काशीनाथ सिंह का जीवन परिचय
काशीनाथ सिंह का जन्म बनारस के जीयनपुर गाँव के एक सामान्य कृषक परिवार में आपका जन्म 1 जनवरी 1937
को हुआ। ग्रामीण परिवेश में जन्म होने के कारण आपका पालन-पोषण भी सामान्य ही था।
काशीनाथ सिंह की माता का नाम बागेश्वरी और पिता का नाम नागर सिंह था।
आपके पिता जीयनपुर गाँव के पहले मिडिल पास व्यक्ति थे।
काशीनाथ सिंह जी ने पिता को याद
करते हुए ये शब्द व्यक्त किए हैं,
‘‘मेरे पिताजी मुदर्रिस थे। हम उन्हें बाबू बोलते थे। सीधे-साधे चुप्पा किस्म के आदमी। सोलह रुपये
माहवार से नौकरी शुरू की थी उन्होंने। यह सदी जिससे हमारा अंत होने जा रहा है- उनके साथ
शुरू हुई थी। सन् 1984 में चौरासी साल की उम्र में चल बसे।
उनकी कई खूबियाँ थी। तेज इतना चलते थे कि उनके साथ चलने वाले पीछे-पीछे दौड़ते से
लगते थे। साल में कुछ एक मौकों पर हँस भी लेते थे। कभी बीमार नही पड़े, कोई दवा नही खाई,
अस्पताल में मरने के सिर्फ एक दिन पहले गये- अंतिम बार। एक बार सिला कुर्ता-धोती तब तक
चलाते थे जब तक उसमें प्यौना और चकतियों के लिए जगह रहती थी। खुद सबुनाते औरुÈचते
थे। बेटों की कमाई को कभी अपना नही समझा। कभी किसी से उधार नही लिया। मरे तो कफन
और श्राद्ध के लिए पेंशन के पैसे छोड़कर।”
पिता नागर सिंह की तरह काशीनाथ सिंह और उनके भाईयों का भी स्वाभिमानी व्यक्तित्व है। पिता की समस्त विशेषताएँ उन सभी भाईयों में समाहित है। पिता के दृढ़ स्वाभिमानी स्वभाव के संस्मरण की चर्चा करते हुए कहते हैं, ‘‘उन्हें अपने बेटों पर गर्व था, लेकिन जाहिर नही करते थे। जब दूसरे उनके ‘सौभाग्यशाली पिता’ होने की चर्चा करते तो वे सिर झुका ऐसे सुनते जेसे उनसे कोई अपराध हुआ हो। कभी-कभी वे उनकी प्रशंसा सुनने की इच्छा से बेटों की भत्र्सना भी करते थे।”
काशीनाथ सिंह की माता बागेश्वरी थी। वह सरल और निश्छल स्वभाव की थी। उनकी माता में भोला-भालापन और गँवईपन स्पष्ट झलकता था। काशीनाथ सिंह जी अपनी माँ के भोले-भाले स्वभाव और सादगी को व्यक्त करते हुए कहते हैं, ‘‘माँ पिता जी के एकदम उलट थी- स्वभाव में भी आदतों में भी। नाम बागेश्वरी मगर अपढ़। किसी की पढ़ाई का आतंक उस पर कभी नही देखा गया। बेटों को पढाने के लिए गहना-गुरिया, बर्तन-भाड़ा सब कुछ बेचने को तेयार। अक्सर पिता से झगड़ पड़ती इसके लिए। हमेशा खुशी, हँसी, उल्लास और उत्साह से भरी हुई। कोई ऐसा मूरत नही जिसके लिए उसके पास गीत न हों। इतने कि रात बीत जाये और वे चूके नही गाते-गाते रोती थी और रोते-रोते गाने लगती थी। कहानियाँ इतनी याद कि हर शाम घराने से सारे बच्चे जुट जाते। अहिरान, लोहरान, कहरान कही भी चली जाती थी उनके सुख-दुख में गाने बजाने।
