उपेक्षित समाज का अर्थ, परिभाषा और स्वरूप

उपेक्षित समाज का अर्थ

उपेक्षा शब्द का अर्थ -’उदासीनता, लापरवाही, विरक्ति, किसी को तुच्छ अथवा नगण्य समझना, अयोग्य जानकर ध्यान न देना या सत्कार न करना है । तो उपेक्षित का अर्थ- जिसकी उपेक्षा की गई हो, अनादर किया हुआ, तिरस्कृत आदि है । और उपेक्ष्य शब्द का अर्थ -’’उपेक्षा के योग्य, घृणा के योग्य’’ है ।
लोक भारती ब्रहन प्रमाणित हिंदी शब्द कोश में उपेक्षा शब्द का अर्थ -1. ‘उदासीनता, लापरवाही, विरक्ती । 2. किसी को तुच्छ या नगण्य समझना, अयोग्य समझकर श्यान न देना या आदर न करना (डिस-रिगार्ड) है । तो उपेक्षित का अर्थ -’जिसकी उपेक्षा की गई हो, तिरस्कृत’ है ।

सहनी हिंदी शब्दकोश में उपेक्षा का अर्थ - अवहेलना अपमान, नजर अंदाज, लापरवाही और उपेक्षित शब्द का अर्थ - ‘तिरस्कृत’ बताया है । 

उपेक्षा एवं उपेक्षित शब्द का अर्थ विविध शब्द कोशों में लगभग एक समान हित मिलता है । अपमान, अवहेलना, दुमित, अपमाणित, लापरवारी, घृणा करने वाला, त्यागने योग्य, उदासीनता, अनादर किया हुआ, तिरस्कृत आदि अर्थों से ‘उपेक्षित’ शब्दो का वर्णन मिलता है । जो हमें दलित, आदिवासी और स्त्री की ओर इशारा करता है कि यह शोषित, अवहेलना, तिरस्कृत जैसी भावनाओं और समाज व्यवस्था से उपेक्षित रहे है ।

उपेक्षित समाज की परिभाषा

उपेक्षित वह व्यक्ति या समाज है जो संकुचित सामाजिक स्थिति का अनुभव करता है । उपेक्षित, वंचित, शोषित, बहिष्कृत समाज दलित समाज ही है जो हजारों वर्षो से बहिष्कृत और उपेक्षित जीवन जी रहा है । इसी अवधारणाओं की कसोटी आदिवासी और स्त्री समाज का दृष्टव्य होता है । 

दलित समाज परिभाओं से यह अर्थ और भी सटीक दिखाई देता है ।

डॉ. भगवानदास दलित समाज के बारे में कहते -’’वस्तुत : दलित या शोषित वर्ग से तात्पर्य है एक ऐसे वर्ग समूह, जाति समूह विशेष का व्यक्ति अथवा वह ाति उसके धन संपत्ति माल अधिकार एवं श्रम आदि का हरण किसी अन्य सत्ता शक्ति संपन्न वर्ग या जाति के द्वारा किया जाता है ।

ओमप्रकाश वाल्मीकि कहते है, ‘‘दलित मतलब मानवीय अधिकारों से वंचित, सामाजिक तौर पर जिसे नकारा गया हो ।

एच. आर. गौतम दलितो के संबध में अपने विचार व्यक्त करते हुए कहते है-’’दलित कहा जानेवाला ही कभी ‘शुद्र’, ‘अनार्य’, ‘अस्पृश्य’, ‘अछूत’ और गांधी जी का ‘हरिजन’ कहा जाता है । इसमें ‘आदिवासी’, ‘घुमंतु’, ‘अपराधशील जातियॉं, महिलाएॅं ओर बंधुआ मजदूर भी सम्मिलित है । इनका अपमान, शोषण, दलन, प्रताड़ित किया गया । पशुओं से भी बदतर इन्हें माना गया है ।

