पठन कौशल के प्रकार और पठन कौशल का महत्व

पठन कौशल

लिखित भाषा को पढ़ने की क्रिया को पठन कौशल कहा जाता है, जैसें- पुस्तकों को पढ़ना, समाचार-पत्रों को पढ़ना आदि। भाषा के संदर्भ में पढ़ने का अर्थ कुछ भिनन होता है। भाव और विचारों को, लिखित भाषा के माध्यम से अभिव्यक्ति को पढ़कर समझना पठन कहा जाता है। लिखने का उद्देश्य होता है कि भाव और विचारों को हम दूसरों तक पहुंचाना चाहते है। अन्य व्यक्ति जब उसको लिखित भाषा के रूप में पढ़ेगा तब उसके भाव एवं विचारों को समझ लेगा। इस क्रिया को पठन कहते है।

पठन कौशल का विकास

 कौशल का संबंध क्रियात्मक पक्ष के विकास से होता है। इसलिए भाषा कौशलों के विकास के लिए अभ्यास तथा प ्रशिक्षण की आवश्यकता होती है। छात्रों को पढ़ने के लिए अवसर दिए जाये और उन्हें ऐसा साहित्य उपलब्ध कराया जाए जो उनकी रुचि के अनुकूल हो; जैसे छात्र कहानियों में अधिक रुचि लेते है, इसलिए उन्हें शिक्षाप्रद् कहानियाॅ पढ़ने का अवसर दिया जाए। पढ़ने का निरन्तर अभ्यास कराया जाए जिससे उनमें पठन की आदत का विकास हो जाए पठन के अभ्यास का कार्य घर एवं विद्यालयों दोनों से आरंभ किया जा सकता है। छात्रों की अवस्थानुकूल विभिन्न स्तरों पर उनकी आवश्यकता एवं इच्छाओं के अनुकूल पठन के लिए अवसर दिये जाए।

पठन कौशल का महत्व 

तथ्यों के आधार पर पठन कौशल के महत्व को समझा जा सकता है:
  1. पठन, शिक्षा प्राप्ति में सहायक होता है।
  2. पठन-कौशल ज्ञानोपार्जन का साधन है।
  3. आधुनिक युग विशिष्टताओं का युग है, व्यक्ति जिस भी क्षेत्र में है वह विशिष्टता प्राप्त करना चाहता है।
  4. सामाजिक दृष्टिकोण से भी पठन कौशल अत्यंत महत्त्वपूर्ण है, कक्षाओं में की जाने वाली बहुत-सी सांस्कृतिक गतिविधियों में पठन कौशल का विशेष महत्व होता है।
  5. शिक्षा की प्रक्रिया का संचालन सभी शिक्षण स्तरों पर वाचन के माध्यम से किया जाता है, बिना वाचन के शिक्षण की प्रक्रिया का संचालन संभव नहीं है।
  6. लिखित भाषा को सीखने हेतु वाचन का विशेष महत्व है। अक्षरों को सीखने के लिए अक्षरों की ध्वनि के उच्चारण की सहायता ली जाती है बिना पठन के भाषा का ज्ञान अधूरा होता है।
  7. पठन कौशल मनोरंजन का एक महत्त्वपूर्ण साधन भी है, किसी भी स्थान पर अपने पठन कौशल का विकास अकेलेपन को दूर करने के लिए तथा समय का सदुपयोग करने के लिए मनुष्य कहानी, पत्रिका इत्यादि पढ़ता है तथा आनंद प्राप्त करने में सक्षम होता है।
  8. सामाजिक, राजनीतिक, साहित्यिक तथा सांस्कृतिक विकास के लिए आलोचनात्मक दृष्टिकोण का विकसित होना आवश्यक है। आलोचनात्मक दृष्टिकोण के विकास के लिए अध्ययन अति आवश्यक है और अध्ययन पठन का ही रूप है।

