1971 भारत पाकिस्तान युद्ध के परिणाम

इस युद्ध की शुरूआत की एक दिलचस्प कहानी है। 25 नवंबर को पाकिस्तान के राष्ट्रपति याहिया खां ने घोषणा की थी कि वह दस दिनों के भीतर भारत के साथ निपट लेंगे। तीन दिसंबर की शाम थी, यानी राष्ट्रपति याहिया खां की धमकी का नवां दिन था। संध्या समय भारत-सरकार ने सूचना दी कि भारत की पश्चिमी सीमा पर हमला करके पाकिस्तान ने युद्ध प्रारंभ कर दिया है। एक सरकारी प्रवक्ता ने बताया कि ऐसा लगता है कि राष्ट्रपति याहिया खां ने अपना वादा पूरा कर दिखाया है।

श्रीनगर से आगरा तक पश्चिम भारत के दस हवाई अड्डो पर पाकिस्तान की खुली बमबारी, जम्मू कश्मीर के पूंछ अंचल से युद्ध विराम रेखा रेखा पार करके बड़ी संख्या में पाकिस्तानियों के घुस आने तथा पश्चिमी सीमाओं की अनेक चौकियों पर गोलीबारी शुरू करने के साथ दोनों के बीच युद्ध शुरू हो गया। पश्चिमी भारत के दस हवाई अड्डों पर एक ही साथ अचानक हमला करने का एक उद्देश्य था-भारतीय वायु सेना को पंगु बना देना। जिस तरह 1967 में इजरायल ने अरब राज्यों के हवाई अड्डों पर एकाएक आक्रमण करके उनकी हवाई सेना को पूर्णतया नष्ट कर दिया था उसी तरह पाकिस्तान भी भारतीय वायुसेना को नष्ट करने का इरादा रखता था, लेकिन इसमें उसको सफलता नही मिली।

भारत सरकार एकाएक हमले की संभावना पके प्रति पूर्ण रूप से सतर्क थी और अपने वायुयानों को सुरक्षित स्थानों में रख छोड़ा था, इसलिए पाकिस्तान की आरंभिक मनोकामना पूरी नहीं हो सकी।

भारतीय प्रतिक्रिया

जिस समय पाकिस्तान ने भारत पर आक्रमण किया उस समय देश का कोई वरिश्ठ नेता राजधानी में नहीं था। प्रधानमंत्री कलकत्ता में थीं और रक्षा मंत्री तथा वित्त मंत्री भी दिल्ली से बाहर थे। युद्ध छिड़ने के दिन वरिश्ठ नेताओं को दिल्ली से बाहर हटना ही इस बात का प्रमाण था कि युद्ध की पहल भारत ने नहीं की थी। समाचार मिलते ही प्रधानमंत्री शीघ्र ही दिल्ली वापस आ गर्इं। इसी बीच राष्ट्रपति ने आपातकालीन स्थिति की घोषणा कर दीं पर्याप्त विचार-विमर्श के उपरांत यह निर्णय लिया गया कि न केवल पाकिस्तान के हमले का डटकर मुकाबला किया जाये बल्की उसकी युद्ध मशीनरी को तबाह कर दिया जाये ताकि हमेशा के लिए बखेड़ा ही दूर हो जाये।

अगरतल्ला में इकट्ठी भारतीय सेनाओं को आदेश दिया गया कि बंगलादेश में प्रवेश कर दुश्मन को परास्त करे। पश्चिमी क्षेत्र में भी सेना को इसी तरह के आदेश दिये गये। मध्यरात्रि के करीब भारतीय बमबारों ने पाकिस्तान की ओर उड़ानें शुरू कीं और पाकिस्तान के महत्वूपर्ण हवाई अड्डों और सैनिक ठिकानों पर बमबारी की। दो देशों के बीच बड़े पैमाने पर युद्ध छिड़ चुका था।

लगभग साढ़े बारह बजे रात को प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने राष्ट्र के नाम एक संदेश प्रसारित किया। उन्होंने अपने प्रसारण में कहा कि पाकिस्तान ने भारत पर हमला किया है और अब हम निर्णयात्मक लड़ेंगे। उन्होंने कहा कि भारत के पास युद्ध के अतिरिक्त और कोई उपाय नहीं रह गया है।

1971 भारत पाकिस्तान का विवरण 

पाकिस्तान बड़े हौसले और पर्याप्त तैयारी के बाद युद्ध में कूदा था। उसकी सेना और तैयारी की सोहरत सम्पूर्ण उपमहाद्वीप में फैली हुई थी। लेकिन जब वास्तविक परीक्षा का अवसर आया तब पता चला कि पाकिस्तान किसी मोर्चे पर भारत का प्रतिरोध नहीं कर सकता है। पष्चिमी मोर्चे पर सबसे जबर्दस्त प्रहार पाकिस्तान ने छम्ब के इलाके में किया। बांगलादेश और राजस्थान तथा पंजाब सीमा पर काफी इलाका खोने के बाद पाकिस्तान को छम्ब में कार्यवाई करना स्वाभाविक था। इसे पाकिस्तान ने अपनी सामरिक सफलता का आवश्यक लक्ष्य चुना।