भालचंद्र फडके अपने ‘फुले आंबेडकर शोध आणि बोध’ नामक ग्रंथ में कहते है -’’दलित वह पूरा वर्ग है जो शाषित, प्रताड़ित, बाधित और वंचित है -जो अपने जीवन और अपने सपनों का नियंता नही हैं ।

डॉ. सोहनपाल सुमनाक्षर अपने ‘दलित वह है जिसका दलन किया गया हो । ‘उपेक्षित’, ‘अपमाणित’, ‘प्रताड़ित’, ‘बाधित’ और ‘पीड़ित’ व्यक्ति भी दलित की श्रेणी में आते है ।

शरणकुमार लिंबाले के शब्दो में दलित परिभाषा -’’दलित अर्थात केवल हरिजन और नवबौध्द ही नहीं, बल्कि गांव की सीमा से बाहर रहने वाली सभी अछूत जातियॉं, आदिवासी, भूमिहिन खेत मजदूर, श्रमिक, दु:खी जनता, भटकी बहिष्कृत जाति इन सभी का ‘दलन’ शब्द की व्याख्या में समावेश होता है । ‘दलित’ शब्द की व्याख्या केवल अछूत जाति का उल्लेख करने से नहीं होगी । इसमें आर्थिक तौर पिछडे हुए लोगों का भी समावेश करना चाहिए ।

मराठी के चर्चित कवि नारायण सुर्वे ने कहा है -’’इसका अर्थ केवल बौध्द या पिछड़ी जातियॉं ही नहीं है । समाज में जो भी पीड़ित है, वे दलित है ।

डॉ. बाबासाहेब अंबेडकर के अनुसार-’’दलित जातियॉं वे हैं जो अपवित्रकारी होती है । इनमें निम्न श्रेणी के कारीगर, धोबी, मोची,भंगी, बसौर, सेवक जातियॉं जैसे चमार, ड़ांगरी (मरे हुए प्शु उठाने के लिए) सउरी (प्रसूतिगृह का कार्य करने वाले), ढोला (डफली बजाने वाले) आते हैं । कुछ जातियॉं परंपरागत कार्य करने के अतिरिक्त कृषि - मजदूर का भी कार्य करती है । कुछ दिनों पूर्व तक इनकी स्थिति अध्र्ददास, बंधुआ, मजदूर जैसी रही है ।

मोहनदास नेमिशराय के अनुसार -’’दलित शब्द माक्र्स प्रणीत सर्वहारा शब्द के समानाथ्र्ाी प्रतीत होता है । लेकिन इसमें भेद है । दलित की व्यप्ति अधिक है, वही सर्वहारा की सीमित ।

प्रसिद्ध दलित साहित्यिक बाबूराव बागूल ने 17 और 18 जनवरी 1976 में नागपुर स्थित दलित साहित्य सम्मेलन का उद्घाटन करते हुए ‘दलित’ परिभाषा में कहते है -’’....इस देश की अर्थव्यवस्था और समाजव्यवस्था ने ‘मनुष्यता’ को नकारा और जिनके हिस्से में केवल शोषण का दुःख आया उन सभी को ‘दलित’ यह पद जान बुझकर दिया हुआ लगता है ।

‘‘दलित यानी उन व्यक्तियों का समूह जिनका मनुष्य बनकर जीने का अधिकार छिना गया है । इस समाजरचना में जन्म से जिनके हिस्से में केवल एक ही प्रकार का जीवन आया है । जिनको एक ही प्रकार का जीवन आया है । जिनको मनुष्यता के मूल्य को नकारा गया है । जिन्हें मनुष्य जैसे अभिमान से जीना नकारा गया है वे दलित है ।

उपर्यूक्त परिभाषाओं से पता चलता है कि उपेक्षित समाज की कसोटी में दलित, आदिवासी और स्त्री वर्ग का दर्शन होता है । जिनका दमन, दलन, शोषन तिरस्कार, बहिष्कार जाति क े आधार पर शदु ,्र अस्पश्ृ य समजकर किया जाता है । वे दरिद्रता में पलते, कष्ट उठाते है, सामाजिक स्थान, दर्जा से वंचित है । ओर सामाजिक धार्मिक व्यवस्था द्वारा अपमाणित करते हुए उनकी उपेक्षा कि जाती है । मजदूर किसान, सर्वहारा समाज को भी अपमाणित होकर उपेक्षित जीवन मजबूरी में जिना पड़ रहा है ।

