वसा के प्रमुख स्रोत एवं शरीर में वसा के कार्य

वसा किन्हीं एक एल्कोहल जैसे- सिसदीन तथा ग्लिसरॉल तथा एक वसीय अम्ल के संयोजन से बनते हैं। वसीय अम्लों में कार्बन तथा हाइड्रोजन अधिक मात्रा में तथा आक्सीजन अपेक्षाकृत कम मात्रा में उपस्थित होने से सभी वसाओं की ज्वलनशक्ति बहुत अधिक होती है। 

वसाओं में ऑक्सीजन तथा कार्बन- हाइड्रोजन का अनुपात भिन्न होने के कारण यह कार्बोजों से भिन्न होती है, वसा में इसका अनुपात 1:3 अथवा 1:7 होता है। एक ग्राम वसा से 9 कैलोरी ऊर्जा प्राप्त होती है।

वसा के प्रमुख स्रोत

वसा वनस्पति तथा प्राणिज दोनों ही साधनों से प्राप्त होती हैं। वनस्पति साधनों में वसा- बिनौला, अलसी, सरसो, मूँगफली, तिल, नारियल, बादम, काजू आदि में होता है। 

मांस, मछली, अण्डा, यकृत आदि भी वसा के साधन होते हैं। विभिन्न भोज्य पदार्थों में वसा की मात्रा भोज्य पदार्थ वसा (gm/100 gm.) वनस्पति वसा, सुअर चर्बी 91 - 100 मक्खन 81 - 90 बादाम, अखरोट, सूअर मांस 51 - 70 चॉकलेट, नारियल (सूखा), मूँगफली, मूँगफली का मक्खन 41 - 50 पनीर, नारीयल (ताजा) अण्डे की जर्दी, गाढ़ी क्रीम 31 - 40 दूध, आइसक्रीम, मुर्गी 10 - 15 सोयाबीन 20।

सोयाबीन व अनाजों में भी कुछ मात्रा में वसा की उपस्थिति होती है। प्राणीज साधनों में वसा- विभिन्न दूध में वसा की मात्रा होती है जिसे निकालकर मक्खन तैयार किया जाता है। 

शरीर में वसा के कार्य

  1. ऊर्जा का साधन - भोज्य पदार्थों में वसा ऊर्जा का सबसे अधिक सन्द्रित रूप है। वसा का 1 ग्राम 9 कैलोरी ऊर्जा देता है जबकि कार्बोहाइड्रेट व प्रोटीन का 1 ग्राम लगभग 4 कैलोरी ऊर्जा देता है। शरीर में ऊर्जा का संग्रह नहीं हो पाया तो हमें हर थोड़े समय पश्चात ऊर्जा के लिए भोजन की आवश्यकता होती है।
  2. शारीरिक तापक्रम का नियंत्रण - ऊर्जा देने के साथ-साथ यह हमारे शरीर के तापक्रम को स्थिर रखने के लिए भी आवश्यक है। हमारी त्वचा के नीचे वसा की एक पर्त उपस्थित होती है जो ऊश्मा के सुचालक का कार्य करती है।
  3. वसा में घुलनशील विटामिनों को प्राप्त करना - विटामिन ए डी ई व के अवशोषण के लिए वसा की आवश्यकता होती है। इसके अतिरिक्त कुछ वसाएँ, जैसे- कॉड लिवर, ऑयल या मछली के जिगर का तेल, मक्खन व घी से विटामिन ए व डी की प्राप्ति होती है। विभिन्न वनस्पति वसा में ई व के की प्राप्ति होती है।
  4. आवश्यक वसा अम्लों का प्राप्त करना - वसा में कुछ आवश्यक वसीय अम्ल उपस्थित होते हैं। जैसे- लिनोलिक, लिनोलेनिक व आर्कोडोनिक अम्ल।
  5. कोमल अंगों की रक्षा - वसा शरीर में विभिन्न नाजुक अंग जैसे- वृक्क या गुर्दे, हृदय व तंत्रिका तंत्र को गहीनुमा रचना देकर बाहरी धक्कों से बचाता है।
  6. प्रोटीन की बचत - वसा शरीर की प्रोटीन की बचत करती है। यदि शरीर में वसा की कमी होती है तो ऊर्जा प्रोटीन से ली जाती है। जिससे प्रोटीन अपना मुख्य कार्य नहीं कर पाएगा। इस तरह वसा प्रोटीन की बचत करता है।
  7. भूख देर से लगना - वसा शरीर में पाचक रसों के स्त्राव कम करती है। पाचक रस कम निकलने से पाचन क्रिया देर से होती है तथा भोजन पाचन अंगों में देर तक बना रहता है। जिससे व्यक्ति भोजन की संतुश्टि अधिक देर तक महसूस करता है। जल्दी भूख नहीं लगती है।
  8. सुस्वादिष्टता - वसा में भोजन का स्वाद बढ़ जाता है व एक विषेश सुगंध आ जाती है, वसा द्वारा भोजन पकाने में विभिन्नता आ जाती है। 
  9. यह निम्न कार्यों में भी सहायक है। तंत्रिका संवेदनाओं के संवहन को नियंत्रित करना, आमषयी स्त्राव को कम करना, रक्तचाप नियंत्रित करना, गर्भाधारण की क्षमता बढ़ाना इत्यादि।

