ओशो रजनीश का जीवन परिचय | Osho Rajneesh Life History

ओशो का जीवन परिचय

ओशो का जीवन परिचय

ओशो का जन्म मध्यप्रदेश के कुचवाड़ा गांव में 11 दिसम्बर 1931 को हुआ था। ओशो का नाम रजनीश चन्दमोहन था। चन्दमोहन के पिता का नाम श्री बाबूलाल व माता का नाम सरस्वती जैन था। उनके पिता का कपड़ों का व्यापार था। ओशो के ग्यारह भाई बहन थे। जिनमें ओशो ही सबसे बड़े थे। बचपन में 7 वर्ष तक की आयु तक ओशो अपने नाना-नानी के पास ही रहे थे। उनके नाना-नानी स्वतन्त्र विचारों के धनी थे। वे उन्हें प्यार से राजा कह कर पुकारते थे। ‘‘ओशो के अनुसार उनकी नानी ने उन्हें सम्पूर्ण स्वतंत्रता उन्मुक्ता तथा रूढ़िवादी शिक्षाओं से दूर रखा।

ओशो अपने नाना की मृत्यु के बाद अपने माता पिता के पास ‘‘गदवाड़ा’’ में रहने चले गए।’’ ओशो बचपन से ही बहुत जिज्ञासु प्रवृत्ति के थे उनके मन में हमेंशा सवालों का जाल रहता था। वह पूरे समय सवालों के जवाब ही ढूढतें रहते थे। हर कोईउनके सवालों से परेशान रहता था किन्तु उन्हें सतुष्ट नहीं कर पाता था।


ओशो ने जीवन के प्रारम्भिक काल में ही एक निभ्र्ाीक स्वतन्त्र आत्मा का परिचय दिया। खतरों से खेलना उन्हें प्रतिकार था। 100 फीट ऊँचे पुल से कूद कर बरसात में उफनती नदी को तैर कर पार करना उनके लिए साधारण खेल था।

ओशो बचपन से ही बहुत शरारती थे शैतानी करने में उन्हें बहुत मजा आता था। ओशो जब पहली बार विद्यालय गये तब वे 10 वर्ष के थे। एक दशक तक खेलने कूदने की इन आजादी के कारण उन्हें बचपन को सही मायने में जीने का अवसर मिला।

‘‘ओशो में सीखने सिखाने की आदत छोटी उम्र से ही प्रबल थी। स्वयं के अनुभव के बिना वे कोई बात स्वीकार नहीं करते थे। जानने पर जोर देते, मानने का विरोध करते। इसलिए वे अपनी अनुभूति को अभिव्यक्त करने में कुशल हुए क्योंकि जो कुछ वह कहते थे, वह उनके अनुभव का नतीजा था। वे जो भी अध्ययन करते उस पर वैज्ञानिक चिन्तन भी करते थे।’’ 

ओशो की शैक्षणिक यात्रा 

ओशो का औपचारिक शिक्षा के लिए विद्यालय में प्रवेश दस वर्ष की आयु में हुआ। किन्तु इससे पहले ओशो ने अपनी नानी से पढ़ना सीख लिया था। ओशो को विद्यालय जाना बिल्कुल भी पसन्द नहीं था।

स्कूल की चारदीवारी उन्हें किसी जेल या कारागृह से कम नहीं लगती थी। ओशो को पुस्तक पढ़ने का बेहद शोक था। वह बचपन में अपनी नानी को पुस्तके पढ़के सुनाते थे तथा नानी उनको किसी वाक्य का अर्थ बताने या सारे अध्याय का सारांश में अर्थ पूछती थी।

ओशो का ज्यादातर समय पुस्तकालय में ही व्यतीत होता था। ओशो इतने जिज्ञासु थे कि सारे दिन पुस्तके पढ़के ही उनमें अपने प्रश्नों का हल ढूढते रहते थे। उनकी प्रारम्भिक शिक्षा उनके गांव कुचवाडा में ही हुई। आगे की उच्च शिक्षा के लिए ओशो का दाखिला जबलपुर के डीएन कॉलेज में कराया गया।

‘‘1955 में उन्होंने दर्शन में स्नातक की उपाधि ली। वे दर्शन शास्त्र के विद्यार्थी थे। रजनीश कॉलेज में जाने के बाद कक्षा में नहीं जाते थे। वो खाली समय में एक स्थानीय न्यूज पेपर में काम करते थे। वे सर्व धर्म सम्मेंलन में बोलने गये जो कि तेरापंथी जैसे समुदाय द्वारा जबलपुर आयोजित किया गया था। उन्होंने इनमें 1951 से 1968 तक भाग लिया।’’

