अनुक्रम
महालवाड़ी व्यवस्था के अंतर्गत भू-राजस्व प्रति खेत के स्थान पर प्रतिग्राम या जागीर के आधार पर निर्धारित किया गया। इसमें गाँव का मुखिया भू-पति गाँव के सभी कृषकों से भू-राजस्व की रकम वसूलकर कोष में जमा कराता था। समस्त महाल या ग्राम सम्मिलित रूप से राजस्व जमा कराने हेतु उत्तरदायी थे।
यह प्रथा सन् 1801 में अवध क्षेत्र व सन् 1803-1804 में मराठा क्षेत्रों में लागू की गई। इसमें किसान व्यक्तिगत रूप से भू-स्वामी नहीं था, वरन् सम्पूर्ण महाल की कर निर्धारित भू-इकाई सामुदायिक स्वामित्व की अधिकारिणी थी। राजस्व जमा कराने का कार्य ग्राम प्रधान या जमींदार करता था।
गंगाघाटी व उत्तर-पश्चिमी प्राँतों व भारत के अन्य भागों में भी इसे लागू किया गया। प्रारम्भ में इसे अवध क्षेत्रों में 3-4 वर्षों के लिए लागू किया गया व इस अवधि में 25 प्रतिशत राजस्व वृद्धि की गई। सन् 1807-17 के मध्य 50 प्रतिशत वृद्धि की गई। 1822 ई. में इसे औपचारिक रूप से लागू किया गया। इसके अनुसार जमींदार को जागीरों में वसूले राजस्व का 83 प्रतिशत सरकार के कोष में जमा कराना पड़ता था। 1833 ई. में महालवाड़ी व्यवस्था की बर्ड योजना लागू की गई जिसका जन्मदाता मार्टिन बर्ड था।
इस योजना के अनुसार ग्राम समूह को महाल के रूप 21
में गठित कर उन्हें गाँवों में विभाजित कर दिया गया। इस योजना को उत्तर पश्चिमी क्षेत्र में भी लागू कर दिया गया। लगान 2/3 निर्धारित किया गया। यह 30 वषोर्ं के लिए लागू किया गया। लगान चूँकि 60 प्रतिशत था जो बहुत अधिक था। 1855 ई. में डलहौजी ने इसे घटाकर 50 प्रतिशत कर दिया। यह योजना किसानों के लिए बौझा सिद्ध हुई।
इस भू-राजस्व प्रणाली के परिणाम घातक सिद्ध हुये-
- अब जमीन हस्ताँतरणीय बन गई। इसे बेचा, खरीदा व गिरवी रखा जा सकता था अन्यथा लगान जो बहुत भारी था, चुकाना असंभव था।
- भूमि विनिमय का साधन बन गई। कुटीर उद्योगों की बर्बादी, साहूकारों के पतन के कारण लोगों का भूमि की ओर आर्कषण बढ़ने लगा। भू-पति किसान अब भू-श्रमिक मात्र रह गया।
- किसान ऋण बोझ से दबने लगे क्योंकि लगान वसूली में अनावृष्टि व अकाल की स्थिति में भी राहत नही थी।
- भूमि के हस्ताँतरणीय हो जाने के कारण खेतों के भू-खण्ड टुकड़ों में बिकने लगे खेतों का आकार छोटा होता गया। अत: कृषि विकास व उन्नति के प्रयास अवरूद्ध हो गए।
- जमींदार वर्ग का बिचौलिये के रूप में उदय हुआ जो सरकार के प्रति निष्ठावान व कृषकों का शोषक बन गया।
- अब सरकार उन्हीं वस्तुओं की खेती को प्रोत्साहन देने लगी, जो औद्योगिक कारखानों को कच्चे माल निर्यात हेतु उपयोगी हो, जैसे- रूई, पटसन, नील, अफीम व चाय आदि।
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