छम्ब में उसकी सफलता का अर्थ यह होता था कि राजौरी और पुंछ की ओर जाने वाली भारतीय संचार-व्यवस्था पर उसका अधिकार हो जाता और इस प्रकार कश्मीर को जाने वाली सड़क खतरे में पड़ जाती। छम्ब पर उसका आक्रमण बड़ा ही प्रबल था और उससे होने वाली धन-जन की हानि की भी उसने कोई परवाह नहीं की, लेकिन प्रयास के बाद भी पाकिस्तान को कोई महत्वपूर्ण सफलता नहीं मिली। पष्चिमी क्षेत्र में अन्य सभी मोर्चों पर भी इसकी करारी हार होती गई।

बांग्लादेश में भारतीय सेना ने स्थल, जल और वायुसेना से सम्मिलित कार्यवाई की। वायुसेना ने निष्चित ठिकानों पर प्रहार करके बांग्लादेश में पाकिस्तानी वायुसेना के अस्तित्व को ही मिटा दिया। भारतीय नौसेना ने भी साहसिक कदम उठाकर बांग्लादेश के पाकिस्तानी सेना के भागने के सभी जलमार्ग अवरूद्ध कर दिये। स्थल सेना की अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। सीमित सड़कों और उस पर नदी नालों को पार करने की कठिनाइयों से सेना का बढ़ाव कुछ मंद अवष्य रहा। भारतीय सेना को लगभग चार डिवीजन पाकिस्तानी सेना का मुकाबला करना था, लेकिन सही अर्थ में यह मुकाबला करना था, लेकिन सही अर्थ में यह मुकाबला कभी नहीं हुआ। पाकिस्तानी सेना में भगदड़ मच गई और वह जब अपनी जान बचाने के उपाय में लग गयी।

पाकिस्तानी सेना का आत्मसमर्पण 

इस हालत में पाकिस्तानी सेना का मनोबल स्वाभाविक था। इसका पता तब लगा जब पूर्व बंगाल के गर्वनर के सैनिक सलाहकार मेजर फरमान अली ने तार भेजकर संयुक्त राष्ट्रसंघ के महासचिव से प्रार्थना की कि उनकी फौज को पष्चिम पाकिस्तान पहुंचाने में सहायता दी जाये। राष्ट्रपति याहिया खां ने तुरंत इस प्रस्ताव का विरोध किया। उधर सेना के उच्च अधिकारी बराबर चेतावनी दे रहे थे कि पाकिस्तानी सेना को आत्मसमर्पण कर देना चाहिए अन्यथा व्यर्थ की जानें जायेंगी, लेकिन पाकिस्तानी सेनापति जनरल नियाजी अपनी जिद्द पर डटा हुआ था। उसने कहा कि वह आखिरी दम तक युद्ध लड़ेगा और किसी भी कीमत पर आत्मसमर्पण नहीं करेगा। बात यह थी कि अमेरिका का सातवां बेड़ा बंगाल की खाड़ी की ओर चल चुका था। पाकिस्तानी अधिकारियों को विश्वास था कि चीन और अमेरिका सक्रिय हस्तक्षेप करके पाकिस्तानी सेना को बेषर्त आत्मसमर्पण से बचा लेंगे, लेकिन ऐसा नहीं हुआ।

भारतीय सेनाध्यक्ष ने स्पष्ट शब्दों में चेतावनी दे हुए कहा कि बांगलादेश में सारी पाकिस्तानी सेनाये घिर गयी हैं। चारों ओर से रास्ता बंद हो गया है। वे भाग नहीं सकती हैं। भला इसी में है कि आत्मसमर्पण कर दे, पर जनरल नियाजी हथियार डालना नहीं चाहता था। उसने प्रस्ताव किया कि उसे अपनी फौजें लड़ाई से हटाकर कुछ खास क्षेत्रों में सीमित करने की अनुमति दी जाये जहां से उन्हें पश्चिम पाकिस्तान भेजा जा सके। जनरल मानिक शॉ ने इस प्रस्ताव को नामंजूर कर दिया। नियाजी हताश था और झुकने में आनाकानी कर रहा था। इस पर ढाका स्थित विदेशी राजनयिकों ने उसे वास्तविकता को समझने की सलाह दी। नियाजी के समक्ष कोई विकल्प नहीं था।

15 दिसम्बर को अपरान्ह में जनरल नियाजी ने उत्तर देते हुए कहा कि बांग्लादेश में सभी पाकिस्तानी सैनिकों को तुरंत युद्ध बंद करने और भारतीय सेना के समक्ष आत्मसमर्पण करने के लिए आदेश दिया जाये। भारतीय जनरल ने यह चेतावनी भी दी कि यदि 16 दिसम्बर को 9 बजे सुबह तक पाकिस्तानी सैनिकों ने युद्ध बंद करके आत्मसमर्पण नहीं किया तो हमारे जवान पूरी ताकत से अंतिम अभियान शुरू कर देगें ।