1957 में उन्होंने सागर विश्वविद्यालय से दर्शन शास्त्र में प्रथम श्रेणी में प्रथम (गोल्ड मेडलिस्ट) रहकर एम.ए. की उपाधि प्राप्त की। एम.ए. के बाद उन्हें रायपुर संस्कृत कॉलेज में शिक्षक की नौकरी मिली। लेकिन जल्दी वीसी ने उनका ट्रांसफर कर दिया। क्योंकि उनको लगा कि वह धर्म व आध्यात्मिकता के लिए खतरा है।

1958 की शुरूआत में उन्होंने जबलपुर विश्वविद्यालय में प्राध्यापक के पद पर कार्य शुरू किया और जल्दी ही 1960 में प्रोफेसर बन गये। विश्वविद्यालय में कार्यरत होते हुए आचार्य रजनीश ने पूरे भारत में भ्रमण किया और गांधी व समाजवाद पर भाषण दिया। विद्यार्थियों के बीच आचार्य रजनीश के नाम से अतिशय लोकप्रिय थे। 

ओशो का पुस्तक प्रेम - ओशो को पुस्तकों से बड़ा पे्रम था। ओशो के इस पुस्तक प्रेम को देखकर उनके पिता ने ओशो से एक बार कहा था कि ‘‘पहले हमारे घर में पुस्तकालय था अब पुस्तकालय में घर है’’ ओशो ने पहली पुस्तक जो नानी को पढ़कर सुनाई थी’’ दी बुक ऑफ मिरदाद’’। 

ओशो ने बाल्यावस्था तक करीब तीन हजार पुस्तकों का अध्ययन कर लिया था।’’ओशो ने 21 वर्ष की अवस्था में अपने आपको पूर्णरूपेण आध्यात्मिक अध्ययन में समर्पित कर लिया और एक सप्ताह में करीब 100 से अधिक पुस्तकें पढ़ डाली।

‘‘ओशो ने चालीस वर्ष की उम्र तक 100 पुस्तकों से शुरू किए गए अध्ययन के सिलसिले को 2 लाख तक पहुॅचा दिया था। ओशो जिस पुस्तक को पढ़ लेते थे अन्त में उसमें अपने हस्ताक्षर करके छोड़ देते थे। ओशो को रविन्द्रनाथ का साहित्य पढ़ने का बेहद शोक था।’’

ओशो पढ़ने के इतने शोंकीन थे कि उनका पूरा दिन भोजन और सुबह के प्रवचन के अलावा किताबे पढ़ने में ही व्यतीत होता था। ‘‘ओशो को पढ़ने का इतना शोक था कि किताबे खरीदने के लिए चोर बाजार में बिकने वाली पुस्तकों को भी खरीदने से नहीं चूकते थे।  ओशो को 20वीं सदी का सबसे अधिक किताबें पढ़ने वाला पुरुष माना जाता है।’’ 

ओशो के व्यक्तित्व के निर्माण में प्रभावितकर्त्ता 

यू तो ओशो के जीवन काल में बहुत लोग आए परन्तु कुछ खास लोग ऐसे भी थे जिनका ओशो के जीवन में विशेष प्रभाव व योगदान रहा है। जिन्होंने ओशो के जीवन को नई दिशा प्रदान की।

नाना-नानी का योगदान - ओशो अपने बचपन में नाना नानी के पास ही रहते थे। जहां उन्हें स्वतंत्र वातावरण मिला। जहां उनको कुछ भी करने की रोक ठोक नहीं थी। ओशो को साहसी, स्वच्छ एवं स्वतंत्र बनानें में उनके नाना नानी का भी बड़ा योगदान रहा।

दोनों ने ओशो को किसी भी कार्य को करने के लिए या मान्यता मानने के लिए बाध्य नहीं किया। फिर वह मन्दिर जाना हो या कोई शोक में जाने का सब कुछ ओशो के चयन अनुभव एवं निर्माण पर छोड़ा और स्वतंत्र एवं आत्मनिर्भर होने का मौका दिया।

ओशो की नानी उनको राजा कह कर पुकारती थी और वे उन्हें मां कहकर बुलाते थे। ओशो कहते है ‘‘मेंरी नानी ने मुझे धीरे धीरे पढ़ना सिखाया और मैंने पुस्तकें पढ़ना शुरू कर दी। मैं उन्हें पढ़कर जो भी सुनाता वह मुझसे किसी वाक्य का या सारे अध्याय का सारांश में अर्थ पूछती।

