रोग क्या है रोग के प्रकार?

शरीर में जब किसी प्रकार का कष्ट या तकलीफ होता है या जब स्वास्थ्य हमारा साथ नहीं देता हम अपने स्वाभाविक कार्य को ठीक प्रकार से नहीं कर पाते, तब हम कहते हैं कि हमें रोग हो गया या हम बीमार हो गए।  जब हमारा खान-पान अनियमित या प्रकृति विरूद्ध हो, आहार-विहार दूषित होता है, चिन्तन चरित्र विकृत होता है तो हमारे शरीर में धीरे-धीरे विजातीय द्रव्य जिसे हम मल, विकार, विष, संचित दुर्द्रव्य, दोष आदि के नामों से जानते हैं, इकठ्ठा होता रहता है और अंतमें हमारा शरीर रूपी घट रोग रूपी विष से लबालब भर जाता है, जिसे प्रकृति अपने नियमानुसार उसे बाहर निकालना चाहती है, क्योंकि इस विष रूपी विजातीय द्रव्य की आवश्यकता शरीर को बिल्कुल नहीं रहती। प्रकृति उसे निकालने हेतु अनेकों तरीकों को अपनाती है, उन्हीं को रोग का नाम देते हैं। स्वास्थ्य की परिवर्तित अवस्था को ही रोग कहते हैं।

रोग का अर्थ

रोग का अर्थ शरीर, मन एवं आत्मा की उस अवस्था से है जिसमें शरीर, मन एवं आत्मा अपने सामान्य कार्यों को सामान्य रुप से सम्पादित करने में असक्ष्म होते हैं। शरीर के सामान्य कार्यों में श्वसन, पाचन, उत्सर्जन, रक्त परिसंचरण, व गतिशीलता आदि क्रियाओं अर्थात कार्यों का वर्णन आता है, वह अवस्था जब शरीर अपने इन कार्यो को सामान्य रुप से करने में असक्ष्म होता है, शारीरिक रोग कहलाते हैं। 

इसी प्रकार मन के सामान्य कार्यो में मानसिक सोच-विचार, मनन-चिन्तन, व मानसिक संवेग- आवेग आदि क्रियाओं का समावेश होता है, वह अवस्था जब मन अपने इन कार्यों को सामान्य रुप से करने में असक्ष्म होता है, मानसिक रोग अथवा मनोरोग कहलातें हैं। वह अवस्था जब आत्मा में ऊर्जा (आध्यात्मिक ऊर्जा) की कमी हो जाती है तथा आत्महीनता की अवस्था उत्पन्न होती है, आध्यात्मिक रोग कहलाते हैं। 

रोग का अर्थ शरीर, मन एवं आत्मा की उस नकारात्मक अवस्था से भी होता है जिसमें शरीर , मन, व आत्मा की ऊर्जा में ह्रास हो जाता है। ऊर्जा में ह्रास होने पर शरीर, मन एवं आत्मा की अपने कार्यो के प्रति सक्रियता कम हो जाती है तथा इनके कार्यों में असन्तुलन उत्पन्न हो जाता है। शरीर में ऊर्जा की कमी होने पर यह स्वंम को कार्य करने में असक्ष्म अनुभव करता है , ठीक इसी प्रकार मन व आत्मा में भी ऊर्जा की कमी होने पर यें स्वंम को कार्य करने में असक्ष्म अनुभव करते हैं, इस अवस्था के अन्र्तगत शरीर, मन एवं आत्मा में एकरुपता का अभाव हो जाता है।  

रोग की परिभाषा

रोग के अर्थ को अलग- अलग चिकित्सा पद्धतियों में अलग-अलग रुपों में परिभाषित किया गया है- 

आक्सफोर्ड शब्दकोश के अनुसार- रोग शरीर के या शरीर के किसी अंग की वह दशा है जिसमें इसके कार्य बाधित होते हैं या व्यतिक्रमित होते हैं।

बेवस्टर शब्दकोष के अनुसार- रोग एक असुविधा, एक दशा जिसमें शारीरिक स्वास्थ्य गंभीर रूप से प्रभावित होता है, विघटित होता है, या व्यतिक्रमित होता है, स्वास्थ्य की दशा से गमन, मानव शरीर में बदलाव जिससे महत्वपूर्ण कार्य प्रकाशित होते हैं।

एलोपैथी चिकित्सा के अनुसार- शरीर में भौतिक कारणों से रासायनिक असन्तुलन होने पर अथवा बाहय रोगाणु के संक्रमण होने पर शरीर की चयापचय दर सन्तुलन का बिगडने का अर्थ रोग है।

