अनुक्रम
जनवरी, 1957 ई. में बलवंत राय
मेहता की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया गया जिसने सामुदायिक विकास
कार्यक्रम और राष्ट्रीय विस्तार सेवा का व्यापक अध्ययन करने के बाद 24 नवम्बर,
1957 को अपनी रिपोर्ट सरकार के सम्मुख प्रस्तुत की। इस समिति को गठित करने
का मुख्य उद्देश्य यह पता लगाना था कि जनता में पंचायतों के प्रति उत्साह क्यों
कम है और इस समस्या से निजात पाने के लिए कौन सी पद्धति अपनायी जानी
चाहिए ? बलवंत राय मेहता समिति ने अपने अध्ययन से यह निष्कर्ष निकाला कि ग्राम विकास
योजनाओं में जनता को सक्रिय भाग लेने हेतु प्रोत्साहित करने के लिए योजना और
प्रशासकीय सत्ता दोनों का विकेन्द्रीयकरण होना चाहिए, क्योंकि गाँव के स्तर पर
ऐसी एजेंसी के बिना, जो पूरे समुदाय का प्रतिनिधित्व कर सके, और उत्तरदायित्व
ले सके तथा विकास कार्यक्रमों के क्रियान्वयन को आवश्यक नेतृत्व प्रदान कर सके,
ग्रामीण विकास के क्षेत्र में वास्तविक प्रगति सम्भव नहीं है। इस रिपोर्ट में पहली बार
विकेन्द्रीयकरण के साथ लोकतांत्रिक शब्द जोड़ा गया। इसका अर्थ था कि जिस
लोकतांत्रिक प्रणाली को हमारे देश ने अपनाया है उसमें प्रत्येक ग्रामीण सक्रिय रूप
से भाग लें और देश में पंचायती राज कायम हो।
2. ग्राम पंचायत का गठन पूर्णतया प्रत्यक्ष निर्वाचन के आधार पर होना चाहिए लेकिन महिला एवं अनुसूचित जाति तथा अनुसूचित जनजातियों के प्रतिनिधियों को मनोनीत किया जाना चाहिए। ग्राम पंचायत का चुनाव ग्राम-सभा करेगी। यह एक गाँव की भी हो सकती है और कई गाँवों को मिलाकर भी बनायी जा सकती है। गाँव का प्रत्येक वयस्क, स्त्री-पुरुष ग्राम-सभा का सदस्य होगा और ग्राम- पंचायत ग्राम-सभा की कार्यपालिका होगी।
3. कर न देने या नियमों का उल्लंघन करने वालों को, कार्यवाही में भाग न लेने या मत न देने वालों को, पंचायत दण्ड दे, ऐसा कानून होना चाहिए।
ग्राम पंचायत के कार्य :- समिति ने ग्राम पंचायत के लिए निम्न कार्य सुझाये थे-
पंचायत समिति का कार्यक्षेत्र व्यापक होना चाहिए- कृशि, उद्योग व सभी क्षेत्रों का विकास कार्य पंचायत समिति के माध्यम से होना चाहिए। केन्द्र या राज्य सरकार से विविध योजनाओं के अन्तर्गत किया जाने वाला व्यय, पंचायत समिति की सलाह से विविध एजेंसियों द्वारा व्यय किया जाना चाहिए। पंचायन समिति के तकनीकी कर्मचारियों को जिला स्तर के अधिकारियों की देख-रेख में काम करना चाहिए। जहाँ तक हो सके क्षेत्र का कार्य पंचायत समिति के द्वारा होना चाहिए, लेकिन यदि यह उन कार्यों को करने में असमर्थ होती है तो कार्य दूसरे को भी सौंपा जा सकता है। जिला परिषद द्वारा पंचायत समिति का बजट स्वीकृत किया जाना चाहिए।
क्षेत्र की आर्थिक व सामाजिक परिस्थितियों को देखते हुए राज्य सरकार की ओर से आर्थिक सहायता देनी चाहिए एवं निर्वाचित जन प्रतिनिधियों कों पर्याप्त प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए ताकि वे कार्य की तकनीकी एवं अन्य जानकारी प्राप्त कर सकें।
बलवंत राय मेहता समिति की सिफारिशों को राष्ट्रीय विकास परिषद (एन.डी.सी.) ने जनवरी 1958 में निम्न रूपों में स्वीकार कर लिया-
वास्तव में ऐसा लगता है कि 30 जनवरी 1948 को भावी भारत के कर्णधारों ने महात्मा गाँधी की कल्पनाओं को उनकी समाधि के साथ दफन कर दिया। उनका उद्देश्य सिर्फ किसी तरह सत्ता में बने रहना हो गया। इसी कारण सरकारी योजनाएँ और गाँधी जी की कल्पना में महत्वपूर्ण अन्तर दिखायी पड़ता है। सरकारी योजनाओं का मुख्य उद्देश्य ग्राम-पंचायत, पंचायत-समिति और जिला परिषद के माध्यम से जनता को विकास का अधिकार और दायित्व सौंपकर विकास कार्यक्रमों में उसका सक्रिय सहयोग प्राप्त करना था। इस –श्टि से लोकतांत्रिक विकेन्द्रीयकरण की दिषा में जो कदम उठाये गये, उनकी एक सीमा थी। वास्तव में यह जिला परिषद के ऊपर राज्य सरकार और केन्द्र सरकार के अधिकार को ज्यों के त्यों रखकर संसदीय व्यवस्था में ही पंचायती राज के लिए, उपयुक्त स्थान पर जगह बनाने की योजना थी; जबकि महात्मा गाँधी पंचायती राज के द्वारा एक ऐसे ग्राम-स्वराज्य की नींव डालना चाहते थे जिसमें सत्ता का केन्द्र जनता हो और उसका प्रवाह नीचे से ऊपर की ओर हो।
राज्यों में पंचायती राज : विविधता ओर एकरूपता :- राजस्थान के नागौर जिले से 2 अक्तूबर 1959 को पंचायती राज की नींव रखते हुए पंŒ जवाहर लाल नेहरू ने कहा कि “हम अपने देश में लोकतंत्र के पंचायती राज की आधारषिला रखने जा रहे हैं, यह एक ऐतिहासिक कदम है, यदि आज महात्मा गाँधी जीवित होते तो कितने खुष होते कि यह ऐतिहासिक कदम उनके जन्म दिवस पर उठाया जा रहा है।”
राजस्थान में पंचायत राज की स्थापना के पश्चात पंजाब, महाराष्ट्र, गुजरात, बिहार, मध्य प्रदेश, कर्नाटक, असम, उड़ीसा, उत्तर प्रदेश, पं. बंगाल, हिमाचल प्रदेश आदि राज्यों में भी पंचायती राज की स्थापना हुई। परन्तु पंचायती राज संस्थाओं की संरचना, कार्य, अधिकार, बजट, समय, विभिन्न राज्यों में अलग-अलग रही। सन् 1962 तक विकास परिषद की वार्षिक रिपोट 1972-73 के अनुसार 565 लाख गाँवों मे 2,22050 पंचायती राज संस्थाओं की स्थापना हो चुकी थी।40 किन्तु एकरूपता किसी भी राज्य में नहीं थी। महाराष्ट्र राज्य ने अपने यहाँ पंचायती राज की स्थापना में जिला-परिषद को महत्वपूर्ण स्थिति प्रदान की। जबकि गुजरात, पंजाब, बिहार एवं आन्ध्र प्रदेश राज्यों ने मध्यम मार्ग अपनाया अर्थात उन्होंने पंचायत समिति के साथ-साथ जिला परिषद को भी कुछ कार्यात्मक शक्ति प्रदान की।
