श्रीलंका में बौद्ध धर्म का इतिहास

श्रीलंका का इतिहास

श्रीलंका ‘पूर्व का मोती’ नाम से प्रख्यात श्रीलंका, भारत के दक्षिण में हिन्द महासागर में स्थित एक छोटा सा द्वीप है, जो पाक जलडमरूमध्य के द्वारा के द्वारा भारत से जुड़ा हुआ है। नाशपाती के आकार का यह द्वीप मानचित्र के पटल पर 5° 55’ और 9° 50’ अक्षांशों तथा 79° 42’ और 81° 52’ देशान्तरों के मध्य स्थित है, जिसका क्षेत्रफल 65,000 वर्ग किमी. है। अपनी इस विशिष्ट स्थिति के कारण श्रीलंका कई शताब्दियों तक पूर्व और पश्चिम को जाने वाले समुद्री मार्गो का केन्द्र बिन्दु रहा है। 

श्रीलंका का प्राचीन नाम सिंहल तथा ताम्रपणी है। सम्राट अशोक के द्वितीय तथा त्रयोदश प्रस्तारभिलेख में तम्बपंणि (ताम्रपणी) देश की चर्चा है। ग्रीक लेखक इसे तप्रोबेन कहते हैं। त्रयोदश अभिलेख में ताम्रपणी को पाण्ड्य या द्रविड़ देश के दक्षिण का राष्ट्र माना गया है। नागार्जुनकोण्ड अभिलेख में ‘तम्बपण्णी’ द्वीप का स्पष्ट उल्लेख श्रीलंका (सीलोन) के ही अर्थ में हुआ है।

राहुल सांकृत्यायन के शब्दों में - ‘‘श्रीलंका, भारत का सबसे पुराना उपनिवेश है। परम्परा के अनुसार लाट (गुजरात) देश का राजकुमार विजय सिंह अपने 700 साथियों के साथ उसी साल ताम्रपणी में उतरा, जिस साल (483 ईसा पूर्व) भगवान बुद्ध का निर्वाण हुआ था। विजय सिंह के ‘सिंह’ के कारण ही ताम्रपणी द्वीप का दूसरा नाम ‘सिंहल’ पड़ गया।’’ 

महावंश के अनुसार- राजकुमार विजय जब प्रथम बार उस ताम्रपणी द्वीप पर पहुँचे, तो थकावट के कारण वे पृथ्वी पर हाथ टेक कर बैठ गयें। मिट्टी ताम्रवर्ण की थी, उसके स्पर्श से उनकी हथेली ताम्रवर्ण-सी हो गयी। इसलिये उस द्वीप का नाम ताम्रपणी द्वीप पड़ गया। ‘सिंहल’ नाम उस द्वीप के किसी गुण पर आश्रित न होकर उस वंश के नाम पर है, जिसने सर्वप्रथम उस द्वीप की खोज की। कदाचित् जम्बूद्वीपवासी उसे सिंहल कहते थे और उपनिवेश बसाने वाले ये निवासी उसे ‘ताम्रपणी’ कहते थे। अपने साथियों के साथ श्रीलंका आगमन के पश्चात राजकुमार विजय ने वहां की राजकुमारी कुवैनी से विवाह किया और उनके सहयोग से श्रीलंका का राजपद प्राप्त किया। राजकुमार विजय के दक्षिण भारतीय राजाओं के साथ मधुर सम्बन्ध रहे थे। 

उन्होने मदुरई के पाण्ड्य राज्य की राजकुमारी से भी विवाह किया था। इतना ही नहीं, पाण्ड्य राजा ने 699 प्िरतष्ठित और सम्भ्रान्त घरों की युवतियों को भी राजकुमार विजय के अनुयायियों से विवाह हेतु राजकुमारी के साथ भेज दिया। इन वैवाहिक सम्बन्धों ने श्रीलंका के भारत के साथ सम्बन्धों को दृढ़ आधार प्रदान किया। आरम्भ में इण्डो-आर्य प्रवासी अनेक जाति-जनजाति के रूप में श्रीलंका आये थे। इनमें सर्वाधिक शक्तिशाली ‘सिंहल’ जाति थी, जिसकी तुलना ‘शेरों’ से की गयी थी। एक लम्बे समय अन्तराल के पश्चात् भारत से आने वाले प्रवासियों के सभी समूहों को इसी शक्तिशाली जाति-समूह ‘सिंहल’ के नाम से जाना जाने लगा। 

