संवेदना का अर्थ, परिभाषा, विशेषताएँ

संवेदना का अर्थ और परिभाषा

संवेदना किसी के प्रति विशेष सहानुभूति को संवेदना कहा जाता है। शब्द संरचना के आधार पर हिंदी में ‘सम्’-’वेदना’ के आधार पर इस शब्द की व्युत्पत्ति को देख सकते हैं। ‘वेदना’ शब्द में ‘सम्’ उपसर्ग लगाने से संवेदना शब्द की संरचना हुई है, यथा-सम्+विद्+युच (प्रत्यय) डॉरामचंद्र वर्मा के अनुसार किसी के शोक, दु:ख, कष्ट या हानि के प्रति सहानुभूति ही संवेदना है। 

मानक हिंदी कोश के अनुसार मन में होने वाले अनुभव या बोध अनुभूति, किसी को कष्ट में देखकर स्वयं भी बहुत कुछ उसी प्रकार की वेदना का अनुभव करना, उक्त प्रकार का दु:ख या सहानुभूति प्रकट करने की क्रिया के भाव को संवेदना कहते हैं।

संवेदना का अर्थ

संवेदना के लिए अंग्रेज़ी में ‘सिमपैथी’ सेन्सिटिविटी, सेन्सेशन, इमोटिविटी, फ़ीलिंग आदि शब्दों का प्रयोग किया जाता है। मूलत: संवेदना का अर्थ है ज्ञानेन्द्रियों द्वारा प्राप्त अनुभव या ज्ञान, किन्तु आजकल सामान्यत: इस शब्द का प्रयोग सहानुभूति के अर्थ में अधिक होने लगा है। मनोविज्ञान में अब भी इस शब्द का प्रयोग इसके मूल अर्थ में ही किया जाता है और उस अर्थ में यह किसी बाह्य उत्तेजन के प्रति शरीर-अंग की सर्वप्रथम सचेतन प्रतिक्रिया होती है। इसी के फलस्वरूप व्यक्ति अपने परिवेश के संबंध में ज्ञान प्राप्त कर पाता है। 

संवेदना के लिए किसी उत्तेजक का होना आवश्यक माना जाता है तथा उससे संबंधित गुण ही व्यक्ति में संवेदना जाग्रत करता है। इसमें एक ओर जहाँ वस्तुपरकता की अपेक्षा है, वहीं वह व्यक्ति सापेक्ष भी है।

‘संवेदना’ शब्द वेदना शब्द में ‘सम्’ उपसर्ग लगाने से बना है। इसका सामान्य अर्थ दु:ख या पीड़ा है। वर्धा हिंदी शब्दकोश में ‘संवेदना शब्द का अर्थ दिया है :- ‘‘मन में होने वाला बोध या अनुभव; अनुभूति। किसी के शोक, दुख, कष्ट या हानि को देखकर मन में उत्पन्न वेदना, दुख या सहानुभूति। दूसरे की वेदना से उत्पन्न वेदना।’’ ‘संवेदना शब्द साहित्य और मनोविज्ञान दोनों विषयों में से ग्रहण किया गया है। 

अंग्रेजी में इसे सिम्पैथी (Sympathy) या फेलो फीलिंग (Follow Feeling) कह सकते हैं; किन्तु मनोविज्ञान में सेंसेशन (Sensation) के रूप में ही इसका मुख्य प्रयोग होता है। ‘‘मूलत: वेदना या संवेदना का अर्थ ज्ञान या ज्ञानेन्द्रियों का अनुभव है। 

