12 नवम्बर 1967 को भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) के भीतर ही कलकत्ता में कम्युनिस्ट क्रान्तिकारियों के अखिल भारतीय स्तर के नेताओं की बैठक हुई जिसमें तमिलनाडु, केरल, उत्तर प्रदेश, बिहार, कर्नाटक, उड़ीसा और पश्चिमी बंगाल के नेता शामिल हुए। इन नेताओं को चीन की कम्युनिस्ट पार्टी से संदेश प्राप्त हुआ कि भारत में एक ऐसी क्रान्तिकारी इकाई का निर्माण किया जाए जिससे किसानों के बीच सशस्त्र संघर्ष के माध्यम से क्रान्ति की जा सके। चीनी नेता माओत्सेतुंग की विचारधारा से प्रभावित नेताओं ने प0 बंगाल के वर्धमान में 6 अप्रैल से 11 अप्रैल के बीच आयोजित बैठक में अखिल भारतीय समन्वय समिति का निर्माण किया।
तत्पश्चात मई 1968 को सी.पी.एम. से पूरी तरह अलग होते हुए ऑल इण्डिया कोऑर्डिनेशन कमेटी ऑफ कम्युनिस्ट रिवोल्यूशनरीज का गठन हुआ, जिसने सशस्त्र संघर्ष में विश्वास करते हुए संसदीय राजनीति का बहिष्कार करने का निर्णय लिया। AICCCR के इस निर्णय को लेकर आन्ध्र प्रदेश गुट के नेताओं में विरोधाभास था, जिसका नेतृत्व टी. नागीरेड्डी कर रहे थे। 8 फरवरी 1969 को AICCCR की बैठक में भारत में मार्क्सवादी-लेनिनवादी पार्टी के निर्माण का आह्वान किया गया।
इसमें स्पष्ट किया गया कि कोआर्डिनेशन कमेटी केवल लोकतांत्रिक सिद्धांतों पर कार्य करेगी। साथ ही वर्ग संघर्ष के रास्ते पर बढ़ते हुए क्रान्तिकारी साम्यवादी पार्टी के निर्माण की आवश्यकता पर बल देगी जो कि क्रान्तिकारियों के बीच अनुशासित तरीके से अपने लक्ष्य को प्राप्त कर सकेगी।
19 अप्रैल से 22 अप्रैल 1969 को AICCCR की एक बैठक में माओ की विचारधारा के आधार पर एक नये दल के गठन का निर्णय लिया गया जो ऐतिहासिक रूप से लेनिन की जन्म शताब्दी के अवसर पर 22 अप्रैल 1969 को हुआ। नये दल भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी लेनिनवादी) की घोषणा 1 मई 1969 को कानू सान्याल ने कलकत्ता रैली के दौरान की जिसमें पूरे देश भर के प्रतिनिधियों ने भाग लिया था। बाद में पार्टी ने अपनी संगठनात्मक संरचना का निर्माण किया जिसमें देश भर से 21 सदस्यों की केन्द्रीय समिति बनाई जो कि क्रान्तिकारी आंदोलन को नेतृत्व दे सके। साथ ही नौ सदस्यों वाली पोलित ब्यूरो तथा रीजनल ब्यूरो का निर्माण हुआ तथा पूरे देश में सक्रियता बढ़ाने हेतु चार ज़ोनों में बाँट दिया गया जिसमें पश्चिमी जोन में दिल्ली, पंजाब, कश्मीर, केन्द्रीय जोन में उत्तर प्रदेश और बिहार, पूर्वी जोन में पश्चिमी बंगाल और आसाम तथा दक्षिणी जोन में आन्ध्र प्रदेश, केरल और तमिलनाडू को शामिल किया गया।
पार्टी के अखिल भारतीय स्वरूप को विकसित करने के लिए मई 1970 को पार्टी कांग्रेस का आयोजन हुआ जिसमें चारू मजूमदार को केन्द्रीय समिति का सचिव चुना गया और गुरिल्ला संघर्षों को महत्व दिया गया।
नक्सलवादी आंदोलन का विस्तार दार्जिलिंग जिले के नक्सलबाड़ी से लेकर भारत के विभिन्न राज्यों में हुआ। राज्यों में सी.पी.आई. (मार्क्सवादी) के नेताओं ने नक्सलबाड़ी से जुड़े कार्यक्रमों और विचारों को आत्मसात करते हुए आगे बढ़ाया तथा जनवादी क्रान्ति के लिए लगातार प्रयासरत रहे। प0 बंगाल के ही मेदनीपुर जिले के देवरा और गोपीवल्लभपुरा पुलिस स्टेशनों के अंतर्गत अक्टूबर 1969 के बीच संघर्ष हुआ जो मुख्यत: स्थानीय मलखटरिया जनजाति के बीच पनपा। असीम चटर्जी और संतोष राणा, जो स्वयं आदिवासी समुदाय से संबंधित रहे, ने आंदोलन का नेतृत्व किया तथा आदिवासी नेता गुनाधर मूरमू और भावादेव मंडल ने महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। प0 बंगाल सरकार के दमन के कारण आंदोलन समाप्त हो गया। लेकिन प0 बंगाल के सीमावर्ती राज्यों में आंदोलन का तीव्र प्रसार हुआ; विशेषकर बिहार और उड़ीसा इसके नये केन्द्र बने।
