अनुक्रम
सर्प विष चिकित्सा में 18 प्रकार के सर्पो की जातियों का उल्लेख किया
गया है।
सन्दर्भ-
- 1-कैरात (जहाँ भील रहते हैं, उन जंगलों में रहने वाले सर्प)
- 2-पृष्नि (धब्बों वाला चितकबरा सर्प),
- 3-उपतृण्य (घास में रहने वाला), वाले),
- 5-अलीक (निर्विश साँप),
- 6-तैमात (जलीय स्थान में रहने वाले),
- 7-अपोदक (मरुस्थल में होने वाले),
- 8-सत्रासाह (आक्रमणकारी
- 4-बभ्रु (भुरे रंग साँप),
- 9-मन्यु (क्रोध करने वाले साँप),
- 10-आलिगी (शरीर पर लिपट जाने वाली सर्पिणी),
- 11-विलिगी (शरीर पर न लिपटने वाली),
- 12-उरुगूला (बड़ी कटि वाली सर्मिणी),
- 13-असिक्नी (काली सर्पिणी),
- 14-दद्रुशी (जिससे काटने से दाद हो जाता है),
- 15-कर्णा (कानों वाली सर्पिणी, सल्लु साँप),
- 16-ष्वावित् (जिनको कुत्ते ढूँढ़कर लाते हैं, ऐसे साँप),
- 17-खनित्रिमा (भूमि के अन्दर बिल बनाकर रहने वाली सर्पिणी),
- 18-असित (काले)।
साँप के काटने के तीन रुप माने गए हैं :-
- (1) खात - जिसमें साँप के दाँत गहरे गड़े हों।
- (2) अखात - जिसमें साँप के दाँत थोड़े गड़े हों।
- (3) सक्त - साँप की केवल रगड़ लगी हो।
- सर्पित - अर्थात् खात, साँप के गहरे दाँत लगना,
- रदित - अर्थात् अखात् कम गहरे दाँत लगना,
- निर्विश या सर्पाड़्गाभिहत - अर्थात् सक्त, साँप की रगड़ मात्र लग जाना।
साँप के काटने पर कटे हुए स्थान से चार अंगुल ऊपर बन्धन या गाँठ लगानी
चाहिए। गाँठ इस प्रकार कसकर लगाई जाए कि विष का प्रभाव ऊपर न जाने पावे।
इस प्रकार उत्तम, मध्यम और अधम तीनों प्रकार का विष रुक जाता है। अथर्ववेद में
वाद्ययंत्र अर्थात् ढोल, नगाड़ा आदि के तीव्र स्वर से सर्प-विषनाषन का उल्लेख हैं।
इससे साँप से दृश्टि व्यक्ति बेहोष नहीं होने पाता और वह बचा लिया जाता है। साँप
के विष को उतारने के लिए बाहरी विष के प्रयोग का भी उपदेष दिया गया हैं। ऐसा
करने से बाहरी विष सर्प को नष्ट कर देता है। कुछ मंत्र में इस बात की ओर भी
संकेत है कि काटने वाले साँप को मार देना चाहिए। इससे साँप के विष का प्रभाव
साँप में लौट जाता है। यह प्रयोग परीक्षा की अपेक्षा रखता है। सुश्रुत और
अश्टांगहृदय में काटने वाले साँप को काटने से भी विष उतर जाने का उल्लेख है,
अथवा साँप के काटते ही तुरन्त मिट्टी के ढेले को दाँत से काटने से साँप का विष
उसमें चले जाने का उल्लेख है।
अश्टांगहृदय और उत्तरस्थान में विस्तारपूर्वक सर्प विष चिकित्सा का उल्लेख है। सुश्रुत और अश्टांगहृदय का मत है कि सर्प ने जिस स्थान पर काटा हो, उससे ऊपर 4, 8 और 12 अंगुली की दूरी तीन बन्धन बाँधे। जिस स्थान पर साँप ने काटा है, उस स्थान को चाकू या तेज औजार से काटकर वहाँ से खून दबाकर बाहर निकाल दें और उस स्थान को गरम लोहे से जला दें। चूसना, काटना और जलाना, यह सभी प्रकार के साँपों के काटने में उपयोगी है।