इस प्रकार प्रशिक्षण हो गया और दूसरों को समझाने की मेंरी आदत हो गई’’ ओशो के अन्दर गजब का सौंदर्य बोध था। वह कला के पारश्वी व सौंदर्य के उपासक थे। यह गुण भी उन्होंने अपनी नानी से सीखा। ओशो के प्रवचनों में, सन्देशों में, कहानियों का बहुत महत्व है।

सच तो यह है कि कहानियों के माध्यम से ही ओशो ने प्रवचन दिए। जिनमें कई संदेश थे। कहानियों का श्रेय ओशो अपनी नानी को देते है। ओशो की नानी ही ओशो की प्रथम शिष्या ही नहीं थी प्रथम संबुद्व शिष्या भी थी। मृत्यु शोक नहीं उत्सव है यह बात भी ओशो ने अपनी नानी से सीखी जब ओशो के नाना ओशो की गोद में अपना दम तोड़ रहे थे तब नानी साथ थी।

जाने से पहले नाना के होठों पर जो अंतिम शब्द थे वह थे ‘‘चिंता मत करों, क्योंकि मैं मर नहीं रहा हूँ।’’ और चल बसे। नानी की आखों में आंसू के बजाए होठों पर गीत था। ओशो कहते है ‘‘उन्होंने एक गीत गया। ऐसे मेंने सीखा कि मृत्यु का उत्सव मनाना चाहिए।  उन्होंने वही गीत गया था जब उनकों मेंरे नाना से पहली बार पे्रम हुआ था।’’ 

पिता का प्रभाव - ओशो के जीवन पर उनके पिता का भी अत्याधिक प्रभाव पड़ा। उनके पिता ने भी उन्हें कभी भी किसी कार्य को करने के लिए बाध्य नहीं किया। उनके पिता कपड़े के व्यापारी थे।

मग्गा बाबा का प्रभाव  -  ओशो की जीवन यात्रा में जिन लोगों ने प्रभावित किया उनमें से ही एक है मग्गा बाबा। ओशो कहते है ‘‘कि उनका असली नाम व उम्र कोई नहीं जानता। वह अपने साथ एक मग्गा रखते थे। इसलिए उन्हें मग्गा बाबा कह कर बुलाते थे।’’

ओशो का कहना है ‘‘कि वह इस धरती पर अनोखे व्यक्तियों में से एक थे। वे बोलते नहीं थे लेकिन मैं अकेला व्यक्ति था। जिससे वे बात करते थे। वह भी अकेले में। हम दोनों के बीच वार्तालाप बिल्कुल गुप्त रहता था। वह पहले व्यक्ति थे। जिसने मुझसे कहा कि जीवन जितना दिखाई देता है उससे कही अधिक है। इसके बाहरी रूप पर मत रूको, इसकी गहराई में जाकर इसकी जड़ों में पहुंचो।

जबकि उन्होंने कभी भी मेंरा (ओशो) का पथ प्रदर्शन नहीं किया, कोई दिशा-निर्देश नहीं कियां फिर भी उनके होने मात्र से उनकी उपस्थिति से ही मुझे बड़ी सहायता मिली। मेंरे भीतर की सुप्त, अज्ञात शक्तियां उनकी उपस्थिति में जागृत हो उठी। में मग्गा बाबा का बहुत कृतज्ञ हूँ।’’

ओशो जितना मग्गा बाबा के साथ हसे उतना कभी जीवन में दुबारा ना हसें। मग्गा बाबा इतने सुन्दर थे कि उनकी तुलना किसी और के साथ नहीं कर सकते। वे तो रोमन मूर्तिकला के उत्कृष्ट नमूने थे उससे भी बढ़कर थे। जीवन से भरे हुए थे।

संबोधित होने के बाद ओशो जिन पहले दो आदमियों से मिले पर उनमें पहले थे मग्गा बाबा ‘‘जैसे ही उन्होंने ओशो को देखा सबके सामने पैर छूए और रो पड़े और सबके सामने उन्होंने कहा मेंरे बेटे, आखिर तुमने कर ही लिया। मुझे मालूम था कि एक दिन तुम अवश्य कर लोगे।’’