उत्तर प्रदेश ने भी पंचायती राज के सम्बन्ध में मध्यम मार्ग को अपनाया और जिला-परिषदों के साथ-साथ बड़ी संख्या में ग्राम पंचायतें स्थापित की। तमिलनाडु और राजस्थान राज्य ने पंचायत समिति को महत्वपूर्ण स्थान प्रदान किया। असम, कर्नाटक, उड़ीसा राज्यों ने बलवंत राय मेहता समिति की अनुषंसाओं को ही साकार रूप प्रदान किया। मध्य प्रदेश में बहुत लम्बे समय के बाद 2 अक्तूबर 1985 में त्रिस्तरीय व्यवस्था स्थापीत की गयी। कष्मीर, केरल, मणिपुर तथा त्रिपुरा में एक पंचायत राज व्यवस्था (केवल ग्राम पंचायत) जबकि मेघालय तथा नागालेण्ड में आदिवासी परिषद गठित की गयी। पंचायती समिति को विभिन्न राज्यों में अलग-अलग नामों यथा- अंचल पंचायत, अंचल परिषद, क्षेत्र समिति, पंचायत समिति, जनपद पंचायत, पंचायत यूनिट, कौंसिल और ब्लाक खण्ड समिति आदि से पुकारा गया।
संक्षेप में देश के 14 राज्यों/संघषासित क्षेत्रों में त्रिस्तरीय प्रणाली तथा 4 राज्यों/संघ शासिक क्षेत्रों में द्विस्तरीय प्रणाली और 9 राज्यों/संघषासित क्षेत्रों में एक स्तरीय प्रणाली लागू की गयी।
चूँकि विभिन्न राज्यों में पंचायतों के स्वरूप में भिन्नता के साथ-साथ शक्ति एवं अधिकार सम्पन्नता में भी अन्तर था। इसलिए समय-समय पर राज्यों ने इन संस्थाओं की कार्यप्रणाली में सुधार सम्बन्धी अनुषंसाएं देने के लिए विभिन्न समितियों का गठन किया, यथा-
1. आंध्र प्रदेश :
1959 से 1977 की अवधि में पंचायती राज व्यवस्था का स्वरूप उत्थान, जड़ता एवं पतन की अवधि :- 1959 ई. तक भारत के सभी राज्यों ने पंचायत अधिनियमों को परित कर दिया था जिसके परिणामस्वरूप देश के सभी भागों में पंचायतों की स्थापना कर दी गयी। इसकेुलस्वरूप देश में 217300 से अधिक ग्राम पंचायतें थी जो 579000 गाँवों के 96 प्रतिषत और ग्रामीण आबादी का 92 प्रतिषत आच्छादित किये हुए थी। औसत रूप से एक पंचायत के अन्तर्गत 2 से 3 गाँव थे जिनकी कुल आबादी लगभग 2400 थी। ब्लाक खण्ड अथवा तहसील स्तर पर 4526 पंचायत समितियाँ थी, जो देश के 88 प्रतिषत ब्लाकों को आच्छादित करती थी। एक पंचायत समिति औसत रूप में लगभग 48 ग्राम पंचायत को आच्छादित करती थी। 330 जिला परिषद थे जो देश के 76 प्रतिषत जिलों को आच्छादित करते थे। प्रत्येक जिला परिषद में औसत रूप से 13-14 पंचायत समितियाँ और लगभग 660 ग्राम पंचायतें थीं।
नि:सन्देह रूप से यह एक प्रभावशाली प्रारम्भ था। इससे ग्रामीण भारत में बहुत अधिक उत्साह उत्पन्न हुआ और जनता ने ऐसा महसूस करना प्रारम्भ किया कि वे अपने दैनिक जीवन को प्रभावित करने वाले मामलें में भी कुछ कह सकते हैं। वे दिन भारत में पंचायती राज संस्थाओं के आशाजनक दिनों में से थे।
सामुदायिक विकास मंत्रालय ने 1964-65 की अपनी रिपोर्ट में बताया कि पंचायती राज संस्थाओं के माध्यम से युवा और बेहतर नेतृत्व आगे आ रहा है तथा उनके कामकाज से जनता में काफी सन्तोष है।
राजस्थान के पंचायती राज का मूल्यांकन करने के लिए 1962 में एसोसिएशन ऑफ वालंटरी एजेंसीजुॉर रूरल डेवलपमेंट (अवार्ड) द्वारा नियुक्त अध्ययन दल ने ऐसी ही टिप्पणी की : ‘ऐसी रिपोर्ट मिली है कि जनता को यह महसूस हो रहा है कि अपना भविष्य बनाने के लिए उसे पर्याप्त अधिकार मिले है। उसे इस बात का पूरा ज्ञान है कि जो विशेषाधिकार और लाभ पहले बी0डी0ओ0 के नियंत्रण में थे, वे अब उसके नियंत्रण में है। इस अर्थ में लोकतांत्रिक विकेन्द्रीयकरण का पूरा लाभ हासिल कर लिया गया है।
अध्ययन दल ने आगे बताया कि जनप्रतिनिधियों को अधिकार सौंपे जाने के कारण प्राथमिक स्कूल में अध्यापकों की स्थिति में सुधार हुआ है, ब्लाक प्रशासन अधिक उत्तरदायी हो गया है, प्रधानों के सम्मुख जनता अपनी शिकायतें रख रही है और उनके माध्यम से राहत पा रही है तथा सबसे अधिक अधीनस्थ कर्मचारियों तथा नव निर्वाचित नेताओं में व्याप्त भ्रष्टाचार में कमी आयी है, क्योंकि ब्लाक कर्मचारी अब पंचायत समिति के अधीनस्थ कर दिये गये हैं तथा नेताओं के पुन: निर्वाचित होने के लिए जनता के बीच प्रधानों की प्रतिष्ठा जरूरी हैं। दूसरें शब्दों में, पंचायती राज संस्थाओं ने स्थानीय सरकार के सभी कार्य पूरे किये और लोकतंत्र की नर्सरियों - बल्कि उसके प्राथमिक स्कूलों के रूप में कार्य किया। पंचायती राज संस्थाओं के द्वारा उत्पन्न रूचि के कारण कई राज्यों ने उसकी कार्य प्रणाली के आकलन एवं उसमें सुधार लाने के उपायों की सिफारिश करने के लिए समितियाँ गठित की।
इस प्रकार 1959 से 1964 के बीच की अवधि पंचायती राज व्यवस्था के लिए उत्थान की अवधि थी।
दुर्भाग्यवष यह उत्साह स्थिर नहीं रह सका क्योंकि यह वांछित लोकतांत्रिक गति को विकसित नहीं कर सका और ग्रामीण विकास की आवश्यकताओं को पूरा करने में यह असफल हो गया। इस व्यवस्था को बहुत सारी समस्याओं का सामना करना पड़ा। इसमें से कुछ निम्न समस्याएँ थीं-
