भारत में कम्युनिस्ट पार्टी का इतिहास

12 नवम्बर 1967 को भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) के भीतर ही कलकत्ता में कम्युनिस्ट क्रान्तिकारियों के अखिल भारतीय स्तर के नेताओं की बैठक हुई जिसमें तमिलनाडु, केरल, उत्तर प्रदेश, बिहार, कर्नाटक, उड़ीसा और पश्चिमी बंगाल के नेता शामिल हुए। इन नेताओं को चीन की कम्युनिस्ट पार्टी से संदेश प्राप्त हुआ कि भारत में एक ऐसी क्रान्तिकारी इकाई का निर्माण किया जाए जिससे किसानों के बीच सशस्त्र संघर्ष के माध्यम से क्रान्ति की जा सके। चीनी नेता माओत्सेतुंग की विचारधारा से प्रभावित नेताओं ने प0 बंगाल के वर्धमान में 6 अप्रैल से 11 अप्रैल के बीच आयोजित बैठक में अखिल भारतीय समन्वय समिति का निर्माण किया।

तत्पश्चात मई 1968 को सी.पी.एम. से पूरी तरह अलग होते हुए ऑल इण्डिया कोऑर्डिनेशन कमेटी ऑफ कम्युनिस्ट रिवोल्यूशनरीज का गठन हुआ, जिसने सशस्त्र संघर्ष में विश्वास करते हुए संसदीय राजनीति का बहिष्कार करने का निर्णय लिया। AICCCR के इस निर्णय को लेकर आन्ध्र प्रदेश गुट के नेताओं में विरोधाभास था, जिसका नेतृत्व टी. नागीरेड्डी कर रहे थे। 8 फरवरी 1969 को AICCCR की बैठक में भारत में मार्क्सवादी-लेनिनवादी पार्टी के निर्माण का आह्वान किया गया। 

इसमें स्पष्ट किया गया कि कोआर्डिनेशन कमेटी केवल लोकतांत्रिक सिद्धांतों पर कार्य करेगी। साथ ही वर्ग संघर्ष के रास्ते पर बढ़ते हुए क्रान्तिकारी साम्यवादी पार्टी के निर्माण की आवश्यकता पर बल देगी जो कि क्रान्तिकारियों के बीच अनुशासित तरीके से अपने लक्ष्य को प्राप्त कर सकेगी। 

19 अप्रैल से 22 अप्रैल 1969 को AICCCR की एक बैठक में माओ की विचारधारा के आधार पर एक नये दल के गठन का निर्णय लिया गया जो ऐतिहासिक रूप से लेनिन की जन्म शताब्दी के अवसर पर 22 अप्रैल 1969 को हुआ। नये दल भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी लेनिनवादी) की घोषणा 1 मई 1969 को कानू सान्याल ने कलकत्ता रैली के दौरान की जिसमें पूरे देश भर के प्रतिनिधियों ने भाग लिया था। बाद में पार्टी ने अपनी संगठनात्मक संरचना का निर्माण किया जिसमें देश भर से 21 सदस्यों की केन्द्रीय समिति बनाई जो कि क्रान्तिकारी आंदोलन को नेतृत्व दे सके। साथ ही नौ सदस्यों वाली पोलित ब्यूरो तथा रीजनल ब्यूरो का निर्माण हुआ तथा पूरे देश में सक्रियता बढ़ाने हेतु चार ज़ोनों में बाँट दिया गया जिसमें पश्चिमी जोन में दिल्ली, पंजाब, कश्मीर, केन्द्रीय जोन में उत्तर प्रदेश और बिहार, पूर्वी जोन में पश्चिमी बंगाल और आसाम तथा दक्षिणी जोन में आन्ध्र प्रदेश, केरल और तमिलनाडू को शामिल किया गया। 

पार्टी के अखिल भारतीय स्वरूप को विकसित करने के लिए मई 1970 को पार्टी कांग्रेस का आयोजन हुआ जिसमें चारू मजूमदार को केन्द्रीय समिति का सचिव चुना गया और गुरिल्ला संघर्षों को महत्व दिया गया। 