संवेदना का मुख्य अर्थ है - अनुभूत, ज्ञात या विदित होना अर्थात् शरीर में किसी प्रकार का वेदन होना। वस्तुत: गर्मी-सर्दी, सुख-दुख आदि का अनुभव या ज्ञान होना संवेदन या संवेदना है परन्तु हिन्दी में यह प्राय: सहानुभूति (सहअनुभूति) के पर्याय के रूप में ही प्रचलित है। ऐसा जान पड़ता है कि मूलत: इसका शुद्ध रूप सम-वेदना रहा होगा, जो अब किसी कारणवश ‘संवेदना बन गया है। मूलत: उक्त दोनों शब्दों का अर्थ है किसी के वेदन या दु:ख को देखकर स्वयं भी वैसा ही अनुभव करना। ऐसी अनुभूति दूसरों को दु:खी देखकर भी हो सकती है और सुखी देखकर भी। गुण, प्रवृत्ति, स्वभाव आदि की पारस्परिक समानता के अवसर पर सहृदय मनुष्य के मन में वैसी ही वेदना या अनुभूति होती है जैसी वेदन या अनुभूति अपने किसी आत्मीय अथवा समीपस्थ व्यक्ति को होती है।

आपको उदास देखकर हम भी उदास हो जाते हैं; और आपकी प्रसन्नता से हमें भी प्रसन्नता होती है। वस्तुत: यही सहानुभूति है। पर आजकल प्रयोग के विचार से इसका मौलिक अर्थ कुछ संकुचित हो गया है; और इसका प्रचलन केवल कष्ट, विपत्ति, शोक आदि के प्रसंगों में रह गया है। दुर्घटना (जैसे : मृत्यु) हो जाने पर किसी के यहां पहुंचकर संवेदना या सहानुभूति प्रकट की जाती है। आशय यही होता है कि आपके दुःख से हम भी दुःखी हैं। कुछ अवस्थाओं में सहानुभूति का प्रयोग और विस्तृत रूप में होने लगा है; जैसे - दूसरों के मतों और सम्मतियों पर हमें सहानुभूति पूर्वक विचार करना चाहिए। ऐसे अवसरों पर आशय यह होता है कि हमें केवल विरोधी भाव से विचार नहीं करना चाहिए बल्कि उसी के समान अनुरक्ति प्राप्त करके उसका दृष्टिकोण समझने का भी प्रयत्न करना चाहिए। परन्तु संवेदना का प्रयोग उक्त विकसित अर्थ में नहीं होता है बल्कि केवल दूसरों के कष्ट, दुःख आदि के प्रसंगों में ही होता है।

हिन्दी में इसके स्थान पर फारसी के ‘हमदर्दी’ शब्द का प्रयोग होता है। साहित्यिक संदर्भ में ‘संवेदनशीलता’ मन की प्रतिक्रिया की शक्ति ही है, जिसके द्वारा संवेदनशील व्यक्ति दूसरे किसी व्यक्ति के सुख-दु:ख को समझकर उससे अपना तादात्म स्थापित कर लेता है।

संवेदना की परिभाषा

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के अनुसार : ‘‘संवेदना का अर्थ सुख दु:खात्मक अनुभूति ही है, उसमें भी दु:खानुभूति से इसका गहरा संबंध है... संवेदना शब्द अपने वास्तविक या अवास्तविक दुःख पर कश्टानुभव के अर्थ में आया है। मतलब यह कि अपनी किसी स्थिति को लेकर दुःख का अनुभव करना ही संवेदन है।’’

अज्ञेय की दृष्टि में : ‘‘संवेदना वह यंत्र है जिसके सहारे जीव-दृष्टि अपने से इतर सब कुछ के साथ सम्बन्ध जोड़ती है - वह सम्बन्ध एक साथ ही एकता का भी है और भिन्नता का भी क्योंकि उसके सहारे जहाँ जीव-दृष्टि अपने से इतर जगत को पहचानती है वहाँ उससे अपने को अलग भी करती है।’’

मुक्तिबोध की दृष्टि में : ‘‘मानसिक प्रतिक्रिया में संवेदना अन्तर्भूत है, किन्तु उसमें दृष्टि या दृष्टिकोण भी अन्तर्भूत है।’’

