महिला सशक्तिकरण क्या है? महिला सशक्तिकरण का उद्देश्य क्या है?

महिला सशक्तिकरण का विस्तृत तात्पर्य है - महिलाओं को पुरुष के बराबर वैधानिक, राजनीतिक, शारीरिक, मानसिक, सामाजिक एवं आर्थिक क्षेत्रों में उनके परिवार, समुदाय, समाज एवं राष्ट्र की सांस्कृतिक पृष्ठभूमि में निर्णय लेने की स्वत्व अधिकार से है। महिला-सशक्तिकरण का मतलब यह नहीं है कि उन्हैं दूसरों पर प्रभुत्व जमाने की शक्ति प्रदान करना तथा अपनी श्रेष्ठता को स्थापित करने के लिए शक्ति सम्पन्न बनाना। महिलाओं के लिए सशक्तिकरण का मतलब यह है कि उसे ऐसी शक्ति प्राप्त हो, जिससे उसके महत्व को स्वीकार किया जा सके तथा उसे समान नागरिक एवं समान अधिकार की स्थिति तक ला सके। उनके लिए शक्ति का मतलब यह है कि न केवल घर के अंदर; बल्कि समाज के प्रत्येक स्तर एवं पक्ष में उनकी भागीदारी सुनिश्चित हो सके। उनकी शक्ति के मूल्य एवं भागीदारी को समाज द्वारा उचित मान्यता भी प्राप्त हो सके। 

महिलाओं की सशक्तिकरण होने से उनमें अपनी क्षमताओं एवं योग्यताओं को पहचानने की शक्ति उत्पन्न हो जाती है, ताकि वे एक पूर्ण नागरिक के रूप में अपने देश एवं मानवता की सेवा में सहायता पहुँचा सकें। अपनी क्षमताओं के अनुरूप वे अपने परिवार, समुदाय एवं समाज के प्रत्येक स्तर पर अपनी एक सकारात्मक छवि का निर्माण कर सकें ओर अपने अंदर आत्मविश्वास को भी उत्पन्न करें। उनमें क्षमताओं का इतना विकास हो सके कि वे किसी भी समस्या का स्वयं समाधान कर सकें।

जब महिलाएँ अपने प्रति होने वाले सामाजिक-मनोवैज्ञानिक-सांस्कृतिक अन्याय, लिंग-भेद, असमानता, सामाजिक-सांस्कृतिक, आर्थिक तथा राजनीतिक शक्तियों के नकारात्मक प्रभाव के विरूद्ध जागरूक हो जाए तो यह समझा जा सकता है कि उनका सशक्तिकरण हो रहा है। वास्तव में, इसकी शुरूआत तब होती है, जब वे अपनी सकारात्मक स्वच्छ छवि, अधिकार, कर्तव्य ओर अपनी क्षमताओं के प्रति पूरी जागरूक हो जाती है। अत: महिला सशक्तिकरण की सार्थकता यह है कि, उन्हैं इतना योग्य बनाया जाए कि वे अपनी क्षमताओं एवं योग्यताओं को पहचान सकें और इसका उपयोग अपने जीवन में कर सकें। वे अपने जीवन में विचारों, उसकी अभिव्यक्ति एवं कार्यों की स्वतंत्रता का उपयोग कर सकें। इतना ही नहीं, उन्हें केवल अपनी योग्यता को ही नहीं पहचानना है, बल्कि इसके लिए उन्हैं अवसर, सुविधा, बाहरी ओर आंतरिक वातावरण पर भी ध्यान देना है, ताकि वे अपनी क्षमताओं एवं आत्मसम्मान की समृद्धि भी कर सकें। अपने प्रति होने वाले अन्याय के विरूद्ध संघर्ष करने की क्षमता भी विकसित हो सके।

महिला सशक्तिकरण का अर्थ है ‘शक्तिसम्पन्न’ करना अर्थात् जो पहले से शक्तिहीन है, या शक्तिहीन बनाया गया है या शक्तिहीन माना गया है या जिसे शक्तिहीन रूप में देखा जाता है उसे ऐसी शक्तियाँ प्रदान की जाए जो उसके बहु-आयामी व्यक्तित्व के सम्मान हेतु, पुष्पित-पल्लवित और समृद्ध करने हेतु आवश्यक है। सशक्तिकरण किसी भी र्पकार के भेदभाव विषमता, स्तरण, अधीनता, हिंसा, अश्पृश्यता, वंचना तथा किसी भी आभाव को मिटाने वाली वह प्रक्रिया है जो अन्तत: सकारात्मक शक्ति का उपयोग करने की क्षमता पेदा करती है।