पठन कौशल के उद्देश्य

पठन कौशल के प्रमुख उद्देश्य इस प्रकार हैं: 
  1. शब्द, ध्वनियों व उनके सहायता का ज्ञान करवाना जिससे वाचन में शब्दों का उच्चारण शुद्ध रूप में कर सकें। 
  2. आरोह, अवरोह का ऐसा अभ्यास करवाना जिससे वह यथा अवसर भावों के अनुकूल स्वर में पढ़ पाए। 
  3. पठन के माध्यम से शब्दों पर उचित बल दिया जाना चाहिए। 
  4. पढ़कर पठित वस्तु का भाव समझे तथा दूसरों को भी समझाने में सक्षम हो। 
  5. पठन के माध्यम से विरामादि चिह्नों का ज्ञान करवाना। 
  6. पठित वस्तु का भाव ग्रहण करने की क्षमता विकसित करना। 
  7. बच्चों के शब्द भंडार में वृद्धि करवाना। 
  8. स्वाध्याय की प्रवृत्ति का विकास करना। 
  9. वाचन के प्रति रूचि उत्पन्न करना तथा पठन में होने वाली त्रुटियों से अवगत कराकर उनके निवारण की जानकारी देना। 
  10. वाचन में मौलिकता तथा मधुरता का समावेश होना चाहिए। वाचन सम्बन्धी उचित शिष्टाचार के नियमों के प्रयोग का पालन किया जाना चाहिए, जैसे उचित मुद्रा में खड़ा होना आदि। 
  11. वाचन में कृत्रिमता नहीं होनी चाहिए, लिखित सामग्री को उचित भावों तथा विचारों की सार्थकता के साथ प्रस्तुत करना चाहिए।

पठन कौशल की प्रक्रिया

पठन की प्रक्रिया को दो भागों में विभाजित कर सकते हैं-

1. पठन मुद्रा - पठन मुद्रा के अंतर्गत हम विषयवस्तु पढ़ाने से पूर्व योग्यताओं के विकास की बात करते हैं जिससे मानसिक तथा शारीरिक रूप से पढ़ने के लिए तैयार हो जाए। आत्मविश्वास उत्पन्न करना तथा सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार करना, उन्हें पढ़ने के लिए उत्साहित करता है।

2. पठन शैली - पठन शैली के अंतर्गत अक्षर एवं शब्दोच्चारण, सस्वरता, बल, विराम, लय, यति-गति प्रवाह आदि आते हैं। पठन शैली के अंतर्गत हम पठन के विभिन्न चरणों की यात्रा करते हैं तथा इन चरणों को हम पठन का औपचारिक पक्ष या यांत्रिक पक्ष भी कह सकते हैं, जो इस प्रकार है:

(i) प्रत्याभिज्ञान: प्रत्याभिज्ञान से तात्पर्य सृदश वस्तु को देखकर किसी देखी हुई वस्तु का स्मरण होना है, स्मृति की सहायता से होने वाला ज्ञान या पहचान को भी हम प्रत्याभिज्ञान कहते हैं। लेखक के विचारों को पढ़कर समझना तथा उसका पूर्वगत सामग्री के साथ सम्बन्ध स्थापित करना। वर्णों से बने हुए शब्दों तथा शब्दों से बने हुए वाक्यों को अलग-अलग न देखते हुए उस लेख को सम्पूर्ण रूप से देखना ही प्रत्याभिज्ञान कहलाता है। यह पठन का प्रथम चरण है जो पठन प्रक्रिया में अत्यंत महत्त्वपूर्ण है।