सन्दर्भ -
नक्सलवादी आंदोलन का विस्तार दार्जिलिंग जिले के नक्सलबाड़ी से लेकर भारत के विभिन्न राज्यों में हुआ। राज्यों में सी.पी.आई. (मार्क्सवादी) के नेताओं ने नक्सलबाड़ी से जुड़े कार्यक्रमों और विचारों को आत्मसात करते हुए आगे बढ़ाया तथा जनवादी क्रान्ति के लिए लगातार प्रयासरत रहे। प0 बंगाल के ही मेदनीपुर जिले के देवरा और गोपीवल्लभपुरा पुलिस स्टेशनों के अंतर्गत अक्टूबर 1969 के बीच संघर्ष हुआ जो मुख्यत: स्थानीय मलखटरिया जनजाति के बीच पनपा। असीम चटर्जी और संतोष राणा, जो स्वयं आदिवासी समुदाय से संबंधित रहे, ने आंदोलन का नेतृत्व किया तथा आदिवासी नेता गुनाधर मूरमू और भावादेव मंडल ने महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। प0 बंगाल सरकार के दमन के कारण आंदोलन समाप्त हो गया। लेकिन प0 बंगाल के सीमावर्ती राज्यों में आंदोलन का तीव्र प्रसार हुआ; विशेषकर बिहार और उड़ीसा इसके नये केन्द्र बने।
बिहार के मुज्जफरपुर जिले के मुसहरी ब्लॉक में सत्यनारायण सिंह के नेतृत्व में स्थानीय किसानों ने जमींदारों के खिलाफ विद्रोह किया। इसके साथ ही बिहार के अन्य जिलों, जिनमें दरभंगा, चंपारण और मुंगेर जिले प्रभावित रहे तथा दक्षिण बिहार के धनबाद और संथाल परगना तक विभिन्न नक्सली घटनाएँ हुई। बाद के दिनों में बिहार का भोजपुर जिला नक्सलवादी आंदोलन का प्रमुख केन्द्र बना जहाँ रामेश्वर अहीर और गनेशी दुसाध ने अपने-अपने क्षेत्रों में जमींदारों और उच्च जातियों के विरुद्ध विद्रोह किया तथा ‘वर्ग दुश्मन’ की अवधारणा को आगे बढ़ाया।
बिहार की तरह ही उड़ीसा के कोरापुट, गंजाम और मयूरभंज जैसे आदिवासी बाहुल्य क्षेत्रों में नक्सलवादी आंदोलन की प्रेरणा से विभिन्न आंदोलन हुए। कोरापुर जिले के गुणपुर परगना में नागभूषण पटनायक और भुवनमोहन पटनायक ने नेतृत्व किया तथा राज्य समन्वय समिति बनाकर आंदोलन को विस्तारित किया गया। यद्यपि दीनबंधु सान्याल और जगन्नाथ मिश्र जैसे अन्य नेताओं ने भी आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभायी। जहाँ प0 बंगाल में नक्सलबाड़ी से आंदोलन की शुरूआत हुई वहीं आन्ध्र प्रदेश में श्रीकाकुलम इसका मुख्य केन्द्र रहा।
आन्ध्र प्रदेश के नेताओं और बंगाल के संगठनकर्ताओं के बीच वैचारिक भिन्नता स्पष्ट थी। इस दौर में किसानों ने अपने अधिकारों के लिए विद्रोह किया तथा 1968 में स्थानीय थारू आदिवासी जनसंख्या ने भी जंगल के सवाल पर अपना विरोध दर्ज किया, जो स्थानीय जमींदारों और धनी किसानों के विरुद्ध था। उत्तर प्रदेश में प्रमुख नक्सलवादी नेता के रूप में शिवकुमार मिश्र का नाम मुखरित रहा जो कि मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के राज्य इकाई के सचिव तथा केन्द्रीय समिति के सदस्य रहे। नक्सलबाड़ी आंदोलन के दौरान वे चारू मजूमदार के साथ जुड़े रहे। हालांकि शत्रु वध बनाम मास लाइन के प्रश्न पर वे बाद में मजूमदार से अलग हो गए। इसी दौर में पंजाब के जालंधर, लुधियाना और सांगरपुर में नक्सलवादी विद्रोह हुए जो भूमि मालिकों, किसानों तथा पुलिस के विरुद्ध थे। इनमें युवाओं, छात्रों, नीचे तबके के लोगों और आदिवासियों ने भाग लिया। इन क्षेत्रों में नक्सली साहित्य का प्रभाव रहा, जिनमें ‘पीपुल्स पाथ’, ‘लोकयुद्ध’, ‘बगावत’ और ‘लकीर’ प्रमुख रहे, जिन्होंने आम जन का नक्सलवाद की वैचारिकी से परिचय कराया। पंजाब में जे.एस. सोहाल का उद्देश्य समान ही था। आन्ध्र प्रदेश के श्रीकाकुलम में वेम्पयु सत्यनारायण, आदिवारला कैलासन, सुब्बाराव पाणिग्रही, अप्प्लासूरी, तेजेश्वर राव प्रमुख नेता थे, वहीं तेलंगाना क्षेत्र में नागीरेड्डी, पोलारेड्डी और वेंकटेश्वर राव जैसे नेताओं ने आंदोलन को नई दिशा दी।
