बाबा नाम से पुकारे जाने वाले प्रगतिशील जनकवि नागार्जुन (मूल नाम श्री वैद्यनाथ मिश्र) का
जन्म कब हुआ उन्हें भी ठीक से नहीं मालूम। 1911 की जून में वे किसी दिन पैदा हुए ऐसा मान
लिया जाता है। माँ का देहांत बचपन में ही हो गया, पिता की कई संताने नहीं बचीं। वैद्यनाथ
की मान्यता से ये अकेले बचे। नागार्जुन मैथिली ब्राह्मणों के संस्कृत पंडित घराने से हैं। परदादा,
पिता सब खेती करते थे, बिहार के दरभंगा प्रांत में नागार्जुन की प्रारंभिक शिक्षा घर पर ही संस्कृत पाठशाला में हुई। फिर काशी और कलकत्ता में संस्कृत का अध्ययन किया।
काशी में रहते
हुए ही नागार्जुन ने अवधी, ब्रज, खड़ी बोली का भी अध्ययन किया, मैथिली में वैदेह उपनाम से
लिखना भी शुरू कर दिया। पहली बार 1930 में मैथिली में पहली कविता छपी, इसी दौरान
1932 में नागार्जुन का अपराजिता से विवाह हो गया।
इनके पिता गोकुल मिश्र भी कम पढे लिखे थे एवं खेती बाड़ी का थोड़ा बहुत कार्य करने के साथ पुरोहिती का शौक भी रखते थे। नागार्जुन के पितामह का नाम छत्रमणि मिश्र तथा प्रमितामह का नाम पारसमणि मिश्र था। ये दोनों भी कम पढे लिखे किन्तु ईमानदार स्वभाव के व्यक्ति थे।
वैद्यनाथ मिश्र जब पाँच वर्ष के हुए तब पारम्परिक ढंग से शुभ मुहूर्त विचार कर सरस्वती पूजन क्रिया सम्पन्न करा कर उन्हें गाँव की संस्कृत पाठशाला में भर्ती करा दिया गया। नागार्जुन अंग्रेजी माध्यम में पढना चाहते थे किन्तु पिता का रवैया अंगे्रजी शिक्षा के प्रति विपरीत था। भविष्य में कम से कम वैद्यनाथ पंडिताई तो ठीक प्रकार से कर सके ऐसा सोच कर पिता ने उन्हें संस्कृत शिक्षा की ही अनुमति प्रदान की। उन दिनों गाँव की संस्कृत पाठशाला को ‘टोल’ कहते थे।
नागार्जुन अपने प्रारम्भिक जीवन की जानकारी देते हुए ‘‘आईने के सामने’’ में लिखते हैं कि ‘‘मैं उन व्यक्तियों में नहीं था जिनका जन्म सम्भ्रान्त, सुशिक्षित, सम्पन्न परिवारों में हुआ हो। मेरी मूल शिक्षा घरेलू ढंग की परम्परावादी ब्राह्मण खानदान की सामान्य थी। पिता अकिंचन थे और पारिवारिक जिम्मेदारियों से कतराने की लत में स्पष्ट नजर आती थी। उस स्थिति में पिता की दृष्टि में मेरे लिए दो ही विकल्प थे या तो मैं निरक्षर छोड़ दिया जाऊँ या फिर मूर्खता के विकल्प में संस्कृत की शिक्षा के लिए ग्रामीण पंडिताऊ पाठशाला में बैठकर ‘‘लघुसिद्धान्त कौमुदी’’ की रटन्त शैली वाली पढाई में लग जाऊँ। लगता है कि अपठित होने के कारण मेरे पिता को घुटन की ग्लानी झेलनी पड़ी थी। इसी से पिता ने अपने एकमात्र पुत्र को संस्कृत पाठशाला में बिठा दिया एवं बड़ी मुस्तैदी से निगरानी भी करने लगे।’’
उन दिनों मिथिला में कुछ धनी व्यक्ति मेधावी विद्यार्थियों की शिक्षा में खर्च वहन करते थे, नागार्जुन उन विद्यार्थियों में से एक थे। उन्हें दरभंगा की महारानी द्वारा छात्रवृत्ति प्रदान की जाती थी। वैद्यनाथ मिश्र ने 1925 में ‘लघुसिद्धान्त कौमुदी’ लेकर संस्कृत पाठशाला में ‘‘प्रथमा’’ की परीक्षा उत्तीर्ण की एवं परीक्षा में प्रथम स्थान भी प्राप्त किया। ‘‘प्रथमा’’ उत्तीर्ण करने के पश्चात् तरौनी से लगभग 70 किमी दूर गानौली संस्कृत पाठशाला में व्याकरण में ही ‘‘मध्यमा’’ की परीक्षा उत्तीर्ण की। तत्पश्चात् किशोर ठक्कन अर्थात् वैद्यनाथ मिश्र ‘’शास्त्री’’ बनने के लिए काशी (वाराणसी) चले गये।
नागार्जुन का जीवन परिचय
नागार्जुन का जन्म सन् 1911 में बिहार के दरभंगा जिले के तरौनी ग्राम में हुआ था। इनका जन्म स्थान ननिहाल ग्राम सतलखा, पोस्ट मधुबनी, जिला दरभंगा, बिहार है। इनका पैतृक गाँव इसी जिले का ‘तरौनी’ गाँव है। नागार्जुन के पिता का नाम ‘गोकुल मिश्र’
तथा माता का नाम ‘उमा देवी’ था। लगातार चार सन्तानों के काल ग्रसित हो जाने के