(ii) अर्थग्रहण: पठन प्रक्रिया का द्वितीय चरण, पढ़ने की क्षमता के बाद आने वाला “अर्थग्रहण” है। पढ़ने का अर्थ केवल सार्थक ध्वनि के प्रतीक लिपि चिह्नों को पहचानना मात्र नहीं है अपितु पुर्वश्रुत सार्थक ध्वनियों के प्रतीक चिह्नों को पढ़कर उनका संदर्भानुसार अर्थग्रहण करना है। पठन एक सोद्देश्य प्रक्रिया है जैसे-जैसे पाठक शब्दों को पढ़ता है वैसे-वैसे उन शब्दों के निहित अर्थों को ग्रहण करता है, अर्थग्रहण के अंतर्गत शब्दों तथा वाक्यों के अर्थों को समझना, विचारों को क्रमबद्ध रूप से ग्रहण करना, पठन सामग्री के केन्द्रीय भाव को समझना तथा विश्लेषण करना, एवं सामान्यीकरण करना निहित है। 

इस प्रकार से हम कह सकते हैं कि पठित वस्तु का आलोचनात्मक आंकलन ही अर्थग्रहण क्षमता का विकास है।

(iii) मूल्यांकन: पठन के तृतीय चरण के अंतर्गत पठित सामग्री का मूल्यांकन सम्मिलित है। लेखक अपने विचारों को अपने दृष्टिकोण के माध्यम से पाठक तक पहुँचाने का प्रयास करता है, पाठक उन विचारों का मूल्यांकन कर यह जानने का प्रयास करता है कि उसके अनुसार या समाज की परिस्थितियों के अनुरूप लेखक के विचारों का क्या औचित्य है। मूल्यांकन करने के उपरांत पाठक अपने विचारों की सार्थकता को सिद्ध कर प्रतिक्रिया कर सकता है। सृजनात्मक पठन तभी संभव है यदि पाठक पठित सामग्री के प्रति भावात्मक तथा मानसिक प्रतिक्रिया करें। इस प्रकार से हम यह कह सकते हैं कि पठन प्रक्रिया के अंतर्गत विचारों का मूल्यांकन तथा प्रतिक्रिया अत्यंत महत्त्वपूर्ण है।

(vi) अनुप्रयोग: पठन प्रक्रिया का चौथा तथा अन्तिम चरण है, अनुप्रयोग जिसका अर्थ पठित सामग्री से ग्रहण किए गए विचारों तथा मूल्यों का अपने जीवन में प्रयोग करना है। अनुप्रयोग से तात्पर्य है कि लेखक के जिन भावों को तथा विचारों को हम सहमति प्रदान करते हैं, उन्हें हम अपने जीवन में आत्मसात करें तथा जीवन के मूल्यों में सम्मिलित करें। हम यह कह सकते हैं कि पठन तभी सार्थक होता है यदि वह हमारे व्यवहार में परिवर्तन लाता है। पठित सामग्री के माध्यम से हम अच्छे विचारों तथा लेखक द्वारा निर्धारित सुविचारों तथा गुणों को अपने जीवन में उतारें तभी पठन के उद्देश्य को पूरा किया जा सकता है अन्यथा पठित सामग्री का सार्थक उपयोग असंभव है।

पठन कौशल के प्रकार

सामान्यत: पठन कौशल चार प्रकार का होता है।

1. सस्वर पठन

स्वर सहित पढ़ते हुए अर्थ ग्रहण करने को सस्वर पठन कहा जाता है। यह पठन की प्रारंभिक अवस्था होती है। वर्णमाला में लिपिबद्ध वर्णों की पहचान सस्वर पठन के द्वारा ही करवाई जाती है। सस्वर पठन भावानुकूल करना चाहिए। इस प्रक्रिया से आत्मविश्वास का विकास होता है। सस्वर पठन के माध्यम से की गई अशुद्धियों की भी जानकारी हो जाती है। सस्वर पठन के माध्यम से आरोह-अवरोह बल, उतान-अनुतान, गति-यति का भी अभ्यास हो जाता है। 

सस्वर पठन के गुण  -

  1. शुद्ध उच्चारण • स्वर माधुर्य
  2. उचित ध्वनि निर्गम • प्रभावोत्पादकता
  3. उचित लय एवं गति • स्वाभाविकता
  4. उचित बल विराम • अर्थ प्रतीति
  5. उचित हाव-भाव • स्वर में रसात्मकता
  6. उचित वाचन मुद्रा