आन्ध्र प्रदेश के आंदोलन का प्रभाव इसके सीमावर्ती तमिलनाडू और केरल में भी पड़ा। तमिलनाडू में सी.पी.आई. (मार्क्सवादी) के प्रतिनिधि कोयम्बटूर जिले के अप्पू थे। केरल के कन्ुनुर, कालीकट, मालावार, कोट्टायम और त्रिवेन्द्रम क्षेत्र में भी नक्सली घटनाएँ हुई, जहाँ लोगों ने गुरिल्ला आक्रमण के माध्यम से पुलिस स्टेशनों पर हमला किया तथा टेलीफोन के तारों को काटकर एक्सचेंजों को अपना निशाना बनाया। केरल में आंदोलन की कमान के.पी.आर. गोपालन तथा कुन्नीकल नारायणन के हाथों में रही जो “वर्ग दुश्मन” की अवधारणा में विश्वास रखते रहे। दक्षिण भारत के अलावा नक्सलवादी आंदोलन का विस्तार उत्तर भारत के उत्तर प्रदेश, पंजाब और जम्मू काश्मीर में भी रहा। उत्तर प्रदेश में गुरुमुख सिंह, बाबा बूजा सिंह, हरि सिंह और महेन्द्र सिंह ने सभी आंदोलनों का नेतृत्व किया। यद्यपि पंजाब और जम्मू-काश्मीर में नक्सली आंदोलन उत्तर प्रदेश से पूरी तरह अलग था क्योंकि उत्तर प्रदेश की तरह जमींदारी प्रथा इन दोनों राज्यों में नहीं रही, अत: आंदोलन सामंतों के विरुद्ध ही रहा।
जम्मू-काश्मीर में सी.पी.आई. (मार्क्सवादी) के प्रमुख नेता राम पियारे सर्राफ ने आंदोलन का नेतृत्व किया जो स्वयं ही पोलित ब्यूरो के सदस्य रहे। वे पीपुल्स वार और चीनी पद्धति में शुरू से ही विश्वास रखते थे, जबकि एक अन्य नेता किशन देव शेट्टी थे, जो “चीनी चेयरमैन, हमारा चेयरमैन” की अवधारणा से अलग ही रहे। चीन के नेतृत्व में इनकी आस्था नहीं थी। जम्मू-कश्मीर के नेताओं को उत्तर क्षेत्र में संगठन के विस्तार की जिम्मेदारी भी दी गई, जिनका मुख्य लक्ष्य हरियाणा और दिल्ली था। दिल्ली के विश्वविद्यालयों के परिसरों में छात्रों के बीच नक्सलवादी विचारधारा का आकर्षण शुरू से ही रहा, जिसमें विशेषकर सेंट स्टीफन कॉलेज और दिल्ली स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स के छात्र रहे। साथ ही इन्द्रप्रस्थ कॉलेज और मिरांडा हाऊस तथा लेडी श्रीराम कॉलेज की छात्राओं ने मार्क्सवादी-लेनिनवादी विचारधारा से प्रेरित छोटे-छोटे संगठन बना रखे थे, जिनमें ‘युगांतक’ जैसा राजनीतिक-सांस्कृतिक क्लब था, जो क्रान्ति के प्रति नौजवानों की खुली वकालत करता रहा। इसके अलावा जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के छात्र-छात्राएँ, जो वामपंथ से प्रभावित रहे, बिहार के भोजपुर जिले में बाद के दिनों में लोगों की सामाजिक-आर्थिक चेतना के मार्गदर्शक रहे।
सन्दर्भ -
- Routledge, D., “Space, Mobility and Collective Action: India’s Naxalite Movement,” Environment and Planning, Vol.29, 1997, pp. 2174.
- Liberation, Vol. 2, No. 7, March 1968, p.3.
- J.C. Johari, Naxalite Politics in India, Institute of Constitutional & Parliamentary Studies Research Publications, Delhi, 1972, p. 48.
- “Revolutionary Armed Peasant Struggle in Debra, West Bengal,” being a report of the Debra Thana Organizing Committee, CPI (ML), Liberation, December, 1969, p. 73.
- Singh, Satyanarayan,“Mushehari and its Lessons,” Liberation, October, 1969, p. 22.
- Singh, Prakash, The Naxalite Movement in India, Rupa Publication, New Delhi, 1995, p. 75.
- “Armed Peasant Struggle in the Palia Area of Lakhimpur,” A Report of an interview with the revolutionaries of the Palia area, Liberation, Vol. 2, No. 6, April 1969.
- Das, Gupta, Biplab, The Naxal Movement, Allied Publishers, Bombay, 1974, p. 29.
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Singh, Prakash, The Naxalite Movement in India, Rupa Publication, New Delhi, 1995, p. 77.