सूफी मत का इतिहास

सूफी शब्द की उत्पत्ति के संबंध में भी विद्वानों के कई विचार हैं। कुछ का मानना है कि इस शब्द की उत्पत्ति सफा शब्द से हुई जिसका अर्थ है पवित्र। मुसलमानों में जो सन्त पवित्रता और त्याग का जीवन व्यतीत करते थे वे सूफी कहलाये। एक और विचार है कि सूफी शब्द की उत्पत्ति सूफ शब्द से हुई जिसका अर्थ है ऊन। मुहम्मद साहब के प्श्चात जो संत ऊनी कपड़े पहन कर अपने मत का प्रचार करते थे, वे सूफी कहलाए। 

कुछ विद्वानों का यह भी विचार है कि सूफी शब्द की उत्पत्ति ग्रीक भाषा के शब्द सोफिया से हुई जिसका अर्थ ज्ञान है। एक मत यह भी है कि मदीना के मुहम्मद साहब द्वारा बनाई मस्जिद के बाहर सफा अर्थात मक्के की एक पहाड़ी पर जिन व्यक्तियों ने शरण ली तथा खुदा की आराधना में लगे रहे, वे सूफी कहलाये। सूफी शब्द का प्रयोग ईसा की नवीं शताब्दी से प्रचलित होने का प्रमाण मिलता है।

इस्लाम धर्म में जो रहस्यवाद है, उसी को सूफी कहा जाता है। सूफी धर्म इस्लामी रहस्यवाद का ही एक रूप हैं सूफी धर्म एक सम्प्रदाय भी है और एक आंदोलन भी। सूफियों का मौलिक स्रोत कुरान शरीफ और हजरत मुहम्मद का जीवन था।

सूफी शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम कब और किसके लिए हुआ यह विवादास्पद है। मौलाना जामी के अनुसार सर्वप्रथम सूफी शब्द का प्रयोग कूफा के शेख अबू हाशिम कूफी के लिए प्रयुक्त हुआ। आ0 परशु राम चतुर्वेदी ने भी ‘सूफी काव्य संग्रह’ प्रथम सूफी शेख हाशिम का ही नाम उल्लेखत किया है। इनका मोसल नगर में हुआ था, किंतु वे शाम देश के कूफा नगर में निवास करते थे और मेसोपोटामिया के रमला नामक स्थान में इन्होंने एक खानकाह (मठ) कि स्थापन की थी।

मासिओं ने अबू हाशिम के साथ कूफा में एक कीमियागर ज़ाबिर इब्न हेयान का भी उल्लेख किया है। परन्तु अधिकांश विद्वान जामी के मत से सहमत है शेख अबूर हाशिम यहॉ पर विक्रम की 9वी शताब्दी के आंरभ काल तक वर्तमान रहे। परन्तु; उनके विषय में इससे अधिक कुछ भी ज्ञात नहीं होता, अपितु इतना ही पता चलता है कि तब से लगभग 50 वर्षों के भीतर इस नाम का पूरा प्रचार हो गया और बहुत से व्यक्ति इसके द्वारा अभिहित किये जाने लगे।

सूफी संन्तों में सन्यास जीवन और रहस्यवादी प्रवृति का समन्वय उमैय्या वंश के खलीफाओं के शासन के अन्तिम दिनों दिखायी देता है। अब्बास-वंश के शासन काल का आंरभ हो चुका था। सूफी मत के इतिहास का यह प्रथम युग था, जो हिज़री सन् की दूसरी शताब्दी के अंतिम चरण तक पता चलता रहा और जिसमें वर्तमान समय में कम से कम आधे दर्जन के नाम और संक्षिप्त से परिचय अभी तक सुरक्षित है।

अब्वासी सलीफाओं के शासन के प्रारम्भिक काल में सूफी शब्द का प्रयोग अधिक होने लगा। उस समय सूफी शब्द व्यक्तियों के नाम के साथ सन्तत्व की उपाधि के रूप में जुड़ा रहता था, किन्तु पचास वर्षो के भीतर ही इसका प्रयोग संपूर्ण ईराक के रहस्यवादी साधकों के लिए होने लगा।