2. मौन पठन 

मौन पठन के द्वारा हम गहराई से अर्थग्रहण करते हुए चिन्तन-मनन एवं तर्क शक्ति का विकास करते हैं। उस समय हमारा सारा ध्यान पाठ्यवस्तु में निहित विचार पर ही होता है। अत: हम एकाग्रचित होकर उसका विश्लेषण करते हैं, मूल्यांकन करते हैं और उसके प्रति अपनी मानसिक प्रतिक्रिया भी करते रहते हैं। चिन्तन और प्रतिक्रिया से हमारे दृष्टिकोण में स्पष्टता आती है, हमारे अनुभव-जगत तथा विचार-क्षेत्र का विस्तार होता है। अवकाश के क्षणों में मनोरंजक सामग्री को पढ़कर आनंद लेने में मौन पठन बहुत सहायक होता है उपन्यास और नाटक जैसी वृहदाकार रचनाओं को पढ़ते समय शायद ही कोई सस्वर पठन करता होगा। 

पुस्तकालय तथा सार्वजनिक स्थानों पर जहाँ जोर से बोलना वर्जित होता है, मौन पठन का व्यावहारिक महत्त्व और भी बढ़ जाता है।

सस्वर एवं मौन पठन के प्रयोजन की जानकारी प्राप्त कर लेने के बाद आइए इन दोनों के स्वरूपों में अंतर पर विचार करें। सस्वर पठन में मौन पठन की अपेक्षा अधिक दृष्टि विराम होते हैं और विरामों के बीच का समय भी अधिक होता है। सस्वर पठन में दृष्टि, वाणी से आगे रहती है और मौन पठन में दृष्टि अर्थबोध स्थल से आगे रहती है। मौन पाठ में दृष्टि विराम कम होने के कारण पठन की गति तेज हो जाती है जबकि सस्वर पाठ में ऐसा नहीं होता। 

उदाहरण के लिए एक वाक्य लीजिए: “मेरे पिता जी लखनऊ से कल वापस आए” इस वाक्य को पढ़ते समय यदि प्रत्येक शब्द पर रुकता रहा तो कुल आठ दृष्टि विराम होंगे जो मन्द पठन का द्योतक है। मध्यम श्रेणी का पाठक इस वाक्य में तीन विराम देगा, यथा मेरे पिताजी/लखनऊ से/कल वापस आए। किन्तु तीव्र गति से पढ़ने वाला इस वाक्य को केवल दो या एक ही विराम में पढ़ जाएगा। ये विराम न केवल तीव्र गति से पढ़ने के लिए आवश्यक हैं वरन् अर्थग्रहण में भी सहायक होते हैं। यदि किसी ने उपर्युक्त वाक्य में “पिता” अथवा “कल” शब्द के उपरान्त विराम दे दिया तो उसके अर्थग्रहण में कठिनाई होगी। 

मौन पठन में उच्चारण अपेक्षित न होने के कारण विरामों की संख्या कम हो जाती है और फलस्वरूप पठन की गति बढ़ जाती है।

परीक्षणों से ज्ञात हुआ है कि प्रारंभिक स्तर पर तो सस्वर और मौन पठन दोनों में पढ़ने की गति समान होती है किन्तु धीरे-धीरे मौन पठन के अभ्यास द्वारा मौन पाठ में तेजी आ जाती है। यदि छठी कक्षा में सस्वर पठन द्वारा प्रति मिनट पढे़ गए शब्दों की संख्या 170 होगी तो मौन पठन द्वारा यह संख्या प्रति मिनट लगभग 200 शब्द होगी। यह भी पता चला है कि जिस बच्चे को मौन पाठ का सक्रिय अभ्यास कराया गया उसके द्वारा प्रति मिनट पढ़े गए शब्दों की संख्या अन्य बच्चों की अपेक्षा अधिक थी। अत: मौन पठन का अभ्यास कक्षा में नियमित रूप से होना चाहिए।