नक्सलवादी आंदोलन का विस्तार दार्जिलिंग जिले के नक्सलबाड़ी से लेकर भारत के विभिन्न राज्यों में हुआ। राज्यों में सी.पी.आई. (मार्क्सवादी) के नेताओं ने नक्सलबाड़ी से जुड़े कार्यक्रमों और विचारों को आत्मसात करते हुए आगे बढ़ाया तथा जनवादी क्रान्ति के लिए लगातार प्रयासरत रहे। प0 बंगाल के ही मेदनीपुर जिले के देवरा और गोपीवल्लभपुरा पुलिस स्टेशनों के अंतर्गत अक्टूबर 1969 के बीच संघर्ष हुआ जो मुख्यत: स्थानीय मलखटरिया जनजाति के बीच पनपा। असीम चटर्जी और संतोष राणा, जो स्वयं आदिवासी समुदाय से संबंधित रहे, ने आंदोलन का नेतृत्व किया तथा आदिवासी नेता गुनाधर मूरमू और भावादेव मंडल ने महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। प0 बंगाल सरकार के दमन के कारण आंदोलन समाप्त हो गया। लेकिन प0 बंगाल के सीमावर्ती राज्यों में आंदोलन का तीव्र प्रसार हुआ; विशेषकर बिहार और उड़ीसा इसके नये केन्द्र बने। 

बिहार के मुज्जफरपुर जिले के मुसहरी ब्लॉक में सत्यनारायण सिंह के नेतृत्व में स्थानीय किसानों ने जमींदारों के खिलाफ विद्रोह किया। इसके साथ ही बिहार के अन्य जिलों, जिनमें दरभंगा, चंपारण और मुंगेर जिले प्रभावित रहे तथा दक्षिण बिहार के धनबाद और संथाल परगना तक विभिन्न नक्सली घटनाएँ हुई। बाद के दिनों में बिहार का भोजपुर जिला नक्सलवादी आंदोलन का प्रमुख केन्द्र बना जहाँ रामेश्वर अहीर और गनेशी दुसाध ने अपने-अपने क्षेत्रों में जमींदारों और उच्च जातियों के विरुद्ध विद्रोह किया तथा ‘वर्ग दुश्मन’ की अवधारणा को आगे बढ़ाया। 

बिहार की तरह ही उड़ीसा के कोरापुट, गंजाम और मयूरभंज जैसे आदिवासी बाहुल्य क्षेत्रों में नक्सलवादी आंदोलन की प्रेरणा से विभिन्न आंदोलन हुए। कोरापुर जिले के गुणपुर परगना में नागभूषण पटनायक और भुवनमोहन पटनायक ने नेतृत्व किया तथा राज्य समन्वय समिति बनाकर आंदोलन को विस्तारित किया गया। यद्यपि दीनबंधु सान्याल और जगन्नाथ मिश्र जैसे अन्य नेताओं ने भी आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभायी। जहाँ प0 बंगाल में नक्सलबाड़ी से आंदोलन की शुरूआत हुई वहीं आन्ध्र प्रदेश में श्रीकाकुलम इसका मुख्य केन्द्र रहा। 

आन्ध्र प्रदेश के नेताओं और बंगाल के संगठनकर्ताओं के बीच वैचारिक भिन्नता स्पष्ट थी। इस दौर में किसानों ने अपने अधिकारों के लिए विद्रोह किया तथा 1968 में स्थानीय थारू आदिवासी जनसंख्या ने भी जंगल के सवाल पर अपना विरोध दर्ज किया, जो स्थानीय जमींदारों और धनी किसानों के विरुद्ध था। उत्तर प्रदेश में प्रमुख नक्सलवादी नेता के रूप में शिवकुमार मिश्र का नाम मुखरित रहा जो कि मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के राज्य इकाई के सचिव तथा केन्द्रीय समिति के सदस्य रहे। नक्सलबाड़ी आंदोलन के दौरान वे चारू मजूमदार के साथ जुड़े रहे। हालांकि शत्रु वध बनाम मास लाइन के प्रश्न पर वे बाद में मजूमदार से अलग हो गए। इसी दौर में पंजाब के जालंधर, लुधियाना और सांगरपुर में नक्सलवादी विद्रोह हुए जो भूमि मालिकों, किसानों तथा पुलिस के विरुद्ध थे। इनमें युवाओं, छात्रों, नीचे तबके के लोगों और आदिवासियों ने भाग लिया। इन क्षेत्रों में नक्सली साहित्य का प्रभाव रहा, जिनमें ‘पीपुल्स पाथ’, ‘लोकयुद्ध’, ‘बगावत’ और ‘लकीर’ प्रमुख रहे, जिन्होंने आम जन का नक्सलवाद की वैचारिकी से परिचय कराया। पंजाब में जे.एस. सोहाल का उद्देश्य समान ही था। आन्ध्र प्रदेश के श्रीकाकुलम में वेम्पयु सत्यनारायण, आदिवारला कैलासन, सुब्बाराव पाणिग्रही, अप्प्लासूरी, तेजेश्वर राव प्रमुख नेता थे, वहीं तेलंगाना क्षेत्र में नागीरेड्डी, पोलारेड्डी और वेंकटेश्वर राव जैसे नेताओं ने आंदोलन को नई दिशा दी। 

