सूर्य चिकित्सा का वर्णन



प्रकृति मनुष्य के लिए वरदान है। प्रकृति के सभी तत्त्व पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु ,सूर्य, चन्द्र आदि किसी न किसी रूप में मनुष्य का हित करते हैं। इनमें भी सूर्य की किरणों का योगदान अत्यन्त महत्वपूर्ण है।

वेदों में सूर्य-किरणों से चिकित्सा का विस्तार से वर्णन प्राप्त होता है। सूर्य को इस चराचर जगत की आत्मा कहा गया है। उपनिशद् में भी सूर्य को मानव जगत का प्राण कहा गया है। सूर्य रोगों को दूर करता है। सूर्य रोगों को दूर करने के साथ ही बुद्धि को भी शुद्ध करता है और ज्ञान की वृद्धि करता है।

वेदों में उदय होते हुए सूर्य की किरणों का बहुत महत्व बताया गया है। उदय होता हुआ सूर्य मृत्यु के सभी कारणों को नष्ट करता है। उदय होते हुए सूर्य से अवरक्त अर्थात् हल्की लाल किरणें निकलती हैं। इन लाल किरणों में जीवनी शक्ति होती है और रोगों को नष्ट करने की क्षमता होती है। इसलिए ऋग्वेद में कहा गया है कि उदय होता हुआ सूर्य हृदय के सभी रोगों को, पीलिया और रक्ताल्पता को दूर करता है। 

अथर्ववेद में भी कहा गया है कि उदय होते हुए सूर्य की अवरक्त (Infra Red) किरणें हृदय की बीमारियों ओर खून की कमी को दूर करती है। इस मंत्र में गो शब्द सूर्य की किरणों के साथ ही लाल रंग की गाय के दूध को भी हृदय रोगों में उपयोगी बताता है। मंत्र में यह भी निर्देश दिया गया है कि सूर्य की किरणों का मनुष्य के रूप-रंग और आयु के अनुसर प्रयोग करना चाहिये। इसी हिसाब से रोगी को उदय होते हुए सूर्य की किरणों के सन्मुख कम या अधिक समय बैठाना चाहिए। प्रात:काल सूर्याभिमुख बैठकर संध्या करने का यही रहस्य है कि अवरक्त किरणों के प्रभाव से व्यक्ति सर्वदा नीरोग रहेगा। उदय होते हुए सूर्य के सन्मुख रोगी चिकित्सा हेतु अपनी छाती खुली रखे या बहुत हलका कपड़ा पहने, जिससे सूर्य की किरणें छाती पर सीधी पड़ें और उनका प्रभाव अधिक हो सके। 

वेद का कथन है कि इन किरणों से वह दीर्घायु होगा, रोगरहित होगा और उसमें खून की कमी नहीं होगी। एक अन्य मंत्र का कथन है कि उदय होता हुआ सूर्य षिर के सभी रोगों को, हृदय के सभी प्रकार के कष्टों, अंगों के दर्द आदि को नष्ट करता है।

ये रोग प्रमुख हैं - सिरदर्द, कानदर्द, रक्त की कमी, सभी प्रकार के सिर के रोग, बहरापन, अंधापन, शरीर में अकड़न और दर्द, सभी प्रकार के ज्वर, पीलिया, जलोदर, पेट के रोग, विशों का प्रभाव, फेंफड़ों के रोग, हड्डी-पसली के रोग, आंतों और योनि के रोग, यक्ष्मा, सूजन, घाव, वातरोग, ऑंख की पीड़ा, घुटना, रीढ़, कूल्हे आदि के रोग। ‘सूर्य: कृणोतु भेशजम्’ सूर्य-चिकित्सा से यह रोग ठीक होते हैं, कहकर अपचित् (गंडमाला), गलने, सड़ने वाली बीमारियॉं और कुष्ठ आदि का उल्लेख किया गया है। जिससे ज्ञात होता है कि वेदों के अनुसार प्राय: सभी सामान्य और असामान्य बीमारियॉं सूर्य-किरण-चिकित्सा और विषेश रूप से उदय होते हुए सूर्य की किरणों से ठीक हो सकती हैं। सूर्य के प्रकाश में रहना अमृत के लोक में रहना माना गया है।

