18 पुराणों के नाम और उनका संक्षिप्त परिचय

पुराण का वास्तविक अर्थ 'प्राचीन' है। इसके सम्बन्ध में प्राचीन मनीषियों का यह शंखनाद है कि कोई द्विज चारों वेदों तथा वेदागों उपनिषदों का ज्ञाता भले ही हो, यदि वह पुराण से अनभिज्ञ है, तो उसे विचक्षण - चतुर एवं शास्त्र - कुशल नहीं माना जा सकता हे। वेद हमारे सनातन धर्म के सर्वप्रामाणिक एवं प्राचीन ग्रन्थ है - इसमें कोई सन्देह की बात नहीं परन्तु वेद का उपबृहण करने वाला पुराण इसी कारण वेद का पूरक माना जाता है। 

18 पुराणों के नाम और उनका संक्षिप्त परिचय

पुराणों की संख्या प्राचीन काल से 18 मानी गयी है। अठारह पुराणों का नाम प्राय: प्रत्येक पुराण में उपलब्ध होता है। उनके क्रम में अन्तर तो मिलता है किन्तु उनकी संख्या में कोई अन्तर नहीं मिलता। महापुराण तो 18 हैं ही, उपपुराणों की संख्या थी 18 ही मानी गयी है। एक प्रसिद्ध “लोक में 18 पुराणों के प्रथम अक्षर लेकर उनकी गणना की गयी है। 

मद्वयं भद्वयं चैव ब्रत्रयं वचतुश्टयम्।
अनापलिंग कूसकानि, पुराणानि प्रचक्षते।।
 
इसमें 18 पुराणों का उल्लेख इस प्रकार से है- म वाले 2, भ वाले 2, ब्र वाले 3, व वाले 4 तथा अ, ना, प, लिंग, ग, कू तथा स्क से प्रारम्भ होने वाले एक-एक। 2+2+3+4+7=18। इनके नाम क्रमष: इस प्रकार हैं- 
  1. मत्स्थ, 
  2. मार्कण्डेय, 
  3. भविष्य 
  4. भागवत, 
  5. ब्रह्माण्ड, 
  6. ब्रह्मवैवर्त, 
  7. ब्रह्म, 
  8. वामन, 
  9. वराह, 
  10. विष्णु, 
  11. वायु (शिव), 
  12. अग्नि, 
  13. नारद, 
  14. पाराशर, 
  15.  लिंग, 
  16. गरुड़, 
  17. कूर्म, 
  18. स्कन्दपुराण।
इस पुराणों का महत्व हमारे लिए धर्मशास्त्र एवं नीतिशास्त्र के सदृश है। ये अनेक शास्त्रों के उपयोगी ज्ञान के कोश हैं। पुराण भारतीय इतिहास के प्राचीन अंधकारमय युगों के प्रकाश-स्तम्भ भी हैं। प्राचीन भोगोलिक स्थिति का ज्ञान भी हमें इनके द्वारा प्राप्त होता है। 

इस प्रकार पुराणों को आर्य संस्कृति का कोश तथा भारतीय विद्याओं का विष्वकोश कहने में कोई अत्युक्ति न होगी। भागवत पुराण ने सभी पुराणों की सूची एवं “लोक संख्या इस प्रकार दिया है-

बह्म दषसहस्त्राणि पाद्मं पंचानेशश्टि च।
श्री वैश्णव त्रयोविषच्चतुविंषति रोवकम्।।
दषाश्टो श्रीभागवत नारद पंचविंषति:।
मार्कण्डं नवं वाहनं च दषपच्च चतु:षतक।।
चतुदर्ष भविश्यं स्यात्तथा पंचषातानि च।
दषाश्टो ब्रह्मवैवर्त लिंग मेकादषेव तु।।
चतुर्विषति वाराहमे काषीतिसहस्त्रकम्।
स्कान्दं शतं तथा चैकं वामनं दषकीर्तितम्।।
कोर्म सप्तदषाख्यातं मात्स्यं तक्षु चतुर्दष।
एकोन विंषत्सोपर्ण ब्रह्माण्ड द्वादषेव तु।।
एव पुराणसंदोहष्च तुलक्ष उदाहृत्त:।

मत्स्यपुराण में प्राचीनता की छाप लिए हुए पुराणों की जो सूची प्रस्तुत की गयी है उसके अनुसार भी पुराणों की संख्या अठारह ही बतायी गयी है। पपुराण ने सात्विक, राजस तथा तामस-इन तीन प्रकार के वर्णों में सभी पुराणों का विभाजन किया है।

संस्कृत साहित्य में 18 संख्या अत्यन्त पवित्र व्यापक और गौरवषाली मानी जाती है। महाभारत में पर्वों की संख्या भी 18 है। श्रीमद्भगवद्गीता के अध्यायों की संख्या भी 18 है तथा भागवत्पुराण में “लोकों की संख्या भी 18 हजार है। इसी प्रकार पुराणों की प्रामाणिक संख्या भी 18 मानी गयी है। शतपथ ब्राह्मण के अश्टम् काण्ड में सृष्टि नामक इश्टियों के उपाधान का जो विधान है वहाँ 17 इश्टिकाओं के रखने का कारण बताया गया है। कारण यही है कि तत्सम्बद्ध सृश्टि भी 17 प्रकार की है तथा उसका उदय प्रजापति से होता है जिससे दोनों को एक साथ मिलाने पर सृष्टि के सम्बन्ध में 18 के संख्या की निश्पत्ति होती है।