आन्ध्र प्रदेश के आंदोलन का प्रभाव इसके सीमावर्ती तमिलनाडू और केरल में भी पड़ा। तमिलनाडू में सी.पी.आई. (मार्क्सवादी) के प्रतिनिधि कोयम्बटूर जिले के अप्पू थे। केरल के कन्ुनुर, कालीकट, मालावार, कोट्टायम और त्रिवेन्द्रम क्षेत्र में भी नक्सली घटनाएँ हुई, जहाँ लोगों ने गुरिल्ला आक्रमण के माध्यम से पुलिस स्टेशनों पर हमला किया तथा टेलीफोन के तारों को काटकर एक्सचेंजों को अपना निशाना बनाया। केरल में आंदोलन की कमान के.पी.आर. गोपालन तथा कुन्नीकल नारायणन के हाथों में रही जो “वर्ग दुश्मन” की अवधारणा में विश्वास रखते रहे। दक्षिण भारत के अलावा नक्सलवादी आंदोलन का विस्तार उत्तर भारत के उत्तर प्रदेश, पंजाब और जम्मू काश्मीर में भी रहा। उत्तर प्रदेश में गुरुमुख सिंह, बाबा बूजा सिंह, हरि सिंह और महेन्द्र सिंह ने सभी आंदोलनों का नेतृत्व किया। यद्यपि पंजाब और जम्मू-काश्मीर में नक्सली आंदोलन उत्तर प्रदेश से पूरी तरह अलग था क्योंकि उत्तर प्रदेश की तरह जमींदारी प्रथा इन दोनों राज्यों में नहीं रही, अत: आंदोलन सामंतों के विरुद्ध ही रहा। 

जम्मू-काश्मीर में सी.पी.आई. (मार्क्सवादी) के प्रमुख नेता राम पियारे सर्राफ ने आंदोलन का नेतृत्व किया जो स्वयं ही पोलित ब्यूरो के सदस्य रहे। वे पीपुल्स वार और चीनी पद्धति में शुरू से ही विश्वास रखते थे, जबकि एक अन्य नेता किशन देव शेट्टी थे, जो “चीनी चेयरमैन, हमारा चेयरमैन” की अवधारणा से अलग ही रहे। चीन के नेतृत्व में इनकी आस्था नहीं थी। जम्मू-कश्मीर के नेताओं को उत्तर क्षेत्र में संगठन के विस्तार की जिम्मेदारी भी दी गई, जिनका मुख्य लक्ष्य हरियाणा और दिल्ली था। दिल्ली के विश्वविद्यालयों के परिसरों में छात्रों के बीच नक्सलवादी विचारधारा का आकर्षण शुरू से ही रहा, जिसमें विशेषकर सेंट स्टीफन कॉलेज और दिल्ली स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स के छात्र रहे। साथ ही इन्द्रप्रस्थ कॉलेज और मिरांडा हाऊस तथा लेडी श्रीराम कॉलेज की छात्राओं ने मार्क्सवादी-लेनिनवादी विचारधारा से प्रेरित छोटे-छोटे संगठन बना रखे थे, जिनमें ‘युगांतक’ जैसा राजनीतिक-सांस्कृतिक क्लब था, जो क्रान्ति के प्रति नौजवानों की खुली वकालत करता रहा। इसके अलावा जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के छात्र-छात्राएँ, जो वामपंथ से प्रभावित रहे, बिहार के भोजपुर जिले में बाद के दिनों में लोगों की सामाजिक-आर्थिक चेतना के मार्गदर्शक रहे। 

