श्रृंगार का अर्थ
श्रृंगार का अर्थ श्रृंगार शब्द ‘श्रृंग’ एंव ‘आर’ इन शब्दों के योग से बना है। श्रृंग का अर्थ
कामोहेक या काम की वृद्धि और आर का अर्थ आगमन या प्राप्ति है। इस प्रकार
श्रृंगार का शाब्दिक अर्थ हुआ काम की प्राप्ति अथवा वृद्धि होना।
श्रृंगार की परिभाषा
भरतमुनि से लेकर हिन्दी एवं
संस्कृति के विभिन्न आचार्यों एवं विद्वानों ने श्रृंगार को इस प्रकार परिभाषित
किया है:- भरतमुनि:-सुख प्रायेष्ट सम्पन्न ट्टतु मालयादि सेवक: पुरुष प्रमदायुक्त श्रृंगार इति
संज्ञित: अर्थात् प्राय: सुख-प्रदान करने वाले इष्ट पदार्थों से युक्त ट्टतु-मालादि से सेवित
स्त्री और पुरुष से युक्त ‘ श्रृंगार ‘ कहा जाता है।
अर्थात् विशिष्ट इच्छाओं और चेष्ठाओं को व्यक्त करने वाले आत्म गुणों के
उत्कर्ष का मूल, बुद्धि, सुख, दुख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, संस्कारों का सबसे बड़ा
कारण, आत्मा का अहंकार विशेष और सुहृदयों द्वारा आस्वादित होने वाल रस
श्रृंगार कहलाता है। रस शास्त्रियों ने रस के नौ प्रकारों में श्रृंगार को ‘रसराज’ कहकर सम्मानित
किया है। इसका क्षेत्र विस्तृत होने के कारण चारों ओर आनंद का अनुभव
होता है।
‘रति’ श्रृंगार रस का स्थायी भाव है। नायक और नायिका श्रृंगार रस के आलंबन विभाव हैं। उद्दीपन विभाव के रूप में सखा-सखी, वन, बाग, हाव-भाव, मुस्कान आदि हैं।
श्रृंगार रस सबसे व्यापक है। अनेक सात्विक और स्थायी भावों का निदर्शन इस रस के अन्तर्गत होता है। जितने संचारी भाव इस रस में होते हैं, उतने अन्य किसी में नही।
‘रति’ श्रृंगार रस का स्थायी भाव है। नायक और नायिका श्रृंगार रस के आलंबन विभाव हैं। उद्दीपन विभाव के रूप में सखा-सखी, वन, बाग, हाव-भाव, मुस्कान आदि हैं।
श्रृंगार रस सबसे व्यापक है। अनेक सात्विक और स्थायी भावों का निदर्शन इस रस के अन्तर्गत होता है। जितने संचारी भाव इस रस में होते हैं, उतने अन्य किसी में नही।
श्रृंगार रस के भेद
श्रृंगार रस के दो भेद माने गए हैं।
- संयोग श्रृंगार
- वियोग श्रृंगार
1. संयोग श्रृंगार -
नायक और नायिका की संयोगावस्था अथवा मिलन संयोग
श्रृंगार कहलाता है
मान विप्रलंभ श्रृंगार में नायक और नायिका के समीप रहने पर भी मान के कारण मिलन नहीं हो पाता। कविवर मम्मट ने इसे ‘ईर्ष्या’ नाम से अभिहित किया है।
2. वियोग अथवा विप्रलंभ श्रृंगार
प्रिया और प्रियतम के बिछड़ जाने पर जो वियोग होता है, उसे वियोग श्रृंगार कहते है। यह पाँच प्रकार का होता है:-- पूर्वानुराग
- मान
- प्रवास
- करूण
- शाप
मान विप्रलंभ श्रृंगार में नायक और नायिका के समीप रहने पर भी मान के कारण मिलन नहीं हो पाता। कविवर मम्मट ने इसे ‘ईर्ष्या’ नाम से अभिहित किया है।
प्रवास से अभिप्राय नायक के विदेश गमन से है।
करूण विप्रलंभ की
उत्पति शोक से होती है। इसके नायक और नायिका एक दूसरे के प्रति विरक्त
रहते हैं।
कविवर ‘मम्मट’ ने करूण विप्रलंभ के स्थान पर शाप विप्रलंभ को
स्वीकार किया है जिसमें नायक नायिका का संयोग किसी शाप के कारण नहीं हो
पाता है।
कविवर ‘मम्मट’ ने ‘विरह’ नामक पांचवा विप्रलंभ श्रृंगार स्वीकार
किया है। इसमें गुरूजन की लज्जावश अथवा अन्य कारणों से मिलन का अभाव
रहता है।
श्रृंगार के तत्व
श्रृंगार-रस में मुख्यत: तीन तत्व मिश्रित है:-- काम
- सौंदर्य
- प्रेम।
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