पाश्चात्य भगवान शिव की पूजा अर्चना एवं महीने भर के अनुष्ठान के पश्चात गोकुल मिश्र
को पुत्र प्राप्ति हुई।
बाबा वैद्यनाथ की कृपा होने के कारण इस बालक का नाम वैद्यनाथ मिश्र
रखा गया। पूर्व चार सन्तानों की मृत्यु से सशंकित घर की वृद्धाओं ने एवं इनकी बुआ ने
इनका नाम ‘ठक्कन’ रख दिया। उनका विश्वास था कि ठक्कन कहने से शायद वे बच जायें
एवं अन्य सन्तानों की तरह अपने माता पिता को ठगकर ना चले जायें। आज भी इनके गाँव
के बड़े बूढ़े इन्हें इसी नाम से पुकारते हैं।
नागार्जुन ने स्वयं लिखा है-
‘‘हम गाँव जायेंगे तो बूढे लोग अब भी बुलायेंगे, अरे ठक्कन। नागार्जुन कहने से नहीं
चीन्हेगा, समझ गए ना।’’
इनके पिता गोकुल मिश्र भी कम पढे लिखे थे एवं खेती बाड़ी का थोड़ा बहुत कार्य करने के साथ पुरोहिती का शौक भी रखते थे। नागार्जुन के पितामह का नाम छत्रमणि मिश्र तथा प्रमितामह का नाम पारसमणि मिश्र था। ये दोनों भी कम पढे लिखे किन्तु ईमानदार स्वभाव के व्यक्ति थे।
वैद्यनाथ मिश्र जब पाँच वर्ष के हुए तब पारम्परिक ढंग से शुभ मुहूर्त विचार कर सरस्वती पूजन क्रिया सम्पन्न करा कर उन्हें गाँव की संस्कृत पाठशाला में भर्ती करा दिया गया। नागार्जुन अंग्रेजी माध्यम में पढना चाहते थे किन्तु पिता का रवैया अंगे्रजी शिक्षा के प्रति विपरीत था। भविष्य में कम से कम वैद्यनाथ पंडिताई तो ठीक प्रकार से कर सके ऐसा सोच कर पिता ने उन्हें संस्कृत शिक्षा की ही अनुमति प्रदान की। उन दिनों गाँव की संस्कृत पाठशाला को ‘टोल’ कहते थे।
नागार्जुन अपने प्रारम्भिक जीवन की जानकारी देते हुए ‘‘आईने के सामने’’ में लिखते हैं कि ‘‘मैं उन व्यक्तियों में नहीं था जिनका जन्म सम्भ्रान्त, सुशिक्षित, सम्पन्न परिवारों में हुआ हो। मेरी मूल शिक्षा घरेलू ढंग की परम्परावादी ब्राह्मण खानदान की सामान्य थी। पिता अकिंचन थे और पारिवारिक जिम्मेदारियों से कतराने की लत में स्पष्ट नजर आती थी। उस स्थिति में पिता की दृष्टि में मेरे लिए दो ही विकल्प थे या तो मैं निरक्षर छोड़ दिया जाऊँ या फिर मूर्खता के विकल्प में संस्कृत की शिक्षा के लिए ग्रामीण पंडिताऊ पाठशाला में बैठकर ‘‘लघुसिद्धान्त कौमुदी’’ की रटन्त शैली वाली पढाई में लग जाऊँ। लगता है कि अपठित होने के कारण मेरे पिता को घुटन की ग्लानी झेलनी पड़ी थी। इसी से पिता ने अपने एकमात्र पुत्र को संस्कृत पाठशाला में बिठा दिया एवं बड़ी मुस्तैदी से निगरानी भी करने लगे।’’
उन दिनों मिथिला में कुछ धनी व्यक्ति मेधावी विद्यार्थियों की शिक्षा में खर्च वहन करते थे, नागार्जुन उन विद्यार्थियों में से एक थे। उन्हें दरभंगा की महारानी द्वारा छात्रवृत्ति प्रदान की जाती थी। वैद्यनाथ मिश्र ने 1925 में ‘लघुसिद्धान्त कौमुदी’ लेकर संस्कृत पाठशाला में ‘‘प्रथमा’’ की परीक्षा उत्तीर्ण की एवं परीक्षा में प्रथम स्थान भी प्राप्त किया। ‘‘प्रथमा’’ उत्तीर्ण करने के पश्चात् तरौनी से लगभग 70 किमी दूर गानौली संस्कृत पाठशाला में व्याकरण में ही ‘‘मध्यमा’’ की परीक्षा उत्तीर्ण की। तत्पश्चात् किशोर ठक्कन अर्थात् वैद्यनाथ मिश्र ‘’शास्त्री’’ बनने के लिए काशी (वाराणसी) चले गये।
वाराणसी में
चार वर्ष रहकर उन्होंने वाराणसी संस्कृत विश्वविद्यालय से ‘’साहित्यचार्य’’ की उपाधि
ग्रहण की। उन दिनों काशी में विभिन्न शिक्षण संस्थाओं को विभिन्न रानियों द्वारा आर्थिक
सहयोग दिया जाता था। ये स्त्रियाँ विद्यार्थियों द्वारा छन्दबद्ध प्रशस्तियाँ सुनकर
प्रसादाभिमुख होती थी एवं पुरस्कार देती थीं। दरभंगा की रानी लक्ष्मीवती पाँच रूपये
ईनाम देती थी। वैद्यनाथ मिश्र ने यह पुरस्कार कई बार जीता था।