सूफी मत का इतिहास

‘सूफी’ मत का इतिहास तब से आरम्भ होता है जब मुहम्मद साहब मक्का से मदीना गये थे। यह घटना 633 ई. की है। इस्लाम में भक्ति का समावेश सूफियों ने ही किया। प्रारम्भिक सूफी साधकों में अल हसन, इब्राहिम बिन अदम, अयाज, राबिया और मंसूर आदि का नाम उल्लेखनीय है। वे साधक 643 से 922 ई. के बीच हुए।

सूफी मत पर ईसाइयत, नव-प्लेटोवाद, भारतीय वेदान्त और बौद्ध दर्शन का भी प्रभाव पड़ा। मनसूर के विषय में ता े यह प्रसिद्ध है कि उन्होंने भारत में आकर वेदान्त का अध्ययन किया था। उनका ‘अनल्हक’ (मै ही सत्य हूँ) का संदेश वेदांत का ‘अहं ब्रह्मास्मि’ (मैं ब्रह्म हूँ) ही है। यह विचार स्पष्टत: इस्लाम के एकेश्वरवाद से भिन्न था। मुस्लिमों में कट्टरपंथियों को यह सहन न हुआ और मंसूर को प्राणदण्ड दे दिया गया। बाद में इस्लाम और सूफी मत में समन्वय हो गया और सूफी मत को इस्लाम में मान्यता मिल गयी।

सूफी मत की सम्पूर्ण साधना प्रेम पर आधारित है। सूफी वह है जो अपने प्रिय के प्रेम में सदैव मस्त रहता है। प्रेम ज्ञान की भाँति ईश्वरीय देन है। ईश्वर का प्रेमी वही हो सकता है, जिसे खुद ईश्वर प्रेम करता है। ईश्वर ने प्रेम के कारण ही सृष्टि की। ईश्वर स्वयं प्रेमस्वरूप है। प्रेम के सहारे हर चीज अपनी पूर्णता पर पहुँच जाती है। सूफी मत में प्रेम के साथ.साथ सौन्दर्य को भी महत्ता प्रदान की गयी है। ईश्वर को ही प्रेम और सौन्दर्य का स्रोत माना गया है- उससे बढ़कर सुन्दर और कोई नहीं। संसार के समस्त सौन्दर्य उसी की प्रतिरूप प्रतिच्छवि हैं। लौकि सौन्दर्य आकर्षक है अवश्य, पर साधक की दृष्टि केवल उसी पर टिकी नहीं रहती। बल्कि इस सौन्दर्य से गुजरते हुए अलौकिक सौन्दर्य अर्थात् ईश्वरी सौन्दर्य तक पहुँचती है। यही बात प्रेम के लिए भी है। सांसारिक प्रेम (इश्क मजाजी) ईश्वरीय प्रेम (इश्क हकीकी) तक पहुँचने का साधन है। सांसारिक प्रेम ही ईश्वरीय प्रेम में बदल जाता है। इसलिए सम्पूर्ण सूफी साहित्य में सांसारिक प्रेम के आलम्बन, अनुभव, विभाग तथा संचारियों का चित्रण किया गया है। 

सूफी साहित्य में नारी-प्रेम और नारी-सौन्दर्य ईश्वरीय प्रेम और सौन्दर्य का पर्याय बन गये। ईश्वर से वियुक्त होकर आत्मा विकल है, वह उसे पुन: प्राप्त करना चाहती है, पर ईश्वर मिलन के मार्ग में अनेक कठिनाइयाँ है, जिन्हें साधक को पार करना पड़ता है। सांसारिक प्रपंच एवं अहंकार ही बाधक तत्त्व है यही शैतान है। आध्यात्मिक गुरु शिष्य का े सहायता देकर इन कठिनाइयों से उबारता है। अत: सन्त कवियों की तरह सूफी साधना में भी गुरु का महत्त्व है।