विलियम हाॅवर्ड, एम.डी. के अनुसार- ‘‘प्रत्येक रोग शरीर में संचित विष को सहन की सीमा के अतिक्रमण का दूसरा नाम है।’

आयुर्वेद के अनुसार- आयुर्वेद शास्त्र में शरीर के वात पित्त व कफ नामक त्रिदोषों, अग्नियों, धातुओं व मलों की विषम अवस्था को रोग के अर्थ में लिया जाता है। इसके साथ साथ इन्द्रियों, मन व आत्मा की प्रसन्न अवस्था स्वास्थ्य जबकि इनकी दुखद का अर्थ रोग है।

लुई कारनारो के अनुसार- ‘‘जब शरीर अस्वस्थ होता है, तब उसे आराम चाहिए न कि भोजन और दवाईयाँ।’’

प्राकृतिक चिकित्सा के अनुसार- प्राकृतिक चिकित्सा में शरीर की उत्पत्ति का आधार पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु व आकाश नामक पंचमहाभूतों को माना गया गया है, शरीर में इन पंचमहाभूतों का समयोग स्वास्थ्य तथा इन महाभूतों की विषम अवस्था का अर्थ रोग है।

विलियम ओसलर के अनुसार- ‘‘प्रकृति जिसे आरोग्य नहीं कर सकती उसे कोई भी आरोग्य नहीं कर सकता।’’

एक्यूप्रेशर चिकित्सा के अनुसार- एक्यूप्रेशर चिकित्सा में शरीर के आन्तरिक अगों की ऊर्जा को स्वास्थ्य के अर्थ में लिया जाता है, शरीर से इस ऊर्जा के क्षय का अर्थ रोग है। इसके साथ साथ शरीर में विषाक्त तत्वों (होमोटाक्सिन्स) की श्रृख्ंला बनने का अर्थ रोग है।

लुई कूने के अनुसार- ‘‘शरीर के भीतर विजातीय द्रव्य के जमा होने का ही नाम रोग है।’’

डाॅ. टाॅमस सिडेनहम के अनुसार- ‘‘प्रत्येक रोग रोगी के शरीर में स्वास्थ्य को वापस लाने की प्राकृतिक चेष्टा के अतिरिक्त और कुछ नहीं होता।’’

पं. श्रीराम शर्मा आचार्य के अनुसार- ‘‘रोग प्रकृति की वह प्रक्रिया है जिससे शरीर की सफाई होती है। शरीर से मल और रोगों के हटाने के प्रयत्न को रोग कहते हैं।’’

होसिया बैलू- ‘‘बीमारी प्रकृति के साथ किये हुए अत्याचार का प्रतिकार है।’’

रोग के कारण 

शास्त्रों व विद्वानों के मत में रोग के विभिन्न कारण बताये गए हैं। प्रत्येक कार्य के पीछे कोई न कोई कारण अवश्य होता है तो रोग होने के पीछे भी कोई कारण तो अवश्य ही है। ज्योतिष शास्त्र के अनुसार, रोग का कारण ग्रह नक्षत्रों के प्रभाव को माना गया है। तांत्रिक ओझा आदि भूत-प्रेत बाधा को रोग का कारण मानते हैं।

एलोपैथी जिसे आधुनिक चिकित्सा शास्त्र कहते हैं, में अधिकांश रोगों का कारण जीवाणुओं को माना जाता है। आयुर्वेद के अनुसार, त्रिदोष (वात, पित्त, कफ) के कुपित होने को रोग का कारण माना गया है।

रोग के कारण के संदर्भ में अलग अलग चिकित्सा पद्धतियां अलग अलग धारणाएं रखती है, जिनका संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है- 

(क) एलोपैथी चिकित्सा (आधुनिक चिकित्सा विज्ञान) के अनुसार- एलोपैथी चिकित्सा पद्धति के अनुसार शरीर में बाहय रोगाणु (जीवाणु अथवा विषाणु) का संक्रमण रोग का मूल कारण है। बाहय रोगाणु के संक्रमण होने से शरीर में अनेक असामान्य एवं असहज लक्षण रोग के रुप में प्रकट होते हैं। बाहय भौतिक कारण (दुर्घटनाएं व प्रदूषण) रोग के प्रमुख कारण हैं। इसके साथ साथ भोजन से शरीर लिए आवश्यक पोषक तत्व प्राप्त नही होने पर शरीर में रोग उत्पन्न होते हैं। 