पाठ्यपुस्तक पढ़ाते समय गद्यांश को पहले स्वयं सस्वर पठन (आदर्श पठन) करें, फिर से उसका अनुकरण पठन कराए। उच्चारण तथा भाषा संबंधी कठिनाईयों के निवारण के उपरान्त गद्यांश का मौन पठन कराया जाए। मौन पठन के समय कक्षा में पूर्ण शान्ति होनी चाहिए। इसके उपरान्त प्रश्नोत्तर विधि से पठन का विचार विश्लेषण किया जाना चाहिए। कभी-कभी मौन पठन से पूर्व ऐसे संकेत या प्रश्न दिए जा सकते हैं जिनको ध्यान में रखकर मौन पठन करें। गृहकार्य के रूप में भी पूर्व निर्देश देकर बच्चों को घर पर मौन पठन करने के लिए कहा जा सकता है। दिए गए निर्देश के अनुसार मौन पठन द्वारा किसी प्रश्न या उत्तर या समस्या का समाधान खोजता है। इसे निर्देशित पठन भी कहते हैं। कक्षा कार्य अथवा गृहकार्य के रूप में दिए गए मौन पठन की जाँच शिक्षक द्वारा अवश्य की जानी चाहिए। मौन पठन को भी दो भागों में विभक्त किया जाता है: (1) गंभीर मौन वाचन एवं (2) त्वरित मौन वाचन।

1) गंभीर मौन पठन: गंभीर मौन पठन विषयवस्तु पर अधिकार प्राप्त करने अथवा अधिक जानकारी खोजने के लिए किया जाता है। इसके अंतर्गत पठन के प्रयोजन पर ध्यान रखना चाहिए। प्रत्येक अनुच्छेद के केन्द्रीय भाव को दृढ़ता से ग्रहण किया जाता है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि गंभीर मौन पठन के अंतर्गत पूरी विषयवस्तु पढ़ने के उपरान्त मन में उसकी एक रूपरेखा बना ली जाती है तथा स्वयं द्वारा विकसित टिप्पणियों को प्रश्नों के रूप में संगठित करके विषयवस्तु की पुनरावृत्ति की जाती है।

2) त्वरित मौन पठन: त्वरित मौन पठन में विषयवस्तु का एक-एक शब्द पढ़ना आवश्यक नहीं होता है। इसके द्वारा पढ़ी गई विषयवस्तु का केवल सार-ग्रहण कर लिया जाता है। इसका उद्देश्य मात्र आनंद प्राप्ति एवं सूचनाओं का संकलन करना है। द्रुत पाठों तथा समाचारपत्र आदि के पठन में इसी प्रकार का पठन प्रयोग में लाया जाता है। कक्षा में मौन पठन का अभ्यास इसलिए कराया जाता है जिससे विद्याथ्र्ाी उचित अवसरों पर उसका प्रयोग कर सकें और धीरे-धीरे उनके हृदय में स्वाध्याय प्रेम उत्पन्न हो सकें।

मौन पठन के उद्देश्य  -

  1. वाचन गति का विकास करना।
  2. पठित सामग्री के केन्द्रीय भाव की समझ विकसित करना।
  3. मूल तथ्यों की जानकारी देना।
  4. पठित सामग्री का निष्कर्ष निकालने की क्षमता विकसित करना।
  5. भाषा एवं भाव सम्बन्धी कठिनाईयों को समझाना।
  6. शब्दों का लक्ष्यार्थ और व्यंग्यार्थ जान लेना।
  7. उपसर्ग, प्रत्यय, सन्धि-विच्छेद द्वारा शब्द का अर्थ बताना।
  8. एकाग्रचित होकर ध्यान केन्द्रित कराना।
  9. अवकाश समय का सदुपयोग होना।
  10.  चिन्तन करने की योग्यता का विकास करना।