यदि नियमित रूप से चुनाव सम्पन्न हुए होते तो मुद्दों पर आधारित समूह उत्पन्न हो सकते थे, हर स्तर पर समीकरण बदल सकते थे तथा पारम्परिक प्रतिद्विन्द्वताएँ समाप्त हो सकती थी। इस प्रक्रिया से एक नये मार्ग का निर्माण होता जिससे लोगों को राय देने की व्यक्तिगत स्वतंत्रता तथा सामूहिक विचार-विमर्श का उद्भव होता। लेकिन इस प्रक्रिया को राज्य सरकारों ने पंचायत चुनावों को जान-बूझ कर बार-बार स्थगित कर अथवा बिल्कुल न करवा कर वर्षों तक रोके रखा। इसलिए राष्ट्रीय योजना आयोग द्वारा गठित समिति ने भी पंचायतों के चुनाव नियमित रूप से न करवाने पर चिंता जतायी थी।51 ऐसा प्रतीत होता है कि स्थानीय निहित स्वार्थों तथा राज्य विधान मण्डलों एवं संसद में उनके द्वारा निर्वाचित प्रतिनिधियों की यह सोची-समझी साजिष थी कि पंचायती राज को पहले अपंग बना दिया जाय और अन्ततोगत्वा उनका परित्याग कर दिया जाये, क्योंकि उनके उत्कर्ष से वे भयभीत थे।
संक्षेप में कहा जा सकता है कि सत्ताधारी लोग जनता के साथ अधिकारों का विभाजन करने के लिए तैयार नहीं थे। अपवाद के रूप में महाराष्ट्र, गुजरात, कर्नाटक और पं0 बंगाल को छोड़कर अन्यत्र इन संस्थाओं को या तो अधिग्रहित कर लिया गया अथवा उनके संचालन के लिए नाममात्र की स्वतंत्रता प्रदान की गयी। जिसके कारण अपरिहार्य रूप से उनको पतन की ओर ले गयी।
यदि गहनता से दृष्टि पात किया जाए तो इसकी शुरूआत 1960 में ही दिखायी देती है जब सरकार ने सामुदायिक विकास कार्यक्रमों की उपेक्षा करते हुए गहन जिला कृशि कार्यक्रम (आई.ए.डी.पी.) शुरू किया और योजना बनाने वाले लोग अन्य विकास सम्बन्धी योजनाओं को प्रारम्भ करने के लिए परीक्षण करने में व्यस्त थे। जेसे 1960 के दषक में हरित क्रांति और 1970 के दषक में विकास सम्बन्धी योजनाओं पर लक्षित समूह दृष्टिकोण (Target Groupapproach)। यह आंशिक रूप से रातो-रात खाद्य सम्बन्धी नीति में परिवर्तन दिखाने और आंशिक रूप से निर्धन समूहों तक लाभ पहुँचाने वाले तथा लक्षित समूहों तक पहुँचने की उत्सुकता के कारण थी। 1961 में ही जय प्रकाश नारायण समिति ने एक स्वतंत्र कार्यक्रम बनाने में सरकार के भीतर मौजूद दोहरे सोच और अंतर्विरोध पूर्ण स्थिति को रेखांकित करते हुए टिप्पणी की थी, कि योजना बनाने और उसके कार्यान्वयन के लिए पंचायती राज को एक एजेंसी के रूप में स्वीकार कर लेने के बाद ़कोई वैद्य कारण नहीं रह जाता कि मदवार आवंटन जारी रखे जायें - भले ही वह मार्गदर्षिका के रूप में हो’।53 स्पष्टतः: वह सामुदायिक विकास मंत्रालय आई.ए.डी.पी. की शुरूआत से नाखुश थे।
पंचायती राज की स्थापना के कुछ समय बाद ही तरह-तरह की अन्य योजनाएँ शुरू की गयी और पंचायत राज की तरफ ध्यान देना लगभग बंद कर दिया गया, जिससे इस मत को बल मिला कि न केवल सामुदायिक विकास मंत्रालय, बल्कि सामाजिक विकास परियोजना का भी स्तर गिरा दिया गया है।
1971 ई. में सामुदायिक विकास मंत्रालय को खाद्य एवं कृशि मंत्रालय में सम्मिलित कर लिया गया और 1971 में ही ‘ सामुदायिक विकास’ को ‘ग्राम विकास’ में तब्दील कर दिया गया। यह केवल एक दिखावटी बदलाव नहीं था। एल.सी. जेन के अनुसार तो ‘इससे परिवर्तन का एजेण्डा तथा विकास के अभिकरण के रूप में ‘समुदाय तथा पंचायतों दोनों का ही खात्मा हो गया।
इस प्रकार सम्भ्रांत राजनेता और नौकरशाह एक दूसरे से मिल गये। पेषेवर राजनेता नहीं चाहते थे कि स्थानीय नेतृत्व की नयी पौध उनकी शक्ति को कम करे। इसलिए यह कहना शत-प्रतिषत सही है कि, नौकरशाही, व्यापारिक स्वार्थ, मध्यम वर्ग, पुलिस तथा राजनेता लोकतांत्रिक विकेन्द्रीयकरण के खिलाफ, एकजुट हो गये और एक परिकल्पना (अभिधारणा) तैयार करके यह प्रचारित किया कि सभी निर्वाचित ‘निहित स्वार्थों’ के मुकाबले केन्द्रीकृत नौकरशाही गरीब ग्रामीणों को ज्यादा लाभ पहुँचा सकती है। इसलिए रजनी कोठारी का यह कथन सत्य ही हैं कि, ‘शहरी अधिकारी वर्ग तथा धनी ग्रामीणों का एक ऐसा अभेद्य गठबन्धन बन गया, जिससे गरीब ग्रामीणों को दूर रखा गया’।
स्थानीय शक्तियों, राज्य तथा केन्द्र स्तर के राज नेताओं के साथ मिलकर नौकरशाही ने पंचायती राज प्रणाली की कमियों को बढ़ा-चढ़ाकर दर्शाते हुए उसे बदनाम करना शुरू कर दिया एवं स्थानीय निकायों में प्रभावशाली लोगों का दबदबा होने के कारण आम आदमी का रुझान पंचायती राज व्यवस्था में नहीं रहा और यह प्रणाली अन्ततः: पतन की ओर अग्रसित होती गयी।
संक्षेप में पंचायती राज व्यवस्था 1965 ई. और 1969 ई. के बीच जड़ता की स्थिति में चली गयी तथा 1969 ईŒ से 1977 ई. के दौरान पतन की ओर बढंती चली गयी। स्थानीय स्वषासन पद्धति विकसित तो हुई किन्तु भारत के संविधान द्वारा दिये गये वचन (वादों) मे कमजोर होने लगी। जब विकास सम्बन्धी योजनाकारों ने पुन: यह अनुभव किया कि विकास सम्बन्धी योजनाओं में सामुदायिक भागीदारी सम्भवत: लक्ष्य की ओर नहीं बढ़ रही है और निर्धनता की स्थिति में बहुत कम सुधार दिखायी पड़ रहा है तो उन्होंने 1970 के दषक में पंचायती राज के माध्यम से स्थानीय स्वषासन की ओर पुन: देखना प्रारम्भ किया ताकि ग्रामीण विकास को प्रारम्भ किया जा सके। 1977 ई. में राष्ट्रीय स्तर पर सत्ता परिवर्तन होने पर सरकार द्वारा अशोक मेहता समिति गठित की गयी, ताकि पंचायती राज पद्धति पर नई दृष्टि डाली जा सके।
बलवंत राय मेहता समिति की सिफारिशें