पागल बाबा का प्रेम - पागल बाबा का भी ओशो के जीवन में महत्वपूर्ण योगदान था। मग्गा बाबा की तरह पागल बाबा को भी ओशो असाधरण लोगों में गिनते थे। ओशो कहते है ‘‘मैंने उन्हें नहीं उन्होंने मुझे खोजा था। मै नदी में तैर रहा था उन्होंने मुझे देखा और वह भी नदी में कूद पडे और हम दोनों साथ तैरते रहे। वह काफी वृद्व थे और में बारह वर्ष का था। 

पागल बाबा बहुत अजीब थे। वे उपरी तौर पर लोगों से अनावश्यक वाक्य बोलते थे।’’पागल बाबा बहुत अच्छी बांसुरी बजाते थे। उन्होंने ओशो को बांसुरी वादकों से ही नहीं बल्कि कई संगीतज्ञतों से भी परिचित करवाया। बाबा को संगीत से इतना पे्रम था कि वह अपने कमण्डल को भी सितार की तरह बजा लेते थे।

वे संगीतज्ञों के संगीतज्ञ थे। उन्होंने मरने से पहले ओशो को अपनी प्रिय बांसुरी स्मृति चिन्ह के रूप में भेंट की थी। पागल बाबा वे पहले आदमी थे जो ओशो को कुम्भ के मेंले में लेकर गये थे। उन्होंने ने ही ओशो को ताजमहल, अजन्ता ऐलोरा की गुफाऐं दिखाई उनके साथ ही ओशो हिमालय पर गये।

उनकी इस यात्रा के बाद ओशो के जीवन में (देखने व समझने के नजरिये में) परिवर्तन आया। पागल बाबा के साथ का अनुभव ओशो के लिए बहुत ही ज्ञानवर्द्वक था। उनके जरिए ही उन्हें सभी महान तथा तथाकथित संतों से मिलने का मौका मिला। पागल बाबा ओशो से चाहते थे कि वह कम से कम एम.ए. की डिग्री अवश्य प्राप्त कर ले।

ओशो ने अपनी ध्यान विधियों में संगीत को भी महत्व दिया है। जिसका श्रेय वह पागल बाबा को देते है। ओशो कहते है कि ‘‘मुझे पागल बाबा कहते थे कि ऊँचे उठने के लिए सगीत एक अच्छी सीढ़ी है। उसको पकड़े नहीं रहना चाहिए या उसी पर अटके नहीं रहना चाहिए। सीढ़ी का काम है किसी दूसरी जगह पंहुचना। इसलिए मेंने अपनी समस्त ध्यान विधियों में संगीत का उपयोग किया है।’’

पागल बाबा ओशो से बहुत पे्रम करते थे। वे ओशो के भविष्य को लेकर बहुत चिंति थे वह उन्हें ऐसे हाथों में सौपना चाहते थे जो आगे उनका मार्गदर्शक करे या सहयोग करें। इसके लिए उन्होंने मरने से पहले मस्त बाबा को ओशो को सौप दिया था। ओशो को कहते है कि पागल बाबा ने उन्हें जीवन की कई सच्चाईयाँ से परिचित करवाया तथा इतना भ्रमण करवाया और वे उन सबके लिए आज बहुत आभारी हूँ। परन्तु वे कभी उन्हें धन्यवाद दे पाये क्योंकि पागल बाबा खुद ओशो के पैर छूते थे। 

मस्त बाबा - ओशो के जीवन में जिन महत्वपूर्ण लोगों का उल्लेख मिलता है उन्हीं में से एक है मस्त बाबा। ये वही है जिन्हें पागल बाबा ने ओशो के लिए चुना था। ओशो कहते है ‘‘मुझे पहचानने वाले तीन जाग्रत व्यक्ति थे। 

पहले व्यक्ति थे मग्गा बाबा, दूसरे पागल बाबा और तीसरे तो ओर भी अजीब थे मेंरी कल्पना के भी बाहर पागल बाबा से भी इतने पागल न थे -उनका नाम था मस्त बाबा।’’ओशो से मस्त बाबा की पहली मुलाकात अद्भुत थी। मस्त बाबा आंखो में आंसू लिए हाथ जोड़कर ओशो से कहने लगे ‘‘इस क्षण के आगे अब तुम मेंरे पागल बाबा होओगे।’’

ओशो मस्त बाबा को मस्तों कहकर बुलाते थे। मस्त बाबा भी ऐसे व्यक्ति थे जो ओशो के पैर छूते थे। मस्त बाबा तन व मन दोनों से बहुत सुन्दर थे। ओशो बताते है ‘‘मस्तों सिर्फ बुद्वपुरूष ही नहीं अच्छे सितार वादक व महान दार्शनिक भी थे।

