पुलिस के मुख्य कार्य क्या है ?


पुलिस के मुख्य कार्य

पुलिस के मुख्य कार्य क्या है, पुलिस के मुख्य कार्य कौन-कौन से हैं पुलिस के कार्यों में विशेष रूप से उल्लेखनीय है-

1- गिरफ्तारी एवं हिरासत

पुलिस का प्रमुख कार्य अपराधी या संषायित व्यक्ति करके उसे अपनी अभिरक्षा में लेना है। पुलिस की निवारक शक्तियों का उल्लेख भारतीय दण्ड प्रक्रिया संहिता,1973 की धाराऐं 149 से 153 में वर्णित है। सद्भावनापूर्वक किये कार्यों के लिये पुलिस को दण्ड प्रक्रिया संहिता को धारा 71 एवं 73 में उचित संरक्षण प्राप्त है संषायित व्यक्ति को गिरफ्तार करके हिरासत में रखने सम्बन्धी शक्ति की सीमाओं को दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 7, 167, 169, तथा 170(2) में स्पष्टतः परिभाषित किया गया है। कि दण्ड प्रक्रिया संहिता के अध्याय 5 में एक नई धारा 50-क जोड़ी जाए जिसके द्वारा बताए गये रिश्तेदार, मित्र या अन्य उपबन्ध का उद्देश्य यह है कि गिरफ्तार व्यक्ति के सगे-सम्बन्धी या उसमें हित रखने वाला कोई व्यक्ति उसकी गिरफ्तारी के बारे में जान सके तथा उसे जमानत आदि पर छुड़ाये जाने की व्यवस्था कर सके।

यदि संषायित अपराधी (Suspected Criminal) से अवाष्यक पूछ-ताछ करने के पश्चात पुलिस अधिकारी को यह विश्वास हो जाता है कि अभियोजन के लिए पर्याप्त साक्ष्य और प्रमाण उपलब्ध है, तो उसे स्वयं की रिपोर्ट के साथ अपराधी को हिरासत में लेने के चौबीस घंटे की अवधि में सक्षम दण्डाधिकारी के समक्ष प्रस्तुत करना होगा। यदि अपराधी को इसमे अधिक समय तक हिरासत में रखा जाना आवश्यक हो, तो पुलिस के आवेदन पर दण्डाधिकारी रिमांड-आर्डर द्वारा इसकी अनुमति दे सकता है। रिमांड आर्डर द्वारा अभियुक्त को अधिक से अधिक 15 दिनों तक पुलिस की हिरासत में रखा जा सकता है रिमांड दिये जाने के कारणों का दण्डाधिकारी को आदेश में उल्लेख करना होगा। 

यदि अभियुक्त के विरूद्ध किसी जमानती अपराध का आरोप हो, तो उसे जमानत पर छोड़ा जा सकता है। यदि अभियुक्त के विरूद्ध अपर्याप्त साक्ष्य हो, तो उसे गैर जमानती बन्ध पत्र (मुचलके) पर भी छोड़ा जा सकता है। 

वारन्ट के अन्तर्गत बन्दी बनाए गए अभियुक्त को चौबीस घंटे की अवधि में न्यायिक अधिकारी के समक्ष प्रस्तुत न किए जाने पर उसका बन्दीकरण अवैध होगा।

उपर्युक्त प्रावधानों से स्पष्ट है कि किसी व्यक्ति को हिरासत में लेने सम्बन्धी पुलिस को व्यापक अधिकार शक्ति है लेकिन बन्दी बनाए गए व्यक्ति के अधिकारों को सुरक्षा प्रदान करने के लिए पुलिस को दण्ड प्रक्रिया के उपर्युक्त उपबन्धों का कड़ाई से पालन करना चाहिये।

पुलिस को यह अधिकार शक्ति है कि वह आवारा, कुख्यात बदमाषों या संदेहास्पद पूर्वतृत (Doubtful antccedents) वाले व्यक्तियों को गिरफ्तार करके हिरासत में ले सकती है तथा अच्छे आचरण की शर्त पर जेल से रिहा व्यक्ति पर निगरानी रखते हुए आवश्यक होने पर उसे अभिरक्षा में ले सकती है।