इनके जन्म के 5-6 वर्ष पश्चात उनकी माता का देहान्त हो गया था। इसी कारण वे अपना ज्यादा समय पिता के साथ ही बिता पाये। नागार्जुन के पिता गोकुल मिश्र घुमक्कड़, भंगेड़ी, रूढ़िवादी, दरिद्र, संस्कार हीन, कठोर एवं फक्कड़ तबियत व्यक्ति थे। उन्होंने कभी गृहस्थी की जिम्मेदारी नहीं निभाई, वे ज्यादा पढे लिखे भी नहीं थे। बचपन में माँ के स्नेह से वंचित नागार्जुन को विरासत में परिवार की दरिद्रता, पिता का दुर्व्यवहार एवं पाँव का शनीचर ही मिला था। इसका उदाहरण ‘‘रवि ठाकुर’’ कविता में देख सकते हैं- ‘‘पैदा हुआ मैं! दीन हीन अपठित किसी कृषक कुल में आ रहा हूँ पीता। अभाव का आसव ठेठ बचपन से कवि! मैं रूपक हूँ दबी दूब का जीवन गुजरता प्रतिपल संघर्ष में।’’
नागार्जुन के मस्तिष्क पटल पर उनकी माता की स्मृतियाँ अत्यन्त धुंधली ही थी, क्योंकि पाँच छह वर्ष की उम्र वाले बालक को याद भी कितना रहता? नागार्जुन की माता की मृत्यु के पश्चात् इनके नाना चाहते थे कि गोकुल मिश्र उनकी छोटी पुत्री से विवाह कर लें ताकि बालक वैद्यनाथ की देख रेख हो सके, किन्तु ऐसा नहीं हो पाया, क्योंकि गोकुल मिश्र अपनी विधवा भाभी के प्रति आसक्त थे। इस विवाह के न हो सकने का एक दुष्परिणाम यह हुआ कि ठक्कन (नागार्जुन), माँ की मृत्यु के पश्चात नानी के स्नेह छाया में रह रहे थे उन्हें वापस पिता के पास भेज दिया गया।
68 वषोर्ं के विस्तृत कालखण्ड में उनके द्वारा रचित विस्तृत साहित्य का वर्णन प्रस्तुत है-
सन्दर्भ -
इनके जन्म के 5-6 वर्ष पश्चात उनकी माता का देहान्त हो गया था। इसी कारण वे अपना ज्यादा समय पिता के साथ ही बिता पाये। नागार्जुन के पिता गोकुल मिश्र घुमक्कड़, भंगेड़ी, रूढ़िवादी, दरिद्र, संस्कार हीन, कठोर एवं फक्कड़ तबियत व्यक्ति थे। उन्होंने कभी गृहस्थी की जिम्मेदारी नहीं निभाई, वे ज्यादा पढे लिखे भी नहीं थे। बचपन में माँ के स्नेह से वंचित नागार्जुन को विरासत में परिवार की दरिद्रता, पिता का दुर्व्यवहार एवं पाँव का शनीचर ही मिला था। इसका उदाहरण ‘‘रवि ठाकुर’’ कविता में देख सकते हैं- ‘‘पैदा हुआ मैं! दीन हीन अपठित किसी कृषक कुल में आ रहा हूँ पीता। अभाव का आसव ठेठ बचपन से कवि! मैं रूपक हूँ दबी दूब का जीवन गुजरता प्रतिपल संघर्ष में।’’
नागार्जुन के मस्तिष्क पटल पर उनकी माता की स्मृतियाँ अत्यन्त धुंधली ही थी, क्योंकि पाँच छह वर्ष की उम्र वाले बालक को याद भी कितना रहता? नागार्जुन की माता की मृत्यु के पश्चात् इनके नाना चाहते थे कि गोकुल मिश्र उनकी छोटी पुत्री से विवाह कर लें ताकि बालक वैद्यनाथ की देख रेख हो सके, किन्तु ऐसा नहीं हो पाया, क्योंकि गोकुल मिश्र अपनी विधवा भाभी के प्रति आसक्त थे। इस विवाह के न हो सकने का एक दुष्परिणाम यह हुआ कि ठक्कन (नागार्जुन), माँ की मृत्यु के पश्चात नानी के स्नेह छाया में रह रहे थे उन्हें वापस पिता के पास भेज दिया गया।
इनकी चाची ने कभी नागार्जुन
के कल्याण के विषय में कुछ नहीं सोचा। इसी स्त्री के कारण ठक्कन (नागार्जुन) की
माता को इनके पिता का अमानुषिक, बर्बर एवं पाशविक व्यवहार झेलना पड़ा था। यही
कारण था कि नागार्जुन के मन में चाची के प्रति घृणा का भाव रहा तथा पिता के प्रति
बदला लेने की उत्कृष्ट भावना। यही वितृष्णा और क्रोध नागार्जुन के यायावरी जीवन का
मूल कारण बना।
1931 में काशी संस्कृत विश्वविद्यालय से शास्त्री की उपाधि लेने के पश्चात् वैद्यनाथ (नागार्जुन) ग्रीष्मावकाश में गाँव लौटे तो अपनी मौसी के गाँव गये, वहाँ सौराठ सभा होती थी, जिसमें मैथिल ब्राह्मणोंं के लड़के-लड़कियों को अपनी इच्छा से वर-वधु चुनने की पूरी छूट थी। नागार्जुन के पिता ने वहाँ इनके लिए एक कन्या पसन्द की और कुछ पैसे देकर रिश्ता पक्का कर दिया। धनी परिवार की एकमात्र बारह वष्र्ाीय लड़की, ‘अपराजिता’ देवी से वैद्यनाथ का विवाह तय हुआ, जो देखने में सुन्दर एवं संस्कारी थी।