भारत में कम्युनिस्ट पार्टी का इतिहास 

मॉस्को में मार्च 1919 को तीसरा अंतर्राष्ट्रीय कम्युनिस्ट सम्मेलन आयोजित हुआ, जिसमें रूस के कम्युनिस्ट नेता लेनिन ने शक्ति पर नियंत्रण हेतु अपना कार्यक्रम प्रस्तुत किया। लेनिन के नेतृत्व में पहले समाजवादी गणराज्य की स्थापना सोवियत रूस में हो चुकी थी और वह सफलता पूर्वक सरकार का संचालन कर रही थी। यह सफलता पूरे यूरोप सहित एशिया के देशों को समाजवादी शासन की स्थापना के लिए आकर्षित कर रही थी। इसी परिप्रेक्ष्य में भारत के साम्यवादी विचार वाले नेता जो जर्मनी, फ्रांस, इंग्लैण्ड और अमेरिका में रह रहे थे, वे सभी तीसरे अंतर्राष्ट्रीय कम्युनिस्ट सम्मेलन में शामिल होने के लिए मॉस्को पहुँचे। इनमें एम.एन. राय, उनकी अमेरिकन पत्नी एल्विन राय, डॉ. भूपेन्द्र नाथ दत्त, अवानी मुखर्जी, नलिनी गुप्ता, पी.टी. आचार्य इत्यादि शामिल थे। यद्यपि एम.एन. राय ने भारतीय जनता की ओर से कम्युनिस्ट कांग्रेस में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। 

अगले वर्ष 18 जुलाई से 7 अगस्त 1920 को रूस की कम्युनिस्ट पार्टी की द्वितीय कांग्रेस हुई, जिसमें एम.एन. राय ने भागीदारी की इसमें भारत का प्रतिनिधित्व अवानी मुखर्जी और पी.टी. आचार्य ने किया। इसी दौरान नवम्बर 1920 में ताशकंद में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का गठन हुआ, जिसके पहले महासचिव मोहम्मद शकील रहे। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के गठन को लेकर मतभेद रहे हैं। वर्तमान कम्युनिस्ट पार्टी के अनुसार उसकी स्थापना 1925 में कानपुर में हुई थी, तथा ताशकंद में गठित पार्टी में मुख्यत: वे लोग शामिल थे जो विदेशों में माक्र्सवाद के प्रभाव में आए। इनमें एम.एन. राय, एल्विन राय और मोहम्मद अली जैसे नेता थे, लेकिन 1925 में गठित कम्युनिस्ट पार्टी में एस.वी. घाटे और श्रीपाद अमृत डांगे जैसे नेता भारत में मजदूर संघों की परम्परा से निकले थे। एंजिल्स को लिखे पत्र में माक्र्स ने यह उल्लेख किया कि, “भारत की जनता की जो क्रान्ति है और जिस गंभीरता के साथ वे लड़ रहे हैं, ऐसा प्रतीत होता है कि वे भी हमारे संबंधी हैं।” 

1882 में माक्र्स ने काउट्रस्की को लिखा कि वास्तव में भारत में क्रान्ति की सम्भावना दिखती है तथा लेनिन का मत था कि भारत में भी जनमानस के बीच राजनीतिक जन आंदोलन की चेतना विकसित हो चुकी है। लेकिन लेनिन भारत में कभी भी कम्युनिस्ट पार्टी के गठन के पक्ष में नही रहे। इस बात से एम.एन. राय से उनका मतभेद रहा। लेनिन के अनुसार सामंतवाद के विरुद्ध भारत में उपजे किसान आंदोलन को राष्ट्रीय आंदोलन के नेताओं का समर्थन करना चाहिए; जबकि राय ने अपने ग्रन्थ ‘सोषलिस्ट रिवोल्यूशन’ में कहा कि भारत में स्वतंत्रता के लिए चल रहा संघर्ष बुर्जुवा हाथों में है। असल में यह आंदोलन बुर्जुवा लोकतांत्रिक आंदोलन रह गया है, जिसका गरीब किसानों और मजदूरों के शोषण से कोई सरोकार नहीं है। लेनिन के विचार को मानने वाले भारतीय कम्युनिस्टों ने राष्ट्रीय आंदोलन में सोवियत रूस को अपना आदर्श मानते हुए राष्ट्रीय आंदोलन में अपने शुरूआती दौर में भाग लिया। इसके परिणामस्वरूप अंग्रेजों ने भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के ऊपर प्रतिबंध लगा दिया। बहरहाल 1939 में द्वितीय विश्व युद्ध में सोवियत संघ की भूमिका को लेकर भारत के कम्युनिस्टों के दृष्टिकोण में परिवर्तन आया और उन्होंने सोवियत संघ के साम्राज्यवादी युद्ध को ‘जन युद्ध’ घोषित किया और उसके पक्ष में खड़े रहे। 