शरीर में स्रावित होने वाले हार्मोन्स भी रोगों के लिए जिम्मेदार होते हैं। शरीर में हार्मोन्स के असन्तुलन होने पर भी शरीर में रोग उत्पन्न होते हैं। 

(ख) आयुर्वेद चिकित्सा के अनुसार- आयुर्वेद चिकित्सा पद्धति के अनुसार विकृत आहार विहार रोग का मूल कारण होता है। विकृत आहार विहार के कारण शरीर के वात पित्त कफ नामक त्रिदोषों में विकृति उत्पन्न होती है, जिसके कारण शरीर में रोग उत्पन्न होते हैं। विकृत आहार विहार के कारण ही शरीर की धातुओं एवं मलों में विषमता उत्पन्न होती है। ये विषमताएं विभिन्न रोगों को उत्पन्न करती है। 

(ग) प्राकृतिक चिकित्सा के अनुसार- प्राकृतिक चिकित्सा पद्धति में अप्राकृतिक जीवन यापन एवं अप्राकृतिक आहार विहार को रोग के मूल कारण के रुप में स्वीकार किया जाता है। इसके अनुसार अप्राकृतिक जीवन यापन एवं अप्राकृतिक आहार विहार के कारण शरीर में विजातीय पदार्थो का भण्डारण होने लगता है । जब शरीर में विजातीय विषों की मात्रा अधिक हो जाती है तब इन विषों को शरीर से बाहर निकालने के लिए शरीर को रोग का सहारा लेना पडता है। 

(घ) एक्यूप्रेशर चिकित्सा के अनुसार- एक्यूप्रेशर चिकित्सा पद्धति के अनुसार कार्य करते समय शरीर में विषक्त तत्वों (होमोटाक्सिन्स) की उत्पत्ति होती है। शरीर में ये विषाक्त तत्व एक श्रृख्ंला का निर्माण कर लेते हैं। यह श्रृख्ंला जिस अंग अथवा स्थान पर बनती है, उस अंग अथवा स्थान में ऊर्जा प्रवाह बाधित हो जाता है परिणाम स्वरूप उस अंग से सम्बन्धित रोग उत्पन्न हो जाता है। 

(घ) योग चिकित्सा एवं प्राण चिकित्सा के अनुसार- योग चिकित्सा एवं प्राण चिकित्सा के अनुसार शरीर में जीवनी शक्ति का ह्रास होना ही रोग का मूल कारण है। विकृत आहार विहार एवं योगमय जीवनशैली के स्थान पर भोगमय जीवनशैली (दिनचर्या, रात्रिचर्या व ऋतुचर्या का पालन नही करना) का अनुकरण करने से जब शरीर में विषाक्त तत्वों की मात्रा बढ जाती है तब शरीर की जीवनी शक्ति कम हो जाती है तथा शरीर रोगों से ग्रस्त हो जाता है।

रोग के प्रकार

स्वास्थ्य की दृष्टि से मानव शरीर के तीन पहलू बताये हें- 1.आध्यात्मिक, 2. मानसिक और 3. शारीरिक।

1. शारीरिक रोग

आधुनिक विज्ञान मानव शरीर को कुल ग्यारह तंत्रों में विभाजित करता है। जब तक शरीर के ये तंत्र अपने कार्यों को भली भातिं सम्पादित करते रहते हैं तब तक यह शरीर स्वस्थ बना रहता है किन्तु जब इन तंत्रों में विकार उत्पन्न हो जाता है और ये तंत्र अपने कार्यों को भली भातिं सम्पादित करने में असक्ष्म हो जाते हैं, शरीर की यह अवस्था शारीरिक रोग कहलाती है। मनुष्य के शारीरिक रोगों को हम इस प्रकार वर्गीकरत कर सकते हैं- 

1. पाचन तंत्र के रोग: पाचन तंत्र के द्वारा भोजन के पाचन, अवशोषण एवं निष्कासन की क्रिया को सही प्रकार नही करने की अवस्था पाचन तंत्र के रोग कहलाती है। इसके अन्र्तगत अपच, एसाडिटी, मधुमेह एवं कब्ज आदि रोगों का वर्णन आता है। 