महिलाओं के संदर्भ में सशक्तिकरण का अर्थ है संसाधनों पर उनका नियंत्रण तथा निर्णय का अधिकार।

भारत में महिला सशक्तिकरण का उद्देश्य 

भारत में महिला सशक्तिकरण से आशय प्राथमिक रूप से महिलाओं की सामाजिक ओर आर्थिक दशा में सुधार लाना है। यहाँ सशक्तिकरण के विभिन्न आयामों पर भी दृष्टिपात करना उचित होगा। उल्लेखनीय है कि शक्ति कोई वस्तु नहीं है जिसका आदान-प्रदान किया जा सकता है। महिलाओं के सशक्तिकरण के लिए उन पहलुओं को मजबूत बनाने की आवश्यकता है, जिनका सीधा संबंध स्वावलम्बन और उत्थान से है। शैक्षणिक, सामाजिक, आर्थिक ओर राजनीतिक क्षेत्र इनमें से प्रमुख है। महिला की प्रगति पूरे घर परिवार समाज एवं राष्ट्र की प्रगति मानी जाती है। 

आज यह स्वीकार किया जाने लगा है कि मानव राष्ट्र एवं विश्व का वास्तविक विकास महिलाओं के सशक्तिकरण के माध्यम से ही संभव हो सकता है।

महिला सशक्तिकरण को हम एक प्रक्रिया के रूप में देखते हैं, जिनमें महिलाएँ भौतिक, मानवीय एवं बोद्धिक-जैसे ज्ञान, सूचना, विचार ओर वित्तीय स्रोतों जैसे धन अथवा धन तक पहुँच एवं घर, परिवार, समुदाय, समाज एवं राष्ट्र आदि के संदर्भ में निर्णय लेने के सम्बन्ध में अधिक सहभागिता कर सकती हैं।

‘महिला-सशक्तिकरण’ शब्द सामाजिक न्याय एवं समानता प्राप्ति हेतु महिलाओं के संघर्ष से जुड़ी हुई हैं।

महिला सशक्तिकरण के आयाम 

महिला सशक्तिकरण के विभिन्न आयाम है -

1. आर्थिक सशक्तिकरण 

महिलाओं के आर्थिक सशक्तिकरण का तात्पर्य उनकी आर्थिक रूप से आत्मनिर्भरता एवं सशक्त क्षमता से है। यह तभी संभव है जब नारी अपना श्रम उत्पादक कार्य में दे, चाहे प्राथमिक क्षेत्र, द्वितीयक क्षेत्र या तृतीयक क्षेत्र हो, अपना उचित पारिश्रमिक हक ओर समानता से प्राप्त करे। महिलाओ के आर्थिक सशक्तिकरण के लिए उन्है जमीन-जायदाद, बैंक-खाता, बचत, निवेश में निर्णय लेने, सम्पत्ति पर समान अधिकार इत्यादि होना ही चाहिए।

कार्ल माक्र्स ने कहा है कि :- ‘‘जिसके पास आर्थिक गतिविधियों पर नियंत्रण की ज्यादा शक्ति होगी, वह शक्तिशाली होगा।’’ तथा मैब्सबेवर ने ‘मार्केट वेल्यु’ की बात तथा शक्ति, राजनीति सत्ता के आधार पर वर्चस्व की बात को कहा। महिलाओं की शक्तिहीनता का मुख्य कारण उनकी आर्थिक पराधीनता है। महिला उत्पीड़न का एक प्रमुख कारण महिलाओं की पुरूषों पर आर्थिक निर्भरता है। घरेलु महिलाएं जो काम करती हैं, उसके लिए उन्हें कोई अलग से मजदूरी नहीं दी जाती है। उसके परिश्रम को मूल्यवान नहीं समझा जाता है, इसलिए मजदूरी लाने वाले पुरुष के प्रति वह स्वत: अधीनता स्वीकार कर लेती है। यही आर्थिक निर्भरता स्त्री के ‘स्व’ को परजीवी बना देती है। 