पी.सी. जोशी ने भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव के रूप में 1945 के प्रोविन्षियल एसेम्बली चुनाव में पार्टी की भागीदारी का निर्णय लिया। लेकिन वी.टी. रानाडोव, जी.एच. अधिकारी और अजय घोष ने भारतीय संसद को बुर्जुवा प्रभुत्व संस्थान मानते हुए चुनाव में भाग नहीं लेने का निर्णय लिया। रानाडोव को छोड़कर बाकी दोनों ने जोशी की नीति का “लेनिन संरचना” में रखते हुए समर्थन किया। 28 फरवरी से 6 मार्च 1948 तक भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी द्वारा कलकत्ता में आयोजित दूसरी कांग्रेस में महासचिव पी.सी. जोशी को दक्षिणवादी संशोधनवाद का पक्षधर मानते हुए महासचिव के पद से हटा दिया गया और वी.टी. रानाडोव नए महासचिव घोषित हुए। जोशी ग्रुप और रानाडोव ग्रुप के बीच इस बात को लेकर संघर्ष छिड़ा कि राजनीतिक शक्ति को प्राप्त करने की रणनीति क्या होगी? एक पक्ष संसदीय प्रणाली को स्वीकार करने पर बल देता रहा तो दूसरा पक्ष मजदूर वर्ग के साथ सर्वहारा क्रान्ति पर जोर देता रहा। वहीं रानाडोव का मत था कि भारत की आजादी वास्तविक आजादी नहीं बल्कि ब्रिटिश सरकार द्वारा नव उपनिवेशवाद का ही रूपान्तरण कर दिया गया है। उन्होंने शहर आधारित सोवियत रूस की क्रान्ति की बात करते हुए, भारत के शहरों में मजदूरों के हड़ताल करने पर जोर दिया। इसी दौरान चीन में 1949 की माओ की क्रान्ति ने भारत में कम्युनिस्ट पार्टी के बीच एक नई धारा का सूत्रपात किया। 

आन्ध्र प्रदेश के कम्युनिस्ट नेता पी. सुन्दरैया और आर. राजेश्वर राव ने माओ की अवधारणा में विश्वास करते हुए भारत में ‘नए लोकतंत्र‘ की स्थापना की बात रखी। इस तरह मई 1950 में कम्युनिस्ट पार्टी की केन्द्रीय कार्यकारिणी की बैठक में आर. राजेश्वर राव ने वी.टी. रानाडोव को पद्च्युत कर महासचिव का पद ग्रहण किया। यद्यपि राव चीन की लाइन में विश्वास करते थे जो क्रान्तिकारी संघर्ष का पक्षधर रहा। उन्होंने नौ सदस्यीय पोलित ब्यूरो में आन्ध्र प्रदेश के चार नेताओं को प्रमुखता दी। इस तरह भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के भीतर तीन तरह के ग्रुप बने, जिसमें अति चरमपंथी गुट का नेतृत्व राजेश्वर राव के हाथों में रहा, जबकि वी.टी. रानाडोव केन्द्रीय पक्ष और पी.सी. जोशी को दक्षिणपंथी बताया गया। बाद में 1 जुलाई 1951 को केन्द्रीय ग्रुप के अजय घोष पार्टी महासचिव के पद पर काबिज हुए। आजादी के बाद प्रथम आम चुनाव में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी शामिल हुई जिसने लोकसभा में 26 सीटें प्राप्त की। 

कालांतर में भारत-चीन मुद्दे को लेकर कम्युनिस्ट पार्टी के भीतर विभिन्न मत प्रकट हुए। यद्यपि भारत और चीन के बीच सीमा विवाद 1950 के बाद से ही मुद्दा बना रहा, वहीं 1956-57 में तिब्बती दलाई लामा की भारत यात्रा ने भारत और चीन के बीच विवादों को और गहरा किया। इसी बीच भारत-चीन ने पंचशील जैसा समझौता किया था, लेकिन 20 अक्टूबर 1959 को नौ भारतीय पुलिसकर्मियों की चीन द्वारा हुई हत्या, पहला गम्भीर तनाव का विषय बना और इन बातों को लेकर भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी कई समूहों में विभाजित हो गई। एक ओर अजय घोष ने भारत सरकार के बिन्दुओं का समर्थन किया तो वहीं दूसरी ओर आर. रामामूर्ति, ए.के. गोपालन और नम्बूदरीपाद जैसे नेता पार्टी की भूमिका के विरोध में रहे। 