अन्याय-अत्याचार को सहते हुए मानव अधिकारों से उपेक्षित समाज को वंचित रखा जाता है । इन परिभाषाओं से स्पष्ट होता है कि अत्याचारों का उत्पे्ररक स्त्रोत किसी न किसी रूप में भारत की प्राचीन सामाजिक व्यवस्था से जुड़ा हुआ माना है । इस संदर्भ में रूपचंद गौतम लिखते है कि ‘‘आर्य धर्मगुरूओं ने जो विधि के भी निर्णायक थे, समय-समय पर ऐसे काले कानूनों की घोषणा की जिनसे तथाकथित शुद्र को मानव स्तर से ही नहीं बल्कि उसे अधिकार विहिन कर पशु-सतर से भी नीचे गिरा दिया ।

कुल मिलाकर उपेक्षित वह व्यक्ति या समाज है जो संकुचित सामाजिक स्थिति का अनुभव करता है । और सामाजिक विकास की धाराओं से जिन्हे वंचित एवं उपेक्षित रखा जाता है । दलित, आदिवासी, स्त्री, मजदूर किसान को उपेक्षित समाज की कसोटी में गिना जा सकता है ।

उपेक्षित समाज का स्वरूप

यह बात सही हे कि मनुष्यों के समूह को समाज कहा जाता है, पर यह बात भारत में अभी तक तय नहीं हो पाई है, कि मनुष्यों के कर्तव्यों के आधार पर समाज का वर्गीकरण हो । देश में साक्षरता भी बढ़ी है और मशीनीकरण का ग्राफ भी ऊॅंचा हुआ है । उपेखित समाज के रंग-रूप और कारोबार बदले हैं, लेकिन उनके सिर से जातिवाद का साया अभी तक नही उतरा है । आज भी मनुष्य के जन्म के आधार पर समाज का वर्गीकरण हो रहा है ।

अपने देश में हजारों साल से यह चलती आई परंपरा दिखाई देती है कि समय-समय पर सामाजिक जीवन के एक बड़े भाग को पीछे की ओर धकेलने का प्रयास किया गया है । देशकाल के अनुसार इन वर्गो का विभिन्न नामाकरण भी हुआ है ।

समय-समय पर इन्हें शुद्र, अछूत, अत्यंज म्लेच्छ, हरिजन, अनुसूचित जन-जातियॉं आदि शब्दों का प्रयोग होता हुआ दिखाई देता है । इन शब्दों से किसी न किसी प्रकार से असमानता का भाव नजर आता है । कल का यही समाज दति, आदिवासी, स्त्री के नाम से जाना जा रहा है जो उपेक्षित समाज का प्रतिनिधित्व करते हैं । उपेक्षित समाज की अवधारणा और स्वरूप के भ्रम को दूर करने के लिए दलितोध्दारक डॉ. बाबासाहेब अंबेडकर के विचारों का संदर्भ देखना नितांत जरूरी है । ‘उन्होंने Who were shudrsa नामक ग्रंथ लिखकर ब्राम्हणी तत्वज्ञान का, जिसमें सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक दृष्टि से शुद्रों और अस्पृश्य आदिवासी विमुक्त जमाते ओर भटकनेवाली जमाते एक ही सूत्र में गुथी हुई होकर वे जन्म जाति, व्यवसाय परंपरागत रूढ़ि और धर्म गंथों द्वारा दूर रखी गई है ।

