निर्गुण भक्तो के लिए ग्राह्य हो गया। डॉ. पीताम्बर बड़थ्वाल ने ‘संत’ शब्द की व्युत्पत्ति पाली भाशा के ‘षान्त’ शब्द से जाडे़ते हुए इसका अर्थ निवृतिमार्गी अथवा वैरागी लिया है। इस रूप मे वे संत का  निर्गुण स्वरूप भी कहते हैं। निर्गुण और सगुण को लेकर जो विवाद हुआ उससे यह निश्कर्श निकालता है कि ‘संत’ निर्गुण ब्रह्म का उपासक और भक्त सगुण ब्रह्म का उपासक हातेा है।

‘संत शब्द मलूत: महान आत्मा के लिए प्रत्युक्त हुआ है जो व्यक्ति विशय विकार ग्रसित विष्व में निरपक्ष्ेा भाव से निश्काम एवं परोपकारी बनकर जीता है उसे ही संत की संज्ञा दी जाती है। अब यह निर्गुणोपासक हो या सगुणापेासक इसमे काईे अन्तर नहीं।’ निश्चित रूप से इस मत से सहमत हुआ जा सकता है। जैसा हम समझते हैं संत मुख्यत: वे होते है जो सभी गुणों परिपूर्ण होकर ईश्वर के करीब होते हैं। भारत ही नहीं सर्वत्र संतों को प्रेरणा का स्राते माना गया है क्योंकि संत किसी व्यक्ति और समाज को बदलने में सक्षम हाते हैं।

बलदेव वंषी ‘संत’ के बारे में कहते हैं कि जो इस दोशपूर्ण समाज में रहते हुए भी उज्ज्वल हो तथा जिसके पास सत है वहीं संत है अर्थात् संत वह होता है जो समाज में व्याप्त बुराइयों से परे होता है। उदयभानु हंस ने संत के विशय में काव्य के माध्यम से इस प्रकार कहा है -  ‘संतो में भगवान का वरदान छिपा है, कुल मानवता का वरदान छिपा है, जीवन की गभींर हर समस्या का, संतो की वाणी में समाधान छिपा है।’ 

इन सभी विचारधाराओं के अध्ययनापेरांत स्पष्ट होता है कि संत वह महान विभूित होते हैं, जो साधारण से ऊपर उठकर स्वयं नित्य प्रति, सत्य, निविर्कार परम ब्रह्म का साक्षात्कार कर चकुे हों। जिनमें क्षमाषीलता, परापेकार, सेवा, अक्रोध, दया, दानषीलता, अभदेता, निश्कामना आदि सभी गुणों का समावेश हो जाना स्वाभाविक हो। वे इस लौकिक संसार में रहते हुए भी अलौकिक संसार में विचरण करते हैं

2 Comments

  1. प्रश्नगत विषय पर विस्तृत जानकारी है. सराहनीय!

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