भक्ति का अर्थ क्या है भक्ति के प्रकार एवं महत्व का वर्णन ?

भक्ति शब्द का अर्थ सेवा अथवा आराधना होता है। श्रद्धा और अनुराग भी इसी के अर्थ माने जाते हैं। ‘भक्ति’ शब्द ‘भज सेवायाम्’ धातु से क्तिन् प्रत्यय लगाकर बना है, जिसका अर्थ है भगवान का सेवा-प्रकार। शाण्डिल्य भक्तिसूत्र में भक्ति की व्याख्या इस प्रकार की गई है- ‘सा परानुरक्तिरीष्वरै:’ अर्थात् ईश्वर में परम् अनुरक्ति ही भक्ति है।

भक्ति के प्रकार

भक्ति के चार प्रकार माने गये है- सात्विकी, राजसी, तामसी और निर्गुण। भागवत के सप्तम् स्कन्ध में प्रहलाद जी ने विष्णु भगवान की भक्ति के नौ प्रकार बतलाये है- भगवान् की भक्ति के नौ भेद हैं। भगवान के गुण, लीला, नामादि का श्रवण, उन्हीं का कीर्तन, स्मरण, उन्हीं के चरणों की सेवा, अर्चाबन्दन, दास्य-सख्य, आत्मनिवेदन। 

यह नौ प्रकार की भक्ति को नवधा भक्ति कहते हैं।

1. नामादि का श्रवण - श्रीमद्भागवत्पुराण में नवधा भक्ति के अन्तर्गत नौ प्रकार की जिन भक्तियों का उल्लेख किया गया है, उनका संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है- भारत की अध्यात्म साधना में श्रवण का विषेश महत्व है। श्रवण क्रिया का लक्ष्य भगवान की कथाओं से प्रीति का होना ही है। वे ही उत्तम कोटि के भक्त है, जिनकी सात्विकी बुद्धि सत्कथा-श्रवण करने में लगी रहती है और भगवान के गुणों के श्रवण मात्र से ही भगवान में लीन हो जाता है।

2. कीर्तन - भगवान् का कीर्तन करना, उसमें भावविभोर होना, आनन्द का अनुभव करना, हर्ष से रोमांच होकर अश्रु बहाना ही भक्त का लक्षण है। इस प्रकार भगवान् तन्मयत्व से प्रसन्न होते हैं।

3. स्मरण - भगवान् का स्मरण भी महत्त्वपूर्ण भक्ति है। हरि स्मरण का भी श्रीमद्भागवत् में महत्व दिखाया गया है। भाग्वत के ग्यारहवें स्कन्ध में भगवान् श्री कृश्ण कहते है- जो पुरूश निरन्तर विषय चिन्तन करता है, उसका चित्त विषयों में फंस जाता है और जो मेरा स्मरण करता है, वह मुझमें लीन हो जाता है। 

4. पादन सेवन - श्रीमद्भागवत् में पाद-सेवन का विवेचन हुआ है। दषमस्कन्ध में ब्रह्माजी भगवान से कहते हैं, हे देव जो लोग आपके उभय चरण-कमलों का लेष पाकर अनुगृहीत हुए हैं वे भक्तजन ही अपनी भक्ति के महत्व को जान सकते हैं। 

5. अर्चन - अर्चन शब्द से अर्चा मूर्ति और मूर्ति-पूजा का भी महत्व परिलक्षित होता है। भागवत के दषम् स्कन्ध में इसके विषय में लिखा है- स्वर्ग, मोक्ष, पृथ्वी और रसातल की सम्पत्ति तथा समस्त योग सिद्धियों की प्राप्ति का मूल भगवान् के चरणों का अर्चन है।

6. वन्दन - वन्दन भक्ति में भगवान् की विनय, अनुनय, स्तोत्र-पाठ, प्रार्थना आदि सम्मिलित है। पादसेवन, वन्दन और अर्चन भक्तियों के व्यापार सम्बद्ध है। श्रीमद्भागवत में बहुत स्थानों पर वन्दन द्वारा स्तुति की गई है। 

7. दास्य - भक्त सेवक होता है। उसे भगवान् की सेवा दास्यभाव से करना आवश्यक है। वैष्णव के लिए विश्णुदास्य नितान्त आवश्यक है। वैष्णव के लिए दास्यभाव की आवश्यकता के कारण के रूप में यह कहा जा सकता है कि श्रीमद्भागवत् में भक्तों के जितने भी चरित्र है वे सभी दास्य-भक्ति के साथ हैं।

8. सख्य - सख्य सखा भाव भी भक्ति का एक महत्त्वपूर्ण भेद हैं। अर्जुन का श्रीकृष्ण के प्रति अप्रितम सख्यभाव था। भागवत के तृतीय स्कन्ध में भगवान् कपिल कहते हैं, जिनका मैं ही एकमात्र प्रिय पुत्र, मित्र, गुरु और इश्टदेव हूं, वे मेरे ही आश्रम में रहने वाले भक्तजन शान्तिमय वैकुण्ठ धाम में पहुँचकर किसी भी प्रकार इन दिव्य भोगों से रहित नहीं होते और न उन्हें मेरा कालचक्र ही ग्रस सकता है

