पंचायती राज व्यवस्था क्या है इसकी शुरुआत कब हुई?

पंचायत शब्द का अर्थ है पंच+आयत अर्थात् पंच शब्द संस्था एवं संख्या का वाचक है। पंचो का अर्थ है पांच पंच जोकि व्यापक अर्थों में ग्रामीण प्रतिनिधि समाज का प्रतिबोधक है तथा आयत शब्द का विस्तार से है। अतः सामूहिक रूप से गांवों के विकास का विस्तार करना ही पंचायत का मूल-मंत्र रहा है।

पंचायती राज व्यवस्था की शुरुआत

भारत में प्राचीन काल से ही पंचायती राज व्यवस्था अस्तित्व में रही हैं। आधुनिक भारत में प्रथम बार तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू द्वारा राजस्थान के नागौर जिले के बगदरी गाँव में 2 अक्टूबर 1959 को पंचायती राज व्यवस्था लागू की गई। 

पंचायत का इतिहास 

भारत में पंचायतें ग्रामीण शासन की पारम्परिक संस्थाएं रही हैं। वेदों में भी बार-बार सभा एवं समिति का वर्णन आया है जो ग्राम पंचायत का ही बोधक शब्द है। दयानन्द संस्थान, नई दिल्ली द्वारा प्रकाशित अथर्ववेद की पृष्ठ संख्या 141 में इसका आभास इस रूप में परिलक्षित होता है। ‘‘सभा च मा समंतिश्चांवतां’’,महर्षि पावगी और अन्य पाश्चात्य विद्वानों ने भी उपयुक्त बातों की पुष्टि की है। वैदिककाल की पंचायत व सभा में जाने का अधिकार सभी को समान रूप से था। वैदिककालीन पद्धति की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि उस समय लोग ग्राम में राष्ट्रहित ही नहीं बल्कि पृथ्वी के कल्याण के लिए विश्व में एक ही शासन की घोषणा करने की सामर्थ्य भी रखते थे। वैदिककालीन पंचायत संगठन मजबूत एवं सशक्त था। इसी दृष्टिकोंण से अनुप्राणित व्यक्तियों को पंचायतों के पदवाहकों के रूप में समुदाय द्वारा निर्वाचित किया जाता था।

परिवर्ती काल में भी पंचायतों का अस्तित्व जुड़ा रहा है। उपनिषदों और जातक कथाओं के काल में भी पंचायतों का अस्तित्व किसी न किसी रूप में अवश्य ही मौजूद था। बुद्धकाल से लेकर मौर्यकालीन पंचायतों की गतिविधियों की झलक हमें कौटिल्य के ‘‘अर्थशास्त्र’’ में मिलती है। चन्द्रगुप्त मौर्य के शासनकाल में प्रत्येक गांव की अपनी सभा होती थी, गुप्त काल में ग्राम समितियों का विकास हो चुका था। मध्य भारत में इन्हें मण्डली और बिहार में इन्हें ग्राम जनपद कहते थे। चोल राजवंश के लेखों में तमिल देश में सभा और समिति के कार्यों का विस्तृत विवरण ‘‘अग्रहार’’ ग्रामों के बारे में मिलता है। आठवी शताब्दी के बाद मुस्लिम शासकों के आगमन के बाद भी गांव की स्थानीय व्यवस्थायें अपनी परम्परागत रीति में गतिशील रहीं क्योंकि ज्यादातर यवन शासक राजनीतिक प्रमुख के पीछे पड़कर आर्थिक शोषण की नीति तक ही सीमित रहे और देश की ग्रामीण संस्कृति और व्यवस्था पर सीधी चोट उन्होंने कभी नहीं की हालांकि विभिन्न शोधों से इस बात की पुष्टि होती है कि मुस्लिम काल में पहले तो ग्रामीण संस्थायें पूर्णतया सुरक्षित रहीं किन्तु कालान्तर में निरन्तर युद्धों के कारण उनकी जड़े उखड़ने लगी थी।

भारत की प्राचीन व्यवस्था को सबसे पहला आघात ब्रिटिश शासनकाल में लगा क्योंकि इस अवधि में प्रशासन के सभी क्षेत्रों में केन्द्रीकरण की प्रवृत्ति की प्रमुखता रही और पंचायतों का अस्तित्व इस काल में जाति पंचायतों के रूप में ही सिमटकर रह गया। परन्तु सत्ता हथियाने के बाद अंग्रेज शासन ने सोचा कि भारत जैसे विशाल व ग्राम प्रधान देश में केन्द्रीकरण की प्रक्रिया जटिल व अव्यवहारिक है। 1870 में लार्ड मेयो वायसराय के काल में स्थानीय स्वशासन के सूत्र संजोने के उपक्रम का प्रारम्भ करके विकेन्द्रीकरण की नीति की ओर सुविचारित दृष्टिकोण अपनाना प्रारम्भ कर दिया गया। 1909 में ब्रिटिश सरकार द्वारा विकेन्द्रीकरण के कारण कोई ठोस कदम नहीं उठाया जा सका। 

1915 में सरकार ने एक प्रस्ताव पारित कर यह सुझाव दिया कि न केवल गाँव पंचायतों की स्थापना की जाए, बल्कि उनको आर्थिक सहायता देकर कारगर स्वरूप भी प्रदान किया जाए। विभिन्न कारणों से पंचायतें ब्रिटिश काल में गांव में अपना कोई प्रभावशाली अस्तित्व न बना सकी। 