2. श्वसन तंत्र के रोग: श्वसन तंत्र के द्वारा बाहय वायुमण्डल से आक्सीजन एवं शरीर से कार्बन डाई आक्साइड के आदान प्रदान की क्रिया को सही प्रकार नही करने की अवस्था श्वसन तंत्र के रोग कहलाती है। इसके अन्र्तगत खांसी, जुकाम एवं दमा आदि रोगों का वर्णन आता है।

3. उत्सर्जन तंत्र के रोग: उत्सर्जी पदार्थो को शरीर से बाहर निकालने की क्रिया को सही प्रकार नही करने की अवस्था उत्सर्जन तंत्र के रोग कहलाती है। इसके अन्र्तगत वृक्क शोथ, वृक्क प्रदाह, वृक्क में पथरी एवं बहुमूत्र आदि रोगों का वर्णन आता है। 

4. अस्थि तंत्र के रोग: शरीर को आकार प्रदान करने वाली अस्थियों एवं उपास्थियों में विेकृति अस्थि तंत्र के रोग कहलाती है। इसके अन्र्तगत हड्यिों में टेडापन तथा जोडों मे दर्द आदि रोगों का वर्णन आता है। 

5.  पेशिय तंत्र के रोग: शरीर को गति प्रदान करने वाली माॅसपेशियों की विेकृति पेशिय तंत्र के रोग कहलाती है इसके अन्र्तगत पेशियों में दर्द, पेशियों में जकडन तथा पेशियों में सूजन आदि रोगों का वर्णन आता है। 

6. अध्याावरणीय तंत्र के रोग: सम्पूर्ण शरीर को सुरक्षात्मक आवरण प्रदान करने वाली त्वचा से सम्बन्धित रोग अध्याावरणीय तंत्र के रोग कहलाती है। इसके अन्र्तगत त्वचा में खुजली, दाने, फोडे फुसीं आदि रोगों का वर्णन आता है। 

7. रक्त परिसंचसण तंत्र के रोग: सम्पूर्ण शरीर में परिभ्रमण करने वाली शरीर की महत्वपूर्ण धातु रक्त एवं हृदय की विकृति रक्त परिसंचरण तंत्र के रोग कहलाती है। इसके अन्र्तगत रक्त अल्पता, उच्च व निम्न रक्तचाप तथा हृदय से सम्बन्धित रोगों का वर्णन आता है। 

8. अन्तःस्रावी तंत्र के रोग: विभिन्न हार्मोन्स के द्वारा शरीर की चयापचय दर को सन्तुलित करने वाली अन्तःस्रावी ग्रन्थियों से सम्बन्धित रोग अन्तःस्रावी तन्त्र के रोग कहलाते है। इसके अन्र्तगत मधुमेह, थायराइड, बौनापन व बाँझपन आदि रोगों का वर्णन आता है। 

9.  प्रतिरक्षा तंत्र के रोग: बाहय वातावरण में उपस्थित विषाणुओं, जीवाणुओं एवं रोगाणुओं से शरीर की सुरक्षा सही प्रकार नही करने की अवस्था प्रतिरक्षा तंत्र के रोग कहलाती है। इसके अन्र्तगत जुकाम, बुखार एवं हैजा आदि रोगों का वर्णन आता है। 

10. तंत्रिका तंत्र के रोग: शरीर की आन्तरिक एवं बाहय क्रियाओं को नियंत्रित करने वाले मस्तिष्क एवं नाडियों द्वारा सही प्रकार कार्य नही करने की अवस्था तंत्रिका तंत्र के रोग कहलाती है। इसके अन्र्तगत नर्वस विकनैस, दुर्बल स्मरण शक्ति, हाथों व पैरौं में कम्पन्न एवं तंत्रिकाओं से सम्बन्धित रोगों का वर्णन आता है। 

11. प्रजनन तंत्र के रोग: अपने वंश को आगे बढाने हेतु अपने समान रुप रंग एवं गुण कर्म स्वभाव वाली सन्तान उत्पन्न करने की क्षमता में कमी की अवस्था प्रजनन तंत्र के रोग कहलाती है। इसके अन्र्तगत बाँझपन आदि रोगों का वर्णन आता है। 

2. मानसिक रोग

मनुष्य द्वारा मानसिक क्रियाओं अथवा कार्यों को भली प्रकार सम्पादित नही कर पाने की अवस्था मानसिक रोग कहलाती है। मन में अपनी एक विषेश प्रकार की ऊर्जा होती है जिसे मानसिक ऊर्जा की संज्ञा दी जाती है। इसके माध्यम से विभिन्न मानसिक कार्य किए जाते हैं, विषयों पर विचार मंथन किया जाता है, तर्क वितर्क किया जाता है, पूर्व की अनुभूतियों को संचित किया जाता है तथा भविष्य की योजनाओं का निर्माण किया जाता है। 