इसका दूसरा पक्ष यह भी है कि महिलाओ को हमेशा से धन, धरती ओर सत्ता से वंचित रखने के कारण इस वर्ग की आर्थिक ओर सामाजिक स्थिति अत्यन्त दुर्बल रही है, साथ ही कम वेतन, श्रम विभाजन में निम्नतम स्थान भी आर्थिक निर्योग्यता को सम्पुष्ट करती है।

इन अर्थों में महिलाओं का आर्थिक पक्ष सशक्त होना आवश्यक है। महिलाओं का आर्थिक रूप से सुदृढ़ होना, महिला सशक्तिकरण का आधारभूत तथ्य है क्योंकि पुरुषों का महिलाओं पर वर्चस्व होने में महिलाओं की आर्थिक आश्रिता की प्रमुख भूमिका होती है। इसलिए आर्थिक रूप से महिलाओं को संबल बनाने की सबसे बड़ी आवश्यकता है। इसके लिए उन्हें शिक्षा एवं तकनीकी कुशलता से युक्त करने की आवश्यकता है ताकि आर्थिक पारिश्रमिक वाले कार्यों में उनकी भागीदारी सुनिश्चित हो सके।

2. सामाजिक सशक्तिकरण 

महिलाओं के दोयम दर्जे की हैसियत को निर्धारित करने में परिवार एवं अन्य सामाजिक प्रथाओं में परिवार एवं अन्य सामाजिक प्रथाओं की भूमिका सर्वोपरि रही है। पितृ सत्तावादी मूल्यों के विकास एवं संरक्षण में समाज की ही महत्वपूर्ण भूमिका होती है। स्त्रियों की पराधीनता की कथा यहीं से प्रारम्भ होती है। इसलिये महिलाओं का सामाजिक सशक्तिकरण सर्वाधिक महत्वपूर्ण है, ताकि समाज में उनकी गरिमा बहाल हो।

प्रत्येक समाज का अपना रीति-रिवाज, संस्कृति एवं जीवन शेली होती है, परन्तु एक बात प्राय: समानता लिए हुए है कि हर समाज में स्त्रियों की दशा निम्न स्थिति में है। उन्हैं धर्म, संस्कार, रीतियों के नाम पर अनेकानेक बंधनों में जकड़ दिया गया है जिसे स्त्री भी अपनी नियति मान चुकी है। इसके पीछे मूल कारण पुरुष प्रधान या पितृप्रधान समाज है जो सदियों से ओरतों को हांकने का काम करते आ रहा है। वह ओरतों को अपनी सम्पत्ति समझता है और उस पर अपना अधिकार जताते रहा है। परिवार समाज का सबसे छोटा रूप है। यहीं से भेदभाव शुरु होता है ओर सामाजिक पृष्टभूमि में यह विकराल रूप लेता चला गया। जेसे बेटा-बेटी मेुंर्क या कहैं लिंग भेद। पुत्री का जन्म-मरण का निणर्य, रहन-सहन मे भेद, शिक्षा-स्वतंत्रता में भेद, कार्य का विभाजन, रीतियों और धर्म के नाम पर अनेक बंधनों को थोपना ओर इससे स्त्री की स्वतंत्र अस्तित्व कहीं दब गया है।

अत: आज समानता एवं स्वत्रंतता के मानवीय अधिकारों पर जिस पर प्रत्येक व्यक्ति का अधिकार है, के तर्ज पर सामाजिक रूप से महिलाओं के सशक्तिकरण की आवश्यकता है। यह तभी संभव है जब प्रत्येक समाज में नारी को पुरुष की सहगामी मान कर उसे वह सब अधिकार समानता के साथ दिया जाय जिसकी वह अधिकारिणी रही है। उन पर कोई बंधन न रहै और समानता का व्यवहार किया जाय।

3. राजनीतिक सशक्तिकरण

भारत में राजनीति परिवर्त्तन का महत्वपूर्ण माध्यम है। इसलिए राजनीतिक प्रक्रिया में महिलाओं की भागीदारी एक ऐसे वातावरण सृजित करने में सफल हो सकती है जहाँ महिलाओं के बुनियादी सवालों पर विमर्श किया जा सकता है। राजनीतिक भागीदारी एक उत्प्रेरक भूमिका निभा सकती है। इनकी राजनीतिक भागीदारी से महिलाओं से जुड़े सवाल को राष्ट्रीय नीति में केन्द्रीय स्थान मिलना आसान हो जाएगा।