1931 में काशी संस्कृत विश्वविद्यालय से शास्त्री की उपाधि लेने के पश्चात् वैद्यनाथ (नागार्जुन) ग्रीष्मावकाश में गाँव लौटे तो अपनी मौसी के गाँव गये, वहाँ सौराठ सभा होती थी, जिसमें मैथिल ब्राह्मणोंं के लड़के-लड़कियों को अपनी इच्छा से वर-वधु चुनने की पूरी छूट थी। नागार्जुन के पिता ने वहाँ इनके लिए एक कन्या पसन्द की और कुछ पैसे देकर रिश्ता पक्का कर दिया। धनी परिवार की एकमात्र बारह वष्र्ाीय लड़की, ‘अपराजिता’ देवी से वैद्यनाथ का विवाह तय हुआ, जो देखने में सुन्दर एवं संस्कारी थी।
1931 में इनका विवाह हुआ एवं गौना सन् 1934 में हुआ। पत्नी के साथ तीन चार माह
गुजारने के पश्चात वैद्यनाथ अपने पिता की आदतों से तंग आकर राहुल सांकृत्यायन के
साथ यायावरी में निकल गये। नागार्जुन अपनी पत्नी को प्रेम से ‘अपू’ कहकर सम्बोधित
करते थे। अन्त में 1934 ई. में घर से निकले यात्री (नागार्जुन) 1941 ई. में घर लौटे। इस
बीच अपराजिता देवी अधिकांशत: अपने पिता के घर ही रही।
1941 में घर लौटने पर अपराजिता देवी की प्रसन्नता का तो ठिकाना भी नहीं रहा परन्तु यह डर था कि यात्री पुन: किसी यात्रा पर ना निकल जाये। नागार्जुन जब गृहस्थी में फिर से लौटे तो ससुराल वालों ने बड़ी खुशी से उनका स्वागत किया। पिता को भी पुत्र के पुन: लौटने की खुशी थी किन्तु इस बात का दुख भी था कि उनका बेटा दूसरों की तरह किसी प्रकार की नौकरी कर परिवार का भरण-पोषण नहीं करता। पिता की खीज एवं परिवार की आर्थिक स्थिति के कारण नागार्जुन को छ:-छ: पैसे में ‘विधवा विलाप’ एवं ।’बूढा दूल्हा’ नामक अपनी काव्य पुस्तकें टे्रन में यात्रियों को बेचना पड़ा। इस पर भी पिता ने नौकरी के लिए दबाव डाला।
1941 में घर लौटने पर अपराजिता देवी की प्रसन्नता का तो ठिकाना भी नहीं रहा परन्तु यह डर था कि यात्री पुन: किसी यात्रा पर ना निकल जाये। नागार्जुन जब गृहस्थी में फिर से लौटे तो ससुराल वालों ने बड़ी खुशी से उनका स्वागत किया। पिता को भी पुत्र के पुन: लौटने की खुशी थी किन्तु इस बात का दुख भी था कि उनका बेटा दूसरों की तरह किसी प्रकार की नौकरी कर परिवार का भरण-पोषण नहीं करता। पिता की खीज एवं परिवार की आर्थिक स्थिति के कारण नागार्जुन को छ:-छ: पैसे में ‘विधवा विलाप’ एवं ।’बूढा दूल्हा’ नामक अपनी काव्य पुस्तकें टे्रन में यात्रियों को बेचना पड़ा। इस पर भी पिता ने नौकरी के लिए दबाव डाला।
नागार्जुन अपने प्रथम दिन की
व्यावसायिक सफलता के बारे में लिखते हैं कि-
‘‘पहले दिन लौटे, पैसे पिता के हाथ में रख दिए। पिता ने तो हमें नकारा साबित
करना चाहा था सो पैसे पा उन्हें लाड हो आया। ठुड्डी छू कर कहा बेटे पिता पर गुस्सा
नहीं किया करते......... यही और यही एक क्षण था, जब पिता से प्यार पाया।’’
नागार्जुन को बिहार में किसी प्रकार की नौकरी नहीं मिली तो वे पंजाब चले गये।
लुधियाना में उनके साथ अपराजिता देवी भी गई। 1942 मेंं अपराजिता देवी ने पहले पुत्र ‘शोभाकान्त’ को जन्म दिया। उसके बाद वे गाँव आकर रहने लगी एवं उनका मन गाँव में ही रम गया। 1943 में नागार्जुन के पिता गोकुल मिश्र का देहान्त हो गया। नागार्जुन कभी भी एक स्थान पर नही टिक पाये वे विभिन्न स्थानों की यात्रा करते रहे जैसे- इलाहाबाद, पटना, कलकत्ता, दिल्ली, छत्तीसगढ़, रायपुर, बड़ौदा, अहमदाबाद, भोपाल, सागर, जबलपुर, विदिशा, उज्जैन व बुंदेलखण्ड।
1949 में वर्धा में राष्ट्रभाषा प्रचार समिति में कार्य किया। 1952-53 में वे इलाहाबाद में रहे। नागार्जुन को अपराजिता देवी से चार पुत्र एवं दो पुत्रियाँ प्राप्त हुई। इनकी सभी सन्तानें धनाभाव के कारण उच्च शिक्षा से वंचित रह गयी। ग्रहस्थ जीवन का भार नागार्जुन ने अपने पे लादा ही नहीं। इसी कारण आजीवन गरीबी के थपेड़े खाता उनका परिवार बहुत कष्टों को झेलता हुआ जीवन-यापन करता रहा। वे साहित्य एवं राजनीति में ही जीवनभर आकण्ठ डूबे रहे।