जब इस मानसिक ऊर्जा में वृद्धि अथवा कमी (असन्तुलन) हो जाती है तब इस असन्तुलन की अवस्था में उपरोक्त मानसिक कार्य भली भांति सम्पादित नही हो पाते अथवा इन मानसिक कार्यो में बाधा उत्पन्न होने लगती है, इस अवस्था को मानसिक रोग अथवा मनोरोग कहा जाता है। 

कुछ विद्वानों द्वारा इसकी व्याख्या मानव व्यवहार के साथ जोडकर करते हुए कहा गया है कि यदि किसी मनुष्य के व्यवहार में सकारात्मकता का अभाव है तथा वह व्यक्ति दूसरों के साथ अपना सामंजस्य स्थापित नही कर पाता है तब उस व्यक्ति को मानसिक रोगी की श्रेणी में रखा जा सकता है। अध्ययन के दृष्टिकोण से मानसिक रोगों को मुख्य रुप से दो वर्गों में विभाजित किया जा सकता है- 

1. उत्तेजनात्मक प्रभाव वाले मानसिक रोग: इसके अन्र्तगत उन मनोरोगों का वर्णन आता है जिसमें मानसिक ऊर्जा में असामसन्य रुप से वृद्धि हो रही होती है। मानसिक तनाव, उद्विग्नता, क्रोध, ईष्या, बैचेनी एवं अनिन्द्रा, आदि रोग इस वर्ग के रोग हैं। 

2. शामक प्रभाव वाले मानसिक रोग: इसके अन्र्तगत उन मनोरोगों का वर्णन आता है जिसमें मानसिक ऊर्जा में असामसन्य रुप से कम हो जाती है। मानसिक अवसाद, उत्साह का अभाव, चिन्ता, घबराहट, स्मरण शक्ति में कमी, अतिनिन्द्रा व आलस्य आदि रोग इस वर्ग के रोग हैं। प्रिय विधार्थियों मानसिक रोगों का प्रभाव मन के साथ साथ शरीर पर भी पडता है। मन की असन्तुलित ऊर्जा शरीर का चयापचय दर को भी असन्तुलित कर देती है जिससे शरीर के तंत्रों में विकृति (शारीरिक रोग) उत्पन्न हो जाती है। उदाहरण के लिए मानसिक तनाव की अवस्था में उत्तेजक हार्मोन्स का स्रावण अधिक मात्रा में होने के कारण रक्तचाप बढ जाता है, जो हृदय पर प्रतिकूल प्रभाव रखता हुआ हृदय रोग को जन्म देता है। 

इस प्रकार मानसिक तनाव का सम्बन्ध हृदय के साथ स्वीकार करते हुए आधुनिक चिकित्सक अधिकांश शारीरिक रोगों को रोगों को मनोशारीरिक रोगों की श्रेणी में रखते हैं जिनकी उत्पत्ति मन से होने के बाद जिनका प्रभाव सम्पूर्ण शरीर पर पडता है। 

आयुर्वेद में रोगों के दो प्रकार कहे गये हैं -
  1. निज और
  2. आगुन्तक।
निज उन्हें कहते हैं, जिन रोगों में पहले बात, पित्त एवं कफ का प्रकोप होता है, तब रोग की उत्पत्ति होती है। आगुन्तक रोग वे कहे गये हैं, जो वाह्य आघात के कारण उत्पन्न होते हैं और उनकी उत्पत्ति के पश्चात दोशों का प्रकोप होता है। अर्थात् प्रत्येक रोग में तीनों दोष कारण स्वरूप होते ही हैं, इसलिए यह निर्देश दिया गया है कि यदि किसी रोग में दोष नहीं बतलाया गया है, तब भी चिकित्सक का यह कर्तव्य है कि वह दोशों के लक्षणों का अनुसन्धान कर तदनुसार चिकित्सा करें।

