पीड़ा का शाब्दिक अर्थ :
संस्कृत-हिन्दी कोश में पीड़ा का अर्थ “दर्द, कष्ट, भोगना,
सताना, परेशानी” आदि के विकल्प स्वरूप लिया गया है ।
प्राकृत हिन्दी शब्दकोश म पीड़ा का अर्थ “परेशानी, वेदना” आदि के रूप में लिया गया है । संस्कृत-हिन्दी-अंग्रेजी शब्दकोश म पीड़ा का अर्थ “दवाव,
क्षति, क्लेश” बताया गया है ।
इस प्रकार ऊपर दिये गये विभिन्न अर्थों से एक ही स्वर
निकलता है कि पीड़ा मूलतः कष्ट की अनुभूति है । भले ही वह
शारीरिक हो या मानसिक ।
पीड़ा की परिभाषा
हिन्दी शब्दकोश के अनुसार - “प्राणियाको दु:खित या व्यथित करने वाली वह अप्रिय अनुभूति जो किसी प्रकार का मानसिक या शारीरिक आघात लगने, कष्ट पहुँचने या हानि होने पर उत्पन्न होती है और उसे बहुत ही खिन्न, चिंतित तथा विकल रखती है ।”हरियाणवी-हिन्दी कोश के अनुसार - पीड़ा को “पीड़” कहा गया है ।
हरदर्शन सहगल के अनुसार - “अपनी पीड़ा के सादृश्य दूसरा की पीड़ा से आहत रहना ।”
सुरेशचन्द्र के अनुसार - “जीवन के भोगे हुए अतीत को उतारना जहाँ पर में समझता हूँ बहुत ही कठिन काम है । पीड़ादायक तो है ही ।”
रश्मि मल्होत्रा के अनुसार - “अपने मन पर लगे कई चोट के अनगिनत सूखे हुए घाव को फिर-फिर खुरचने जैसी पीड़ा होगी ही होगी ।”
इस प्रकार उपर्युक्त परिभाषा से
यही अर्थ
निकलता है कि पीड़ा एक भोग्या स्थिति है जिसकी अनुभूति और
अभिव्यक्ति पीड़ित व्यक्ति ही कर सकता है ।
साधारण जीवन म जन्म
से लेकर मृत्यु पर्यन्त व्यक्ति किसी न किसी पीड़ा से जुड़ा
रहता है ।
इसी की शाब्दिक अभिव्यक्ति साहित्य म मिलती
है ।
आत्मकथा मय है और अधिक मुखर तथा सत्यापित होती है ।
पीड़ा का स्वरूप
सृष्टि के आरम्भ से ही पीड़ा का जन्म हो गया था । सुख
और दुख, आनन्द और पीड़ा ये मानव जन्य भाव है । जब व्यक्ति
के मर्म (हृदय) पर प्रहार होता है । तब पीड़ा की अनुभूति होती
है ।
पीड़ा शारीरिक और मानसिक दो प्रकार की होती है ।
शारीरिक पीड़ा का घाव चिकित्सा द्वारा भरा जा सकता है ।
लेकिन मन पर हुई पीड़ा का घाव सहजता से नहीं भरा जा
सकता । व्यक्ति दो प्रकार के स्वभाव के होते है, अन्र्तमुखी और
बर्हिमुखी । अन्र्तमुखी अपने मन के सुख-दुख को अभिव्यक्त नहीं करता । वह अन्दर ही अन्दर घुटता रहता है । बर्हिमुखी मुखर
होकर अपनी व्यथा कह देता है ।
Tags:
पीड़ा