अश्टांगहृदय और उत्तरस्थान में विस्तारपूर्वक सर्प विष चिकित्सा का उल्लेख है। सुश्रुत और अश्टांगहृदय का मत है कि सर्प ने जिस स्थान पर काटा हो, उससे ऊपर 4, 8 और 12 अंगुली की दूरी तीन बन्धन बाँधे। जिस स्थान पर साँप ने काटा है, उस स्थान को चाकू या तेज औजार से काटकर वहाँ से खून दबाकर बाहर निकाल दें और उस स्थान को गरम लोहे से जला दें। चूसना, काटना और जलाना, यह सभी प्रकार के साँपों के काटने में उपयोगी है।
सर्प विषनाशक औषधि का नाम एवं प्रयोग
अथर्ववेद में ताबुव और तस्तुव ओशधियों
को सर्पविष-नाषक कहा गया हैं, जिसके गुण इस प्रकार से हैं-वे कटुतुम्बी (कड़वी
लौकी) और तिक्त कोषातकी (कड़वी तोराई) में पाये जाते हैं। भावप्रकाश निघण्टु में
कटुतुम्बी (कड़वी लौकी) को कड़वी, विषनाषक, ठंडी और हृदय को शक्ति देने वाला
बताया गया है। राजनिघण्टु आदि में इसको वमनकारक अर्थात् कै करानी वाली
कहा गया है। यह कै या उल्टी के द्वारा विष के प्रभाव को बाहर निकाल देती है, अत:
सर्पविषनाषक कही जाती है। कामरत्न ग्रन्थ में कहा गया है कि कटुतुम्बी (कड़वी
लौकी) की बारीक जड़ को गोमूत्र में पीसकर वटी या गोली बना ले और उसको छाया
में सुखा लें। फिर उसको गोमूत्र आदि के साथ घिसकर एक हाथ पर लेप करने से
सर्पविष का नाष हो जाता है। सपेरे कटुतुम्बी की वीणा (बीन) रखते हैं इसका
कारण यह है कि कटुतुम्बी सर्पविषनाषक है और इसके अन्दर से निकलने वाली ध्वनि
सर्प को अपने वष में कर लेती है।
वस्तुत: ओषधि के जो गुण बताए गए हैं, वे तिक्त कौषातकी (कड़वी तोरई) के गुणों से मिलते हैं। कामरत्न ग्रन्थ के सर्प विष चिकित्सा अध्याय में वर्णन है कि कड़वी तोरई के काढ़े को शहद और घी के साथ मिलाकर पिलाने से कै हो जाती है और इस प्रकार विष का प्रभाव नष्ट हो जाता है।104 निघण्टु ग्रन्थों में भी कड़वी तोरई को विषनाषक कहा गया है सुश्रुत का भी कथन हे कि सर्पदंष की अवस्था में तुरन्त मदनफल (मैनफल), कटुतुम्बी (कड़वी तुम्बी या लौकी), कड़वी तोरई आदि फलों से वमन करावें।
वेदों में सर्प विष दूर करने के लिए जल-चिकित्सा का वर्णन किया गया है। नदी के जल में नहाने, तैरने आदि से सर्प का विष नष्ट होने का उल्लेख है। नदी के जल से विष कम हो जाता है, इसीलिए पानी वाले साँपों में विष कम होता है। नदी या झरने के जल में स्नान से विष का प्रभाव कम होता है जल-चिकित्सा की दृष्टि से सर्प विष उतारने के लिए योग की कुंजल क्रिया भी विषेश लाभप्रद है। सर्पदश्ट व्यक्ति को अधिक से अधिक अर्थात् दो से चार लीटर तक पानी पिलावें और खड़े होकर मुँह में अंगुली डालकर उससे कै करवावें। पेट का सारा पानी 3-4 बार में बाहर आ जाएगा और विष का प्रभाव कम हो जाएगा। यदि आवश्यक हो तो दो या तीन बार भी यह क्रिया करवाई जा सकती है। जल के द्वारा विष का प्रभाव बाहर आ जाता है। वेदों में नदियों और पर्वतों के झरने आदि के जल से सर्पविष दूर होने का उल्लेख है। इसका अभिप्राय यह है कि नदी में बहुत देर तक स्नान किया जाय। झरने के जल के नीेचे बैठकर जलधारा को सिर और शरीर पर लें। इस प्रकार विष का प्रभाव कम हो जायेगा।