1982 में लार्ड रिपन के स्थानीय स्वायत्त शासन से सम्बन्धित प्रस्ताव तथा मोण्ट फोर्ट सुधारों के अन्तर्गत देश के अधिकांश भागों में और रियासतों में 1991 और 1940 के मध्य ग्राम पंचायतों की स्थापना ब्रिटिश काल की विशेषता रही। ब्रिटिश काल में ग्राम पंचायत सम्बन्धी अनेक विधेयक पारित हुए, यथा-बंगाल गवर्नमेन्ट एक्ट 1919, दि मद्रास पंचायत एक्ट 1920, दि बिहार सेल्फ गवर्नमेन्ट एक्ट 1920, पंजाब पंचायत एक्ट आदि। उत्तर प्रदेश में इस काल में यू.पीग्राम पंचायत अधिनियम, 1920 पास किया गया। इस अधिनियम में सबसे बड़ी कमी यह थी कि इसका संगठन स्थानीय लोकलन्त्र से समबद्ध न होकर प्रशासन तन्त्र के द्वारा गठित एक ईकाई के रूप में हुआ। वर्ष 1937 में उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के सत्ता में आने पर राज्य सरकार द्वारा स्थानीय संस्थाओं के संगठनों और कार्य प्रणाली का अध्ययन कर उनके संवर्धन का उपाय सुझाने हेतु एक अध्ययन दल का गठन खेर कमेटी के रूप में किया गया। खेर कमेटी ने 1939 में अपनी रिपोर्ट दी, किन्तु द्वितीय विश्व युद्ध के कारण कांग्रेस सरकार ने इस्तीफा दे दिया और खेर कमेटी की रिपोर्ट पर आगे कोई कार्यवाही नहीं हो सकी। वर्ष 1946 में कांग्रेस के पुनः सस्ता में आते ही यू.पीग्राम पंचायत बिल बनाया गया जो स्वतंत्र भारत में यू.पी. पंचायत राज अधिनियम, 1947 के रूप में लागू किया गया। स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात भारतीय संविधान के राज्यों के नीति निर्देशक सिद्धान्त के अन्तर्गत अनुच्छेद-40 में आधारभूत स्तर पर लोकतांन्त्रिक संस्थाओं के महत्व को मान्यता देते हुए यह कहा गया है कि राज्य ग्राम पंचायतों को संगठित करने के लिए उपाय करेगा और उन्हें ऐसी शक्तियाँ और अधिकार प्रदान करेगा जो उन्हें स्वतन्त्र शासन की ईकाई के रूप में कार्य करने के लिए आवश्यक हो।

पंचायती राज के संवैधानिक प्रावधान

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 40 में राज्यों को पंचायतों के गठन का निर्देश दिया गया है। 1991 में संविधान में 63वां संविधान संशोधन अधिनियम, 1992 करके पंचायत राज संस्था को संवैधानिक मान्यता दे दी गयी है।
  1. बलवंत राय मेहता समिति की सिफारिशें (1957)
  2. अशोक मेहता समिति की सिफारिशें (1977)
  3. पी वी के राव समिति (1985)
  4. डाॅ. एल एम सिन्घवी समिति (1986)
  5. ग्राम सभा को ग्राम पंचायत के अधीन किसी भी समिति की जाँच करने का अधिकार
24 अप्रैल 1993 भारत में पंचायती राज के क्षेत्र में एक महत्वपूर्ण मार्गचिन्ह था क्योंकि इसी दिन संविधान (73वां संशोधन) अधिनियम, 1992 के माध्यम से पंचायती राज संस्थाओं को संवैधानिक दर्जा हासिल हुआ और इस तरह महात्मा गाँधी के ग्राम स्वराज के स्वप्न को वास्तविकता में बदलने की दिषा में कदम बढ़ाया गया
था। 73वें संशोधन अधिनियम, 1993 में निम्नलिखित प्रावधान किये गये हैंः-
  1. एक त्रि-स्तरीय ढांचे की स्थापना (ग्राम पंचायत, पंचायत समिति या मध्यवर्ती पंचायत तथा जिला पंचायत)
  2. ग्राम स्तर पर ग्राम सभा की स्थापना
  3. हर पांच साल में पंचायतों के नियमित चुनाव
  4. अनुसूचित जातियों/जनजातियों के लिए उनकी जनसंख्या के अनुपात में सीटों का आरक्षण
  5. महिलाओं के लिए एक तिहाई सीटों का आरक्षण
  6. पंचायतों की निधियों में सुधार के लिए उपाय सुझाने हेतु राज्य वित्ता आयोगों का गठन
  7. राज्य चुनाव आयोग का गठन
  8. 73वां संशोधन अधिनियम पंचायतों को स्वषासन की संस्थाओं के रूप में काम करने हेतु आवश्यक शक्तियाँ और अधिकार प्रदान करने के लिए राज्य सरकार को अधिकार प्रदान करता है।  ये शक्तियाँ और अधिकार इस प्रकार हो सकते हैंः
    1. संविधान की ग्यारहवीं अनुसूची में सूचीबद्ध 29 विषयों के संबंध में आर्थिक विकास और सामाजिक न्याय के लिए योजनाएँ तैयार करना और उनका निष्पादन करना।
    2. कर, डयूटीज, टाॅल, शुल्क लगाने और उसे वसूल करने का पंचायतों को अधिकार
    3. राज्यों द्वारा एकत्र करों, डयूटियों, टाॅल और शुल्कों का पंचायतों को हस्तांतरण।

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