इस बलवंत राय मेहता समिति की प्रमुख सिफारिशें इस प्रकार थी-- पंचायती राज का ढाँचा त्रिस्तरीय होना चाहिए - ग्राम, प्रखण्ड और जिला स्तर पर और ये आपस में जुड़े होने चाहिए।
- विकेन्द्रित प्रशासनिक ढाँचा निर्वाचित प्रतिनिधियों के हाथ में होना चाहिए।
- पंचायतों में आवश्यकता अनुसार निर्वाचित प्रतिनिधि होने चाहिए एवं महिलाओं के लिए दो तथा अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति के लिए एक-एक स्थान आरक्षित होना चाहिए।
- सरकार को कुछ कार्यों व अधिकारों को निचले स्तर पर हस्तांतरित करना चाहिए तथा निचले स्तरों पर पर्याप्त वित्तीय साधन भी उपलब्ध कराने चाहिए।
- समिति ने सिफारिश की कि पंचायती राज संस्था चुनी हुई और कानूनी होनी चाहिए, उसका कार्य क्षेत्र व्यापक होना चाहिए, अपनेुैसलों को कार्यरूप देने के लिए उसके पास सरकारी प्रशासन तंत्र होना चाहिए।
- पंचायती राज प्रणाली स्थानीय नेतृत्व और सरकार के बीच कड़ी का कार्य करती है तथा सरकारी नीतियों को मूर्तरूप देती है।
- ग्राम पंचायत
- पंचायत समिति
- जिला परिषद
(क) ग्राम-सभा/ग्राम पंचायत :-
1. समिति के प्रस्तावित ढाँचे के अनुसार ग्राम पंचायत का स्थान सबसे नीचे रहना था अर्थात सबसे ऊपर जिला परिषद, उसके नीचे पंचायत समिति तथा सबसे नीचे ग्राम पंचायत।2. ग्राम पंचायत का गठन पूर्णतया प्रत्यक्ष निर्वाचन के आधार पर होना चाहिए लेकिन महिला एवं अनुसूचित जाति तथा अनुसूचित जनजातियों के प्रतिनिधियों को मनोनीत किया जाना चाहिए। ग्राम पंचायत का चुनाव ग्राम-सभा करेगी। यह एक गाँव की भी हो सकती है और कई गाँवों को मिलाकर भी बनायी जा सकती है। गाँव का प्रत्येक वयस्क, स्त्री-पुरुष ग्राम-सभा का सदस्य होगा और ग्राम- पंचायत ग्राम-सभा की कार्यपालिका होगी।
3. कर न देने या नियमों का उल्लंघन करने वालों को, कार्यवाही में भाग न लेने या मत न देने वालों को, पंचायत दण्ड दे, ऐसा कानून होना चाहिए।
ग्राम पंचायत के कार्य :- समिति ने ग्राम पंचायत के लिए निम्न कार्य सुझाये थे-
- स्थानीय सड़कों का प्रबंध व मरम्मत करना।
- गाँव में प्रकाश की व्यवस्था करना।
- गाँव में भूमि व्यवस्था की देख-भाल करना।
- गाँव में पानी की सुविधा की व्यवस्था करना एवं गाँवों में साफ-सफाई का ध्यान रखना।
पंचायत के आय-स्रोत - पंचायत के आय के र्सोत विभिन्न प्रकार के शुल्क होंगे-
- मकान कर, पानी कर, तालाब, पंचायत समिति से सहायता,ुीस आदि।
- ग्राम पंचायत लगान वसूल सकती है और इस कार्य के लिए उसे लगान का एक हिस्सा मिलना चाहिए।
- पंचायत अपने क्षेत्र के आय का एक भाग प्रखण्ड समिति से प्राप्त कर सकती है।
- जेसे-जेसे पंचायत के पास आर्थिक संसाधनों की वृद्धि होगी, वैसे-वैसे वह विकास के अन्य कार्य अपने हाथ में ले।
न्याय व्यवस्था :- न्याय पंचायत का कार्य क्षेत्र ग्राम क्षेत्र से बड़ा होना चाहिए, ग्राम पंचायत
द्वारा संस्तुत सदस्यों में से न्याय पंच की नियुक्ति तहसील या जिला न्यायाधीष
द्वारा की जानी चाहिए।
न्याय पंचायतों की व्यवस्था करने का समिति का मुख्य उद्देश्य ग्रामीण जनता को सस्ता और शीघ्र न्याय प्रदान करना था।
न्याय पंचायतों की व्यवस्था करने का समिति का मुख्य उद्देश्य ग्रामीण जनता को सस्ता और शीघ्र न्याय प्रदान करना था।
(ख) पंचायत समिति (प्रखण्ड समिति) :-
बलवंत राय मेहता समिति के प्रस्तावित ढाँचे के अनुसार पंचायत समिति का स्थान ग्राम पंचायत से ऊपर तथा जिला परिषद से नीचे था। इस समिति ने सरकार को यह सुझाव दिया कि सरकार को अपने अधिकार तथा कर्तव्य क्षेत्र का त्याग करके उसे नीचे की इकाईयों को सौंप देना चाहिए। राज्यों को सिर्फ उन पर निगरानी रखनी चाहिए एवं पंचायत समिति को कार्य की स्वतंत्रता देनी चाहिए तथा ब्लॉक स्तर पर निर्वाचित कार्यकारिणी संस्था का विकास होना चाहिए जो कि इसी स्तर पर सरकारी एजेंसी (विकास खण्ड) के साथ सहयोग करें। पंचायत समिति का गठन अप्रत्यक्ष चुनाव के माध्यम से ग्राम पंचायतों द्वारा किया जाना चाहिए। प्रखण्ड क्षेत्र की नगरपालिकाएँ अपना प्रतिनिधि पंचायत समिति में भेजें। ग्राम पंचायत तथा जिला परिषद के बीच समन्वय के लिए पंचायत समिति बने, जिसमें स्थानीय विधायक एवं सांसद तथा जिलाधीश इसके सदस्य हों।पंचायत समिति का कार्यक्षेत्र व्यापक होना चाहिए- कृशि, उद्योग व सभी क्षेत्रों का विकास कार्य पंचायत समिति के माध्यम से होना चाहिए। केन्द्र या राज्य सरकार से विविध योजनाओं के अन्तर्गत किया जाने वाला व्यय, पंचायत समिति की सलाह से विविध एजेंसियों द्वारा व्यय किया जाना चाहिए। पंचायन समिति के तकनीकी कर्मचारियों को जिला स्तर के अधिकारियों की देख-रेख में काम करना चाहिए। जहाँ तक हो सके क्षेत्र का कार्य पंचायत समिति के द्वारा होना चाहिए, लेकिन यदि यह उन कार्यों को करने में असमर्थ होती है तो कार्य दूसरे को भी सौंपा जा सकता है। जिला परिषद द्वारा पंचायत समिति का बजट स्वीकृत किया जाना चाहिए।
क्षेत्र की आर्थिक व सामाजिक परिस्थितियों को देखते हुए राज्य सरकार की ओर से आर्थिक सहायता देनी चाहिए एवं निर्वाचित जन प्रतिनिधियों कों पर्याप्त प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए ताकि वे कार्य की तकनीकी एवं अन्य जानकारी प्राप्त कर सकें।