‘‘उनकी रहन-सहन की विशेषता एवं जनपक्षधरता की प्रवृत्ति के कारण ही उन्हें बाबा की उपाधि प्रदान की गई। इनके बडे़ पुत्र शोभाकान्त, ब्रह्मानन्द कला विद्यालय में शिक्षक रहे। दूसरे सुकान्त पटना में पत्रकार हैं। तीसरे श्रीकान्त मिश्र दिल्ली मेंं पुस्तक प्रकाशन में संलग्न एवं छोटा श्यामाकान्त मिश्र विदिशा में है। दो पुत्रियाँ उर्मिला एवं मन्जू बेगूसराय में हैं।’’
18 फरवरी 1997 को सहधर्मिणी अपराजिता देवी की मृत्यु के पश्चात वे स्वयं को सर्वथा एकाकी अनुभव करने लगे। वे अन्र्तमन से क्षुब्ध रहने लगे एवं तन भी क्षीण व जर्जर होने लगा। अन्तत: 87 वष्र्ाीय यशस्वी जीवन जीकर नागार्जुन 5 नवम्बर 1998 ईको बिहार राज्य के दरभंगा जिले के ख्वाजासराय में गुरूवार के दिन प्रात: 6:30 पर स्वर्ग सिधार गये। वे आज पार्थिव रूप में हमारे सामने नहीं हैं; किन्तु उनका भरा पूरा विपुल रचना संसार हमारे सामने है।
वृद्धावस्था और असाध्य बीमारियों के कारण जीवन-मरण का संघर्ष कर रहे इस महान रचनाकार को दरभंगा के एक छोटे से किराए के मकान में आर्थिक विपन्नता और सामाजिक उपेक्षा का सामना करना पड़ा था। अपनी पत्नी अपराजिता की मृत्यु के बाद ही वे अपने को एकाकी अनुभव करने लगे थे। वे अन्तर्मन से क्षुब्ध रहने लगे थे।
बाबा के सन्दर्भ में हम सब लोगों का और विशेषत: साहित्य जगत के लोगों का दुर्भाग्य है कि हम उनके जीवन के अन्तिम दिनों में उनके लिए कुछ नहीं कर सके। आजीवन जन सामान्य के लिए संघर्षरत इस महान साहित्यकार की कथित प्रकाशकों एवं साहित्यिकों ने उपेक्षा ही की। मजबूर होकर इनके बेटे को कर्ज लेकर इनका इलाज कराना पडा। यह सुविख्यात घुमक्कड़ लेखक दवा तक के पैसों के लिए मोहताज हो गया।
लुधियाना में उनके साथ अपराजिता देवी भी गई। 1942 मेंं अपराजिता देवी ने पहले पुत्र ‘शोभाकान्त’ को जन्म दिया। उसके बाद वे गाँव आकर रहने लगी एवं उनका मन गाँव में ही रम गया। 1943 में नागार्जुन के पिता गोकुल मिश्र का देहान्त हो गया। नागार्जुन कभी भी एक स्थान पर नही टिक पाये वे विभिन्न स्थानों की यात्रा करते रहे जैसे- इलाहाबाद, पटना, कलकत्ता, दिल्ली, छत्तीसगढ़, रायपुर, बड़ौदा, अहमदाबाद, भोपाल, सागर, जबलपुर, विदिशा, उज्जैन व बुंदेलखण्ड।
1949 में वर्धा में राष्ट्रभाषा प्रचार समिति में कार्य किया। 1952-53 में वे इलाहाबाद में रहे। नागार्जुन को अपराजिता देवी से चार पुत्र एवं दो पुत्रियाँ प्राप्त हुई। इनकी सभी सन्तानें धनाभाव के कारण उच्च शिक्षा से वंचित रह गयी। ग्रहस्थ जीवन का भार नागार्जुन ने अपने पे लादा ही नहीं। इसी कारण आजीवन गरीबी के थपेड़े खाता उनका परिवार बहुत कष्टों को झेलता हुआ जीवन-यापन करता रहा। वे साहित्य एवं राजनीति में ही जीवनभर आकण्ठ डूबे रहे।
‘‘उनकी रहन-सहन की विशेषता एवं जनपक्षधरता की प्रवृत्ति के कारण ही उन्हें बाबा की उपाधि प्रदान की गई। इनके बडे़ पुत्र शोभाकान्त, ब्रह्मानन्द कला विद्यालय में शिक्षक रहे। दूसरे सुकान्त पटना में पत्रकार हैं। तीसरे श्रीकान्त मिश्र दिल्ली मेंं पुस्तक प्रकाशन में संलग्न एवं छोटा श्यामाकान्त मिश्र विदिशा में है। दो पुत्रियाँ उर्मिला एवं मन्जू बेगूसराय में हैं।’’
18 फरवरी 1997 को सहधर्मिणी अपराजिता देवी की मृत्यु के पश्चात वे स्वयं को सर्वथा एकाकी अनुभव करने लगे। वे अन्र्तमन से क्षुब्ध रहने लगे एवं तन भी क्षीण व जर्जर होने लगा। अन्तत: 87 वष्र्ाीय यशस्वी जीवन जीकर नागार्जुन 5 नवम्बर 1998 ईको बिहार राज्य के दरभंगा जिले के ख्वाजासराय में गुरूवार के दिन प्रात: 6:30 पर स्वर्ग सिधार गये। वे आज पार्थिव रूप में हमारे सामने नहीं हैं; किन्तु उनका भरा पूरा विपुल रचना संसार हमारे सामने है।