‘‘एकदम सरल और निश्छल। लोलार्क कुंड आने पर जब उसने देखा कि यहाँ लोगों को बुलाने के लिए नाम में ‘जी’ जोड़ते हैं तो वह हिन्दी विभाग के चपरासी को ‘चपरासीजी’ कहती थी। हेलियों-मेलियों से ही नही, कुंड पर आने वाले देशी-विदेशी लोगों से भी भोजपुरी में ऐसे बतियाती थी जेसे एक जमाने का परिचय हो।”
काशीनाथ सिंह में पिता के स्वाभिमानी स्वभाव की तरह माँ के निश्चल, सरल और गँवईपन वाले स्वभाव की छाया भी स्पष्ट दिखाई देती है। काशीनाथ सिंह का गाँव से, गाँव के लोगों से, वहाँ की गलियों, खेत-खलिहानों, कहानी-किस्सों से अटूट-सा बंधन है। गाँव की चर्चा निकलते हैं वे अतीत के गलियारों में कही गुम हो जाते हैं। गाँव-देहात के किस्से जुबाँ पर खुद-ब-खुद आ जाते हैं।
काशीनाथ सिंह के व्यक्तित्व के गठन में अनेक गाँव की भी विशेष भूमिका रही है। वे स्वयं कहते हैं कि ‘‘जिसे हम प्रकृति कहते हैं उस प्राकृतिक सौन्दर्य से भरापूरा गाँव था। इसके सिवा शादी-ब्याह के मौकों पर, तीज-त्यौहार पर कभी-कभी आते थे- नाई-कहार जो किस्से कहानियाँ सुनाया करते थे- रात-रात भर। उन्हें सुनने में मेरी बड़ी दिलचस्पी थी। सोने से पहले मैं बराबर किस्से सुना करता था। वहाँ से जब शहर आया तो जाहिर है कि वे सारी यादें मेरे साथ आयÈ। कहानी कहने का ढंग, कहानी कहने का शिल्प, ये उन्हÈ नाई-कहारों से और माँ से मैंने सीखा। मुझे याद आ रहा है कि शुरूआत में मैंने एक कहानी लिखी थी- ‘सुख’ और सुख कहानी में ताड़ों के पीछे डूबते हुए सूरज का दृश्य है। दरअसल वह कहानी लिखी गयी थी बनारस में लेकिन मेरी आँखों के सामने मेरे गाँव का डूबता हुआ वही सूरज था। इस कारण आप चाहे तो कह सकते हं कि वे प्राकृतिक दृश्य, कहानी कहने की शैली, इन सबकी बड़ी भूमिका है- मेरे कथाकार होने में।”
ग्रामीण परिवेश से मिली साहित्यिक धरोहर आज भी उनके लेखन में स्पष्ट दिखाई देती है। भाई - हिन्दी साहित्य के सुप्रसिद्ध समालोचक नामवर सिंह कथाकार काशीनाथ सिंह के बडे़ भाई तथा राम जी सिंह उनके मँझले भाई हैं। सुप्रसिद्ध आलोचक नामवर सिंह कथाकार काशीनाथ सिंह के अग्रज हैं। वे उनके ज्येष्ठ भाई ही नही अपितु शिक्षक भी रहे हैं। काशीनाथ सिंह के व्यक्तित्व निर्माण में जिनका गाँव और परिवेश का योगदान रहा है। उससे कही ज्यादा योगदान नामवर सिंह का है। साहित्य में समर्पण तथा संस्कार का भाव उन्होंने अपने बड़े भाई नामवर सिंह से ही जाना। काशीनाथ सिंह ने अपनी पुस्तक ‘आलोचना भी रचना है’ में लिखा है, ‘‘नामवर सिंह का भाई होने के नाते नुकसान चाहे जितना हुआ, लाभ यह हुआ कि साहित्य कर्म को मैंने गम्भीरता से लेना सीखा। उसे पार्ट टाइम या शौकिया कभी नही समझा। साहित्य के प्रति समर्पण और पूर्ण समर्पण हमने उनसे सीखा।”