सूर्य का प्रकाश शरीर के लिए अनिवार्य है। सूर्य का प्रकाश शरीर को स्वस्थ और नीरोग बनाता है। सूर्य के लिए कहा गया है कि वह मनुष्य को निरोगता, दीर्घायु ओर समग्र सुख देता है। सूर्य की सात किरणों से सात प्रकार की ऊर्जा प्राप्त होती है। सूर्य से ही उन्नत कृशि होती है। सूर्य की किरणें मृत्यु से बचाती हैं। इससे ज्ञात होता है कि सूर्य की किरणें मानव के लिए वरदान हैं और वे निरोगता के साथ सर्वविध सुख की साधन हैं। सूर्य रोग के कीटाणुओं का नाषक हैं वह दृष्टि और अदृष्ट सभी रोगाणुओं को नष्ट करता है। सूर्य सर्प आदि के विष के प्रभाव को भी नष्ट करता है।

संसार को स्वच्छ रखने के लिए कृमि एवं कीटाणुओं का नाषक आवश्यक है। यह कार्य सूर्य करता है। अत: जल वायु आदि स्वच्छ रहते हैं। मानव शरीर पर भी सूर्य-किरणों का यही प्रभाव पड़ता है, अत: सूर्य-किरणों के सेवन से शरीर निरोग और हृश्ट-पुश्ट रहता है।

सूर्यकिरण-चिकित्सा के ये नाम प्रचलित हैं - सूर्य-चिकित्सा, सूर्य-किरण-चिकित्सा, रंग-चिकित्सा, Colour‐therapy, Chromo‐therapy, Chromopathy इस चिकित्सा में सूर्य की किरणों का शरीर पर सीधे प्रयोग, या सूर्य की किरणों से प्रभावित जल, चीनी, तेल, घी, गिल्सरीन आदि का प्रयोग किया जाता है। पाश्चात्य जगत में इस विद्या का आविष्कार जनरल पंलिझन होने के लिए किया है।

पाश्चात्य जगत में इस विद्या का आविष्कार जनरल पलिझन होने ने किया है। तत्पष्चात्य डॉक्टर पेन स्काट, डॉक्टर राबर्ड बोहलेण्ड तथा डॉक्टर एडविन बेबिट आदि ने इस विद्या को आगे बढ़ाया। धीरे-धीरे यह विद्या फांस और इंग्लैण्ड आदि देशों में फैली। इस विषय पर अब अत्यधिक साहित्य उपलब्ध है।

भारतवर्ष में, विषेश रूप से हिन्दी में, इस विद्या के प्रचार और उन्नयन का श्रेय श्री गोविन्द बापू जी टोंगू और डॉ0 द्वारिकानाथ नारंग आदि को है।

सूर्य में सात रंग है और उनसे ही मानव शरीर को रूप प्राप्त हुआ है। वेद के अनुसार सूर्य की सात प्रकार की किरणें हैं। इनके भी तीन भेद किये गए हैं-उच्च, मध्य और निम्न अर्थात् गहरा, मध्यम और हल्का। 7x3=21 प्रकार की सूर्य की किरणों के प्रभाव से संसार में सारे रूप-रंग हैं।

सात रंगों के ये नाम हैं -
  1. (VIBGYOR) अर्थात् (Violet) बैंगनी,
  2. (Indigo) गहरा नीला
  3. (Blue) हल्का नीला, आसमानी,
  4. (Green) हरा,
  5. (Yellow) पीला,
  6. (Orange) नारंगी,
  7. (Red) लाल।
इन सातों रंगों को मिला देने पर सफेद रंग हो जाता है, अत: सूर्य की किरणें इसीलिए सफेद दिखती है।