नागार्जुन का निधन
नागार्जुन ने 5 नवम्बर 1998 में इस भवसागर की यात्रा को पूर्ण विराम दिया। उन्होंंने जो कुछ भी लिखा, जिनके बारे में लिखा, वे उन्हीं को अर्पित कर गये। दुबली पतली कदकाठी जिसने अपने जीवन काल में जाने कितने धूप छाँव सहे, विपरीत परिस्थितियों की मार झेली, भूख की पीड़ा सही, कारावास का दण्ड भोगा, किन्तु इस बार वह बीमारी और मानसिक अशांति की मार नहीं झेल पाये। इन सब का बाबा के स्वास्थ्य पर काफी विपरीत असर पड़ा और वे मृत्युपूर्व कोमा में पहुंचने के बाद महाप्रस्थान पथ पर चल पड़े। जनकवि, कथाकार, सम्पूर्ण हिन्दी जगत के आदरणीय बाबा नागार्जुन को जीवन के अन्तिम दौर में भी गहरी उपेक्षा का सामना करना पडा।वृद्धावस्था और असाध्य बीमारियों के कारण जीवन-मरण का संघर्ष कर रहे इस महान रचनाकार को दरभंगा के एक छोटे से किराए के मकान में आर्थिक विपन्नता और सामाजिक उपेक्षा का सामना करना पड़ा था। अपनी पत्नी अपराजिता की मृत्यु के बाद ही वे अपने को एकाकी अनुभव करने लगे थे। वे अन्तर्मन से क्षुब्ध रहने लगे थे।
बाबा के सन्दर्भ में हम सब लोगों का और विशेषत: साहित्य जगत के लोगों का दुर्भाग्य है कि हम उनके जीवन के अन्तिम दिनों में उनके लिए कुछ नहीं कर सके। आजीवन जन सामान्य के लिए संघर्षरत इस महान साहित्यकार की कथित प्रकाशकों एवं साहित्यिकों ने उपेक्षा ही की। मजबूर होकर इनके बेटे को कर्ज लेकर इनका इलाज कराना पडा। यह सुविख्यात घुमक्कड़ लेखक दवा तक के पैसों के लिए मोहताज हो गया।
नागार्जुन के पुरस्कार एवं सम्मान
जहाँ तक पुरस्कारों की बात है नागार्जुन को बचपन से ही छोटे-छोटे पुरस्कार मिलते रहते थे। बालवर्धिनी सभा में भी उनको कई पुरस्कार मिले। लेकिन यहाँ हम कुछ विशेष पुरस्कारों का वर्णन करेंगे, जिनसे इनके यश एवं ख्याति में चार चाँद लगे हैं। ये पुरस्कार निम्न प्रकार से हैं -- 1968 में मैथिल काव्य संग्रह ‘‘पत्रहीन नग्न गाछ’’ के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्त हुआ।
- हिन्दी कविता के लिए मध्यप्रदेश का सर्वोच्च सम्मान ‘‘मैथिलीशरण गुप्त’’ सम्मान प्राप्त हुआ।
- सम्पूर्ण साहित्य के लिए उत्तरप्रदेश के सर्वोच्च सम्मान ‘‘भारत भारती’’ सम्मान से सम्मानित किया गया।
- सन् 1994 में उन्हें साहित्य अकादमी की ‘‘मानद फैलोशिप’’ भी मिली।
- पश्चिम बंगाल द्वारा ‘‘राहुल सम्मान’’।
- मध्यप्रदेश सरकार द्वारा ‘‘कबीर पुरस्कार’’।
- बिहार सरकार द्वारा ‘‘राजेन्द्र शिखर सम्मान’’।
नागार्जुन की रचनाएं
नागार्जुन लगभग 68 वर्षों तक रचना कर्म से जुडे़ रहे। मैथिल, हिन्दी, बँगला,
संस्कृत, सभी भाषाओं में लेखन कार्य तथा अनुवाद कार्य भी किया। नागार्जुन कवि एवं
उपन्यासकार दोनों रूपों में अलग-अलग हैं। न तो उनके कवि में उनका कथाकार लुप्त
हो जाता है और न उनके कथाकार में उनकी कविताएँ खो जाती हैं।’’
मैथिल भाषा में वे ‘‘यात्री’’ उपनाम से एवं संस्कृत भाषा में ‘‘चाणक्य’’ उपनाम से रचनायें लिखते थे। नागार्जुन की पहली कविता ‘‘राम के प्रति’’ 1935 में ‘‘विश्वबंधु’’ नामक पत्रिका में प्रकाशित हुई थी। उनकी मैथिल में प्रथम प्रकाशित कविता बुकलेट है ‘‘बूढ़कर’’ और ‘‘विलाप’’ जो सन् 1946 में एवं इसके दो वर्ष बाद 1948 में हिन्दी का इनका पहला उपन्यास ‘‘रतिनाथ की चाची’’ प्रकाशित हुआ। सन् 1949 में 28 मैथिल कविताओं का संग्रह ‘‘चित्रा’’ नाम से प्रकाशित हुआ। ‘‘युगधारा’’ 37 हिन्दी कविताओं का पहला व्यवस्थित संग्रह है जो 1953 में छपा।
उपन्यासेतर गद्य की पहली पुस्तक ‘‘निराला: एक व्यक्ति एक युग’’ सन् 1963 की कृति है। स्फूट ग़द्य तो रचना कर्म के शुरूआती दौर में ही इन्होंने लिखना आरम्भ कर दिया था। 1936 में ‘‘असमर्थदाता’’ नामक कहानी छपी थी। बाल साहित्य में इन्होंंने प्रथम बाल पुस्तक ‘‘बीर विक्रम’’ सन् 1956 में लिखी।