पंचायत समिति के वित्तीय र्सोत :- बलवन्त राय मेहता के अनुसार आय के कुछ साधन, कानून बनाकर पंचायत
समिति को सुपुर्द कर दिया जाए-
जिला परिषद में जिले की पंचायत समिति के अध्यक्ष, संसद एवं विधान सभा सदस्य तथा इनके अतिरिक्त चिकित्सा, लोक स्वास्थ्य, कृशि, पषु-चिकित्सा, षिक्षा, सार्वजनिक निर्माण, पिछड़े वर्गों का कल्याण तथा अन्य विकास विभागों में जिला स्तरीय अधिकारी को सम्मिलित किया जाना था। जिलाधीष को जिला परिषद का सभापति तथा उसके एक अन्य अधिकारी को उसका सचिव बनाने का सुझाव था। जिला परिषद की स्थायी समितियों जिनमें से एक समिति वित्त के लिए और एक सेवाओं के लिए गठित किए जाने का भी सुझाव दिया गया था।
- विकास खण्ड से वसूल किया जाने वाला राजस्व का एक भाग
- भूमि सम्बन्धी कर
- व्यावसायिक कर
- मेला कर
- दान एवं सहायता कर
- वाहन कर
जिला परिषद :-
बलवंत राय मेहता समिति प्रस्तावित त्रिस्तीय ढाँचे में जिला परिषद का स्थान सबसे ऊपर था और उसके पास पंचायत समिति एवं ग्राम पंचायत का पर्यवेक्षण करने का अधिकार था।जिला परिषद में जिले की पंचायत समिति के अध्यक्ष, संसद एवं विधान सभा सदस्य तथा इनके अतिरिक्त चिकित्सा, लोक स्वास्थ्य, कृशि, पषु-चिकित्सा, षिक्षा, सार्वजनिक निर्माण, पिछड़े वर्गों का कल्याण तथा अन्य विकास विभागों में जिला स्तरीय अधिकारी को सम्मिलित किया जाना था। जिलाधीष को जिला परिषद का सभापति तथा उसके एक अन्य अधिकारी को उसका सचिव बनाने का सुझाव था। जिला परिषद की स्थायी समितियों जिनमें से एक समिति वित्त के लिए और एक सेवाओं के लिए गठित किए जाने का भी सुझाव दिया गया था।
जिला परिषद के कार्य :- समिति की रिपोर्ट के अनुसार जिला परिषद को निम्न कार्य करना था-
- राज्य सरकार द्वारा दी गयी अनुदान राषि का विभिन्न विकास खण्डवार वितरण।
- विकास खण्ड की योजनओं का समन्वय एवं एकीकृत करना।
- पंचायत समितियों के वार्शिक आय-व्यय का परीक्षण एवं अनुमोदन करना।
- पंचायत समिति द्वारा भेजे गये अनुदान प्रस्ताव को राज्य सरकार को भेजना।
- ब्लाक समितियों के कार्यों का निरीक्षण करना।
बलवंत राय मेहता समिति की सिफारिशों को राष्ट्रीय विकास परिषद (एन.डी.सी.) ने जनवरी 1958 में निम्न रूपों में स्वीकार कर लिया-
- ग्राम से लेकर जिला स्तर तक पंचायत तीन स्तरीय व्यवस्था होनी चाहिए।
- स्थानीय इकाईयों को पर्याप्त उत्तरदायित्वों को पूरा करने के लिए उन्हें पर्याप्त साधन दिये जायें।
- विकास सम्बन्धी सभी कार्य पंचायत राज संस्थाओं के माध्यम से पूरे किये जायें।
वास्तव में ऐसा लगता है कि 30 जनवरी 1948 को भावी भारत के कर्णधारों ने महात्मा गाँधी की कल्पनाओं को उनकी समाधि के साथ दफन कर दिया। उनका उद्देश्य सिर्फ किसी तरह सत्ता में बने रहना हो गया। इसी कारण सरकारी योजनाएँ और गाँधी जी की कल्पना में महत्वपूर्ण अन्तर दिखायी पड़ता है। सरकारी योजनाओं का मुख्य उद्देश्य ग्राम-पंचायत, पंचायत-समिति और जिला परिषद के माध्यम से जनता को विकास का अधिकार और दायित्व सौंपकर विकास कार्यक्रमों में उसका सक्रिय सहयोग प्राप्त करना था। इस –श्टि से लोकतांत्रिक विकेन्द्रीयकरण की दिषा में जो कदम उठाये गये, उनकी एक सीमा थी। वास्तव में यह जिला परिषद के ऊपर राज्य सरकार और केन्द्र सरकार के अधिकार को ज्यों के त्यों रखकर संसदीय व्यवस्था में ही पंचायती राज के लिए, उपयुक्त स्थान पर जगह बनाने की योजना थी; जबकि महात्मा गाँधी पंचायती राज के द्वारा एक ऐसे ग्राम-स्वराज्य की नींव डालना चाहते थे जिसमें सत्ता का केन्द्र जनता हो और उसका प्रवाह नीचे से ऊपर की ओर हो।
पंचायती राज की स्थापना :- मेहता समिति के प्रतिवेदन के बाद राष्ट्रीय स्तर पर त्रिस्तरीय व्यवस्था को
स्वीकार किया गया और पंचायतों को राज्यों का विशय माना गया। 2 अक्तूबर 1959
को सर्वप्रथम पं0 जवाहर लाल नेहरू ने राजस्थान के नागौर जिले में दीप जलाकर
पंचायती राज व्यवस्था की स्थापना की।34 पं0 जवाहर लाल नेहरू ने कहा कि “यह
नये भारत के सन्दर्भ में बहुत ही क्रांतिकारी एवं ऐतिहासिक कदम है।35 पुन: उन्होंने
कहा कि “हमारे धीमी प्रगति का मुख्य कारण हमारी अधिकारी तंत्र पर निर्भरता है।”
अन्त में उन्होंने अपने निश्कर्श में कहा कि, “अब वह समय आ गया है जब लोगों
को विकास कार्यक्रमों और योजनाओं के प्रति उत्तरदायित्वपूर्ण होकर रूचि लेना
चाहिए। मुझे पूर्ण विष्वास हैं कि भारत के प्रत्येक भाग में जहाँ लोग उत्तरदायित्व
को अपना कर्तव्य समझते हैं या रूचि लेते हैं तो इसका परिणाम बहुत ही अच्छा
होगा” कुछ दूसरे अवसरों पर भी उन्होंने अपना विचार व्यक्त करते हुए कहा कि
पंचायती राज ही लोगों का वास्तविक स्वराज्य है।
राज्यों में पंचायती राज : विविधता ओर एकरूपता :- राजस्थान के नागौर जिले से 2 अक्तूबर 1959 को पंचायती राज की नींव रखते हुए पंŒ जवाहर लाल नेहरू ने कहा कि “हम अपने देश में लोकतंत्र के पंचायती राज की आधारषिला रखने जा रहे हैं, यह एक ऐतिहासिक कदम है, यदि आज महात्मा गाँधी जीवित होते तो कितने खुष होते कि यह ऐतिहासिक कदम उनके जन्म दिवस पर उठाया जा रहा है।”