इस प्रकार सृष्टि से अश्टादष संख्या को सम्बद्ध होने के हेतु पुराणों को अश्टादषविध मानना उचित ही है।

सांख्य दष्रन की सृष्टि प्रक्रिया पुराणों में स्वीकृत की गयी है। सांख्य में 25 तत्त्व स्वीकृत किये गये हैं। इन तत्त्वों की समीक्षा से इसके स्वरूप का परिचय मिलता है। पुरुष तथा प्रकृति तो नित्य मूलस्थानीय तत्त्व है, जिनकी सृश्टि नहीं होती। इन से इतर तत्त्व हैं- महत् तत्त्व, अहंकार, पंच तन्मात्राएँ = 7 प्रकृति-विकृति, केवल विकृति = 16 (मन को मिलाकर 11 इन्द्रियाँ तथा पंच महाभूत पृथ्वी, जल, तेज वायु ओर आकाष)। 

इस योजना में तन्मात्रों से ही महाभूतों का साक्षात् सम्बन्ध है, अन्तर केवल स्वरूप का है। तन्मात्र होते हैं सूक्ष्म ओर महाभूत होते हैं, स्थूल। इसके स्वरूप का वैषिश्ट्य न मानकर दोनों को एकत्र गणना की जाती है। लत: 25 तत्त्वों में से इन सात तत्त्वों को निकाल देने पर सूक्ष्म मान तत्त्वों की संख्या 18 ही होती है ओर सृष्टि-प्रतिपादक पुराणों की संख्या का 18 होना इस तर्क से भी प्रमाणित माना जा सकता है।

इस प्रकार पुराणों के अश्टादष होने के अनेक हेतु उपस्थित हैं। पुराण मुख्य रूप से पुराण पुरुश-परमात्मा का ही प्रतिपादन करता है। आत्मा स्वरूपत: एक ही है, परन्तु उपाधि तथा अवस्था को विभिन्नता के कारण वह 18 प्रकार का होता है। 

इन अठारहों प्रकार के आत्मा का प्रतिपादन होने के कारण पुराण भी 18 प्रकार के माने गये हैं।  9 गरुड़ पुराण में 18 उपपुराणों के श्री नाम इस प्रकार गिनाये गये हैं- 
  1. सनत्कुमार 
  2. नारसिंह, 
  3. स्कन्द (शिवपुराण) 
  4. शिवधर्म, 
  5. आश्चर्य, 
  6. नादरीय, 
  7. कपिल, 
  8. वामन, 
  9. ओषनस, 
  10. ब्रह्माण्ड, 
  11. वरुण, 
  12. कालिका 
  13. माहेष्वर, 
  14. साम्ब, 
  15. सोर, 
  16. पराषर, 
  17. मारीच, 
  18. भार्गव।
इसमें अनेक महत्त्वपूर्ण पुराणों को छोड़ दिया गया है, जबकि वामन ब्रह्माण्ड जैसे पुराणों को सम्मिलित कर लिया गया है। अन्य उल्लेखों में चण्डीपुराण, मानवपुराण, गणेषपुराण, नंदपुराण, विश्णुधर्मोंत्तरपुराण, दुवा्रसापुराण, माहेष्वरपुराण, भार्गवपुराण, कल्किपुराण आदि को जोड़कर पुराणों की संख्या तीस या इससे भी अधिक कर दी गयी है।

‘देवी भागवत’ में स्कान्द, वामन, ब्रह्माण्ड, मारीच ओर भार्गव के स्थान पर क्रमष: शिव, मानव, आदित्य, भगवान ओर वषिश्ठ नाम दिये गये हैं। इनके नाम, संख्या, महापुराण या उपपुराण में गणना के विषय में पया्रप्त मतभेद है। उपपुराणों में सवा्रधिक प्रचालित पुराण षिवपुराण है। इसमें स्रोत खण्ड तथा 24000 “लोक हैं। शिव की उपासना, शैव धर्म तथा दर्शन ओर शिव विषयक कथाओं का यह प्रामाणिक तथा विस्तृत संग्रह है। दूसरा अत्यधिक प्रचलित उपपुराण देवी भागवत है। भ्रमवश कहीं-कहीं भागवत पुराण को भी देवी भागवत समझ लिया जाता है जबकि देवी भागवत महापुराण से सर्वथा पृथक स्वतन्त्र पुराण है। 

यह शाक्त पुराण है तथा देवी या शक्ति की पूजा, उनके अवतारों ओर तद्विशयक कथाओं का विपुल संग्रह इसमें हुआ है। इसका रचनाकाल नवीं से ग्यारहवी शताब्दी ई. के मध्य माना गया है। देवी के विभिन्न रूप इस पुराण में वण्रित है, जिनमें राधा के चरित्र को महिमान्वित किया गया है।

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