कालान्तर में सिंहल जाति-समुदाय की पहचान, उत्तर भारत के प्रवासी, श्रीलंका के मूल निवासियों और दक्षिण भारतीय प्रवासियों के मध्य स्थापित होने वाले अन्र्तवैवाहिक सम्बन्धों से उत्पन्न भावी पीढ़ियों के रूप में मान्यता मिली, जो श्रीलंका के प्रथम सिंहली शासक के रूप में सिंहासनारूढ़ हुये।

श्रीलंका में बौद्ध धर्म का इतिहास

महावंश के अनुसार श्रीलंका में बौद्ध धर्म का आगमन वहां के शासक देवनामप्रिया तिस्सा के शासनकाल (250-210 ईसा पूर्व) में हुआ। मौर्य सम्राट अशोक ने बौद्ध धर्मं के प्रचार के लिये अपने पुत्र महेन्द्र को श्रीलंका भेजा। उन्होंने ही देवनामप्रिया तिस्सा को बौद्ध धर्म की दीक्षा दी। देखते ही देखते प्रथम शताब्दी ईसा पूर्व तक यह वहाँ का प्रमुख धर्म बन गया। देवनामप्रिया तिस्सा के ही शासनकाल में सम्राट अशोक की पुत्री संघमित्रा ने भी श्रीलंका की ओर प्रस्थान किया और वहाँ बौद्ध भिक्षुणियों की परम्परा का श्रीगणेश किया। वह अपने साथ बोधि वृक्ष, जिसके नीचे भगवान बुद्ध को ज्ञान प्राप्त हुआ था, की एक शाखा को श्रीलंका ले गयी थी, जिसे श्रीलंका की राजधानी अनुराधापुर में एक विशाल आयोजन के साथ स्थापित किया गया था। इस काल में श्रीलंका में बौद्ध धर्म की दृढ़ नींव स्थापित हो चुकी थी। अनेक बौद्ध मन्दिरों, विहारों, मठों का निर्माण हुआ।

बौद्ध धर्म के इस व्यापक प्रसार ने मौर्य शासकों और श्रीलंका के मध्य सौहार्दपूर्ण सम्बन्धों का विकास किया। 

भारत की प्रधानमंत्री श्रीमती इन्दिरा गाँधी ने कहा था- ‘‘विश्व को श्रीलंका की विशेष देन यह है कि उसने न सिर्फ बौद्ध धर्म का संरक्षण और संवर्धन किया, बल्कि व्यापक प्रचार-प्रसार के द्वारा बुद्ध की शिक्षाओं को आज तक अक्षुण्ण बनाये रखा।’’

145 ईसा पूर्व में दक्षिण भारतीय चोल राजा एलारा, जो कि हिन्दू धर्म के मानने वाले थे, ने श्रीलंका पर विजय प्राप्त की और वहाँ 44 वर्ष तक शासन किया। श्रीलंका के ही सिंहली शासक द्रुतगामिनी (161-137 ईसा पूर्व) जो कि बौद्ध धर्म को मानने वाले थे, ने एलारा से युद्ध कर उन्हें पराजित किया, जिसमें एलारा की मृत्यु हो गयी। द्रुतगामिनी ने इस युद्ध का उद्देश्य श्रीलंका के गौरव और धर्म की रक्षा करना बताया। किन्तु जीवन के अन्तिम दिनों में उनका मन इस अपराध बोध से ग्रस्त हो गया कि तमिलों ही हत्या के कारण उन्हें मृत्योपरान्त स्वर्ग की प्राप्ति न हो सकेगी। उनके हृदय से इस सन्ताप को दूर करने के लिये बौद्ध साधुओं ने उन्हें यह समझाया कि जिन तमिलों की युद्ध में मृत्यु हुई है वे बौद्ध नहीं थे, इसलिये उनको मारना कोई पाप नहीं है।

महावंश के अनुसार द्रुतगामिनी का एलारा के विरूद्ध युद्ध अभियान, वास्तव में द्रुतगामिनी-एलारा संघर्ष नहीं बल्कि सिंहली और तमिलों के मध्य का संघर्ष था।

इतिहास की यह घटना यह बताती है कि किस प्रकार सिंहली और तमिलों के मध्य विभाजन का आधार सिर्फ भाषायी न होकर धर्म आधारित हो गया था, जिसमें एक तरफ सिंहल अर्थात बौद्ध धर्म को मानने वाले तथा दूसरी ओर तमिल बौद्ध धर्म को न मानने वाले थे। द्रुतगामिनी के शासनकाल में भारत और श्रीलंका के मध्य तनावपूर्ण सम्बन्ध रहे। इसके बाद के अनेक वर्षो में दक्षिण भारतीय राज्यों चोल, पाण्डय, पल्लव आदि द्वारा श्रीलंका पर आक्रमण होते रहे, जिसमें कभी तमिलों की तो कभी सिंहली शासकों की श्रीलंका में सत्ता स्थापित होती रही। 