भारत में प्रथम सूफी

प्रामाणिक रूप से नहीं कहा जा सकता कि सर्वप्रथम कौन सूफी सन्त भारत में आये पर ऐसी मान्यता है कि सर्वप्रथम भारतवर्ष में मुस्लिम तीर्थ यात्रियों का एक दल शेख बिन मलिक ने नेतृत्व के करडगनोर (मालावबार) में आया और स्थानीय शासक को धर्मोपदेश द्वारा मुमलमान बनाने में सफल हुआ। 16वीं शताब्दी के एक मुसलमान इतिहासकार के अनुसार शेख शरफ बिन मलिक ने मालाबार राज्य को धर्मोपदेश द्वारा मुसलमान बनाने में सफल हुआ। लोगों का यह विश्वास भी है कि यह घटना मुहम्मद साहब के जीवन काल की है। उत्तरी भारत में पहले पहल आने वाले सूफियों में शेख इस्माइल का नाम आता है यह 1005 ई0 में लाहौर आये। इन्होंने बहुत से लोगों की अपनी आध्यात्मिक शक्ति का प्रदर्शन करके मुसलमान बनाया। शेख इस्माइल का विद्वानगण भारत के प्रथम सूफी के रूप में मानते है।

भारत में आने वाले प्रारम्भिक सूफ़ियों में सबसे ज्यादा जिनकी प्रसिद्ध हुयी। उनमें सूफी हसन बिन इसमान अलीअल् हुिज्वेरी नाम आत है कहीं-कहीं पर तो इन्हें भारत में आने वाले सर्वप्रथम सूफी के नाम से भी उल्लेखित किया गया है यही इनकी प्रसिद्धी के कारण कहा गया है अल्हुज्विरी अफगानिस्तान देश गजनी नगर के निवासी थे और इस्लाम धर्म के एक बहुत बड़े विद्वान तथा धर्माचार्य थे। इनको दाता गंज बख्श भी कहा जाता है। सूफी मत पर इनकी रचना ‘कश्फुल महजूब’ प्रसिद्ध हैै।

इन्होंने ऐसा लिखा है कि वह कैदी बनाकर वहां लाया गया था। इनकी इस रचना में सूफी मत का विशद् विवेचन प्रस्तुत किया है। अबुल हसन अल्हुज्विरी के शिष्य फज़ल मुहम्मद बिन अलहसन अल्हुिज्वेरी से सूफी मत की शिक्षा ग्रहण की थी। बहुत से सूफ़ियों का वह विश्वास है कि अल्हुज्विरी भारतवर्ष के सन्तों के ऊपर अधिष्ठित है और यद्यपि उनकी मृत्यु हो गयी है फिर भी कोई सन्त बिना उनकी आज्ञा के भारत वर्ष में प्रवेश नहीे करता। सूफी मत के दृष्टिकोण से अल्हुिज्वेरी प्रसिद्ध जुनैद सिद्धांतो का मानने वाले थे और लगभग 60 वर्षो तक वे भ्रमण एवं धर्म प्रचार में लग रहे।

उन्होंने अविवाहित जीवन व्यतीत किया था और उनके मर जाने पर भी उनका नाम एक उच्चकोटि के वली की भॉति सदा आदर तथा सम्मान के साथ लिया जाता रह है। उनकी मृत्यु लाहौर नगर में हुई जहाँ पर उनकी समाधि आज भी वर्तमान है।

मोहम्मद बिन कासिम (711ई0) के सिन्ध व पंजाब विजय से लेकर मेहमूद गजनवी के आक्रमण के दौ सौ वर्ष पश्चात् तक कई सूफी सन्तों, धर्म प्रचारकों के नाम सुनाई देते है यथा-सय्यद नयर शाह, बाबा फरवरअलदीन, शेख, इस्माईल तथा शेख् अल्हुिज्वेरी आदि।