वसा की अधिकता से होने वाले रोग

वसा की अधिकता के रोग कोलेस्ट्रोल के अधिक लेने के कारण अधिक होते हैं। कोलेस्टाइल जो कि जन्तु स्टॉल है। क्रम, मक्खन, घी, मलाई, मांस, अण्डा, मुर्गी इत्यादि में पाया जाता है और इनकी मात्रा बराबर बढ़ती जा रही है जिससे रक्त में कोलेस्ट्रोल की मात्रा बढ़ जाती है। रक्त में कोलेस्ट्रोल की मात्रा बढ़ जाना एप्रिरोस्किरोसिस कहलाता है। 

वसा को भोजन के द्वारा अधिक लेने से वसा शरीर में त्वचा के नीचे एकत्र होने लगती है जिससे शरीर का भाग बहुत अधिक बढ़ जाता है और यही मोटापा की स्थिति स्थूलता या ओबेसिटी कहलाती है।

ओबेसिटी दूर करना - ओबेसिटी दूर करने के लिए आहार में वसा की मात्रा बहुत कम लेनी चाहिए। तले हुए अधिक वसायुक्त भोज्य पदार्थ तथा अधिक वसा से बनी सब्जियों को नहीं खाना चाहिए। जंतु भोजन जिसमें वसा की मात्रा अधिक होती है, नहीं ग्रहण करना चाहिए। पूर्ण दूध की अपेक्षा मक्खन निकला दूध स्थूल व्यक्ति को लेना चाहिए।

वसा के गुण

विभिन्न प्रकार की वसा पानी में घुलनशील परन्तु क्लोरोफार्म, ईथर, कार्बन टेट्राक्लोराड आदि कार्बनिक घोल को घुलनशील होती है।
  1. ताप का प्रभाव - वसा को अधिक ताप पर अधिक समय तक गर्म करने से वह अपने यौगिकों में विभक्त हो जाती है। ग्लिसरॉल तथा वसीय अम्ल अलग-अलग हो जाते हैं, साथ ही एक्रोलिन नामक पदार्थ बनता है जो स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होता है।
  2. रैनसिडिटी - वसाओं को अधिक समय तक रखने से या खुला रखने से उसमें एक विषेश गंध आने लगती है। यह गंध भोजन का स्वाद भी खराब करती है, साथ ही स्वास्थ्य के लिए हानिकारक भी होती है। यह क्रिया रैनसिडिटी कहलाती है।
  3. पायसीकरण - यदि वसा को पानी के साथ मिलाकर फेंटा जाय तो वसा के कण अति सूक्ष्म कणों में विभक्त होकर पानी पर तैरने लगते हैं। यह क्रिया पायसीकरण कहलाती है।
  4. साबुनीकरण - वसा की अगर किसी क्षार के साथ क्रिया करवार्इ जाय तो साबुन का निर्माण होता है। यह क्रिया साबुनीकरण कहलाती है। शरीर में भी कभी-कभी असामान्य स्थिति में वसा आंत्र रस से मिलकर जो कि क्षारीय होता है साबुन का निर्माण करता है। यह साबुन मल के रूप में बाहर निकल जाता है।

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