104 ई.पू. में भारत से श्रीलंका पर दूसरा आक्रमण हुआ और तमिल शासक सत्ता में आये जिन्होंने लगभग 17 वर्षो तक श्रीलंका पर शासन किया। 103 ई. में पुन: तीसरा आक्रमण तमिल शासकों द्वारा किया गया और बारह हजार (12,000) सिंहलियों को बन्दी बनाकर चोल साम्राज्य में ले जाया गया। श्रीलंका पर हुये इस तीसरे आक्रमण के लगभग तीन सौ पचास वर्षो के पश्चात भारत और श्रीलंका के मध्य मजबूत सम्बन्ध स्थपित हुये। 

श्रीलंका के शासक मेघवर्ण (352-379 ई.) ने दो सन्यासिंयों को भारत में बोध गया के पवित्र स्थल की यात्रा पर भेजा, जिन्होंने बाद में वहाँ के शासक समुद्रगुप्त की अनुमति स ेबोधि वृक्ष के उत्तर में सुन्दर और विशाल बौद्ध विहार का निर्माण कराया।

नवीं शताब्दी के अन्तिम वर्षों में चोल साम्राज्य की शक्ति का पुन: उत्कर्ष आरम्भ हो चुका था। 1017 ई. में चोलों द्वारा श्रीलंका के अन्तिम सिंहली शासक महिन्द पंचम को बन्दी बना लिया गया था। इस प्रकार श्रीलंका एक स्वतन्त्र राष्ट्र न रहकर चोल साम्राज्य के अधीन एक प्रान्त बन गया था, जिसकी राजधानी चोलों द्वारा अनुराधापुर के स्थान पर पोलोन्नरूवा को बनाया गया था। चोलों ने श्रीलंका में 77 वर्षो तक शासन किया। इस दौरान उनके द्वारा हिन्दू धर्म को प्रमुखता दी गयी। 

चोलों के इस शासन का अन्त विजयबाहु द्वारा 1070 ई. में किया गया, किन्तु विजयबाहु के कमजोर उत्तराधिकारी राष्ट्र की एकता को स्थापित न रख सके। फलत: राज्य अनके छोटे राज्यों में विभक्त हो गया। 

आगे चलकर श्रीलंका के ही एक शासक पराक्रम बाहु (153-1186 ई.) ने इन छोटे राज्यों को एक में मिलाकर एक बार पुन: श्रीलंका में राजनीतिक एकता की स्थापना की। पराक्रम बाहु के दक्षिण भारत से सम्बन्ध उस परम्परागत सिंहली नीति पर आधारित थे जिसके अन्तर्गत चोलों की शक्ति को नियंत्रण में रखने के लिये कमजोर पाण्ड्य राज्य को समर्थन दिया जाता था। पराक्रमबाहु की मृत्यु के उपरान्त श्रीलंका की राजनीतिक स्थिरता को वहाँ के शासक निशंकमाला (187-216 ई.) द्वारा बनाये रखा गया, जो पोलोन्नरूवा का अन्तिम शासक था। निशंकमाला की मृत्यु के उपरान्त पुन: राजनीतिक अस्थिरता का दौर आरम्भ हुआ जो लगभग 18 वर्षो तक रहा। 1212 ई. में पाण्ड्य राजकुमार पराक्रमपाण्डू ने श्रीलंका पर आक्रमण किया। 

इसके तीन वर्षो के पश्चात् ही कलिंग नरेश ‘मघ’ ने पराक्रमपाण्डू को परास्त कर श्रीलंका पर अधिकार कर लिया। मघ के शासनकाल में श्रीलंका में आकर बसने वाले तमिलों की संख्या में तेजी से वृद्धि हुई। तेरहवीं शताब्दी के आने तक श्रीलंका के उत्तर में स्थित जाफना में एक स्वतंत्र तमिल राज्य स्थापित हो गया था। इसके अन्तर्गत जाफना, पेनिनसुला तथा अनुराधापुर और वान्नी के बीच का अधिकांश क्षेत्र शामिल था। अब श्रीलंका के सिंहली शासकों को न सिर्फ दक्षिण भारत से बल्कि जाफना के तमिल राज्य से भी आक्रमण का भय हो गया था। 