ईसा की 13वीं -14वीं शताब्दी में सूफी सन्तों का भारत देश के लगभग सभी भागों में आगमन हो गया था जैसे- सिन्ध, पंजाब, कश्मीर, दक्षिण भारत, बंगाल, उत्तरी भारत, कच्छ, गुजरात, राजस्थान तथा मालवा।

सूफी सम्प्रदायों की संख्या के बारे में मतभेद है, यों तो 175 तक मानी जाती है। 16वीं शताब्दी में अबुल फज़ल ने ‘‘आइने-अकबरी’’ में प्रचलित 14 सम्प्रदायों का उल्लेख किया है :- हबीबी, तफूरी, कख्र्ाी, सक्तों, जुनैदी, काजरूनी, तूसी, फिरदौसी, जैदी, अयाज़ी, अदहमी, हुबेरी, सहरवर्दी और चिश्ती।

उपरोक्त सम्प्रदायों के अतिरिक्त कादरी, शत्त्ाारी नक्शबन्दी मदारी आदि सम्प्रदायों ने भी भारत के विभिन्न भागों में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। 

भारत में सूफियों के सम्प्रदाय 

भारत में सूफियों के कई सम्प्रदाय थे। 1200 ई. से लेकर 1500 ई. तक सूफी मत का विस्तार धीरे-धीरे हुआ। उस काल में कई नये सम्प्रदाय और आंदोलन प्रारंभ हुए जो कि हिंदू धर्म और इस्लाम के मध्य का रास्ता बताते थे। उनमें से चिश्ती, सुहरावर्दी, सुहरावर्दी, फिरदौसी, कादिरी और नकशाबंदी सिलसिले सम्प्रदाय महत्वपूर्ण है। चिश्ती सिलसिले का अजमेर, राजस्थान के कुछ नगरों, पंजाब, उत्तरप्रदेश, बंगाल, उड़ीसा तथा दक्षिण में विस्तार हुआ। सुहरावर्दी सिलसिला सिंध, मुल्तान और पंजाब में सीमित रहा। इस सिलसिले के कुछ संत दिल्ली और अवध में रहने लगे।

सूफी मत के चार मार्ग

भारतीय सूफीमार्ग की चार मंजिले और उन मंजिलों की चार अवस्थायें मानते हैं। सूफियों ने इसी लक्ष्य की प्राप्ति के लिए चार प्रकार की साधनावस्थाओं को निश्चित किया है:-
  1. शरीअत
  2. तरीक़त
  3. हक़ीक़त
  4. मारिफत
1- शरीअत- इस्लाम धर्म और ग्रन्थों में वर्णित तथा निर्धारित विधियों एवं कानूनों को मानना शरीअत कहलाता है अथार्त इसमें धर्मग्रन्थ के बताये कायदे कानूनों और पाबन्दियों को माना है। इस मंजिल में साधक की पृथक अवस्था बनी रहती है जिसे सूफी ‘नासूत’ कहते हैं। 

2- तरीक़त- हदय की पवित्रता, स्पष्ट तथा शुद्ध मन द्वारा ध्यान-चिंतन की अवस्था तरीकत है। इसमें साधक पवित्रता का सहारा लेता है। भौतिक जगत् की तुच्छताओं व वर्जनाओं से वह ऊपर उठ जाता है और उसमें देवदूतों के गुण आ जाते हैं। इस मंजिल में साधक की जो अवस्था रहती है उसे सूफी ‘मलकूत’ कहते हैं। 

3- हक़ीक़त- जिस अवस्था में अल्लाह अथवा परम-तत्व की एकता तथा उसके गुणों और उसकी कृपा का ज्ञान अनुभव किया जाए वह हक़ीक़त कहलाती है। हक़ीक़त का मतलब परम सत्य है। इस अंतिम मंजिल में साधक की जो अवस्था होती है उसे ‘लाहूत’ कहते है। जायसी ने इन चारों मंजिलों की ओर संकेत ‘पद्मावत’ में किया है। 