मैथिल भाषा में वे ‘‘यात्री’’ उपनाम से एवं संस्कृत भाषा में ‘‘चाणक्य’’ उपनाम से रचनायें लिखते थे। नागार्जुन की पहली कविता ‘‘राम के प्रति’’ 1935 में ‘‘विश्वबंधु’’ नामक पत्रिका में प्रकाशित हुई थी। उनकी मैथिल में प्रथम प्रकाशित कविता बुकलेट है ‘‘बूढ़कर’’ और ‘‘विलाप’’ जो सन् 1946 में एवं इसके दो वर्ष बाद 1948 में हिन्दी का इनका पहला उपन्यास ‘‘रतिनाथ की चाची’’ प्रकाशित हुआ। सन् 1949 में 28 मैथिल कविताओं का संग्रह ‘‘चित्रा’’ नाम से प्रकाशित हुआ। ‘‘युगधारा’’ 37 हिन्दी कविताओं का पहला व्यवस्थित संग्रह है जो 1953 में छपा।
उपन्यासेतर गद्य की पहली पुस्तक ‘‘निराला: एक व्यक्ति एक युग’’ सन् 1963 की कृति है। स्फूट ग़द्य तो रचना कर्म के शुरूआती दौर में ही इन्होंने लिखना आरम्भ कर दिया था। 1936 में ‘‘असमर्थदाता’’ नामक कहानी छपी थी। बाल साहित्य में इन्होंंने प्रथम बाल पुस्तक ‘‘बीर विक्रम’’ सन् 1956 में लिखी।
नागार्जुन को 1965 में रचित ‘‘पत्रहीन
नग्न गाछ’’ नामक एतिहासिक मैथिल रचना के लिए 1968 में ‘‘साहित्य अकादमी
पुरस्कार’’ प्रदान किया गया।
68 वषोर्ं के विस्तृत कालखण्ड में उनके द्वारा रचित विस्तृत साहित्य का वर्णन प्रस्तुत है-
1. नागार्जुन के पद्य साहित्य
नागार्जुन ने हिन्दी, मैथिल एंव संस्कृत में काव्य रचनाएँ की जिनका संक्षिप्त परिचय निम्न है-
(क) हिन्दी काव्य संग्रह :-
- युगधारा 1953
- सतरंगे पंखों वाली 1959
- प्यासी पथराई आँखे 1962
- तालाब की मछलियाँ 1974
- तुमने कहा था 1980
- खिचड़ी विप्लव देखा मैने 1980
- हजार हजार बाहों वाली 1981
- आखिर ऐसा क्या कह दिया मैने 1982
- पुरानी जूतियों का कोरस 1983
- रत्नगर्भ 1984
- ऐसे भी हम क्या ऐसे भी तुम क्या 1985
- इस गुब्बारे की छाया में 1990
- भूल जाओ पुराने सपने 1994
- अपने खेत में 1997
- भस्माकुंर, भूमिज्ञा (खण्डकाव्य) 1994
- चित्रा 1949
- पत्रहीन नग्न गाछ 1967
- मैं मिल्ट्री का बूढ़ा घोड़ा 1997
- ओई माताल युवक 1996
- देश दशकम्
- कृषक दशकम्
- श्रमिक दशकम्
- लेनिन स्तोत्रम्
- अन्य सत्तर कविताएँ
- धर्मालोक शतकम्
- मेघदूत 1953
- गीत गोविन्द 1955
2. नागार्जुन के गद्य साहित्य
नागार्जुन का गद्य साहित्य में भी महत्वपूर्ण योगदान है उन्होंने उपन्यास, नाटक, कहानियाँ, निबन्ध, व्यंग्य, यात्रा वृतान्त, संस्मरण, रिपोर्ताज, बाल साहित्य, पत्र, डायरी, आदि लिखे। इन्होंने पत्रकारिता भी की।(क) कथा संग्रह :-
- आसमान में चंदा तैरे - (12 कहानियाँ)
- आशुकहानियाँ
- असमर्थदाता 1936
- तापहारिणी 1945
- जेठा 1946
- काया पलट 1946
- विशाखा मृगारमाता 1947
- ममता 1952
- विषम ज्वर 1955
- हीरक जयन्ती 1997
- हर्षचरित की पाकेट एडीशन 1957
- मनोरंजन टैक्स 1958
- आसमान में चन्दा तैरे 1958
- भूख मर गयी थी 1967
- अन्न हीनम् क्रियानाम् (18 आलेख) 1957
- बम भोले (17 आलेख) 1955
- मैं सो रहा हूँ 1953
- एक घन्टा 1955
- आईने के सामने 1़963
- हिमालय की बेटियाँ 1947
- टिहरी से नेलड् 1946
- आतिथ्य सत्कार 1945
- सिन्ध में सत्रह महीने 1945
- अनुकम्पा प्रथम प्रकाशन, ज्ञानोदय, अक्टूबर, 1949
- निर्णय प्रथम प्रकाशन, नयीधारा, मई, 1955
- एक व्यक्ति : एक युग निराला (लघु प्रबन्ध) 1962
- प्रेमचन्द 1962
नागार्जुन ने बाल साहित्य में बच्चों केलिए कहानियाँ, कविताएँ एवं जीवनीयाँ
लिखी हैं-
बाल कहानियाँ -
शोभाकान्त के अनुसार -’’सम्भवत: उपन्यास लिखने की पहली प्रेरणा नागार्जुन को इस डिक्टेशन से ही मिली थी।’’
उपन्यासकार बनने की ललक में नागार्जुन ने अपना पहला उपन्यास पारा े मैथिली भाषा मेंं लिखा था एवं दूसरा मैथिली उपन्यास ‘‘नवतुरिया’’ लिखा था। बाद में ये दोनों उपन्यास हिन्दी में भी प्रकाशित हुए थे।