सी.आर.डीसिल्वा लिखते हैं - ‘‘श्रीलंका के उत्तर में जाफना में स्वतन्त्र तमिल राज्य स्थापित होने से श्रीलंका का मध्य भाग जो कभी सभ्यता और संस्कृति का केन्द्र हुआ करता था, दक्षिण के सिंहली और उत्तर के तमिलों दोनों में से किसी के भी नियंत्रण में न रहकर एक सीमा क्षेत्र बन कर रह गया था।’’ तेरहवीं शताब्दी के मध्य तक उत्तर में स्थिति तमिल राज्य का सर्वाधिक विस्तार हो गया था। अब इसके नियंत्रण में पश्चिमी तट से लेकर कोलम्बो तक का अधिकांश क्षेत्र आ चुका था और यह श्रीलंका के सर्वाधिक शक्तिशाली राज्य के रूप में उभरा था।

सोलहवीं शताब्दी के आरम्भ तक श्रीलंका पुन: अनेक राज्यों में विभक्त हो चुका था, जिससे विदेशियों के श्रीलंका में हस्तक्षेप की परिस्थितियां उत्पन्न हो गयी। औपनिवेशिक काल श्रीलंका का आधुनिक राजनैतिक इतिहास सोलहवीं शताब्दी के प्रारम्भ में श्रीलंका में युरोपीय शक्तियों के अभ्युदय के साथ हुआ। इनमें सर्वप्रथम श्रीलंका पहुँचने वाले पुर्तगाली थे, जो मुख्यत: व्यापार करने के उद्देश्य श्रीलंका आये थे। 

1505 ई. में इन्होने कोलम्बो में अपना व्यापारिक केन्द्र स्थापित किया। इस समय तक श्रीलंका मुख्यरूप से तीन राज्यों में विभक्त था, जिनमें उत्तर में स्थित तमिल राज्य, श्रीलंका के मध्य भाग में स्थित काण्ड्य राज्य तथा श्रीलंका के दक्षिण-पश्चिम में स्थित कोट्टि राज्य सम्मिलित थे। पुर्तगालियों ने सर्वप्रथम अपना व्यापार कोट्टि राज्य के साथ आरम्भ किया और वहाँ के राजा के साथ मधुर सम्बन्ध स्थापित किये। व्यापार को बढ़ाने के साथ-साथ उनकी राजनीतिक सक्रियता भी धीरे-धीरे बढ़ने लगी। थोड़े समयान्तराल के पश्चात ही श्रीलंका के अधिकांश भू-भाग पर उनका अधिकार हो गया और उन्होंने इसका राजनीतिक और आर्थिक दोनों ही प्रकार से शोषण किया। पुर्तगालियों को ही सर्वप्रथम श्रीलंका में इसाई धर्म के रोमन कैथोलिक सम्प्रदाय को लाने का श्रेय प्राप्त है। 

इन्होने इस धर्म के प्रचार-प्रसार के लिये कैथोलिक मिशनरियों को हर सम्भव आर्थिक सहायता उपलब्ध कराने के साथ ही नागरिकों को भी धर्म-परिवर्तन के लिये व्यापक स्तर पर प्रलोभन और प्रोत्साहन देना प्रारम्भ किया। 

सी.आर.डीसिल्वा लिखते हैं - ‘‘कैथोलिक मिशनरियों को मिलने वाली सहायता श्रीलंका में सुस्थापित बौद्ध तथा हिन्दू धर्म के विनाश के बल पर, उनके मन्दिरों को नष्ट कर तथा भूमियों को जब्त कर दी जा रही थी।’’ पुर्तगालियों का शासन काल श्रीलंका के बौद्ध तथा हिन्दू धर्म के लिये अन्धकारमय युग के समान बीता, जिसके परिणामस्वरूप वहाँ के हिन्दुओं ने मदुरई और तंजौर के शासकों की ओर सहायता की दृष्टि से देखा। जाफना पर पुर्तगालियों के अधिकार हाने के साथ ही श्रीलंका के भारत से राजनीतिक सम्बन्ध टूट चुके थे। यद्यपि सांस्कृतिक और आर्थिक दृष्टि से यह पतन का काल था, लेकिन सैन्य संगठन और हथियारों के विकास में इनका महत्वपूर्ण योगदान था। 
पुर्तगालियों का एक अन्य योगदान सिंहली और तमिलों के मध्य अविश्वास की खाई को और गहरा करने में भी था। सी.आर.डीसिल्वा लिखते है- ‘‘पुर्तगालियों ने तमिलों के विरूद्ध सिंहली सेना का कुशलतापूर्वक उपयोग किया।’’

