चार्ल्स डार्विन का विकासवाद का सिद्धांत

चार्ल्स डार्विन का विकासवाद का सिद्धांत

सर्वप्रथम चार्ल्स डार्विन ने मानव जाति के विकास का सिद्धांत प्रस्तुत किया । इस सिद्धांत में ‘प्राकृतिक चयन’ के आधार पर विकास की अवधारणा प्रस्तुत की गई। अपनी पुस्तक The Origin of species (1859) में चार्ल्स डार्विन वैज्ञानिक दृष्टि के माध्यम से यह स्थापित करते हैं कि जैविक विकास वंषानुगत लक्षणों में पीढ़ी दर पीढ़ी परिवर्तन के माध्यम से होता है। परिवर्तन की यह प्रक्रिया जीवों में प्राकृतिक चयन के जरिए घटित होती है।

प्राकृतिक चयन की प्रक्रिया में आनुवंशिक लक्षण एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में स्थानांतरित होते हैं। जीवों में जीवित रहने के लिए संघर्ष होता हैं, जो योग्यतम होता है वह इस संघर्ष में अपने अस्तित्व को बचाए रखने में सफल होता है। आगे चलकर डी0एन0ए0 की खोज ने डार्विन के विकासवाद को आगे बढ़ाया। 

डी0एन0ए0 के माध्यम से ही आनुवंशिक लक्षण एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में पहुँचते हैं। विकासवाद की अवधारणाओं ने मनुष्य को जीवन के विकास की व्याख्या के लिए एक वैज्ञानिक दृष्टि प्रदान की।

विकास वह नाम है जो कि हमें सभी प्राकृतिक घटनाओं में क्रम की विस्तृत योजना को देते है। विकासवाद के सामने मुख्य समस्या उपस्थित होती है कि विश्व और जीव का विकास किस नियम से हो रहा है? अर्थात् विकास प्रक्रिया का स्वरूप क्या है? इस समस्या के समाधान के लिए विभिन्न विचारकों ने भिन्न भिन्न सिद्धान्त विकासवाद के प्रतिपादित किये हैं। 

चार्ल्स डार्विन (Charles Darwin) का विकासवाद सिद्धांत का इस प्रकार है -

चार्ल्स डार्विन का विकासवाद का सिद्धांत

चार्ल्स डार्विन (Charles Darwin) का विकासवादियों में सबसे ऊंचा स्थान है। चार्ल्स डार्विन (Charles Darwin) ने अपने समय तक के विकास के सभी प्रमाणों को एकत्रित कर सर्व-साधारण का ध्यान विकास की ओर आकृष्ट किया। उन्नीसवीं शताब्दी में खगोल विज्ञान भू-विज्ञान और जीव विज्ञान में जो भी अनुसंधान हुए थे उनसे विकासवाद की ही पुष्टि हुई थी। खगोल विज्ञान से यह विदित होता है कि पृथ्वी के ठण्डे होने तथा उस पर पहाड़, नदी, समुद्र आदि बनने में काफी समय लगे होगे।

भूविज्ञान से पता चलता है कि पृथ्वी की जितनी परते है, वे आरम्भ के तरल पदार्थो के सहस्त्रों वर्षो के उपरान्त बनी है। इन परतों के मध्य ऐसी जातियों के जीवाश्म अथवा फासिल उपलब्ध होते हैं, जो अब समाप्त हो गई हैं। इसी प्रकार जीव विज्ञान से भी सिद्ध होता है कि जातियों का विकास हुआ है। चार्ल्स डार्विन (Charles Darwin) ने अपनी स्वतंत्र खोज से भी इसी निर्णय पर पहुंचे। इसी के मध्य उन्होनें प्रसिद्ध अर्थशास्त्री माल्थस के लेखों को पढा़ जिसके अनुसार जीवधारियों की संख्या की वृद्धि 1,2,4,8,16 के हिसाब के समान्तर अनुपात में होती है। ऐसी अवस्था में जीवन संघर्ष अनिवार्य हो जाता है, इस जीवन संघर्ष में योग्यतम ही अतिजीवित रहेगें और शेष नष्ट हो जायेगे।  

इन सब प्रमाणों के आधार पर चार्ल्स डार्विन (Charles Darwin) ने अपना मत प्रतिपादित किया कि,” प्राकृतिक वरण से जीवों का विकास होता है।” इसी परिणाम पर स्वतंत्र रूप से इनके मित्र ए0आर0वालेस भी पहुंच चुके थे। चार्ल्स डार्विन (Charles Darwin) की पुस्तक ‘‘प्राकृतिक वरण द्वारा जातियों की उत्पत्ति’’ सन् 1849 में प्रकशित हुई जिसमें प्राकृतिक वरणवाद के विषय में इनका मत दिया गया है। चार्ल्स डार्विन (Charles Darwin) ने अपनी गवेषणाओं को प्राणि विज्ञान तक ही सीमित रखा, उनमें दार्शनिक बनने की चाह न थी।