9. आत्म-निवेदन - श्रीमद्भागवत् में आत्म निवेदन का बड़ा महत्व दिखाया गया है। कृश्ण भगवान् को अर्पित करने से हमारे सब भाव कृश्णमय हो जाते हैं और हमारी वासनाओं से मुक्ति हो जाती है। गीता में भगवान् श्रीकृष्ण ने अर्जुन को इस आत्मनिवेदन का उपदेश स्थान-स्थान पर दिया है। आत्म-निवेदन के पश्चात भक्त भगवान को सर्वत्र देखता है, जैसा कि गीता में कहा गया है। यो मां पष्यति सर्व मयी पष्यति।

भक्ति के प्रमुख अंग

भक्ति के पांच प्रमुख अंग माने जाते हैं- 
  1. उपासक
  2. उपास्य
  3. पूजा-विधि
  4. पूजा-द्रव्य
  5. मंत्र-जप।
1. उपासक - भक्ति के पांच अंगों में यह प्रथम और प्रधान अंग है। उपास्य के प्रति अपनी भक्ति समर्पित करने के कारण ही इसे उपासक की संज्ञा दी गयी है। यह भक्ति का कर्ता होता है और प्रतिफल भी इसे ही मिलता है। श्रीमद्भागवत में उपासक को प्रधानता प्रदान की गयी है।

2. उपास्य - भक्त द्वारा अपनी भक्ति जिसके प्रति समर्पित की जाये उसे उपास्य कहा गया है। भागवत्पुराण में यह पद भगवान् को दिया गया है। उपास्य के प्रति समर्पित भक्ति-भावना की एक विधि होती है जिसे पूजा कहते हैं। भगवान् श्रीकृश्ण ने उद्भव को पूजा की तीन विधियां बतलायी है- उपास्य के पांच प्रकार के अवतारों स्वरूप का वर्णन हुआ है- अर्थावार विभवावतार, व्यूहावतार, परावतार तथा अन्तर्यामी स्वरूप। 

अर्धावतार में ये नाम आये है- जगन्नाथ, राजेश्वर (आदि स्थाई विग्रह),आदि शालिग्राम, नर्मदेष्वर (अािद अन्य विग्रह विभवावतार में मत्स्य, कच्छप, परशुराम, आदि अंशावतार शामिल है। व्यूहावहार में वासुदेव संघर्षण, प्रद्युम्न और अनिरुद्ध अथवा राम, लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न जो परमात्मा, जीव, मन और अहंकार के प्रतिरूप हैं, आते हैं। रामकृश्ण आदि पूर्वावतार जो परमात्मा और सर्वान्तर्यामी होते हुए भी व्यक्तिगत विशिष्ट है, परावतार में आते हैं।

उपास्य के पाँचवें प्रकार का अवतार अन्तर्यामी भगवान् का माना गया है। यह स्वत: सब कुछ समझ न जान लेता है। अपने प्रति समर्पित भक्ति का स्वरूप वह स्वयं समझकर उसी के अनुरूप उपासक की प्रतिफल प्रदान करता है।

3. पूजा-विधि - भक्ति का यह तीसरा अंग है। उपासक द्वारा उपास्य के प्रति समर्पित भावना की विधि ही पूजा विधि है। मानसिक पूजा के लिये ध्यानादि तथा मूति-पूजा के लिए शोडस उपहार, आवाहन, आसन, अध्र्य, पाद्य, आचमन, स्नान, वस्त्र, यज्ञोपवीत, चन्दन, अच्छादि, पुष्प, तुलसी, आदि धूप, दीप, नैवेद्य, जल, आचमन, ताम्बूल, फल, नीराजना, परिक्रमा आदि का प्रयोग होता है। 

इन सबका प्रयोग करते हुए जो कृत्य किये जाते है वही पूजा विधि होती है।

4. पूजा-द्रव्य - इसमें कलष, दीप, घण्टी, पंचामृत, वस्त्र, यज्ञोपवीत, पुष्प, चन्दन, ताम्बूल आदि सम्मिलित है। साधनरूपा भक्ति के ये भी महत्त्वपूर्ण अंग है।

5. मंत्र -जप - इस विधान में अनेक मंत्रों की सृष्टि हुई है। मंत्र-जप में पांच तत्त्वों की बड़ा महत्व दिया गया है। पांच तत्त्व ये हैं- गुरु तत्त्व, मंत्र तत्त्व, तनस्तत्त्व, देव तत्त्व और ध्यान तत्त्व।

भागवत् सेवा के लिए मुक्ति का तिरस्कार करने वाला यह भक्ति योग ही परम पुरुषार्थ अथवा साध्य कहा गया है। इसके द्वारा पुरुष तीनों गुणों को लांघकर मेरे भाव को मेरे प्रेम रूप अप्राकृतिक स्वरूप को प्राप्त हो जाता है। 

भक्ति के ये अंग माने गये हैं, जिनके द्वारा साधक भक्त अपने भगवान का सानिध्य प्राप्त करने का प्रयास करता है।

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