राजस्थान में पंचायत राज की स्थापना के पश्चात पंजाब, महाराष्ट्र, गुजरात, बिहार, मध्य प्रदेश, कर्नाटक, असम, उड़ीसा, उत्तर प्रदेश, पं. बंगाल, हिमाचल प्रदेश आदि राज्यों में भी पंचायती राज की स्थापना हुई। परन्तु पंचायती राज संस्थाओं की संरचना, कार्य, अधिकार, बजट, समय, विभिन्न राज्यों में अलग-अलग रही। सन् 1962 तक विकास परिषद की वार्षिक रिपोट 1972-73 के अनुसार 565 लाख गाँवों मे 2,22050 पंचायती राज संस्थाओं की स्थापना हो चुकी थी।40 किन्तु एकरूपता किसी भी राज्य में नहीं थी। महाराष्ट्र राज्य ने अपने यहाँ पंचायती राज की स्थापना में जिला-परिषद को महत्वपूर्ण स्थिति प्रदान की। जबकि गुजरात, पंजाब, बिहार एवं आन्ध्र प्रदेश राज्यों ने मध्यम मार्ग अपनाया अर्थात उन्होंने पंचायत समिति के साथ-साथ जिला परिषद को भी कुछ कार्यात्मक शक्ति प्रदान की।
उत्तर प्रदेश ने भी पंचायती राज के सम्बन्ध में मध्यम मार्ग को अपनाया और जिला-परिषदों के साथ-साथ बड़ी संख्या में ग्राम पंचायतें स्थापित की। तमिलनाडु और राजस्थान राज्य ने पंचायत समिति को महत्वपूर्ण स्थान प्रदान किया। असम, कर्नाटक, उड़ीसा राज्यों ने बलवंत राय मेहता समिति की अनुषंसाओं को ही साकार रूप प्रदान किया। मध्य प्रदेश में बहुत लम्बे समय के बाद 2 अक्तूबर 1985 में त्रिस्तरीय व्यवस्था स्थापीत की गयी। कष्मीर, केरल, मणिपुर तथा त्रिपुरा में एक पंचायत राज व्यवस्था (केवल ग्राम पंचायत) जबकि मेघालय तथा नागालेण्ड में आदिवासी परिषद गठित की गयी। पंचायती समिति को विभिन्न राज्यों में अलग-अलग नामों यथा- अंचल पंचायत, अंचल परिषद, क्षेत्र समिति, पंचायत समिति, जनपद पंचायत, पंचायत यूनिट, कौंसिल और ब्लाक खण्ड समिति आदि से पुकारा गया।
संक्षेप में देश के 14 राज्यों/संघषासित क्षेत्रों में त्रिस्तरीय प्रणाली तथा 4 राज्यों/संघ शासिक क्षेत्रों में द्विस्तरीय प्रणाली और 9 राज्यों/संघषासित क्षेत्रों में एक स्तरीय प्रणाली लागू की गयी।
चूँकि विभिन्न राज्यों में पंचायतों के स्वरूप में भिन्नता के साथ-साथ शक्ति एवं अधिकार सम्पन्नता में भी अन्तर था। इसलिए समय-समय पर राज्यों ने इन संस्थाओं की कार्यप्रणाली में सुधार सम्बन्धी अनुषंसाएं देने के लिए विभिन्न समितियों का गठन किया, यथा-
1. आंध्र प्रदेश :
- पुरुशोत्तम पाई समिति (1964)
- रामचन्द्र रेड्डी समिति (1965)
- नरसिम्हन समिति (1972)
2. राजस्थान :
- माथुर समिति (1963)
- सादिक अली समिति (1963)
- गिरधारी लाल व्यास समिति (1973)
- हरलाल सिंह खर्रा समिति (1990)
- अरूण कुमार समिति (1996)
- षिवचरण माथुर आयोग (2000) (राजस्थान प्रशासनिक सुधार आयोग)
- गुलाबचन्द्र कटारिया मंत्रिमण्डल उपसमिति (2004-05)
3. महाराष्ट्र :
- वी.पी. नाइक समिति (1961)
- बोंगीरवार समिति (1971)
- पी.बी. पाटिल समिति (1986)
4. उड़ीसा:
- साहू समिति (1958) :
5. मध्य प्रदेश :
- एम.पी. शर्मा समिति (1963)
- मॉडू सिंह समिति (1972)
- गोविन्द सहाय समिति (1959)
- राममूर्ति समिति (1965)
- टी.एन. वर्गीज समिति (1973)
- हरदयाल सिंह समिति (1965)
- श्री वैंकटप्पा समिति (1949-50)
- डी.एच. चन्द्रषंकरेया समिति (1953)
- कोण्डाज्जी बसप्पा समिति (1963)
- पी.आर. नायक समिति (1996)
- पारिख समिति (1960)
- जिना भाई समिति (1972-73)
- रिसबदास शाह समिति (1978)
- बादल समिति (1969)
- के.पी. त्रिपाठी समिति (1963)
- वी. रामचन्द्रन समिति (1988)
1959 से 1977 की अवधि में पंचायती राज व्यवस्था का स्वरूप उत्थान, जड़ता एवं पतन की अवधि :- 1959 ई. तक भारत के सभी राज्यों ने पंचायत अधिनियमों को परित कर दिया था जिसके परिणामस्वरूप देश के सभी भागों में पंचायतों की स्थापना कर दी गयी। इसकेुलस्वरूप देश में 217300 से अधिक ग्राम पंचायतें थी जो 579000 गाँवों के 96 प्रतिषत और ग्रामीण आबादी का 92 प्रतिषत आच्छादित किये हुए थी। औसत रूप से एक पंचायत के अन्तर्गत 2 से 3 गाँव थे जिनकी कुल आबादी लगभग 2400 थी। ब्लाक खण्ड अथवा तहसील स्तर पर 4526 पंचायत समितियाँ थी, जो देश के 88 प्रतिषत ब्लाकों को आच्छादित करती थी। एक पंचायत समिति औसत रूप में लगभग 48 ग्राम पंचायत को आच्छादित करती थी। 330 जिला परिषद थे जो देश के 76 प्रतिषत जिलों को आच्छादित करते थे। प्रत्येक जिला परिषद में औसत रूप से 13-14 पंचायत समितियाँ और लगभग 660 ग्राम पंचायतें थीं।
नि:सन्देह रूप से यह एक प्रभावशाली प्रारम्भ था। इससे ग्रामीण भारत में बहुत अधिक उत्साह उत्पन्न हुआ और जनता ने ऐसा महसूस करना प्रारम्भ किया कि वे अपने दैनिक जीवन को प्रभावित करने वाले मामलें में भी कुछ कह सकते हैं। वे दिन भारत में पंचायती राज संस्थाओं के आशाजनक दिनों में से थे।
सामुदायिक विकास मंत्रालय ने 1964-65 की अपनी रिपोर्ट में बताया कि पंचायती राज संस्थाओं के माध्यम से युवा और बेहतर नेतृत्व आगे आ रहा है तथा उनके कामकाज से जनता में काफी सन्तोष है।
राजस्थान के पंचायती राज का मूल्यांकन करने के लिए 1962 में एसोसिएशन ऑफ वालंटरी एजेंसीजुॉर रूरल डेवलपमेंट (अवार्ड) द्वारा नियुक्त अध्ययन दल ने ऐसी ही टिप्पणी की : ‘ऐसी रिपोर्ट मिली है कि जनता को यह महसूस हो रहा है कि अपना भविष्य बनाने के लिए उसे पर्याप्त अधिकार मिले है। उसे इस बात का पूरा ज्ञान है कि जो विशेषाधिकार और लाभ पहले बी0डी0ओ0 के नियंत्रण में थे, वे अब उसके नियंत्रण में है। इस अर्थ में लोकतांत्रिक विकेन्द्रीयकरण का पूरा लाभ हासिल कर लिया गया है।