काशीनाथ सिंह के मँझले भाई रामजी को (अग्रज) ज्येष्ठ और अनुज की तरह पढाई-लिखाई में कोई विशेष रुझान न था। आज भी उन्हें मुहल्ले के बच्चों के साथ गुल्ली-डंडा खेलने में विशेष रुचि है। उन्हें कभी भी साहित्य और साहित्यकारों के काल्पनिक, निरर्थक और भैरूपीयापन में कोई रूचि नही रहा। उन्हें काशीनाथ सिंह की कृतियाँ भी पसंद नही है। किन्तु रामजी सिंह को काशीनाथ सिंह का संस्मरण ‘देख तमाशा लकड़ी का’ तथा रिपोर्ताज ‘संतों घर में झगरा भारी’ बेहद पसंद है।
पिता नागर सिंह की तरह काशीनाथ सिंह और उनके भाईयों का भी स्वाभिमानी व्यक्तित्व है। पिता की समस्त विशेषताएँ उन सभी भाईयों में समाहित है। पिता के दृढ़ स्वाभिमानी स्वभाव के संस्मरण की चर्चा करते हुए कहते हैं, ‘‘उन्हें अपने बेटों पर गर्व था, लेकिन जाहिर नही करते थे। जब दूसरे उनके ‘सौभाग्यशाली पिता’ होने की चर्चा करते तो वे सिर झुका ऐसे सुनते जेसे उनसे कोई अपराध हुआ हो। कभी-कभी वे उनकी प्रशंसा सुनने की इच्छा से बेटों की भत्र्सना भी करते थे।”
काशीनाथ सिंह की माता बागेश्वरी थी। वह सरल और निश्छल स्वभाव की थी। उनकी माता में भोला-भालापन और गँवईपन स्पष्ट झलकता था। काशीनाथ सिंह जी अपनी माँ के भोले-भाले स्वभाव और सादगी को व्यक्त करते हुए कहते हैं, ‘‘माँ पिता जी के एकदम उलट थी- स्वभाव में भी आदतों में भी। नाम बागेश्वरी मगर अपढ़। किसी की पढ़ाई का आतंक उस पर कभी नही देखा गया। बेटों को पढाने के लिए गहना-गुरिया, बर्तन-भाड़ा सब कुछ बेचने को तेयार। अक्सर पिता से झगड़ पड़ती इसके लिए। हमेशा खुशी, हँसी, उल्लास और उत्साह से भरी हुई। कोई ऐसा मूरत नही जिसके लिए उसके पास गीत न हों। इतने कि रात बीत जाये और वे चूके नही गाते-गाते रोती थी और रोते-रोते गाने लगती थी। कहानियाँ इतनी याद कि हर शाम घराने से सारे बच्चे जुट जाते। अहिरान, लोहरान, कहरान कही भी चली जाती थी उनके सुख-दुख में गाने बजाने।
‘‘एकदम सरल और निश्छल। लोलार्क कुंड आने पर जब उसने देखा कि यहाँ लोगों को बुलाने के लिए नाम में ‘जी’ जोड़ते हैं तो वह हिन्दी विभाग के चपरासी को ‘चपरासीजी’ कहती थी। हेलियों-मेलियों से ही नही, कुंड पर आने वाले देशी-विदेशी लोगों से भी भोजपुरी में ऐसे बतियाती थी जेसे एक जमाने का परिचय हो।”
काशीनाथ सिंह में पिता के स्वाभिमानी स्वभाव की तरह माँ के निश्चल, सरल और गँवईपन वाले स्वभाव की छाया भी स्पष्ट दिखाई देती है। काशीनाथ सिंह का गाँव से, गाँव के लोगों से, वहाँ की गलियों, खेत-खलिहानों, कहानी-किस्सों से अटूट-सा बंधन है। गाँव की चर्चा निकलते हैं वे अतीत के गलियारों में कही गुम हो जाते हैं। गाँव-देहात के किस्से जुबाँ पर खुद-ब-खुद आ जाते हैं।