इस अवधि तक गोलाबारी और बमबारी बंद करने की एकतरफा घोषणा भी कर दी गई ताकि आत्मसमर्पण की तैयारियों को पूरा किया जा सके। पाकिस्तानी सैनिक अधिकारियों को यह आश्वासन भी दिया गया कि जो पाकिस्तानी सैनिक और अफसर आत्मसमर्पण करेंगे उनके साथ जेनेवा समझौता के अनुसार अच्छा व्यवहार किया जाएगा।

1971 भारत पाकिस्तान युद्ध के परिणाम

  1. पाकिस्तान हमेशा कहता था कि कश्मीर की समस्या का हल शांतिपूर्ण में नहीं निकला तो युद्ध करके इस समस्या का हल निकाल लेंगे। इसकी यह धमकी इस युद्ध में समाप्त हो गई थी।
  2. इस युद्ध में भारत ने अधिकतर स्वदेशी हथियार, टैंक का उपयोग किया जिसमें प्रत्येक भारतीय का सिर ऊँचा होगा।
  3. पाकिस्तान के लिए यह युद्ध बड़ा घातक सिद्ध हुआ इस युद्ध ने पाकिस्तान के सभी विश्वासों और मान्यताओं को चकनाचूर कर दिया और पाकिस्तान के तरफ से सभी सैन्य तैयारी एवं पैसा नष्ट हो गई।
  4. इस युद्ध से यह सिद्ध हो गया कि यदि अंतरराष्ट्रीय मसलों पर महाशक्तियां सहयोग से काम करें तो विश्व शांति आ सकती है।
  5. भारत – पाकिस्तान युद्ध में सोवियत राजमय को एक नया मोड़ लेने का अवसर प्रदान किया। दो राष्ट्रों के झगड़ों को सुलझाने में सोवियत संघ ने आज तक कभी अपनी सेवाएं अर्पित नहीं की थीं। वस्तुत: सोवियत राजनय का इस सिद्धांत में विश्वास नहीं था लेकिन भारत और पाकिस्तान के झगड़ों को सुलझाने में उसने अपनी सेवाएं अर्पित कीं और ताशकंद के सम्मेलन का आयोजन किया। सोवियत राजनय के लिए यह बिल्कुल नवीन चीज थी और विश्व राजनीति पर इसका प्रभाव पड़ना अवश्य यानी थी।
  6. पाकिस्तान को विश्वास था कि महाशक्तियां इस युद्ध में कोई भी भारत को सैन्य सहयोग नहीं करेगा लेकिन उसका यह भ्रम टूट गया। 8 भारत – पाकिस्तान के युद्ध में संयुक्त राष्ट्र संघ की भूमिका महत्वपूर्ण थी। संयुक्त राष्ट्र संघ को सफलता इसलिए मिली क्योंकि सोवियत संघ और संयुक्त राज्य अमेरिका ने अपूर्ण सहयोग दिया था।
  7. पाकिस्तान के एि यह युद्ध घातक सिद्ध हुआ। युद्ध में पराजय ने उसकी तानाशाही के खोखलेपन को सिद्ध कर दिया।
  8. भारत – पाकिस्तान के 1971 युद्ध में पाकिस्तान का एक क्षेत्रफल का ऐरिया, जनसंख्या, शक्ति की कमी हुई।
  9. इस युद्ध के बाद बांग्लादेश का निर्माण हुआ।
  10. 1971 के बाद में पाकिस्तान का मनोबल टूट गया।
  11. 1965 में अमेरिका ने भारत का साथ दिया लेकिन 1971 में भारत को पता चला कि हितैशी कौन है। अत: भारत ने सोवियत संघ के साथ मित्रता बढ़ाई।
  12. इस युद्ध ने पाकिस्तान से सहानुभूति रखने वाले राष्ट्र अमेरिका और चीन के हौसलों और महत्वाकांक्षा की पराजय हुई।
  13. भारत-पाकिस्तान युद्ध के समय देश के विभिन्न राजनीतिक दलों ने अपने सारे मतभेद भुला दिये। बांग्लादेश की मुक्ति का प्रश्न एक राष्ट्रीय प्रश्न बन गया था।
  14. पाकिस्तान की आन्तरिक राजनीति पर इसका गहरा प्रभाव पड़ा। जनता ने राष्ट्रपति याहिया खां से त्यागपत्र की मांग की।

पराजय से असंतुष्ट होकर पाकिस्तान में प्रदर्शन हुए। याहिया खां को त्यागपत्र देना पड़ा। उनका स्थान जुल्फिकार भुट्टो ने लिया, जिन्हें विरासत में कई समस्याएं मिलीं। विभक्त जनमत, विभक्त मन:स्थिति और विभक्त नेतृत्व वाला पाकिस्तान नियति के चक्र में बुरी तरह फंस गया।

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