अध्ययन दल ने आगे बताया कि जनप्रतिनिधियों को अधिकार सौंपे जाने के कारण प्राथमिक स्कूल में अध्यापकों की स्थिति में सुधार हुआ है, ब्लाक प्रशासन अधिक उत्तरदायी हो गया है, प्रधानों के सम्मुख जनता अपनी शिकायतें रख रही है और उनके माध्यम से राहत पा रही है तथा सबसे अधिक अधीनस्थ कर्मचारियों तथा नव निर्वाचित नेताओं में व्याप्त भ्रष्टाचार में कमी आयी है, क्योंकि ब्लाक कर्मचारी अब पंचायत समिति के अधीनस्थ कर दिये गये हैं तथा नेताओं के पुन: निर्वाचित होने के लिए जनता के बीच प्रधानों की प्रतिष्ठा जरूरी हैं। दूसरें शब्दों में, पंचायती राज संस्थाओं ने स्थानीय सरकार के सभी कार्य पूरे किये और लोकतंत्र की नर्सरियों - बल्कि उसके प्राथमिक स्कूलों के रूप में कार्य किया। पंचायती राज संस्थाओं के द्वारा उत्पन्न रूचि के कारण कई राज्यों ने उसकी कार्य प्रणाली के आकलन एवं उसमें सुधार लाने के उपायों की सिफारिश करने के लिए समितियाँ गठित की।
इस प्रकार 1959 से 1964 के बीच की अवधि पंचायती राज व्यवस्था के लिए उत्थान की अवधि थी।
दुर्भाग्यवष यह उत्साह स्थिर नहीं रह सका क्योंकि यह वांछित लोकतांत्रिक गति को विकसित नहीं कर सका और ग्रामीण विकास की आवश्यकताओं को पूरा करने में यह असफल हो गया। इस व्यवस्था को बहुत सारी समस्याओं का सामना करना पड़ा। इसमें से कुछ निम्न समस्याएँ थीं-
- विकास की प्राथमिकताओं में परिवर्तन।
- स्थानीय स्वषासन के सिद्धान्त के विषय में समझदारी की कमी। 3. मदों की कमी।
- विभिन्न राज्यों द्वारा अपनाये गये पंचायती राज पद्धति में एकरूपता का न होना।
- राजनैतिक एवं अफसरषाही का राज्य स्तर पर प्रतिरोध और स्थानीय स्तर की संस्थाओं के साथ सत्ता एवं र्सोतों में हिस्सेदारी करना।
यदि नियमित रूप से चुनाव सम्पन्न हुए होते तो मुद्दों पर आधारित समूह उत्पन्न हो सकते थे, हर स्तर पर समीकरण बदल सकते थे तथा पारम्परिक प्रतिद्विन्द्वताएँ समाप्त हो सकती थी। इस प्रक्रिया से एक नये मार्ग का निर्माण होता जिससे लोगों को राय देने की व्यक्तिगत स्वतंत्रता तथा सामूहिक विचार-विमर्श का उद्भव होता। लेकिन इस प्रक्रिया को राज्य सरकारों ने पंचायत चुनावों को जान-बूझ कर बार-बार स्थगित कर अथवा बिल्कुल न करवा कर वर्षों तक रोके रखा। इसलिए राष्ट्रीय योजना आयोग द्वारा गठित समिति ने भी पंचायतों के चुनाव नियमित रूप से न करवाने पर चिंता जतायी थी।51 ऐसा प्रतीत होता है कि स्थानीय निहित स्वार्थों तथा राज्य विधान मण्डलों एवं संसद में उनके द्वारा निर्वाचित प्रतिनिधियों की यह सोची-समझी साजिष थी कि पंचायती राज को पहले अपंग बना दिया जाय और अन्ततोगत्वा उनका परित्याग कर दिया जाये, क्योंकि उनके उत्कर्ष से वे भयभीत थे।
संक्षेप में कहा जा सकता है कि सत्ताधारी लोग जनता के साथ अधिकारों का विभाजन करने के लिए तैयार नहीं थे। अपवाद के रूप में महाराष्ट्र, गुजरात, कर्नाटक और पं0 बंगाल को छोड़कर अन्यत्र इन संस्थाओं को या तो अधिग्रहित कर लिया गया अथवा उनके संचालन के लिए नाममात्र की स्वतंत्रता प्रदान की गयी। जिसके कारण अपरिहार्य रूप से उनको पतन की ओर ले गयी।
यदि गहनता से दृष्टि पात किया जाए तो इसकी शुरूआत 1960 में ही दिखायी देती है जब सरकार ने सामुदायिक विकास कार्यक्रमों की उपेक्षा करते हुए गहन जिला कृशि कार्यक्रम (आई.ए.डी.पी.) शुरू किया और योजना बनाने वाले लोग अन्य विकास सम्बन्धी योजनाओं को प्रारम्भ करने के लिए परीक्षण करने में व्यस्त थे। जेसे 1960 के दषक में हरित क्रांति और 1970 के दषक में विकास सम्बन्धी योजनाओं पर लक्षित समूह दृष्टिकोण (Target Groupapproach)। यह आंशिक रूप से रातो-रात खाद्य सम्बन्धी नीति में परिवर्तन दिखाने और आंशिक रूप से निर्धन समूहों तक लाभ पहुँचाने वाले तथा लक्षित समूहों तक पहुँचने की उत्सुकता के कारण थी। 1961 में ही जय प्रकाश नारायण समिति ने एक स्वतंत्र कार्यक्रम बनाने में सरकार के भीतर मौजूद दोहरे सोच और अंतर्विरोध पूर्ण स्थिति को रेखांकित करते हुए टिप्पणी की थी, कि योजना बनाने और उसके कार्यान्वयन के लिए पंचायती राज को एक एजेंसी के रूप में स्वीकार कर लेने के बाद ़कोई वैद्य कारण नहीं रह जाता कि मदवार आवंटन जारी रखे जायें - भले ही वह मार्गदर्षिका के रूप में हो’।53 स्पष्टतः: वह सामुदायिक विकास मंत्रालय आई.ए.डी.पी. की शुरूआत से नाखुश थे।
पंचायती राज की स्थापना के कुछ समय बाद ही तरह-तरह की अन्य योजनाएँ शुरू की गयी और पंचायत राज की तरफ ध्यान देना लगभग बंद कर दिया गया, जिससे इस मत को बल मिला कि न केवल सामुदायिक विकास मंत्रालय, बल्कि सामाजिक विकास परियोजना का भी स्तर गिरा दिया गया है।
1971 ई. में सामुदायिक विकास मंत्रालय को खाद्य एवं कृशि मंत्रालय में सम्मिलित कर लिया गया और 1971 में ही ‘ सामुदायिक विकास’ को ‘ग्राम विकास’ में तब्दील कर दिया गया। यह केवल एक दिखावटी बदलाव नहीं था। एल.सी. जेन के अनुसार तो ‘इससे परिवर्तन का एजेण्डा तथा विकास के अभिकरण के रूप में ‘समुदाय तथा पंचायतों दोनों का ही खात्मा हो गया।