इन सात रंगों में से मूल रंग तीन ही हैं-लाल, पीला, नीला। शेष रंग मिश्रण हैं। लाल और नीला मिलाकर बैंगनी रंग, नीला और सफेद मिलाकर आसमानी, पीला और नीला मिलाकर हरा, लाल और पीला मिलाकर नारंगी रंग बनते हैं। दवा बनाने के लिए उसी रंग की कॉंच की साफ बोतल में पीने का शुद्ध पानी भर कर 6 से 8 घंटे धूप में रखने से दवा तैयार हो जाती है। बोतल थोड़ी खाली रखनी चाहिए और ढक्कन बन्द होना चाहिए। इस प्रकार एक बार बनी हुई दवा को चार या पॉंच दिन सेवन कर सकते हैं। एक रंग की बोतल पर दूसरे रंग की बोतल की छाया नहीं पड़नी चाहिए।

सामान्यतः: नारंगी रंग की दवा भोजन के बाद 15 से 30 मिनट के अन्दर देनी चाहिए। हरे और नीले रंग की दवाएं खाली पेट या भोजन से एक घंटा पहले दें। हरे रंग की दवा प्रातःकाल खाली पेट 6 या 8 औस दे सकते हैं। यह दवा विजातीय द्रव्यों को बाहर निकाल कर शरीर को शुद्ध करती है। इसका विपरीत प्रभाव नहीं होता।

विभिन्न रंगों की बोतलों के पानी का उपयोग

(1)-लाल रंग (Red) - लाल रंग की बोतलों का पानी प्राय: मालिश करने या शरीर के बाहरी भाग में लगाने या पट्टी रखने के काम आता है। यह आयोडीन (Iodine) से भी अधिक गुणकारी है। यह अत्यन्त गर्म होता है, अत: पीने से खून के दस्त या उल्टी हो सकती है। इसका पीना वर्जित है। लाल रंग रोगों के लिए हानिकरक है :- यह उष्ण है। धमनी के रक्त एवं स्नायु को उत्तेजित करता है, स्नायुमण्डल पर इसका विषेश प्रभाव होता है, शरीर में गर्मी बढ़ाने के लिए अत्यन्त उपयोगी है। यह सभी प्रकार के वातरोग, कफरोग और नपुंसकता में लाभ देता है। इसे प्रदाह या उत्तेजित अवस्था में नहीं देना चाहिए।

(2)-नारंगी रंग (Orange) - यह लाल और पीले का मिश्रण होने के कारण अधिक प्रभावकारी है। रक्त संचार की वृद्धि करता है, मांसपेशियों को स्वस्थ करता है और सिकुड़न को दूर करता है, मानसिक शक्ति और इच्छा शक्ति को बढ़ाता है। बुद्धि और साहस को विकसित करता है। यह पेट, यकृत, तिल्ली, गुर्दे और आंतों को प्रभावित करता है। कफ-जन्य-रोगों में लाभदायक है। नारंगी रंग रोगों के लिए लाभप्रद है :- कफ-जन्य खांसी, बुखार, निमोनिया, इन्फ्लुएंजा, “वासरोग, क्षयरोग, फेफड़े के दोष, पेट में गैस बनना, स्नायुरोग, स्नायुदुर्बलता, हृदयरोग, गठिया, पक्षाघात, अजीर्ण, एनीमिया, रक्त में लाल कणों की कमी, स्त्रियों के मासिक धर्म में कमी या कठिनाई। यह मॉं के स्तनों में दूध की वृद्धि भी करता है।