हम दोनों रात को गंगा किनारे लेट कर कई विषयों की चर्चा करते थे। हम दोनों को एक दूसरे का संग बहुत पसन्द था। कभी मौन रहकर भी एक दूसरे की उपस्थिति का आनन्द उठाते। मस्त बाबा बहुत से वाघयत्रों को बजाते थे। वे बहुआयामी प्रतिभावान व्यक्ति थे। वे चित्र भी बनाते थे। मस्त बाबा पहले व्यक्ति थे जिन्होंने ओशो को सर्वप्रथम भगवान कह कर पुकारा था।’’

शंम्भू बाबू की दोस्ती - ओशो के जीवन में शम्भू का बड़ा योगदान रहा है। ओशो कहते है कि शम्भू बाबू संबुद्व या जाग्रत गुरू नहीं थे फिर भी उनका स्थान मग्गा बाबा के बाद द्वितीय मानता हूँ। क्योंकि उन्होंने मुझे तब पहचाना जब पहचानना असम्भव था।

शम्भू बाबू एक अच्छे कवि थे। परन्तु उनकी कभी कोई कविता उन्होंने प्रकाशित नहीं करवाई वे अच्छे कहानीकार भी थे। शम्भू बाबू से उनकी दोस्ती अजीब थी। वे ओशो की पिता की उम्र के थे तथा शिक्षित व्यक्ति थे। जब ओशो से उनकी दोस्ती हुई उस वक्त ओशो मात्र नौ वर्ष के थे।।

शम्भू बाबू कई समितियों के सभापति व हाइकोर्ट में वकील थे तो ओशो उस समय अशिक्षित, अनुशासनहींन बालक थे। ओशो बताते है कि ‘‘जिस क्षण शम्भू बाबू और मेंने एक दूसरे को देखा कुछ हुआ हम दोनों के ह्दय एक हो गए-विचित्र मिलन हो गया।’’ ओशो शम्भू बाबू के एक मात्र मित्र थे। वे रोज ओशो को पत्र लिखते थें और जिस दिन कुछ लिखने को ना होता उस दिन खाली कागज लिफाफे में डालकर भेज देते थे।

ओशो समझ जाते थे कि वह अकेलापन महसूस कर रहे है और ओशो उनसे मिलने आ जाते थे। उन्होंने ओशो के कारण सभापति (अध्यक्ष) के पद से त्यागपत्र दे दिया था। उन्होंने ओशो से कहा कि तुम्हारे भीतर जो अपरिभाषित है मुझे उससे पे्रम है। ओशो के पूरे जीवन में सिर्फ एक ही मित्र बने शम्भू बाबू। यदि वे नहीं होते तो उन्हें कभी भी मित्र का अर्थ पता नहीं चलता।

ओशो उनसे 1940 में मिले और 1960 में शम्भूबाबू की मृत्यु हो गई थी। 20 वर्ष की उनकी दोस्ती रही। ओशो कहते है कि मैं बुद्वि जीवियों से मिला हूँ लेकिन शम्भू बाबू की बराबरी कोई नहीं कर सकता। 

ओशो के दार्शनिक बनने का घटनाक्रम 

ओशो बचपन से ही जिज्ञासु प्रवृत्ति के बालक थे। उनके मस्तिष्क में हमेंशा सवालों का गुच्छा चलता रहा था। वे हर किसी में अपने प्रश्नों का हल ढूढ़ते नजर आते थे।

उनका सोचने समझने का दृष्टिकोण भिन्न था। वे पहाड़, नदी, आकाश, पक्षीयों सब का सम्बन्ध खोजते नजर आते थे। वे ये मानते थे कि इस धरती पर कोई भी वस्तु अकरण नहीं है। हर वस्तु एक दूसरे से परस्पर सम्बन्धित है। अपनी इस जिज्ञासु प्रवृत्ति के कारण ही उन्हें पुस्तक पढ़ने का शोक लगा। वह स्कूल जाने से ज्यादा पुस्तकालय जाना ज्यादा पसन्द करते थे।