इसलिए दलित संज्ञा की व्याप्ति में इतर वर्गों के साथ डॉ. बाबासाहेब अंबेडकर की कसौटियों के अनुसार शूद्रों का वर्ग भी आता है । इन शूद्रों में आज के पिछडे़ हुए वर्ग का समावेश हो सकता है । इस संदर्भ मं े देखा जाए तो उपेक्षित बनना एक पक्र ार की जीवन स्थिति है । जिनमें सवर्ण शक्तिशाली विचार धारा के द्वारा दलितों, आदिवासी और स्त्रियों का शोषण करने का वर्णन मिलता है ।

भारतीय हिंदू समाज में वर्ण-व्यवस्था के आधार पर जो अखंड हिंदू वादी राष्ट्र को चार वर्णों में विभाजित किया उसका ही परिणाम है सदियों से चलता आया जातिभेद । जो असमानता वर्चस्व ओर पूर्णतः शोषण पर आधारित है । ‘‘शोषण एक ऐसा सत्य है, जो हर काल में सक्रिय रहा है ।’’ अपने देश में जब से वर्ण व्यवस्था के आधार पर जाति का बटवारा हुआ है तब से दलितों, आदिवासी और स्त्रियों का जीवन समाज में परतंत्र हे ।

मानो ऐसे विषमतावादी व्यवस्था में इनका विकास एवं जीवन कठिन होता नजर आता है । सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि भारत में हजारों सालों से दलित, आदिवासी, स्त्री जैसे उपेक्षित समाज वर्ग का सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक एवं शैक्षिक विरासत के अधिकारी होते हुए भी उन्हें अपनाने का या अपना विकास करने का मौका नहीं दिया गया हे । कुछ एक अपवादों को छोड़कर आज भी कुछ एक हद्द तक सवर्ण समाज उनके प्रति ऐसा सोचने के लिए मजबूर करती है कि उसकी अपनी संस्कृति हीन और घटिया है ।

इक्कीसवी सदी की ओर समाज बड़ रहा है । कुच जानकारों का मानना है कि भारतीय समाज भी विकास की ओर बड़ रहा है । आज कल इन्हीं विचारों का वहन हो रहा है । कुछ हद तक यह सत्य भी है परंतु यह पूरा सत्य नहीं है । समाजिक विकास की मात्रा जब-तक समाज विकास की ओर नही बड़ता है । और उस समाज को विकसित समाज का दर्जा भी नही मिलता । आज भी उपेक्षित समाज को वंचित करने के सूत्र स्थापित किए हुए हे । पेक्षितों के वोट से सवर्णो की सरकार बनती है । विकास के सारे आयाम सरकार ने सवर्णो के लिए खूले किए है । शिक्षा संस्थान सवर्णो के है । फीस अधिक होने के कारण उनमें प्रवेश लेना दलितों, आदिवासियों के लिए संभव नहीं है ।

सरकार ने नियम तो बनाए है कि शिक्षा संस्थान में दलित, आदिवासियों और स्त्रियों को प्रवेश देंगे । पर नियम भी केवल कागजों तक ही सीमित है । सरकार ने उपेक्षित वंचित समाज के लिए आरक्षण को रखा है लेकिन वह कार्यावित नही होता है । रूपचंद गौतम इस के बारे में लिखते है कि-’’देश के किसी भी सरकारी संस्थान में आरक्षण पूरा नहीं हो सका है । पूरे देश की बात छोड़िए का प्राचार्य दलित नहीं है । रीड़र, प्रोफेसर की तो बात ही अलग है । प्रवक्ता तक की सीटें खाली पड़ी है । 

हंसराज सुमन की रिपोर्ट यह बताती है कि देश के प्रत्येक विश्वविद्यालय में आरक्षण कोटा गुड फील मनाने वाली सरकार ने भरा ही नहीं है । शोर मचाते रहे कि हमें योग्य उम्मीदवार मिलते नहीं । जबकि ऐसा नहीं है । पूरे देश की बात तो अलग है दिल्ली में ही ऐसे कई विद्वान हैं जो रीडर, प्रोफेसर, प्राचार्य एवं कुलपति बनने योग्य है । सही हमारे समाज की वास्तव स्थिति हे ।