(3)-पीला रंग (Yellow) - यह रंग अत्युत्तम है। शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य प्रदान करने में अग्रणी है। यह हल्का रोचक भी है। पेट साफ रखता है। व्यक्ति को प्रसन्नता प्रदान करता है। पाचन-संस्थान पर इसका अनुकूल प्रभाव पड़ता है। पीला रंग इन रोगों के लिए लाभप्रद है :- पेट फूलना, पेटदर्द, कोश्ठबद्धता, कब्ज, कृमिरोग, मेद विकार। इसके अतिरिक्त तिल्ली (Spleen) जिगर (Liver) हृदय (Heart)ध और फेफड़े (Lungs) के अनेक रोगों के लिए हितकारी है। यह युवा पुरूशों को तत्काल लाभ देता है। इसका पानी थोड़ी मात्रा में ही लेना चाहिए, अन्यथा हानि करता है। गर्मी के कारण होने वाले पेचिष, संग्रहणी, हृदय की धड़कन, ऐंठन, स्नायविक पीड़ा आदि में इसे नहीं देना चाहिए।

(4)-हरा रंग (Green) - यह प्रकृति का रंग है, अतएव शरीर और मन को प्रसन्न रखता है। शरीर में रासायनिक द्रव्यों की न्यूनता और अधिकता को संतुलित करता है। शरीर की मांसपेशियों का निर्माण करता है और उन्हें शक्ति देता है। सारे नाड़ी-संस्थानों और मस्तिश्क को बल देता है। रक्त का शोधन करता है और विजातीय द्रव्यों को बाहर निकालता है। मन को शान्ति और प्रसन्नता देता है। र्इश्र्या, द्वेश आदि दुर्भावों को कम करता है। हरा रंग इन रोगों के लिए लाभप्रद है :- वातजन्य रोग, टाइफाइड, मलेरिया आदि ज्वर, यकृत् और गुर्दों की सूजन, सभी चर्मरोग-चेचक, फोड़ा, फुंसी, दाद, खाज, हाथ पैरों का फटना, गंजापन आदि, नेत्र रोग, मधुमेह (डाइविटीज), सूखी खांसी, जुकाम, अल्सर आदि भीतरी घाव, बवासीर (मस्सा), कैंसर, सूजाक, गोनोरिया आदि, सिरदर्द, स्नायुदर्द, रक्तचाप, रक्तपित्त (नाक, मुॅंह आदि से खून गिरना) सभी प्रकार के पकने सड़ने और बहने वाले दुर्गन्धयुक्त फोड़े घाव आदि, औरतों की मूर्छा एवं योनिप्रदाह, नासूर, भगन्दर, एक्जिमा आदि।

(5)-नीला आसमानी रंग (Blue) - यह अतिषीतल है। पित्तजन्य रोगों पर विषेश लाभकारी है। इसका प्रभाव ज्वर, कास (खांसी), अतिसार, संग्रहणी, जीर्ण पेचिष, “वास (दमा), षिर:षूल, गर्मी, मूत्रावरोध, प्रमेह, मूत्र में जलन, अन्य मूत्रविकार, पथरी, फीलपॉंव, त्वचा रेाग, नासूर, फोड़े फुंसी एवं मस्तिश्क के रोगों पर अति अनुकूल पड़ता है। यह प्यास और आमाषयिक उत्तेजना को शान्त करता है। यह अच्छा पोशक टानिक ओर एन्टीसेप्टिक है। यह हर प्रकार के ज्वर के लिए रामबाण है और सभी प्रकार के रक्तप्रवाह को रोकता है। यह कफज रोगों, ठंड से उत्पन्न विकारों, गठिया, वातरोग, पक्षाघात और कब्ज आदि में नहीं लेना चाहिए।

(6)-गहरा नीला रंग (Indigo) - यह प्राणिमात्र को जीवन शक्ति देता है। यह शीतलता और शान्ति देता है। पौष्टिक होने के कारण कुछ कब्ज करता है। गर्मी के सभी रोगों को दूर करता है। योनि, आमाषय, अंडकोष-वृद्धि, प्रदर आदि में उपयोगी है। शरीर पर इसकी क्रिया अतिशीघ्र होती है।