रामस्वरूप चतुर्वेदी के अनुसार : ‘‘आचार्य शुक्ल ने अपने इतिहास के आमुख में ‘जनता की चित्तवृत्ति’ के परिवर्तन की बात कही थी। आज की भाषा में चित्तवृत्तियों के संश्लेषण को संवेदना कहा जाएगा।’’

डॉ. सुरेश सिन्हा का कहना है कि ‘‘साहित्य में संवेदना से अभिप्राय वह अनुभूति प्रवणता है जो नई  अर्थवत्ता प्रदान करते हैं।’’

साहित्य और संवेदना के सहसम्बन्ध को स्पष्ट करते हुए सुरेश ऋतुपर्ण का कहना है : ‘‘संवेदनशीलता का आधिक्य साहित्यकार को एक सामान्य जन से अलगाता है। साहित्य अपेक्षाकृत अधिक संवेदनशील होता है। बाह्य जगत् के साक्षात्कार से उत्पन्न विभिन्न प्रकार के विचारों को साहित्यकार विभिन्न प्रकार की संवेदनाओं में परिणत कर लेता है और फिर उन्हीं संवेदनाओं के चित्र बनाकर वह उन्हें अपने साहित्य में प्रस्तुत कर देता है।’’

रवीन्द्र श्रीवास्तव ने संवेदना के स्वरूप को इस प्रकार परिभाषित किया है-’’अनुभूतियाँ अपनी मूल प्रकृति में अव्यवस्थित एवं संघटनरहित होने के कारण अतार्किक होती हैं। संवेदनाएँ तरलावस्था में रहने के कारण अनिर्धारित एवं अपूर्व रहती हैं और जीवन दृष्टि भावजगत से संबद्ध होने के कारण अबौद्धिक कथ्य का निर्माण करती हैं।’’

डॉ. शलभ के अनुसार-’’साधारण संवेदना सृष्टि नहीं रचती है क्योंकि वह संवेग मात्रा होती है, सच्ची संवेदना है जो कलानुभूति बन जाती है, वस्तु के वास्तविक कर्म को उद्घाटित करती है, अत: उसका असर भी पुरजोर होता है।’’

हंसराज भाटिया ने संवेदना में मानव की शारीरिक और मानसिक भूमिका को स्पष्ट करते हुए लिखा है-’’संवेदना ऐसी सरलतम मानसिक प्रक्रिया है जो विभिन्न ज्ञानेन्द्रियों से अर्विभूत होती है। ये संवेदनाएँ शारीरिक और मानसिक दोनों हैं, संवेदना ज्ञानात्मक संबंध का सर्वप्रथम और सरलतम रूप है।’’

आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने संवेदना को दु:ख या कष्ट से जोड़ते हुए इस प्रकार परिभाषित किया है-’’संवेदन शब्द अपने वास्तविक या अवास्तविक दु:ख पर कष्टानुभव के अर्थ में आया है। मतलब यह है कि अपनी किसी स्थिति को लेकर दु:ख का अनुभव करना संवेदना है।’’ डॉ. आनंद प्रकाश दीक्षित ने मानव मन की सचेतन प्रक्रिया को संवेदना कहते हुए लिखा है-’’संवेदना उत्तेजना के संबंध में देह रचना की सर्वप्रथम सचेतन प्रक्रिया है, जिससे हमें वातावरण की ज्ञानोपलब्धि होती है।’’

संवेदना की विशेषताएँ

संवेदना के विशेषताएँ इस प्रकार है :-

1. गुण :- प्रत्येक संवेदना में एक विशेष प्रकार का गुण पाया जाता है। ज्ञानेंद्रिय द्वारा अनुभव की जाने वाली, फूलों की सुगंध, मनुष्यों की आवाज में विभिन्नता होती है । संवेदना में गुण एक ऐसी विशेषता है जो किसी एक प्रकार की संवेदना को दूसरे प्रकार की संवेदना से भिन्न बताती है।