लोकतंत्र केवल ना मका ही है । क्योंकि उन्हें चलाने वाले सवर्णो की विषमतावादी व्यवस्था है, जो उपेक्षित समाज का जात, धर्म के आधार पर शोषण करती है । और सामाजिक दर्जा, स्थान से, आर्थिक मजबूत स्थिति से उन्हें आज तक वंचित रखा है । प्रो. यशपाल इस संदर्भ में कहते है, कि -’’हमारे देश में लोकतंत्र तो है लेकिन हम समाज में अमानता की भावना को आश्रय दे रहे हैं । हम धर्म, जाति, जाति और आय के आधार दूसरों से अलग दिखाना चाहते हैं । हमारे लोकतंत्र के कई अंग इसी हीन भावना से ग्रस्त हैं । यह हमारे लोकतंत्र की सबसे बड़ी विफलता है िक वह आज तक अपनी जनता को शिक्षित करने के लिए शिक्षा की बुनियादी संरचना विकसित नहीं कर पाया है । हमारी शिक्षा व्यवस्था में आई असमानता की भावना को खत्म करने के लिए दृढ़ सामाजिक और राजनीतिक प्रतिबद्धता की जरूरत है ।

उपेक्षित समाज का शोषण जिस प्रकार वर्ण-व्यवस्था ने किया है वैसे ही पूंजीपति व्यवस्था ने भी किया है । भारत में जमींदार, कायस्थकार, रियासतदार थे । इनके खेत-खलिहान थे, उद्योग थे, उद्योगों में श्रमिक इनके थे, लेकिन इन सब पर नियंत्रण अंग्रेजों का ही था, इसलिए ये अंग्रेजों के गुलाम थे । पर दलित, आदिवासी, मजदूर गुलामों के गुलाम थे । चलने-फिरने, खाने-पीने, लिखने-बोलने आदि का अधिकार वर्ण-व्यवस्था ने इनसे छीन रखा था । इसके बदले में इन्हें बेगार के अलावा मलवा उठाने का अधिकार तोहफे के तौर पर दे रखा था । पूर्ण रूप से दलितों, आदिवासी और स्त्रियों का शारीरिक गुलाम के अलावा मानसिक गुलाम भी बना रखा था । इस गुलामी से छुटकारा पाने के लिए किसी ने प्रयत्न किया तो व्यवस्था उसे प्रताड़ित और बहिष्कृत करती है ।

आधुनिक युग में उपेक्षित समाज ने अपने स्थान, दर्जा और शक्ति को पहचाना है । इस शक्तियुक्त आत्मविश्वास को कायम रखने और आगे बढ़ो का प्रयास भी करता रहा है । अब इस दृढ़ मानसिक विद्रोह को दबाने की कोशिश भी साथ-साथ ही चल रही है । परंतु यह विद्रोह शायद ही सवर्ण समाज बटोर पाऐगा । डा. बाबासाहेब अंबेडकर, महात्मा फुले, गौतम बुद्ध, कार्ल माक्र्स आदि के विचारों की प्रेरणा लेकर उपेक्षित समाज सामाजिक असमानता के विरूद्ध सामाजिक समानता के लिए संघर्ष कर रहा है । दलित विमर्श, आदिवासी विमर्श, स्त्री विमर्श जैसे आदि सामाजिक आंदोलन के आज-कल उदाहरण मिलते है जो वर्तमान समाज का दर्पन है । इसी कसोटि को ध्यान में रखते हुए दलित, आदिवासी और स्त्री साहित्यकारों ने अपनी वेदना, अपमान, शोषण और मानविय अधिकार का चित्रण साहित्य के माध्यम से समा के सामने लाया है ।

कुलमिलाकर उपेक्षित समाज का अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष अनिवार्य है । इस संघर्ष का कोई अंत नही है । उपेक्षित समाजों में अब प्रतिकारों की भावना जग गई है, हजारों वर्षों की विषमतावादी संस्कृति के खिलाप । जिन्होंने उपेक्षित समाज की हर क्षेत्रों में अवहेलना, अपमान और तिरस्कार किया है ।

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