(7)-बैंगनी रंग (Violet) - इसके गुण प्राय: नीले रंग के तुल्य हैं। यह रक्त में लाल कणों की वृद्धि करता है। इससे नींद अच्छी आती है। यह रक्ताल्पता को दूर करता है। फेफड़े के क्षय रोग में अत्यन्त उपयेागी है।

उपर्युक्त विधि से सात रंग की सूर्य की किरणों से तैयार किया हुआ पानी विभिन्न रोगों को दूर करता है।

सूर्य की सात रंग की किरणों के तीन परिवार किये गये हैं -
  1. लाल, पीला और नारंगी,
  2. हरा,
  3. नीला, आसमानी और बैंगनी।
इन वर्गों के प्रत्येक में से एक-एक रंग लेकर केवल तीन रंगों का ही प्रयोग करके काम चलाया जाता है। ये तीन रंग हैं - 1-नारंगी, 2-हरा, 3-नीला। इनमें से नारंगी कफ-जन्य रोगों के लिए लाभप्रद है और पित्त-जन्य रोगों के लिए नीला। वातजन्य रोगों के लिए हरा रंग लाभप्रद है। हरा रंग रक्तषोधक और विजातीय तत्त्वों का निश्कासक है।

सन्दर्भ -
  1. सूर्य आत्मा जगतस्तस्थुशष्च।-ऋग्वेद-1/115/2। 
  2. प्राण: प्रजानामुदयत्येश सूर्य:।-प्रष्न0उप0-1/8।
  3. अपामीवां सविता साविषत्।-ऋग्वेद-10/100/8।
  4. अप सेधत दुर्मतिम्, आदित्यास:।-ऋग्वेद-8/18/10। 
  5. उद्यन् सूर्यो नुदतां मृत्युपाषान्।-अथर्ववेद-17/1/30।
  6. उद्यन्नद्य मित्रमह आरोहन् उत्तरां दिवम्। हृद्यरोगं मम् सूर्य हरिमाणं च नाषय।।-ऋग्वेद-1/50/11। 
  7. अनु सूर्यम् उदयतां हृद्द्योतो हरिमा च ते। गो रोहितस्य वर्णेन तेन त्वा परिदध्मसि।-अथर्ववेद-1/22/1। 
  8. या रोहिणी र्देवत्या गावो या उत रोहिणी:। रूपंरूपं वयोवयस्ताभिश्ट्वा परिदध्मसि।।-अथर्ववेद-1/22/3। 
  9. परि त्वा रोहितैर्वणै-र्दीर्घायुत्वाय दध्मसि। यथायम् अरपा असद् अथो अहरितो भुवत्।।-अथर्ववेद-1/22/2। 
  10. - सं ते शीश्र्ण:कपालानि, हृदयस्य च यो विधु:। उद्यन् आदित्य रष्मिभि: शीश्र्णो रोगम् अनीनष:।।-अथर्ववेद-9/8/22। 121 - अथर्ववेद-9/8/1 से 22 तक। 
  11. अथर्ववेद-6/83/1 से 4 तक। 123 - सूर्यस्य भागे अमृतस्य लोके।-अथर्ववेद-8/1/1। 
  12. मा छित्था..........सूर्यस्य संदृष:।-अथर्ववेद-8/1/4। 
  13. अथर्ववेद-1/12/2, 8/1/5। 
  14. सविता न: सुवतु सर्वतातिम्। सविता नो रासतां दीर्घमायु:।-ऋग्वेद-10/36/14। 
  15. अधुक्षत् पिप्युशीमिशम् ऊर्जं सप्तपदीमरि:। सूर्यस्य सप्त रष्मिभि:।-ऋग्वेद-8/72/16। 
  16. उत् पुरस्तात् सूर्य एति, विष्वदृश्टो अदृश्टहा।-ऋग्वेद-1/191/8। 
  17. सूर्ये विषमा सजामि, सो चिन्नु न मराति। नो वयं मराम।-ऋग्वेद-1/191/10। 

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