3. गहन पठन

गहन पठन सस्वर और मौन वाचन कौशल की योग्यता का विकास है जिसके माध्यम से अधिक से अधिक ज्ञानार्जन करता है। इससे अध्ययन में गंभीरता आती है तथा उचित भावों, भाषा शैली तथा सृजनात्मक सौन्दर्य की व्याख्या करता है। गहन अध्ययन में पाठक संपूर्ण अनुच्छेद या संपूर्ण पुस्तक को पढ़कर उसका भाव, उद्देश्य तथा संदेश ग्रहण कर उसे आत्मसात करता है। केवल संपूर्ण विषयवस्तु का संदेश ही ग्रहण नहीं करता अपितु उसका मूल्यांकन भी करता है। इसके लिए पाठक, पठन के साथ-साथ तर्क-वितर्क कर आलोचनात्मक दृष्टिकोण अपनाता है तथा एक निश्चित निष्कर्ष निकालता है। 

गहन अध्ययन में भाषा के किसी भी अवयव को छोड़ा नहीं जाता है प्रत्येक अवयव का सूक्ष्मता से अध्ययन किया जाता है।

गहन पठन के उद्देश्य -

  1. भाषा शैली तथा सृजनात्मक सौन्दर्य की व्याख्या करना।
  2. विषयवस्तु का भाव तथा उद्देश्य ग्रहण क्षमता का विकास करना।
  3. भाषा के प्रत्येक अंग का वर्णन करना।
  4. विषयवस्तु की तर्क-वितर्क सहित मूल्यांकन करना।
  5. आलोचनात्मक दृष्टिकोण का विकास/समालोचनात्मक दृष्टिकोण का विकास करना।
  6. नवविचारधारा निर्माण करने की प्रेरणा प्रदान करना।

4. व्यापक पठन 

व्यापक पठन, जैसा कि नाम से ही जाना जा सकता है व्यापक से तात्पर्य है विस्तृत एवं संपूर्ण व्यापक कहा जाता है। भाषा सम्बन्धी विद्यार्थियों के पूर्ण विकास हेतु व्यापक पठन का अभ्यास नितांत आवश्यक है। व्यापक पठन के माध्यम से शब्दावली में वृद्धि होती है, ज्ञानार्जन अधिक करने की क्षमता का विकास होता है। 

व्यापक पठन के उद्देश्य -

  1. द्रुत पठन क्षमता का विकास करना।
  2. विस्तार तथा संश्लेषण की क्षमता विकसित करना।
  3. अर्थग्रहण क्षमता का विकास करना।
  4. स्वाध्याय की क्षमता विकसित करना।
  5. विचारों में सृजनात्मकता तथा मौलिकता का विकास करना।

पठन के आवश्यक कारक

लिखित भाव एवं विचारों को मौखिक या मौन रूप मं पढकर बोधगम्य करने में निम्नांकित कारक होते हैः-
  1. पठन में दृश्य इन्द्रीय सामान्य तथा क्रियाशील होना।
  2. लिखित भाषा लिपि का ज्ञान होना।
  3. लिखित पाठ्य-सामग्री की शब्दावली का बोध एवं शुद्ध उच्चारण का अभ्यास होना।
  4. पठन में तत्परता, एकाग्रता एवं रूचि का होना।
  5. पठन में लिखित अभिव्यक्ति के साथ उसके अर्थ एवं भाव को समझने की क्षमता होना।
  6. वाक्य विज्ञान, रूप विज्ञान एवं अर्थ विज्ञान का बोध होना।
सन्दर्भ -
  1. हिन्दी शिक्षण प्रविधि, खण्ड-2, भाषिक योग्यताओं का विकास, नई दिल्ली
  2. शमी, ऊषा (2012) एक शिक्षक का अनुभव, पावन चिंतन धारा पैरिटेबल ट्रस्ट, गाजियाबाद, उत्तर प्रदेश
  3. रविन्द्रनाथ (1989), भाषा शिक्षण, राधाकृष्णन प्रकाशन, दिल्ली

6 Comments

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