काशीनाथ सिंह के व्यक्तित्व के गठन में अनेक गाँव की भी विशेष भूमिका रही है। वे स्वयं कहते हैं कि ‘‘जिसे हम प्रकृति कहते हैं उस प्राकृतिक सौन्दर्य से भरापूरा गाँव था। इसके सिवा शादी-ब्याह के मौकों पर, तीज-त्यौहार पर कभी-कभी आते थे- नाई-कहार जो किस्से कहानियाँ सुनाया करते थे- रात-रात भर। उन्हें सुनने में मेरी बड़ी दिलचस्पी थी। सोने से पहले मैं बराबर किस्से सुना करता था। वहाँ से जब शहर आया तो जाहिर है कि वे सारी यादें मेरे साथ आयÈ। कहानी कहने का ढंग, कहानी कहने का शिल्प, ये उन्हÈ नाई-कहारों से और माँ से मैंने सीखा। मुझे याद आ रहा है कि शुरूआत में मैंने एक कहानी लिखी थी- ‘सुख’ और सुख कहानी में ताड़ों के पीछे डूबते हुए सूरज का दृश्य है। दरअसल वह कहानी लिखी गयी थी बनारस में लेकिन मेरी आँखों के सामने मेरे गाँव का डूबता हुआ वही सूरज था। इस कारण आप चाहे तो कह सकते हं कि वे प्राकृतिक दृश्य, कहानी कहने की शैली, इन सबकी बड़ी भूमिका है- मेरे कथाकार होने में।”
ग्रामीण परिवेश से मिली साहित्यिक धरोहर आज भी उनके लेखन में स्पष्ट दिखाई देती है। भाई - हिन्दी साहित्य के सुप्रसिद्ध समालोचक नामवर सिंह कथाकार काशीनाथ सिंह के बडे़ भाई तथा राम जी सिंह उनके मँझले भाई हैं। सुप्रसिद्ध आलोचक नामवर सिंह कथाकार काशीनाथ सिंह के अग्रज हैं। वे उनके ज्येष्ठ भाई ही नही अपितु शिक्षक भी रहे हैं। काशीनाथ सिंह के व्यक्तित्व निर्माण में जिनका गाँव और परिवेश का योगदान रहा है। उससे कही ज्यादा योगदान नामवर सिंह का है। साहित्य में समर्पण तथा संस्कार का भाव उन्होंने अपने बड़े भाई नामवर सिंह से ही जाना। काशीनाथ सिंह ने अपनी पुस्तक ‘आलोचना भी रचना है’ में लिखा है, ‘‘नामवर सिंह का भाई होने के नाते नुकसान चाहे जितना हुआ, लाभ यह हुआ कि साहित्य कर्म को मैंने गम्भीरता से लेना सीखा। उसे पार्ट टाइम या शौकिया कभी नही समझा। साहित्य के प्रति समर्पण और पूर्ण समर्पण हमने उनसे सीखा।”
काशीनाथ सिंह के मँझले भाई रामजी को (अग्रज) ज्येष्ठ और अनुज की तरह पढाई-लिखाई में कोई विशेष रुझान न था। आज भी उन्हें मुहल्ले के बच्चों के साथ गुल्ली-डंडा खेलने में विशेष रुचि है। उन्हें कभी भी साहित्य और साहित्यकारों के काल्पनिक, निरर्थक और भैरूपीयापन में कोई रूचि नही रहा। उन्हें काशीनाथ सिंह की कृतियाँ भी पसंद नही है। किन्तु रामजी सिंह को काशीनाथ सिंह का संस्मरण ‘देख तमाशा लकड़ी का’ तथा रिपोर्ताज ‘संतों घर में झगरा भारी’ बेहद पसंद है।
काशीनाथ जी स्वयं कहते हैं कि ‘‘मेरे मँझले भाई रामजी सिंह को साहित्यकारों को
निकम्मा बेमतलब का, निरर्थक,फलतू और गरजू कहते थे, वे कभी-कभी मुँह पर और कभी-कभी
पीठ पीछे उनकी भयंकर भत्र्सना करते थे।” काशीनाथ सिंह के कथ्य (विचारों) से स्पष्ट होता है
कि आप के मँझले भाई को साहित्यिक दुनिया से कोई सरोकार नही है।