2- पुलिस द्वारा अपराधी को हथकड़ी या बेड़िया पहनाई जाना 

परीक्षणाधीन अभियुक्त हिरासत से भागने न पाये इस नीयत से पुलिस प्राय: हथकड़ी पहनाकर अभियुक्त को अनुरक्षित करती है। परन्तु पुलिस द्वारा अभियुक्त को हथकड़ी पहनाने के बारे में अपना निर्णय देते हुए उच्चतम न्यायालय ने प्रेम शंकर शुक्ला बनाम दिल्ली प्रशासन के वाद में अभिनिर्धारित किया कि हथकड़ी पहनाना प्रथमदृश्टया अमानवीय, अनुचित एवं मनमानी करना है।

यदि अत्याधिक गंभीर और खतरनाक अपराधी को हथकड़ी पहनाना आवश्यक भी हो, तो भी अनुरक्षा अधिकारी (Esacorting officer) को इसके लिखित कारण बताने चाहिये तथा पीठासीन न्यायाधीश (Presaiding Judge) की पूर्वानुमति लेना चाहिये। न्यायालय ने आगे कहा कि यदि न्यायाधीश ने हथकड़ी लगाई जाना अनावश्यक समझता है तो अनुरक्षा अधिकारी किसी भी स्थिति में अपराधी को हथकड़ी नहीं पहना सकेगा। न्यायालय ने, अपराधी को हथकड़ी डालने या बेड़िया पहनाने को संविधान के अनुच्छेद 21 का सरासर हनन माना है क्योंकि इससे उचित एवं न्यायोचित प्रक्रिया का उल्लंघन होता है।

सारांश यह है कि जब तक यह निर्विवाद सिद्ध न हो जाए कि अभियुक्त असाध्य अपराधी या खूंखार आतंकवादी है या उसके पास संगीन शस्त्र है, उसे हथकड़ी नहीं लगाई जाएगी। प्रत्येक अभियुक्त को अदालत में बिना हथकड़ी के ही पेश किया जायेगा।

महाराष्ट्र राज्य बनाम रविकांत पाटील के वाद में पुलिस द्वारा हत्या के आरोपी के दोनों हाथों में हथकड़ी पहनाकर तथा भुजाओं को रस्सी से बांधकर सड़क पर घुमाये जाने की वैधता को चुनौती दी गई थी। यह घटना दिनांक 17 अगस्त 1989 को घटी थी। बम्बई उच्च-न्यायालय की खण्ड-पीठ ने आरोपी को हथकड़ी पहनाकर तथा रस्सी से बांधकर घुमाएं जाने को अमानवीय मानते हुए इसे संविधान के अनुच्छेद 21 का उल्लंघन बताया तथा इसके लिए दोषी पुलिस निरीक्षक प्रकाश चव्हाण को आदेशित किया कि वह आरोपी की क्षतिपूर्ति के रूप में 10,000/- रूपये का भुगतान करें न्यायालय ने इसे दोषी पुलिस अधिकारी की सेवा-पुस्तिका में प्रतिकूल-प्रविष्टि (Advers entry) की जाने का निर्देश भी दिया। 

उक्त पुलिस निरीक्षक ने उच्च न्यायालय के निर्णय के विरूद्ध उच्चतम न्यायालय में अपील की। उच्चतम न्यायालय ने उच्च न्यायालय के निर्णय को बहाल रखते हुए निर्णय दिया कि अपीलार्थी की सेवा पुस्तिका में प्रतिकूल प्रविष्टि की जाने के पूर्व उसे सुनवाई का अवसर दिया जाये।

3- खाना तलाशी एवं जामा तलाशी

पुलिस का एक अन्य महत्वपूर्ण कार्य अपराधियों एवं संषयित व्यक्तियों से पूछ-ताछ करना तथा उनकी खाना तलाशी या जामा तलाशी लेना है जामा तलाशी से आशय अपराधी की जेबों तथा कपड़ों को टटोलकर तलाशी लेने से है ताकि उसके पास किसी घातक वस्तु या शस्त्र से पुलिस को खतरा न रहे। अपराधी के विरूद्ध साक्ष्य एकत्रित करने के उद्देश्य से पुलिस द्वारा उसकी खाना तलाशी की जाती है जबकि अपराधी से अपनी सुरक्षा के लिए सावधानी के रूप में पुलिस द्वारा उसकी जामा तलाषी ली जाती है अपराधी की जामा तलाषी लेने की पुलिस की अधिकार-शक्ति का प्रावधान दण्ड-प्रक्रिया संहिता की धारा 52 में उपबन्धित है।