पहला रोगों की उत्पत्ति का मूल कारण (Cause), निदानं त्वादिकारणम्। द्वितीय कारण रोगों की उत्पत्ति के उपायों का निदान (Diagnosis) कहते हैं। निष्चित्य दीयते प्रतिपाद्यते व्याधिरनेन इति निदानम्। निदान का मुख्य अर्थ, कारण है। रोग क्यों और कैसे हुआ या कैसे होता है, इसका विवेचन रोग की उत्पत्ति के कारण एवं निदानस्थान है। रोग विज्ञान में पाँच बातें स्पष्ट होती हैं -
  1. निदान-रोग के कारण का ज्ञान।
  2. पूर्वरुप-रोग की उत्पत्ति से पूर्व के लक्षण।
  3. रुप, लिंग या लक्षण-उत्पन्न हुए रोग के चिºन।
  4. उपषय-रोगनाषार्थ ओषधि, आहार-विहार का उपयोग।
  5. संप्राप्ति-शरीर में कौन सा दोष या रोग कब और किस समय बढ़ता है या घटता है, इसका विचार करना

निरोग रहने के उपाय

भोजन पर नियन्त्रण, दैनिक कार्यों को नियमित रुप से करना, समस्त कार्यों में अनासक्ति की भावना, ठीक समय सोना, और ठीक समय पर उठना। सूर्य की किरणों का सेवन प्रातःकाल उदय होते हुए, सूर्य की किरणों को 5 से 15 मिनट तक छाती पर लेना। जाड़े के दिनों में सूर्य की किरणों को नग्न शरीर पर लेना और धूप स्नान करना चाहिए। जीवनीशक्ति देने वाली आक्सीजन की प्राति के लिए प्रातः: आधा या एक घण्टा शुद्ध हवा में घूमना चाहिए। साथ ही साथ खुली हुइर् हवा में 15-20 लम्बे की सांस लेना चाहिए।
  1. हरी घास पर या ओस पर नंगे पाँव आधा घण्टा तक घूमना चाहिए। स्वच्छ जल प्रतिदिन कम से कम 2 लीटर पीना।
  2. जल में कोईदोश हो तो उसे उबालकर और ठंडा करके बर्तन में रखें और तब पीने चाहिए।
  3. प्रतिदिन व्यायाम, भ्रमण और योगासन रोगों को दूर करते हैं।
भोजन पर नियन्त्रण रखें भूख से कुछ कम खायें, भोजन थोड़ा और खूब चबाकर खायें, गरिष्ठ भोजन हानिकारक है। प्रतिदिन स्वच्छ जल से स्नान करना चाहिए। मादक द्रव्यों का सेवन न करें। ओषधियों का सेवन भी बहुत कम करें। रहने और सोने के कमरों में शुद्ध वायु और प्रकाश की व्यवस्था होनी चाहिए। 

उत्तेजक पदार्थों का सेवन, कामोत्तेजक अश्लील दृश्यों का देखना या अश्लील साहित्य का पठन स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है। सदा प्रसन्नचित्त रहें, चिन्ता को दूर भगायें। दान, दया परोपकार आदि के कार्य मनुष्य का प्रसन्नचित्त रखते है और उनकी जीवनी शक्ति बढ़ाते हैं।

सन्दर्भ-
  1. मानव शरीर रचना एवं क्रिया विज्ञान- प्रो0 अनन्त प्रकाश गुप्ता, सुमित प्रकाशन, आगरा।
  2. शरीर और शरीर क्रिया विज्ञान - मंजु तथा महेश चन्द्र गुप्ता, सांई प्रिन्ट, नई दिल्ली।
  3. स्वस्थवृत्त विज्ञान- प्रो0 रामहर्ष सिंह , चैखम्बा संस्कृत प्रतिष्ठान, दिल्ली।
  4. प्राकृतिक आयुर्विज्ञान- डा0 राकेश जिन्दल, आरोग्य सेवा प्रकाशन, मुरादनगर (उ0 प्र0) ।
  5. प्राकृतिक चिकित्सा - राम गोपाल शर्मा, प्रभात प्रकाशन, नई दिल्ली।
  6. एक्यूप्रेशर - डा0 अतर सिंह, एक्यूप्रेशर हैल्थ सेटंर, चण्डीगढ।
  7. चरक संघिता, निदान स्थान - 1/3।
  8. सर्वेशामेव रोगाणां निदानं कुपिता मला:। - अश्टांग0, निदान - 1/12।
  9. अश्टांग0, सूत्र0 - 12/35।
  10. त्रिधातु शर्म वहतं शुभस्पती। - ऋग्वेद - 1/34/6।
  11. त्रिर्नो अष्विना दिव्यानि भेशजा0। - ऋग्वेद - 1/34/6।
  12. अपामीवा भवतु रक्षसा सह। - ऋग्वेद - 9/85/1।

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