ओशो के घर का वातावरण स्वतंत्र था बचपन से ही वे स्वतन्त्र वातावरण में नाना नानी के साथ रहे। नानी ओशो के प्रश्नों का जवाब देती थी तथा ओशो के पिता ने भी उनकी जिज्ञासा को शान्त करने में उनकी मदद की। ओशो के ज्ञान प्राप्ति को शांत करने में तीन जागृत बाबाओं का भी महत्वपूर्ण योगदान रहा है। जिमसें मग्गा बाबा द्वारा उन कहे हुए शब्द ‘‘डूब जा’’ अर्थात जब तक ज्ञान की प्राप्ति ना हो तब तक उसमें डूबे रहो तथा खोजते रहो मुख्य था।

इन बाबाओं का प्रभाव उन पर इस तरह से पड़ा की उनके सोचने के नजरिये में परिवर्तन आया। चूंकि ओशो पढ़ने के शौकीन थे इसलिए उन्होंने बी.ए. व एम.ए. फिलॉसफी (दर्शन शास्त्र) से प्रथम श्रेणी गोल्ड मेंडेलिस्ट होकर किया। किन्तु इससे उन्हें कोई शान्ति नहीं मिली और ना ही वे रूकें। ‘‘मात्र 21 वर्ष की अवस्था में ही उन्हें मौलक्षी वृक्ष के नीचे ज्ञान प्राप्त हुआ। बौद्वित्व की प्राप्ति हुई।’’ 

इसके बाद उन्होंने अपने विचारों से प्रकाश फैलाना प्रारम्भ किया। उन्होंने स्वयं अनेक दार्शनिकों के बारे में गहनतम अध्ययन किया उनमें मुख्य है महावीर स्वामी, महात्मा बुद्ध, नानक, कबीर, कृष्ण, महात्मा गांधी, लेलिन आदि। ओशो ने अपने अध्यापन काल में भारत भर में भ्रमण किया तथा समाजवाद व गांधीवाद पर अनेक बार अपने विचार प्रस्तुत किए।

ओशो को तर्क करने का शोक भी बचपन से ही था। वे किसी की भी कोई भी बात तब तक नहीं मान लेते थे जब तक की वह स्वयं सहमत ना हो। वे एक अच्छें वक्ता है इसलिए लोगों को अपनी बाते कहानी के माध्यम से सुना पाते है। उन्होंने ऐसा कोई विषय नहीं है जिस पर अपने विचार प्रस्तुत ना किए हो।

ओशो ने कला, विज्ञान, धर्म, राजनीति, शिक्षा सभी पर अपने विचारों से अवगत करवाया। ओशो के बचपन में उन पर अपने नाना की मृत्यु का ऐसा प्रभाव पड़ा कि उनका मौत के प्रति सम्पूर्ण दृष्टिकोण ही परिवर्तन हो गया उन्होंने इस घटना के बाद से समझा की मृत्यु शोक नहीं वरन् उत्साह है। ओशो के दार्शनिक विचारों का प्रभाव भारत में ही वरन् सम्पूर्ण विश्व पर पड़ा।

भारत के अतिरिक्त विदेशो में भी ओशो को पसन्द किया जाने लगा। वहां भी उनके अनुयायीयों की संख्या में लगातार वृद्वि होने लगी। ओशो की विचारधारा ने पूर्व-पश्चिम के भेद को समाप्त कर दिया। वे अपने समय से आगे की सोच के व्यक्ति थे। उन्होंने अपने दर्शन में ध्यान को अत्यधिक महत्व दिया। ये ध्यान उन्होंने जाति, धर्म, देश, विदेश सबसे उपर रखा।

ये ध्यान विधियों किसी भी धर्म सम्प्रदाय या देश के लिए ना होकर वरन् सम्पूर्ण मानव के विकास के लिए उपयोगी है। ओशो ने माना कि व्यक्ति के सम्पूर्ण विकास के लिए केवल दो ही सूत्र महत्वपूर्ण है एक ध्यान दूसरा पे्रेम। ये ही दोनों है जिससे व्यक्ति स्वयं की प्राप्ति कर सकता है।?