साहित्य के अनेक विषयों पर दोनों भाईयों की चर्चा-परिचर्चा होती रहती थी, इसी दौरान काशीनाथ सिंह को साहित्य संबंधी अनेक बातें सीखने को मिलती रही। बनारस में रहते हुए नामवर सिंह से मिलने तथा विचार-विमर्श करने के लिए अनेक कवि-लेखक-कथाकार आते रहते थे। ऐसे अवसर पर उन्हें अनेक कतिपय लोगों से सम्पर्क हो जाया करता था।
साहित्य के अनेक विषयों पर दोनों भाईयों की चर्चा-परिचर्चा होती रहती थी, इसी दौरान काशीनाथ सिंह को साहित्य संबंधी अनेक बातें सीखने को मिलती रही। बनारस में रहते हुए नामवर सिंह से मिलने तथा विचार-विमर्श करने के लिए अनेक कवि-लेखक-कथाकार आते रहते थे। ऐसे अवसर पर उन्हें अनेक कतिपय लोगों से सम्पर्क हो जाया करता था।
काशीनाथ सिंह की शिक्षा
काशीनाथ सिंह की शिक्षा पर दृष्टि डाली जाए तो ज्ञात होता है कि उनकी आरंभी शिक्षा
गाँव जीयनपुर में हुई है। सन 1953 में ‘अमर शहीद विद्या मंदिर’ से हाई स्कूल पास करने के
उपरांत वे अपने मँझले भाई रामजी सिंह के साथ बनारस चले आये। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से
सन् 1949से लेकर 1964 तक वे ‘ऐतिहासिक व्याकरण कार्यालय’ में शोध-सहायक रहे। ‘हिन्दी में
संयुक्त क्रियाएं’ विषय पर उन्होंने शोध-प्रबंध लिखा, प्रस्तुत शोध-प्रबंध पर उन्हें सन् 1963 में काशी
हिन्दू विश्वविद्यालय से पी.एच.डी. प्रदान की गयी।
काशीनाथ सिंह का कार्य क्षेत्र
सन् 1964 में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में उन्हें अस्थायी तौर पर
लेक्चररशिप मिल गयी। उसके बाद जुलाई 1965 में उन्हें पुन: प्राध्यापक पद पर नियुक्त किया
गया। इस बीच उन्हें अनेक संघर्षों से भी गुजरना पड़ा। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग
में सन् 1965 से सन् 1996 तक प्राध्यापक से लेकर प्रोफेसर के रूप में कार्यरत रहे। सन् 1991 से
1994 तक विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में आचार्य एवं अध्यक्ष पद बने रहे। दिसम्बर 1996 में
काशीनाथ सिंह काशी हिन्दू विद्यालय के हिन्दी विभागाध्यक्ष पद से सेवा निवृत्त हुए।
साहित्य लेखन की प्रेरणा : काशीनाथ सिंह को आरंभ से ही अपने अग्रज नामवर सिंह के फलस्वरूप साहित्यिक वातावरण प्राप्त हुआ। निरन्तर साहित्यिक वातावरण में रहने के कारण काशीनाथ के मन में भी हिन्दी साहित्य-सृजन एवं मनन के प्रति आस्था उत्पन्न हुई। काशीनाथ सिंह को आरंभ से ही कथा-साहित्य में विशेष रूचि थी। सन् 1960 के आस-पास उन्होंने लिखना आरंभ कर दिया। वे जो भी कहानियाँ लिखते, उन सभी कहानियों के प्रति नामवर सिंह के विचार जानने के लिए दिखाते। नामवर सिंह उन कहानियों को पढ़ उन पर पेंसिल से सुझाव भी अंकित कर देते थे।