चार्ल्स डार्विन (Charles Darwin) के विकासवाद ने इस बात की पुष्टि कर दी “एक बार पृथ्वी पर किसी प्रकार जीवन का अविर्भाव हो जाने के उपरान्त उससे विभिन्न प्रकार की जातियों का विकास बिना किसी बाहरी शक्ति के हस्तक्षेप के निष्पक्ष हो सकता है, तथा अधिकाधिक उन्नत जातियों के विकास की व्याख्या के लिए लिए पारमार्थिक तत्व को माना आवश्यक नहीं है। यह विकास प्राकृतिक वरण, अथवा योग्यतम की अतिजीविता आदि यांत्रिक नियमों की सहायता से अपनी समग्रता में व्याख्येय है।” इस प्रकार उनके विकासवाद का स्वरूप यांत्रिकवादी और प्रकृतिवादी है। विकास की प्रगति के विषय में उनका कहना है कि “यह प्रगति सरल से जटिल की ओर होती है।” व्यक्तियों और जातियों दोनों के विकास को उन्होनें यथार्थ माना है। उनका मत है कि आरम्भ में अत्यन्त ही सरल जीवित कोशिकायें पृथ्वी पर उत्पन्न हुई थी और उन्हीं से क्रमिक विकास द्वारा आज के जटिल जीव उत्पन्न हुए है। 

यदि चार्ल्स डार्विन (Charles Darwin) से यह पूछा जाये कि जीवन की सर्वप्रथम उत्पत्ति कैसे और क्यों अथवा कहांँ से हुई तो इसका कोई प्रमाणिक उत्तर उनके पास नहीं है। उनका कहना है कि “सम्भवत: सृष्टिकर्ता ने कुछ निर्जीव जड़ जनन कोशिकाओं में जीवन डालकर आदि जीवित कोशिकाओं को उत्पन्न किया और जब जीवित कोशिकाओं का निर्माण हो गया तो फिर तब से अपने आप प्राकृतिक नियमों द्वारा वे विकसित हो रही है।

चार्ल्स डार्विन (Charles Darwin) के अनुसार “मुझे एक जीवित कोशिका चाहिए और तब मैं समस्त विश्व के विकास की व्याख्या कर दूंँगा।” वस्तुत: उनका उद्देश्य जीवों के विकास की व्याख्या करना था, न कि जीवन की प्रथम उत्पत्ति बतलाना। अत: उन्होनें जीवन के आदि रूप को जिसे हम जीवित कोशिका में पाते हैं, मानकर विश्व के सभी जीवों के विकास क्रम को बतलाया है। अपने विकासवाद द्वारा उन्होंने यही समझाने का प्रयास किया है कि एक ही मूल उद्गम से सभी जातियों का विकास हुआ है। इस प्रकार चार्ल्स डार्विन (Charles Darwin) के विकासवाद को शुद्व भौतिकवाद का समर्थक मानना उचित नहीं प्रतीत होता।

चार्ल्स डार्विन (Charles Darwin) के विकासवाद की नीवं मुख्यत: तीन तथ्यों और उनसे निकले हुए दो परिणामो पर आधारित है। पहला तत्व जीवन में सन्तानोत्पत्ति की वृहत शक्ति अर्थात जीव मे एक से दो, दो से चार और इसी प्रकार बढ़ते रहने की शक्ति। दूसरा तथ्य है जीवों की जनसंख्या की स्थिरता अर्थात् सन्तानोत्पत्ति की वृहत शक्ति होने पर भी जीवों की संख्या का लगभग उतना ही रहना। इन दो तथ्यों के आधार पर यह निष्कर्ष स्वाभाविक रूप से निकलता है कि जितने जीव उत्पन्न होते है उतने ही जीवित नहीं रहते अर्थात् जीवों में जीवित रहने के लिए संघर्ष होता है। तीसरा तथ्य है परिवर्तन अथवा विभिन्नता अर्थात जीवों का थोडा़ बहुत भिन्न होना। 

इस तीसरे तथ्य अर्थात् परिवर्तन और पहले निष्कर्ष अर्थात् जीवित रहने के लिए संघर्ष’ के आधार पर चार्ल्स डार्विन (Charles Darwin) कहते है कि जीवित रहने के लिए संघर्ष एक जाति के विभिन्न प्रकार के प्रतिनिधियों में होता है। जिनमें से कोई अपने पर्यावरण में रहने के लिए अधिक योग्य होता है और कोई कम। प्रकृति अथवा वे भौतिक अवस्थाएं जिनमें जीव विशेष है, उन प्रतिनिधियों का वरण करती हैं जो अधिक योग्य है, अतएव योग्यतम ही जीवित रहता है और कम योग्य उसके सक्षम नहीं टिक सकते। 

इस प्रकार प्राकृतिक वरण द्वारा योग्यतम ही जीवित रहता है और ये योग्यतम परिवर्तन होते-होते जीव को मूल जनक जीव से इतना भिन्न कर देते हैं कि इस प्रकार प्रत्युत्पन्न जीव एक नवीन जाति कहलाने लगता है और नवीन जाति की उत्पत्ति से विकास होता है, क्योंकि नवीन जाति, कुछ अपवादों को छोड़कर, मौलिक जाति से अधिक विकसित होती है।

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