मेरे द्वारा शोध हेतु इनके सभी 12 हिन्दी उपन्यासों का चयन किया गया है। इनके सम्पूर्ण उपन्यास साहित्य अधोलिखित है-
- तीन अहदी (2 कहानियाँ) 1965
- अनोखा टापू (2 कहानियाँ) 1़966
- वीर विक्रम 1़956
- सयानी कोयल (19 कहानियाँ) 1978
- विद्यापित की कहानियाँ (12 कहानियाँ) 1967
- तुकों का खेल (उपन्यास) 1967
- मर्यादा पुरूत्तोतम राम 1955
- बुझावन काका 1956
- चतुरी चाचा की चिट्ठी 1956
- होनहारों की प्रतिभा 1956
- शरतचन्द्र की परिणीता’
- जयदेव का गीतगोविन्द
- विद्यापति के गीत
- विद्यापति की कहानियाँ
- सम्पादन - दीपक, उदयन, संकेत-पत्रिका
- प्रकाशन - यात्री प्रकाशन
- स्तम्भ लेखन - यत्किंचित, मुखड़ा क्या देखे दरपन में, होनहारों की दुनिया इसके अलावा नागार्जुन भारती (हस्तलिखित), वैदेही (हस्तलिखित), विश्वबन्धु, एवं कौमी आवाज पत्रिकाओं के सम्पादक भी रहे हैं।
3. नागार्जुन के उपन्यास
नागार्जुन के अब तक कुल 12 उपन्यासों का प्रकाशन हुआ है। जिन्होंने नागार्जुन को मूर्धन्य कथाकार के रूप में प्रतिष्ठित किया है। इन सभी उपन्यासों का पुन: प्रकाशन राजकमल प्रकाशन में शोभाकान्त जी के सम्पादन में नागार्जुन रचनावली के नाम से किया है। नागार्जुन जी ने हिन्दी एवं मैथिली दोनों भाषाओं में उपन्यासों की रचना की है। सन् 1939 में पंडित राहुल सांकृत्यायन के साथ किसान आन्दोलन का नेतृत्व करने के कारण इनको छपरा जेल में रखा गया। कारावास के दौरान राहुल सांस्कृत्यायन जी ने अपना उपन्यास ‘‘जीने के लिए’’ डिक्टेशन देकर लिखाया था, इससे नागार्जुन जी को लगा कि ऐसा उपन्यास मैं भी लिख सकता हूँ।शोभाकान्त के अनुसार -’’सम्भवत: उपन्यास लिखने की पहली प्रेरणा नागार्जुन को इस डिक्टेशन से ही मिली थी।’’
उपन्यासकार बनने की ललक में नागार्जुन ने अपना पहला उपन्यास पारा े मैथिली भाषा मेंं लिखा था एवं दूसरा मैथिली उपन्यास ‘‘नवतुरिया’’ लिखा था। बाद में ये दोनों उपन्यास हिन्दी में भी प्रकाशित हुए थे।
मेरे द्वारा शोध हेतु इनके सभी 12 हिन्दी उपन्यासों का चयन किया गया है। इनके सम्पूर्ण उपन्यास साहित्य अधोलिखित है-
- रतिनाथ की चाची 1948
- बलचनमा 1952
- नई पौध (नवतुरिया) 1953
- बाबा बटेसरनाथ 1954
- वरूण के बेटे 1़957
- दुखमोचन 1़957
- कुम्भीपाक 1960
- हीरक जयन्ती (अभिनन्दन) 1962
- डग्रतारा 1963
- इमरतिया (जमनिया का बाबा) 1968
- पारो 1975
- गरीबदास 1979
- सूखे बादलों की परछाइयाँ - अधूरा अप्रकाशित
- अग्निगर्भ /अग्निपुरूष - अधूरा अप्रकाशित
- नागार्जुन रचनावली भाग-6, आइने के सामने, सम्पादक-शोभाकान्त, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, पृ.सं.240.
- नागार्जुन रचनावली भाग-6, आइने के सामने, सम्पादक -शोभाकान्त, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, पृ.सं. 228.
- नागार्जुन, युगधारा, पृ.सं.13.
- नागार्जुन रचनावली भाग-6, सम्पादक-शोभाकान्त, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, पृ. सं. 230.
- उत्तर प्रदेश, दिसम्बर, 1998, पृ.सं. 7.
- लोक सम्मान, जनकवि नागार्जुन, अदम गौंडवी, 19-20 नवम्बर, 1998, विदिशा मध्यप्रदेश.
- नागार्जुन रचनावली भाग-6, आईने के सामने, सम्पादक-शोभाकान्त, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण, पृ.सं. 230.
- नागार्जुन की सामाजिक चेतना, प्रो. प्रणय, पृ.सं. 23.
- नागार्जुन रचनावली, सम्पादक- शोभाकान्त, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, पृ.सं. 240.
- मेरे साक्षात्कार- नागार्जुन, पृ.सं. 15.
- नया हिन्दी काव्य, डॉ. शिवकुमार मिश्र, पृ.सं..7.
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