4- मारीफत:- सत्यानुभूति जनित सिद्धावस्था मारीफत है। परमात्मा के मिलन के मार्ग की सारी बाधायें इस मंजिल में दूर हो जाती है। साधक राग-विराग से परे हो जाता है और उसे ज्ञान की प्राप्ति होती है। साधक की यह अवस्था ‘‘जबरूत’ की है। इसमें तीनों प्रकार के ज्ञान के सत्य का बोध निहित है। इसके दो रूप हैं-
  1. हाली
  2. इल्मी
मारीफत के दो भेद हाली व इल्मी हैं, जिसमें हाली अवस्था में ईश्वर की साधना संगीत नृत्य आदि माध्यमों से की जाती है अनेक सूफी सन्तों ने इसी मार्ग को अपना कर मोक्ष प्राप्त करने के लिए फना और फकद् (त्याग व प्राप्ति पक्ष का) अर्थात् ईश्वरीय सत्ता में विलीन होकर अहंकार को छोड़कर परम तत्व को पाने के लिए इनका आश्रय लिया है।

इश्क़े मज़ाजी और इश्क़े हक़ीक़ी- सूफी मत में प्रेम का अत्यधिक महत्व है। सूफी इश्क़ मजा़जी को इश्क़ हक़ीक़ी का सोपान मानते हैं। मौलाना जामी कहते है कि इश्के़ मज़ाज़ी पुल के समान होता है। पुल केवल पार जाने के लिए होता है, रहने के लिए नहीं होता। अतएव साधक को इश्क़ मज़ाज़ी का सहारा लेकर इश्क़ हक़ीक़ी तक पहुँचना है। इश्क़ हक़ीक़ी में सब्र की कोई सीमा नहीं होती।

भारतवर्ष में ब्रह्मनान्द का ज्ञान कराने के लिए रत्यानन्द की उपमा देने की प्रथा उपनिषद् काल से चल चुकी है। अफलातून ने शरीर-सम्पर्क रहित प्रेम की कल्पना करके नर-नारी के सम्बन्ध को पवित्रता के धरातल पर प्रतिष्ठित करने का प्रयास किया था।

सूफी मत में इश्क़े मज़ाजी और इश्क़े हक़ीक़ी का उल्लेख तो रहा है, परन्तु कुछ सूफी सन्त इश्क़े मज़ाज़ी को अच्छा नहीं समझते। सूफी ‘लौकिकता’ से ‘अलौकिकता’ की ओर जाने वाला पवित्र और सरल मार्ग है जो कि व्यक्ति को अल्लाह से सीधा जोड़ने का कार्य करता है। सूफी ईश्वर को प्रियतम (माशूक) मानते हुए स्वयं प्रेमी (आशिक) के समान उससे अनंत प्रेम करते हैं।

सूफियों ने इस प्रेम की सिद्धि के लिए इश्क़ मज़ाज़ी (सांसारिक प्रेम) की भी छूट दी क्योंकि इश्क़ हक़ीक़ी (आध्यात्मिक प्रेम) तक पहुँचने की सीढ़ी है। सूफी इश्क़ मज़ाज़ी को इश्क़ हक़ीक़ी का सोपान मानते हैं। इसकी परम्परा अति प्राचीन है, ईसाई सन्त ईसा मसीह को दुल्हा और अपने को उनकी दुलाहिन कहा करते थे। सूफी संत लौकिक प्रेम को ईश्वरीय प्रेम का साधन समझते है। अत: वे लौकिक प्रेम भी करते थे तथ लौकिक कथाओं के माध्यम से आध्यात्मिक प्रेम की व्यंजनों किया करत थे।