इस प्रकार सम्भ्रांत राजनेता और नौकरशाह एक दूसरे से मिल गये। पेषेवर राजनेता नहीं चाहते थे कि स्थानीय नेतृत्व की नयी पौध उनकी शक्ति को कम करे। इसलिए यह कहना शत-प्रतिषत सही है कि, नौकरशाही, व्यापारिक स्वार्थ, मध्यम वर्ग, पुलिस तथा राजनेता लोकतांत्रिक विकेन्द्रीयकरण के खिलाफ, एकजुट हो गये और एक परिकल्पना (अभिधारणा) तैयार करके यह प्रचारित किया कि सभी निर्वाचित ‘निहित स्वार्थों’ के मुकाबले केन्द्रीकृत नौकरशाही गरीब ग्रामीणों को ज्यादा लाभ पहुँचा सकती है। इसलिए रजनी कोठारी का यह कथन सत्य ही हैं कि, ‘शहरी अधिकारी वर्ग तथा धनी ग्रामीणों का एक ऐसा अभेद्य गठबन्धन बन गया, जिससे गरीब ग्रामीणों को दूर रखा गया’।
स्थानीय शक्तियों, राज्य तथा केन्द्र स्तर के राज नेताओं के साथ मिलकर नौकरशाही ने पंचायती राज प्रणाली की कमियों को बढ़ा-चढ़ाकर दर्शाते हुए उसे बदनाम करना शुरू कर दिया एवं स्थानीय निकायों में प्रभावशाली लोगों का दबदबा होने के कारण आम आदमी का रुझान पंचायती राज व्यवस्था में नहीं रहा और यह प्रणाली अन्ततः: पतन की ओर अग्रसित होती गयी।
संक्षेप में पंचायती राज व्यवस्था 1965 ई. और 1969 ई. के बीच जड़ता की स्थिति में चली गयी तथा 1969 ईŒ से 1977 ई. के दौरान पतन की ओर बढंती चली गयी। स्थानीय स्वषासन पद्धति विकसित तो हुई किन्तु भारत के संविधान द्वारा दिये गये वचन (वादों) मे कमजोर होने लगी। जब विकास सम्बन्धी योजनाकारों ने पुन: यह अनुभव किया कि विकास सम्बन्धी योजनाओं में सामुदायिक भागीदारी सम्भवत: लक्ष्य की ओर नहीं बढ़ रही है और निर्धनता की स्थिति में बहुत कम सुधार दिखायी पड़ रहा है तो उन्होंने 1970 के दषक में पंचायती राज के माध्यम से स्थानीय स्वषासन की ओर पुन: देखना प्रारम्भ किया ताकि ग्रामीण विकास को प्रारम्भ किया जा सके। 1977 ई. में राष्ट्रीय स्तर पर सत्ता परिवर्तन होने पर सरकार द्वारा अशोक मेहता समिति गठित की गयी, ताकि पंचायती राज पद्धति पर नई दृष्टि डाली जा सके।
सन्दर्भ -
- रिपोर्ट ऑफ दी टीमुार द स्टडी ऑफ कम्युनिटी प्रोजेक्टस नेषनल एक्सटेंषन सर्विस, वाल्यूम-1, कमिटी ऑन दी प्लान प्राजेक्ट, नई दिल्ली, 1957, पृ. 5।
- रिपोर्ट ऑफ दी टीमुार द स्टडी ऑफ कम्युनिटी प्रोजेक्टस नेषनल एक्सटेंषन सर्विस, वाल्यूम-1, कमिटी ऑन दी प्लान प्रोजेक्ट, नई दिल्ली, 1957, पृ. 7।
- रिपोर्ट ऑफ दी टीमुार द स्टडी ऑफ कम्युनिटी प्रोजेक्टस नेषनल एक्सटेंषन सर्विस, वाल्यूम-1, कमिटी ऑन दी प्लान प्रोजेक्ट, नई दिल्ली, 1957।
- महेष्वर दत्त : गाँधी का पंचायत राज, दिल्ली, 2003, पृ. 63।
- श्री शरण : पंचायती राज और लोकतंत्र, दिल्ली, 2001, पृ. 66।
- रिपोर्ट ऑफ दी टीमुार द स्टडी ऑफ कम्युनिटी प्रोजेक्टस नेषनल एक्सटेंषन सर्विस, वाल्यूम-1, कमिटी ऑन दी प्लान प्रोजेक्ट, नई दिल्ली, 1957।
- महेष्वर दत्त : पूर्वोधृत, पृ. 64।
- रिपोर्ट ऑफ दी टीमुार द स्टडी ऑफ कम्युनिटी प्रोजेक्टस नेषनल एक्सटेंषन सर्विस, वाल्यूम-1, कमिटी ऑन दी प्लान प्रोजेक्ट, नई दिल्ली, 1957।
- अवध प्रसाद : भारत में ग्राम पंचायतों के पच्चीस वर्श, दिल्ली, 1978 पृ. 28। 105 34 एम. असलम : पूर्वोधृत, पृ. 21।
- राजस्थान के नागौर में पंचायती राज का शुभारम्भ करते हुए पं0 जवाहर लाल नेहरू का हिन्दी में भाषण, 2 अक्तूबर 1959, उदृधृत हिन्दुस्तान टाइम्स, 3 अक्तूबर 1959।
- 5 मई, 1989 को नई दिल्ली में पंचायती राज पर मुख्यमंत्रियों के सम्मेलन को सम्बोधित करते हुए प्रधानमंत्री श्री राजीव गाँधी का भाषण, उद्धृत राजीव गाँधी : पंचायती राज जन-जन के द्वार पर लोकतंत्र और विकास, नई दिल्ली, मई 1989, पृ. 4। 37 एम. असलम : पूर्वोधृत, पृ. 21।
- नागौर (राजस्थान) में पंचायती राज का शुभारम्भ करते हुए पं0 जवाहर लाल नेहरू द्वारा एक विशाल जनसभा में दिया गया भाषण, 2 अक्तूबर, 1959, उद्धृत, डॉŒ नीतू रानी पंचायती राज व्यवस्था, सिद्धान्त एवं व्यवहार, दिल्ली, 2010 पृ. 72।
- जार्ज मैथ्यू, पूर्वोधृत, पृŒ 18।
- एसोसिएषन ऑफ वालंटरी एजेंसीजुॉर रूरल डेवलपमेंट (अवार्ड), राजस्थान में पंचायत राज पर अध्ययन दल की रिपोर्ट (नयी दिल्ली, 1962) उद्धृत, जार्ज मैथ्यू : पूर्वोक्त पृ. 18। 112
- जार्ज मैथ्यू, पूर्वोधृत, पृ. 19।
- हस्नत अब्दुल हई : (सम्पादन) डिससेन्ट्रलाइजेषन, लोकल गवर्नमेंट इन्स्टीट्यूषन और रिसोर्स मोबाइलाइजेषन बी.ए.आर.डी., बंग्लादेश, 1985, उद्धृत एमŒ अस्लम पूर्वोधृत, पृ. 22।
- अभिजित दत्त : भारत में विकेन्द्रीकरण तथा स्थानीय सरकार सुधार, इण्डिया जनरल ऑफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेषन, खण्ड 31, संख्या-3, जुलाई-सितम्बर 1985, पृ. 562।
- डेमोक्रेटिक वल्र्ड : 22 जनवरी, 1978। 51 ग्रामीण विकास तथा गरीबी उन्मूलन कार्यक्रमों के लिए मौजूदा प्रषासनिक व्यवस्थाओं का पुनर्वीक्षण (कार्ड) रिपोर्ट, ग्राम विकास विभाग, कृशि मंत्रालय, नई दिल्ली, 1985, पृ. 41।
- प्लानिंग एट ग्रास रूट लेवल : एन ऐक्षन प्रोग्रामुॉर द इलेवन्थुाईव इयर प्लान -रिपोर्ट ऑफ द एक्सपर्ट ग्रुप, मिनिस्ट्री ऑफ पंचायती राज, नई दिल्ली, मार्च 2006, उद्र्धत एम. असलम, पूर्वोधृत, पृ. 23।
- एल. सी. जैन, ग्रास विदाउट रूट्स, नई दिल्ली, 1985, पृŒ 39; उद्धृत जार्ज मैथ्यू पूर्वोधृत, पृ. 19।
- एल. सी. जैन, पूर्वोक्त, पृ. 40। 55 पूर्वोक्त, पृ. 40। 56 जार्ज मैथ्यू, पूर्वोधृत, पृ. 21। 116
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