पुलिस द्वारा तलाशी तथा जब्ती की कार्यवाही वारंट के अधीन अथवा बिना वारंट के की जा सकती है। दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 93 व 94 के अनुसार यदि पुलिस द्वारा तलाशी की कार्यवाही मजिस्ट्रेट के वांरट के अधीन की जा रही है, तो वांरट में निम्नलिखित बातों का उल्लेख किया जाना आवश्यक है-
  1. उन तथ्यों का उल्लेख जिनके आधार पर अपराध घटित होने की संभावना हो।
  2. तलाशी के स्थान या स्थानों का विनिर्देषन (Specification)।
  3. तलाशी ली जाने की युक्तियुक्त समयावधि का उल्लेख।
यदि तलाषी की वस्तु कोई मोबाइल वाहन हो जिसे तुरन्त पुलिस के क्षेत्राधिकार से बाहर ले जाया जा सकता हो या किसी व्यक्ति को वैध रूप से तत्काल गिरफ्तारी किये जाने की आवश्यकता हो, तो पुलिस बिना वारंट के भी तलाषी की कार्यवाही कर सकती है किसी व्यक्ति की स्वेच्छा सहमति होने पर भी पुलिस उसे बिना वारंट के गिरफ्तार कर सकती है। परन्तु स्वेच्छा या सहमति करने का भार अभियोजनक पक्ष पर होगा।

तलाषी के कारण व्यक्ति की विवक्षित के अधिकार (Right of privacy) का उल्लंघन होता है। अत: सामान्यत: यह दिन के समय दो स्वतंत्र साक्षियों की उपस्थिति में ली जानी चाहिए। अपराध के अन्वेशण के दौरान भी पुलिस तलाषी ले सकती है।

4- अपराधी से पूछताछ करने का अधिकार

भारतीय दण्ड प्रक्रिया संहिता,1973 की धारा 42 के अनुसार किसी असंज्ञेय अपराध अपराध के सन्देह में पुलिस संषयित अपराधी से उसके नाम, पते आदि की पूछ-ताछ कर सकती है ताकि उसकी ठीक पहचान हो जाए। अपराधी से सन्तोशजनक उत्तर न मिलने पर पुलिस उसे हिरासत में ले सकती है जब कि कि उसकी सही पहचान नही कर ली जाती है संषयित अपराधी से पूछताछ करने सम्बन्धी पुलिस की अधिकार-शक्ति की सीमाएं दण्ड प्रकिया संहिता की धारा 156 में वर्णित है पूछताछ के दौरान पुलिस से सौजन्यता का बर्ताव करने की अपेक्षा की जाती तथा उसे अपराधी को अनावश्यक रूप से आतंकित नहीं करना चाहिए।

अपराधी से पूछताछ के दौरान बयान पर उसके हस्ताक्षर करा लेना दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 162 तथा भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 25 के अनुसार अवैध है। इसी प्रकार पुलिस के समक्ष अभियुक्त द्वारा की गई संस्वीकृति अग्राह्य होती है परन्तु पुलिस के समक्ष की गई संस्वीकृति के आधार पर बरामदगी वैध साक्ष्य के रूप में मान्य होगी। अत: यदि किसी हत्या के मामले में अभियुक्त द्वारा पुलिस के समक्ष की गई संस्वीकृति के आधार पर कोई शस्त्र बरामद किया जाता है तो ऐसी बरामदगी साक्ष्य के रूप में वैध होगी।

5- मृत्यु अन्वेषण रिपोर्ट

कोई व्यक्ति अप्राकृतक या संदेहास्पद परिस्थितियों में मृत पाया जाने पर पुलिस उसकी मृत्यु अन्वेशण रिपोर्ट दर्ज करती है भारतीय दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 174 में केवल दण्डाधिकारी को यह अधिकारिता है कि वह यह विनिष्चित करने के लिए मृतक की मृत्यु हत्या, आत्महत्या या अकस्मात अपघात, इनमें से किस कारण हुई है, इसका अन्वेशण करे। 31साक्ष्य अधिनियम की धारा 25, धारा 27।

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