महिलाओं की शक्तिहीनता का एक मुख्य कारण यह भी है कि राजनीतिक परिदृश्य पर उनकी अत्यन्त सीमित प्रतिनिधित्व होना।(56) उनमें राजनीतिक चेतना की कमी होती है। उनका अपना कोई अलग संगठन या दल नहीं होता। तथा मुख्य धारा के राजनैतिक दलों में उनका खास महत्व नहीं होता। राष्ट्रीय और प्रान्तीय विद्यायिका द्वारा बनायी गयी विधियों ज्यादातर एकांगी और स्त्री विरोधी होती है तथा सामाजिक परम्परा और रीति रिवाज के आधार पर ही राजनैतिक नियमावली बनती है।

महिलाओं के राजनीतिक सशक्तिकरण से तात्पर्य उन्हैं देश की राजनीति में सशक्त भूमि मिले। उन्हैं वे सभी अधिकार और शक्ति मिले जिससे कि वे देश की राजनीति को चलाने में अहम भूमिका निभा सके। महिलाओं के मुद्दे, निर्णय विचार, दृष्टिकोण को देश की राजनीति में, कानून व्यवस्था में उचित जगह मिले। महिलाओं में राजनीतिक जागृति उत्पन्न हो उन्हैं शासन व्यवस्था में भागीदारी मिले इस हैतु अनेक आरक्षण एवं कानूनी निर्णय कड़ाई से लागू करने होंगे।

पंचायती राज व्यवस्था के त्रिस्तरीय व्यवस्था ने महिलाओं में राजनीतिक जागृति लाने का काम किया है। बिहार में 50 प्रतिशत महिलाऐं पंचायत मुखिया हैं यह एक सराहनीय कदम है। परन्तु लोक सभा ओर विधान सभाओं में अभी भी बहुत कम प्रतिशत महिलाओं की भागीदारी सुनिश्चित हो पायी है। 33 प्रतिशत आरक्षण का मुद्दा अभी भी लटका पड़ा है।

4. धार्मिक सशक्तिकरण 

धर्म ने महिलाओं की गोण सामाजिक भूमिका में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। धार्मिक कर्मकांडों एवं धार्मिक नैतिकताओं ने उन्हैं हाशिये पर पहुँचा दिया। इसलिए इस बात की भी महत्ती आवश्यकता है कि महिला धर्म के बाहरी स्वरूप एवं कर्मकांड के आडम्बर की वास्तविकता को समझे। उसे चुनोती दे एवं धर्म के आंतरिक मर्म को अंगीकार करे। यह सर्वविदित है कि प्रत्येक धर्म में धार्मिक रीतियों एवं क्रियाओं का संचालन प्राय: पुरूष ही करते है। चाहै वह हिन्दु धर्म हो, सिख धर्म हो, मुस्लिम धर्म, ईसाई धर्म, बौद्ध धर्म या जैन धर्म प्राय: धर्म के ठेकेदार पुरूष ही है। ऐसा क्यों? यह एक विवादित प्रश्न है। खेर कुछ स्त्रियाँ नन ओर भिक्षुवियाँ रहती है परन्तु इनका अधिकार क्षेत्र बहुत विस्तृत न होकर सीमित ही है। धर्म के मुख्य कर्मकाण्डों में पुरूषों को ही अधिकार मिले हैं।

ऐसे में धर्म के प्रति स्त्रियों के क्या कर्त्तव्य हैं क्या होने चाहिए इन सब का निर्णय कोन करें? जरूरत यह है कि यह स्त्रियों के हक में हो इस हेतु धर्म की किताबों के गूढ़ रहस्यों को जानने समझने एवं साकारात्मक निर्णय की जरूरत हैं क्योंकि प्रत्येक धर्म समानता एवं नैतिकता पर ही टिका है।

इस प्रकार महिला सशक्तिकरण एक वृहत् अवधारणा है ओर इसे सम्पूर्णता में एक प्रक्रिया के तहत ही ग्रहण किया जा सकता हैं सरकार की जागरूकता इस दिशा में बढ़ी है ओर मूर्त्त रूप देने की पुरजोर कोशिश भी की जा रही है। सरकार विशेषकर शिक्षा के प्रसार एवं आर्थिक अवसरों के सृजन के साथ महिला सशक्तिकरण की अवधारणा को सफल करने का प्रयास कर रही है। 

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