सूफियों के अनुसार प्रेम अत्यधिक विरह विशिष्ट होता है। यही प्रेम-तत्व साधक को प्रेरणा देता है। इसी को पाकर वह उन्मुक्त हो उठता है। रूमी ने इस स्थिति का बडे़ सुन्दर ढंग से चित्रण किया है। प्रेम की ज्वाला ने ही मुझे प्रज्वलित किया है, उसी की मदिरा ने मुझे उन्मुक्त बनाया है। यही दिव्य-सौन्दर्य साधक को सिद्धि के द्वार पर ले जाता है अर्थात् प्रेम सच्चे प्रेमी को कभी थकने नहीं देता, उसे वह नित्य नवीन शाश्वत सौन्दर्य की अनुभूति कराता रहता है और वह प्रत्येक पद पर नित्य नयी विभूति प्रदान करता है। प्रसिद्ध सूफी सन्त और दार्शनिक इब्नुल अरबी ने स्त्री-प्रेम को ईश्वरीय प्रेम का प्रतीक माना है। 

अल्-गजाली ने लिखा है कि स्त्री-प्रेम को ईश्वरीय प्रेम को प्रतीक माना है। अल् गजाली ने लिखा है कि स्त्री-पुरुष का प्रेम उस ईश्वर-मनुष्य प्रेम के लिये एक पुल मात्र है। ईश्वर की प्राप्ति के लिये ही इसकी उपयोगिता है, उसकी अनुभूति कर लेने के बाद, इसकी उपयोगिता समाप्त हो जाती है। बुल्ले शाह ईश्वर-भक्ति अथवा प्रेम में सराबोर थे किन्तु उन्होंने इश्क़ मजा़जी के विषय में भी कहा है:-

जिचर ना इश्क़ मजा़जी लागे,
सूई सीवे ना बिन धागे।
इश्क़ मजाज़ी दाता है,
जिस पिछो मस्त हो जाता है।

(इश्क-मजा़जी का अपनाए बिना कोई भी मनुष्य इश्क़-हक़ीक़ी (ईश्वर-प्रेम) में उसी प्रकार असफल हो जाता है जिस प्रकार सुई के बिना धागे के नहीं सीती। इश्के़-मजाजी तो वह दाता है जिसके प्रताप से मनुष्य को आनन्दानुभूति होती है।)

सूफियों में एक कहावत प्रचलित है- ‘‘अल मज़ाज़ो कंतरतुल हक़ीक़ी’’ मनुष्य जब तक सांसारिक प्रेम को नहीं जान पाता उसके लिए आदर्श प्रेम तक पहुँचना सम्भव नही। सूफियों के अनुसार जो कुछ सौन्दर्य है वह ईश्वर का सौन्दर्य (हुस्न) है। अतएव जहाँ भी सौन्दर्य के दर्शन होते हैं, वहाँ हमें ईश्वर के दर्शन होते हैं। हुस्न मज़ाज़ी (सांसारिक सौन्दर्य) को सर्वप्रथम ध्यान का केन्द्र बनाया जाता है। जब ध्यान एवं लक्ष्य पर जाता है इश्क़ मज़ाज़ी की चिगांरी अन्धकार में हृदय को प्रकाशित कर ‘इश्क़ हक़ीक़ी’ की मशाल जलाती है। इश्क़-मज़ाज़ी गन्तव्य नही केवल मार्ग के लिए दीपक के समान होता है।

सूफियों की वेशभूषा

सूफी साधक प्राय: एक विशेष प्रकार के वस्त्र धारण करते रहें। प्रारम्भ के सूफी साधक में ऊन का व्यवहार अधिक होता था। पैगम्बर साहब ने कहा था-’’ऊनी’’ वस्त्र का व्यवहार करो जिसमें ईमान (धर्म) की मिठास का तुम्हें अनुभव होगा।’’ सूफी साधक, सहाबी ऊन के चोगे धारण करते थे। सूफ़ियों के परिधान से सम्बन्धित कोई सामान्य नियम नहीं रहा। वे लम्बा लबादा, खिरका, खुदड़ी, ऐहराम, लुंगी, कुर्ता, टोपी, पगड़ी आदि का उपयोग करते थे। पीरों मुर्शिद द्वारा प्रदत्त खिरका शिष्य के लिए विशेष महत्व रखता था। चिश्ती सन्तों ने अधिकतर हल्के बादामी रंग को प्राथमिकता दी। कादिरिया पन्थी लाल पगड़ी पहनते थे उनके वस्त्र का कोई न कोई भाग हल्के बादागी रंग का होता था।