श्रीलंका में पुर्तगालियों की बढ़ती शक्ति को नियंत्रित करने के उद्देश्य से काण्ड्य शासक द्वारा आमंत्रित डचों का श्रीलंका में प्रवेश 1650 ई. में हुआ। डच ईस्ट इण्डिया कम्पनी के नाम से व्यापारियों के रूप में श्रीलंका आये। कालान्तर में पुर्तगालियों के शासन को समाप्त कर डचों ने 1796 ई. (138 वर्षों) तक श्रीलंका पर राज्य किया था। इनका एक प्रमुख योगदान श्रीलंका के सैन्य क्षेत्र को सुदृढ़ और आधुनिक बनाना था। श्रीलंका में डच सरकार की स्थापना कोलम्बो, गाले और जाफना में की गयी इन्हे क्रिश्चियन्स (इसाई) धर्म के प्रोटेस्टेन्ट सम्प्रदाय को श्रीलंका लाने का श्रेय प्राप्त है। इन्होंने श्रीलंका में अनेक किलों का निर्माण तथा जलमार्गो का विकास कराया, किन्तु वहाँ के व्यापार तथा बौद्ध एवं हिन्दू धर्मों के लिये यह काल भी पतनोन्मुख रहा। डचों ने सिंहली शासकों के दक्षिण भारतीय राजाओं के यहाँ वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित करने के उद्देश्य से शिष्ट मण्डल दक्षिण भारत भेजे (1739, 1751 में) और भारत के साथ अपने राजनीतिक सम्बन्धों को सुदृढ़ करने का प्रयास किया।

1762 ई. में इग्लैण्ड की ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने खुफिया जानकारी प्राप्त करने के उद्देश्य से अपने कूटनीतिक शिष्ट मण्डल को श्रीलंका की यात्रा पर भेजा। श्रीलंका के त्रिकोंमाली बन्दरगाह के रणनीतिक महत्व से आकर्षित होकर अगं्रेजों ने श्रीलंका के काण्ड्य राज्य तथा डचों से अपने सम्बन्धों को विकसित किया और इसी बीच उपर्युक्त अवसर पाकर ईस्ट इण्डिया कम्पनी की सेना ने जाफना पर अपना अधिकार कर लिया और कोलम्बो की ओर बढ़ने लगी। 1796 ई. तक डचों का श्रीलंका पर शासन पूर्णत: समाप्त हो गया।

श्रीलंका पर अधिकार करने के पीछे अंग्रेजों का मुख्य आकर्षण, रणनीतिक दृष्टि से महत्वपूर्ण त्रिकोंमाली, दालचीनी का व्यापार तथा भारत में स्थापित अंग्रेजी साम्राज्य की सुरक्षा से प्रेरित था यद्यपि पुर्तगालियों तथा डचों ने लगभग 300 वर्षों तक श्रीलंका पर शासन किया, किन्तु इस काल में वहाँ के सामाजिक संगठन और राजनीतिक संस्थाओं के स्वरूप में कोई व्यापक बदलाव नहीं आया, यहाँ तक कि श्रीलंका की सिंहली और तमिल संस्कृतियाँ भी सामान्य रूप से अप्रभावित रहीं।

1802 ई. में श्रीलंका पूर्णत: ब्रिटिश राज का उपनिवेश बन गया था।

ब्रिटिशकाल में राजनीतिक विकास की प्रक्रिया श्रीलंका में अंग्रेजी शासन के प्रथम चरण का अन्त ‘क्राउन’ द्वारा गवर्नर की नियुक्ति के साथ हुआ। श्रीलंका में ब्रिटिश राज द्वारा किये गये सामाजिक, राजनीतिक तथा आर्थिक सुधारों का सुत्रपात कोलब्रुक संशोधन द्वारा हुआ। इस संशोधन के द्वारा राजकरिया प्रथा को समाप्त किया गया। 1833 ई. में सीलोन विधान परिषद की स्थापना हुयी, जिसके गैर सरकारी सदस्यों का नामांकन गवर्नर द्वारा सम्प्रदाय विशेष के आधार पर किया गया।