कुछ ओषधियों के नाम भी इस प्रकार से है -
वस्तुत: ओषधि के जो गुण बताए गए हैं, वे तिक्त कौषातकी (कड़वी तोरई) के गुणों से मिलते हैं। कामरत्न ग्रन्थ के सर्प विष चिकित्सा अध्याय में वर्णन है कि कड़वी तोरई के काढ़े को शहद और घी के साथ मिलाकर पिलाने से कै हो जाती है और इस प्रकार विष का प्रभाव नष्ट हो जाता है।104 निघण्टु ग्रन्थों में भी कड़वी तोरई को विषनाषक कहा गया है सुश्रुत का भी कथन हे कि सर्पदंष की अवस्था में तुरन्त मदनफल (मैनफल), कटुतुम्बी (कड़वी तुम्बी या लौकी), कड़वी तोरई आदि फलों से वमन करावें।
वेदों में सर्प विष दूर करने के लिए जल-चिकित्सा का वर्णन किया गया है। नदी के जल में नहाने, तैरने आदि से सर्प का विष नष्ट होने का उल्लेख है। नदी के जल से विष कम हो जाता है, इसीलिए पानी वाले साँपों में विष कम होता है। नदी या झरने के जल में स्नान से विष का प्रभाव कम होता है जल-चिकित्सा की दृष्टि से सर्प विष उतारने के लिए योग की कुंजल क्रिया भी विषेश लाभप्रद है। सर्पदश्ट व्यक्ति को अधिक से अधिक अर्थात् दो से चार लीटर तक पानी पिलावें और खड़े होकर मुँह में अंगुली डालकर उससे कै करवावें। पेट का सारा पानी 3-4 बार में बाहर आ जाएगा और विष का प्रभाव कम हो जाएगा। यदि आवश्यक हो तो दो या तीन बार भी यह क्रिया करवाई जा सकती है। जल के द्वारा विष का प्रभाव बाहर आ जाता है। वेदों में नदियों और पर्वतों के झरने आदि के जल से सर्पविष दूर होने का उल्लेख है। इसका अभिप्राय यह है कि नदी में बहुत देर तक स्नान किया जाय। झरने के जल के नीेचे बैठकर जलधारा को सिर और शरीर पर लें। इस प्रकार विष का प्रभाव कम हो जायेगा।
कुछ ओषधियों के नाम भी इस प्रकार से है -
- दर्भ (कुष या कुषा),
- षोचि: (अग्नि),
- तरुणक (रोहिश तृण, सुगंधतृण या कत्तृण),
- अष्ववार या अष्ववाल (कास नामक तृण),
- परुशवार (मुंज या मूंज)।
सन्दर्भ-
- सुश्रुत, कल्पस्थान प्रकरण, अध्याय-4 और 5 तक।
- खातम् अखातम् उत सक्तम् अग्रभम्।-अथर्ववेद-5/13/1।
- र्सर्पितं रदितं चापि तृतीयमथ निर्विशम्।-सुश्रुत0कल्पस्थान-4/14।
- चरक, चिकित्सास्थान-अध्याय-23।
- गृहणामि ते मध्यमम् उत्तमं रसमुतावमम्।-अथर्ववेद-5/13/2।
- उग्रेण ते वचसा बाध आदु ते।-अथर्ववेद-5/13/3।
- विशेण हन्मि ते विषम्।-अथर्ववेद-5/13/4।
- अहे म्रियस्व मा जीवी: प्रत्यगभ्येतु त्वा विषम्।-अथर्ववेद-5/13/4।
- (क)-स दश्टव्यो·थवा................वापि हि तत्क्षणम्।-सुश्रुत कल्पस्थान-5/6। (ख)-अश्टांगहृदय, उत्तरस्थान-36/40 से 41 तक।
- अश्टांग0उत्तर0।-अथर्ववेद-36। '
- सुश्रुत, कल्पस्थान-5/3 से 5 तक।
- (क)-ताबुवेनारसं विषम्।-अथर्ववेद-5/13/10। (ख)-तस्तुवेनारसं विषम्।-अथर्ववेद-5/13/11।
- कटुतुम्बी हिमाहृद्या पित्त-कास-विशापहा।-भाव0षाक0-58 से 59 तक।
Comments
Post a comment