ओशो की दार्शनिकता

सुकरात के अनुसार ‘‘जो ज्ञान की प्यास रखते है वही सब सच्चे दार्शनिक होते है’’16 ओशो तो बचपन से ही ऐसे व्यक्ति थे जो कि हर वस्तु में ज्ञान ढूढ़ते नजर आते थे। ओशो ने व्यक्ति की स्वतत्रता को बहुत ही महत्व दिया है। ओशो का दर्शन सरल व अनुपम है। उनका सोचने का नजरिया अन्य दार्शनिको की तुलना में अलग है।

वह भारत में ही नहीं वरन् सम्पूर्ण विश्व में एक महत्वपूर्ण दार्शनिक के रूप में जाने जाते है। ओशो ने अपने दर्शन में धर्म, राजनीति, विज्ञान, शिक्षा, सेक्स, नारी, कृष्ण, कबीर, नानक, महात्मा बुद्व, सभी पर अपनी विचार प्रस्तुत किए है। ओशो को 21 वर्ष की अवस्था में मौलश्री वृक्ष के नीचे सबोधि (परमजागरण) हुआ। इसके बाद अपने आधुनिक विचारों से जनता को अवगत करवाया। ओशो ने अपने अध्यापनकाल में भारत में भ्रमण किया। ‘‘ओशो समाजवाद के विरूद्व थे।

वे मानते थे कि भारत का उत्थान पूंजीवाद विज्ञान, तकनीकी तथा जन्मदर कम करने से ही हो सकता है। उन्होंने शास्त्रों के अनुसार धर्म व परम्पराओं की आलोचना की तथा सेक्स को आध्यात्मिकता की ओर पहुंचने की पहली सीढ़ी बताया है’’ तथा लोगों ने उनका विरोध किया और साथ ही साथ हजारों लोगों ने उन्हें सूना भी। ओशो उग्र विचार व्यक्त करने वाले वक्ता थे।

1962 में 3-10 दिन के ध्यान शिविर का आयोजन किया। उन्होनें आध्यात्मिक गुरू के रूप में धूम-धूमकर विभिन्न आयमों पर अपनी विचार प्रस्तुत किए। 1970 में जनता के लिए लगाये गए ध्यान शिविर में ओशो ने ‘‘डायनोमिक ध्यान विधि’’ को पहली बार बताया। वह 1970 में ही जबलपुर से बम्बई चले गए। 26 सितम्बर 1970 को उन्होंने ‘‘नव सन्यास’’ से जनता की अवगत कराया। 

ओशो ने अपने दर्शन में ‘‘सम्यक सन्यास’’ को पुर्नजीवित किया। उनकी नजर में सन्यासी वह है जो अपने घर-संसार, पत्नी और बच्चों के साथ रहकर पारिवारिक सामाजिक जिम्मेंदारियों को निभाते हुए ध्यान और सत्संग का जीवन जीए। ओशो ने अपनी देशनाओं में सम्पूर्ण विश्व के रहस्यवादियों, दार्शनिकों और धार्मिक विचारधाराओं को नवीन अर्थ दिया।

1971 में उन्हें ‘‘भगवान श्री रजनीश’’ कहा गया। 1989 में उन्होने अपने नाम के आगे से भगवान शब्द को हटाया अब उन्होने अपना नाम रजनीश ही रखा।’’ भक्त लोग उन्हें ओशो कहकर बुलाते थें। रजनीश ने भी इस नाम को स्वीकार किया। ओशो नाम की उत्पत्ति विलियम जेम्स के शब्द ‘‘ओशनिक’’ से हुई थी। जिसका अर्थ है समुद्र में मिल जाने से हैं। ओशो ने अपने दर्शन में मनुष्य को ‘जोरबा दी बुद्वा’ की तरह जीने के लिए कहा है। उन्होंने जोरबा को भौतिकवादी व बुद्वा को आध्यात्मिक माना है।

ओशो का ‘‘जोरबा दी बुद्वा’’ ऐसा मनुष्य है जो जोरबा की भांति भौतिक जीवन का पूरा आनन्द मनाता है और गौतम बुद्व की भांति मौन होकर ध्यान में उतरने में सक्षम है। जो भौतिक और आध्यात्मिक दोनों तरह से समृद्व है।’’ ओशो के दार्शनिक विचारों के कारण सम्पूर्ण विश्व समाज में एक क्रान्ति आई उन्होंने जीवन के लिए पे्रम, ध्यान और खुशी को प्रमुख मूल्य माना। ओशो किसी भी तरह के जड़ सिद्वान्तों के विरूद्व थे। परन्तु सिर्फ जीवन के लिए कुछ बातों को आवश्यक माना है वे निम्न हैं - ओशो का कहना है जब तक भीतर से आवाज ना आए किसी भी व्यक्ति की आज्ञा का पालन ना करो।