सूफियों के विभिन्न नामकरण

सूफियों को विभिन्न नामों से उनकी दशा एवं स्थिति के अनुसार पुकारा जाता है। यथा - 
  1. ‘‘ग़ौस : वह सूफी जो अपनी आध्यात्मिक यात्रा में उन्नति की चरम सीमा पर पहुँच गया हो।
  2. ‘‘कुत्ब’’ : सूफ़ियों के अनुसार प्रत्येक समय प्रत्येक नगर का एक आध्यात्मिक शासक होता है जो ‘‘कुत्ब’’ कहलाता है। कुछेक कुत्ब को उच्च श्रेणी का मानते हैं तो कुछ ग़ौस को।
  3. ‘‘दरवेश’’ : फ़क़ीर के लिए फारसी में प्रयुक्त शब्द।
  4. ‘‘वली’’ : मित्र। सूफी अल्लाह का वली (मित्र) होता है। वली का बहुवचन औलिया है। सभी पैगम्बर औलिया होते हैं परन्तु कोई वली पैगम्बर नहीं होता।
  5. ‘‘आरिफ’’ : जिसे ईश्वर की मारिफत (ज्ञान) प्राप्त हो अर्थात् ज्ञानी।
  6. ‘‘मलंग’’ : ब्रह्मचारी बेशरा सूफी सन्त।
  7. ‘‘कलंदर’’ : स्वतन्त्र विचार के ब्रह्मचारी बेशरा सूफी। हैदरी भी स्वतन्त्र सूफी थे।
  8. ‘‘मज्ज्ाूब’’ : वह बेशरा सूफी जिसे अपनी दशा का भी भान न हो।
  9. ‘‘शेख’’ : सूफी के लिए एक सम्माननीय अरबी सम्बोधन इसका बहुवचन ‘‘मशाईख’’ है।
  10. ‘‘पीर’’ : शेख का फारसी अनुवाद पीर (गुरु) है।
  11. ‘‘मुर्शिद’’ : शिक्षा देने या सिखाने वाला। पीर को ‘‘मुर्शिद’’ अथवा ‘‘पीरोमुश्र्ाीद’’ (दीक्षा गुरु) भी कहा जाता है।
  12. ‘‘सालिक’’ : सूफी मार्ग में चलने वाला साधक।
  13. ‘‘फ़क़ीर’’ : फ़क़ीर से तात्पर्य ऐसे साधक से है जो ईश्वर पर विश्वास करके संसार के स्थान पर ईश्वर की ओर प्रवृत्त रहें। हदीस के अनुसार फ़क़ीर का बहुत उच्च स्थान है। पैगम्बर मोहम्मद साहब स्वयं को सदैव फ़क़ीर के समूह में रखने के लिए ईश्वर से प्रार्थना करते थे।
  14. ‘‘सूफी’’ : अल्लाह के दर्शन के लिए ‘‘तरीक़त’’ के मार्ग पर चलने वाले इस्लाम के रहस्यवादी साधक ‘‘सूफी’’ कहलाते हैं। 
शेख हुज्वेरी तसव्वुफ की दृष्टि से सूफी के तीन प्रकार बतलाते हैं : -
  1. सूफी - वह जो स्वयं को हक में फना कर दें।
  2. मतसूफ - वह जो सच्चा सूफी बनने के प्रयास में लगा हो।
  3. मुस्तसूफ - वह जो मान सम्पत्ति आदि प्राप्त करने के लिए सूफी मार्ग पर चलता हो।