1 नवम्बर 1962 को कम्युनिस्ट पार्टी की राष्ट्रीय परिषद ने चीन की भारत के प्रति भूमिका की आलोचना की; जबकि ज्योति बसु, पी. सुन्दरैया और हरकिशन सिंह सुरजीत ने इसके विरोध में केन्द्रीय सचिवालय से इस्तीफा दे दिया। इससे पहले 13 जनवरी 1962 को पार्टी महासचिव अजय घोष की मृत्यु के बाद एस.ए. डांगे को चेयरमैन बनाया गया जो दक्षिणी धारा के नेता थे; जबकि केन्द्रीय गु्रप के इ.एम.एस. नम्बूदरीपाद महासचिव बनें। उन्होंने तुरंत इस्तीफा दे दिया साथ ही पार्टी के 32 नेताओं ने नम्बूदरीपाद के साथ पार्टी बैठक का बहिष्कार किया। पार्टी की राष्ट्रीय परिषद् ने अनुशासनात्मक कार्यवाही करते हुए पार्टी के सात सदस्यों को निष्कासित कर दिया और 25 सदस्यों को निलम्बित कर दिया। 7 जुलाई 1964 को ज्योति बसु ने उद्घोषणा की कि वे भारत के कम्युनिस्ट दल हैं जिन्हें दोनों ग्रुपों ने मान्यता नहीं दी। इसी परिप्रेक्ष्य में 31 अक्टूबर 1964 को कलकत्ता में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के विखण्डन के बाद एक नई कम्युनिस्ट पार्टी बनी जिसे भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (माक्र्सवादी) कहा गया। 

कालांतर में माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के भीतर ही एक अन्य ग्रुप सक्रिय रहा जो चीन के नेता माओ को अपना आदर्श मानता था तथा संसदीय राजनीति का बहिष्कार करते हुए बंदूक से शक्ति प्राप्त करने में विश्वास करता था। उसका मानना था कि अमेरिका जहाँ साम्राज्यवादी है वहीं सोवियत संघ भी सामाजिक साम्राज्यवादी है, साथ ही भारत को अर्द्धसामंती और अर्द्धउपनिवेशी मानते हुए वर्ग संघर्ष का पक्षधर रहा। इस तरह विभिन्न मुद्दों को लेकर सी.पी.एम. से अलग होकर अप्रैल 1969 में एक नई पार्टी बनी जिसे भारतीय कम्युनिस्ट पाटी, (माक्र्सवादी लेनिनवादी) कहा गया जिसने किसानों का पक्ष लेते हुए मजदूर संघों से दूरी रखी। इसके प्रमुख नेताओं में चारू मजूमदार रहे जो पार्टी गठन के बाद सी.पी.आई. (एम.एल.) के महासचिव बने। वे माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी में सिलीगुड़ी सबडीविज़न स्तर के नेता थे। इसके बाद कानू सान्याल, खोखन मजूमदार, आसीत सेन, असीम चटर्जी इत्यादि नेता रहे जो भारत में चीन की तरह कृषि क्रान्ति के पक्षधर रहे तथा चीन के नेता को अपना नेता मानते थे। बाद के दिनों में सी.पी.आई. (एम.एल.) के भीतर भी कई गुट प्रभावी रहे जिनमें आन्ध्र प्रदेश का टी. नागीरेड्डी का ग्रुप जहाँ चुनाव के बहिष्कार के पक्ष में नहीं रहा, वहीं परिमल दासगुप्ता जैसे नेता मजदूर संघों को भी दल से जोड़ने की बात करते रहे। नक्सलबाड़ी की घटना के बाद पार्टी का देश स्तर पर विस्तार हुआ, लेकिन चीन में माओत्सेतुंग और लिन बिआउ की धारा को मानने वालों का प्रभाव भारत में भी दिखा और बाद में पार्टी कई भागों में विभाजित हो गई। 

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