साहित्य लेखन की प्रेरणा : काशीनाथ सिंह को आरंभ से ही अपने अग्रज नामवर सिंह के फलस्वरूप साहित्यिक वातावरण प्राप्त हुआ। निरन्तर साहित्यिक वातावरण में रहने के कारण काशीनाथ के मन में भी हिन्दी साहित्य-सृजन एवं मनन के प्रति आस्था उत्पन्न हुई। काशीनाथ सिंह को आरंभ से ही कथा-साहित्य में विशेष रूचि थी। सन् 1960 के आस-पास उन्होंने लिखना आरंभ कर दिया। वे जो भी कहानियाँ लिखते, उन सभी कहानियों के प्रति नामवर सिंह के विचार जानने के लिए दिखाते। नामवर सिंह उन कहानियों को पढ़ उन पर पेंसिल से सुझाव भी अंकित कर देते थे।
पेंसिल द्वारा दिए जाने वाले सुझाव के संदर्भ में काशीनाथ सिंह जी लिखते हैं, ‘‘मैंने
लगकर दो-तीन रातों में एक कहानी लिखी- छोटी सी। मैंने बहुत कोशिश की लेकिन नाम नही
सूझा। यह मेरा शुरूआती दौर था। जब कहानी बनती थी तो शीर्षक नही सूझता था और शीर्षक
होता था तो कहानी नही बनती थी। मैंने उन्हें कहानी दी। जब पढ़ लिया तो बुलाया, ‘देखो, मैंने
कुछ नही किया है’, कहानी तो सिर्फ ‘एक अर्थ’ दे दिया है। इसका शीर्षक है- ‘सुख’!
यही एक कहानी जिसमें पेंसिल का कही निशान नही था। वरना वे पढ़ने के बाद अक्सर कहा
करते कि ऐसे नही ऐसे लिखा होता तो और बेहतर रहा होता, या इसमें सबकुछ है, कहानी नही है,
या इसी थीम को जरा यूँ देखो, या इसका अंत ऐसा हो तो केसा हो। मैं तंग आ जाता. उस
आदमी को संतुष्ट कर सकना हमेशा मुश्किल रहा है मेरे लिए।”
बड़े भाई नामवर सिंह के दिल्ली जाने के उपरांत ही वे सही अर्थों में स्वतंत्र लेखन कर पाए। अपनी प्रतिभा को अपने ढंग से प्रस्फुटित कर सके। किसी तरह का बंध या रोक-टोक या मीनमेक न होने की वजह से वे मुक्त रूप में अपने विचारों को प्रस्तुत कर सके।
बड़े भाई नामवर सिंह के दिल्ली जाने के उपरांत ही वे सही अर्थों में स्वतंत्र लेखन कर पाए। अपनी प्रतिभा को अपने ढंग से प्रस्फुटित कर सके। किसी तरह का बंध या रोक-टोक या मीनमेक न होने की वजह से वे मुक्त रूप में अपने विचारों को प्रस्तुत कर सके।
काशीनाथ सिंह की प्रमुख रचनाएं
उपन्यास
- अपना मोर्चा
- काशी का अस्सी
- रेहन पर रग्घू
- महुआचरित
- उपसंहार
कहानी संग्रह
- लोग बिस्तरों पर
- सुबह का डर
- आदमी नाम
- नई तारीख
- कल कीुटेहाल कहानियाँ
- प्रतिनिधि कहानियाँ
- सदी का सबसे बड़ा आदमी
- दस प्रतिनिधि कहानियाँ
- कहानी उपाख्यान
नाटक
- घोआस
आलोचना / समीक्षा
- याद हो कि न याद हो
- आछे दिन पाछे गए
साक्षात्कार
- गपोडी से गपशप
काशीनाथ सिंह की उपलब्धियाँ
- केंद्रीय साहित्य अकादमी पुरस्कार
- शरद जोशी सम्मान
- साहित्य भूषण सम्मान
- कथा सम्मान
- राजभाषा सम्मान
- समुच्चय सम्मान
‘रेहन पर रग्घू’ उपन्यास के लिए 2011 में साहित्य अकादमी पुरस्कार।
Tags:
काशीनाथ सिंह