2. अवधि :- प्रत्येक संवेदना की एक निश्चित अवधि होती है, उसके बाद व्यक्ति अनुभव नहीं करता । कुछ संवेदनाएँ अल्पकालीन होती हैं और कुछ दीर्घकालीन । ज्ञानेंद्रियाँ जितनी देर सक्रिय तथा उत्तेजित रहती हैं, संवेदना की अवधि भी उतनी देर विद्यमान रहती है । उदाहरण के तौर पर एक मिनट तक सुनी जाने वाली आवाज की संवेदना दीर्घ तक सुनी जाने वाली आवाज की संवेदना दीर्घकालीन होती है।

3. तीव्रता :- प्रत्येक संवेदना में तीव्रता की एक विशेष प्रमुखता होती है। दो संवेदनाएँ समान रूप से तीव्र नहीं रहती । कोई भी संवेदना तीव्र या निर्बल नहीं रहती है । उदाहरण के लिए लाल और सफेद रंगों की तीव्रता में अंतर होता है ।

4. विस्तार :- विस्तार नामक विशेषता प्रत्येक संवेदना में नहीं पायी जाती है ज्ञानेंद्रियाँ सीमित क्षेत्र को प्रभावित करने वाली संवेदना का विस्तार कम और अधिक क्षेत्र को प्रभावित करने वाली संवेदना का विस्तार अधिक होता है । उदाहरण के लिए सुई की नोक से होने वाली संवेदना की तुलना नोक से होने वाली संवेदना का विस्तार अधिक होता है।

5. स्थानीय चिह्न :- प्रत्येक संवेदना में स्थानीय चिह्न की विशेषता होती है, किसी भी संवेदना की अनुभूति होने पर अपने शरीर के किसी अंग में हम उसका स्थानीय चिह्न बतलाते हैं। उदाहरण के लिए यदि हमारे हाथ को किसी स्थान पर दबाया जाय, तो हम बता सकते है कि इस स्पर्श-संवेदना का स्थान कौन सा है।

6. स्पष्टता :- प्रत्येक संवेदना में स्पष्टता की विशेषता पायी जाती है। अल्पकालीन संवेदना की तुलना में दीर्घकालीन संवेदना अधिक स्पष्ट होती है। इसके अतिरिक्त जिस संवेदना पर हमारा ध्यान जितना अधिक केन्द्रित होता है, उतनी ही अधिक उसमें स्पष्टता होती है। संवेदना से `वस्तु की सत्ता का आभास होता है । संवेदना अर्थ ज्ञान के लिए पृष्ठभूमि तैयार करता है। सबसे विशेष बात यह है कि संवेदना विकास में सहायक होती है ।

संदर्भ -
  1. धीरेन्द्र वर्मा (प्रधान संपादक) : हिन्दी साहित्य कोष भाग - 1, पृ. - 707-708
  2. हंसराज भाटिया : सामान्य मनोविज्ञान, पृ. - 253
  3. श्रीमती सुमन : सामान्य मनोविज्ञान का परिचय, पृ. - 218
  4. डॉ. सविता श्रीवास्तव : समकालीन कविता की समझ, पृ. - 48
  5. आ. रामचन्द्र शुक्ल : चिंतामणि भाग - 1, पृ. - 35
  6. अज्ञेय : हिन्दी साहित्य : एक आधुनिक परिदृष्य, पृ. - 17
  7. गजानन माधव मुक्तिबोध : एक साहित्यिक की डायरी, पृ. -136 
  8. रामस्वरूप चतुर्वेदी : हिन्दी साहित्य और संवेदना का विकास, भूमिका
  9. डॉ. उशा यादव : हिन्दी महिला उपन्यासकारों की मानवीय संवेदना, पृ.-11
  10. (सं.) द्वारिका प्रसाद चतुर्वेदी-तारिणीश झा, संस्कृत शब्दार्थ कौस्तुभम्, पृ. 236

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