महिला सूफी सन्त

इस्लाम ने न केवल पुरुष सूफियों को उत्पन्न किया बल्कि कुछ महिला भी इस सम्बन्ध में उल्लेखनीय हैं जिनके प्रेम, भक्ति, समर्पण, परोपकार, करुणा आदि गुणों ने लोगों को प्रभावित किया। उनमें से प्रमुख निम्नांकित हैं।-बसरा की राबिया, गिलान की राबिया, दमिश्क की राबिया, निशापुर की फातिमा, फखरीया, फिज्ज्ाा, मुजगाह, नफीसा, आमना, तुहफा, तेजकारपई खातून, अफसाह, हकीमाह, शेराना, सफ़िया, खदीजा, उमयहया आदि। 

 प्रसिद्ध बसरा की सन्त शिरोमणि रूबिया अल अदाविया अल बसरी थी। राबिया बसरी स्त्री सूफ़ियों में ही अग्रगण्य नहीं, पुरूषों में भी यदि सबसे आगे नहीं तो किसी से कम भी नहीं थीं। उनके जीवन की श्रेष्ठता और विचारों की शुद्धता किसी भी जाति और काल के सन्तों के लिए अभिनन्दनीय कही जा सकती है। उनकी जन्म 717 ई0 अत्यन्त निर्धन परिवार में हुआ। अनाथ होने के बाद उन्होंने एक दास का जीवन भी व्यतीत किया। 

परमात्मा के प्रति इतना प्रेम रखती थी जिसे किसी भी वस्तु की आवश्यकता प्रतित नहीं होती थी।

सन्दर्भ -
  1. सिंह डॉ0 हरदेव, भारतीय इतिहास और साहित्य में सूफी दर्शन, प्रकाशक-उ0प्र0 हिन्दी संस्थान राजर्षि पुरूषोत्तम टण्डन, हिन्दी भवन 6-महात्मा गांधी मार्ग, हजरतगंज, लखनऊ, प्रथम संस्करण-2005
  2. शर्मा डॉ0 सुनीता, भारतीय संगीत का इतिहास (आध्यात्मिक दर्शन), संजय प्रकाशन, (100/184 ब्लाक-ए Som Bazar) नई दिल्ली-110053 प्रथम संस्करण-1996
  3. सिंह डॉ0 हरदेव, भारतीय इतिहास और साहित्य में सूफी दर्शन, प्रकाशक-उ0प्र0 हिन्दी संस्थान राजर्षि पुरूषोत्तम टण्डन, हिन्दी भवन 6-महात्मा गांधी मार्ग, हजरतगंज, लखनऊ, प्रथम संस्करण-2005
  4. ईश्वरीप्रसाद- भारतवर्ष का इतिहास, इण्डियन प्रेस, इलाहाबाद
  5. मध्यकालीन भारत, 1952
  6. एल.पी. शर्मा- मध्यकालीन भारत,
  7. के.एल. खुराना- मध्यकालीन भारतीय संस्कृति

3 Comments

  1. सूफ़ी वाद पर आपका ये आर्टिकल हर इतिहास प्रेमी व्यक्ति के लिए लाभदायक है ,कि कैसे सूफ़ीवाद का उद्भव इस्लाम के अंदर हुआ ,क्या थोड़ी दी विभिन्नता है इस्लाम एकेश्वरवादी दर्शन और सूफियों के एकेश्वरवादी दर्शन में। पढ़कर बहुत ही ज्ञानवर्धन हुआ ।

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  2. सूफ़ी वाद पर आपका ये आर्टिकल हर इतिहास प्रेमी व्यक्ति के लिए लाभदायक है ,कि कैसे सूफ़ीवाद का उद्भव इस्लाम के अंदर हुआ ,क्या थोड़ी दी विभिन्नता है इस्लाम एकेश्वरवादी दर्शन और सूफियों के एकेश्वरवादी दर्शन में। पढ़कर बहुत ही ज्ञानवर्धन हुआ ।

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  3. sat sat namat bhagwan sufi ki aatma ko shanti de

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