संवैधानिक संशोधनों की प्रक्रिया को आगे बढ़ाते हुये 1910-12 ई. के मध्य अनेक परिवर्तन किये गये, अब विधान परिषद में प्रथम बार सदस्यों के निर्वाचन की प्रथा का आरम्भ किया गया। 1911 ई. में तमिल नेता पूनाम्बलम रामनाथन को श्रीलंका का प्रथम निर्वाचन प्रतिनिधि होने का गौरव प्राप्त हुआ। वे कोलम्बो विधान परिषद क्षेत्र से निर्वाचित थे जिसका स्पष्ट अर्थ था कि उन्हें सिंहली और तमिल दोनों ही समुदायों का समर्थन प्राप्त हुआ था। इससे तत्कालीन सिंहली और तमिल समुदायों की आपसी समझ और विश्वास का पता चलता है। सन् 1919 में सीलोन राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना हुयी, जिसके प्रथम अध्यक्ष सर पूनाम्बलम अरूनाचलम हुये, जो कि तमिल थे। 

कोलब्रुक कैमरून आयोग के गठन के लगभग 100 वर्षों पश्चात् सन् 1927 में गर्वनर द्वारा एक नये आयोग- ‘‘डोनोमोर आयोग’’ के गठन की घोषणा की गयी। सर पूनाम्बलम रामनाथन ने ब्रिटिश सरकार से सम्प्रदाय विशेष के आधार पर निर्वाचन मण्डल गठित करने की मांग की, किन्तु सरकार द्वारा उनकी इस मांग को अस्वीकार कर दिया गया। डोनोमोर आयोग ने भी विधान परिषद में क्षेत्रीय प्रतिनिधित्व के समर्थन में अपना मत व्यक्त किया। इससे सिंहली समुदाय को स्वाभाविक लाभ प्राप्त हो गया। द्वितीय विश्व युद्ध के पश्चात् सीलोन के पक्ष में परिस्थितियों में तेजी से बदलाव आना प्रारम्भ हो चुका था। 

सौलबरी आयोग ने मंत्रियों द्वारा तैयार 1944 के संविधान प्रारूप के मुख्य सिद्धान्तों को स्वीकार कर लिया था, जिसे राज्य परिषद ने 51 मतों के बहुमत से नवम्बर 1945 में पारित कर दिया था। इसके साथ ही सर पूनाम्बलम द्वारा फिफ्टी-फिफ्टी आभियान के लिये किया गया प्रयास निष्फल हो चुका था, जिसका उद्देश्य विधान परिषद में अल्पसंख्यकों को बहुसंख्यको के बराबर प्रतिनिधित्व प्रदान करना था। 

18 जून 1947 को ब्रिटिश सरकार ने यह घोषणा की- ‘‘श्रीलंका को एक पूर्णत: उत्तरदायी राज्य का दर्जा ब्रिटिश राष्ट्रमण्डल के तहत प्रदान किया जायेगा।’’ सीलोन स्वतंत्रता अधिनियम को 10 दिसम्बर 1947 को राजकीय स्वीकृति प्राप्त हुई और 4 फरवरी 1948 को श्रीलंका को स्वतंत्रता प्राप्त हुई और ब्रिटिश राष्ट्रमण्डल के तहत श्रीलंका को ‘डोमिनियन राज्य’ का दर्जा प्रदान किया गया।

श्रीलंका को प्राप्त यह स्वतंत्रता वस्तुत: किसी संघर्ष का परिणाम न होकर तत्कालीन परिस्थितियों की उपज मात्र थी। द्वितीय विश्व युद्ध के पश्चात् कमजोर आर्थिक स्थिति के कारण अंग्रेजों के लिये अधिकतम अवधि तक अपने उपनिवेशों पर नियंत्रण बनाये रखना सम्भव न था। अत: ऐसी परिस्थिति में उन्होंने इन उपनिवेशों को स्वतंत्र कर डोमिनियन राज्य का दर्जा देना उचित समझा। 

अंग्रेजों ने सत्ता का हस्तान्तरण ऐसे दल, विचारधारा के लोगों को किया, जिनके शासन में अग्रेजों के आर्थिक हित पूर्णत: सुरक्षित रह सकें। इसी उद्देश्य को ध्यान में रखते हुये श्रीलंका में सत्ता का हस्तान्तरण यूनाइटेड नेशनल पार्टी (यू.एन.पी.) को किया गया, जिसका गठन स्वतंत्रता प्राप्ति से मात्र दो वर्ष पूर्व 1946 को हुआ था यह एक परम्परावादी राजनीतिक समूह था, जो कि पाश्चात्य, अभिजात्य विचारों से ओत-प्रोत था।

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