अन्यकोई ईश्वर नहीं है स्वयं जीवन (अस्तित्व) के। सत्य आपके अन्दर ही है उसे बाहर ढूढ़ने की जरूरत नहीं है। पे्रम ही प्रार्थना है। शून्य हो जाना ही सत्य का मार्ग है। शून्य हो जाना ही स्वयं में उपलब्धि है। जीवन यही अभी है। जीवन होश से जियो। तरो मत बहो। प्रत्येक पल मरो ताकि हर दूसरा क्षण नया जीवन जी सको। उसे ढूढ़ने की जरूरत नहीं है जो कि यही है रूको और देखो।

आश्रम स्थापना (पूना आश्रम)

मुम्बई की आर्द्व जलवायु के कारण ओशो का स्वास्थ्य लगातार खराब रहने लगा। उनके शरीर में डायबिटिज, अस्थमा और विभिन्न तरह की एलर्जी हो गई। 1974 में जब उन्हें संबोधित हुए 21 वर्ष हो चुके थे। तब वह पूना आये और उन्होंने कोरेगांव पार्क पूना में माँ योगा मुक्ता की सहायता से एक जमीन खरीदी। छ: एकड़ (24000 एम) में फैले इस आश्रम का नाम ‘‘श्री राजनीश आश्रम’’ रखा गया। ओशो आश्रम में 1974 से 1981 तक रहे। वर्तमान में इसे ओशो इन्टरनेशनल मेंडीटेशन रिर्सोट के नाम से जाना जाता है।

श्री रजनीश आश्रम पूना में प्रतिदिन अपने प्रवचनों में ओशो ने मानव चेतना के विकास के हर पहलू को उजागर किया। बुद्व, महावीर, कृष्ण, शिव, शंण्डिलय, नारद, जीसस के साथ ही साथ भारतीय आध्यात्म-आकाश में अनेक नक्षत्रों-आदिशंकराचार्य, गोरख, नानक, मूलकदास, रैदास, दरियादास, मीरा आदि के उपर उनके हजारों प्रचलन उपलब्ध है।

जीवन का ऐसा कोई भी आयाम नहीं है जो उनके प्रवचनों से अस्पर्शित रहा हो। योग, तन्त्र, ताओ, झेन, हसीद, सूफी जैसे विभिन्न साधनों परम्पराओं के गूढ़ रहस्यों पर उन्होंने सविस्तार प्रकाश डाला है। साथ ही राजनीति,कला,विज्ञान, मनोविज्ञान,दर्शन, शिक्षा, परिवार, समाज, गरीबी, जनसंख्या विस्फोट, पर्यावरण तथा सम्भावित परमाणु युद्व के व उससे भी बढ़कर एड्स महामारी के विश्व संकट जैसे अनेक विषयों पर भी उनकी क्रांतिकारी जीवन दृष्टि उपलब्ध है।

‘‘शिष्यों और साधकों के बीच दिए गए उनके ये प्रवचन 650 से भी अधिक पुस्तकों के रूप में प्रकाशित हो चुके है और तीस से अधिक भाषाओं में अनुवादित हो चुके है।’’ ओशो अपने आवास से दिन में केवल दो बार बाहर आते प्रात: प्रवचन देने के लिए और संध्या के समय सत्य की यात्रा पर निकले हुए साधकों को मार्गदर्शन एवं नये पे्रमियों को सन्यास-दीक्षा देने के लिए।

अचानक शारीरिक रूप से बीमार हो जाने पर 1981 की बसंत ऋतु में वे मौन में चले गए। चिकित्सकों के परामर्श पर उसी वर्ष जून में इलाज के लिए उन्हें अमरीका ले जाया गया। रजनीशपुरम् :- अमरीका जाने के बाद 1981 में ओरेगन सिटी में उन्होंने ‘रजनीशपुरम’ की स्थापना की। यह एक आश्रम था लेकिन देखते ही देखते यह पूरा शहर बन गया। जहां रहने वाले ओशो के अनुयायियों को ‘‘रजनीशीज’’ कहा जाने लगा।

अमेरिका सरकार और ओशो के बीच कुछ भी सामान्य नहीं था। ओशो ने सार्वजनिक सभाएं करना बंद कर दिया था। वे अब सिर्फ आश्रम में ही प्रवचन देते और ध्यान करते थे। रजनीशपुरम में अनुयायियों की संख्या में भारी वृद्वि होने लगी। लगभग 10000 से ज्यादा लोग रहते थे। उस समय ओशो की सेवा में 93 रॉयस रॉय गाड़ियों रहती थी। सम्भवत: वह दुनिया के पहले व्यक्ति थे।

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