भाषा सीखने की प्रक्रिया और विकास

भाषा अभिव्यक्ति का उत्तम साधन है, मनुष्य भाषा के द्वारा सहजता एवं सरलता से एक -दूसरे के क्रियाकलापों व आचार -विचारों को समझ सकता है। मनुष्य सारा भाषा का निर्माण एक देन है तथा यह अति विकासशील रूप में है, मनुष्य द्वारा जो भी ज्ञान संजोया गया है। वह भाषा के द्वारा ही संभव ही पाया है। 

भाषा सीखने की प्रक्रिया

प्रत्येक मनुष्य अपनी बाल्यावस्था में कम से कम एक भाषा तो सीख ही लेता है जिसका वह जीवन भर प्रयोग करता है। वह उस भाषा की नवीन सामग्री, प्रयोगों और विकासशील रूपों से भी निरंतर परिचित होता चलता है और इस कारण उसकी भाषा की क्षमता भी विकसित होती चलती है। 

भाषा सीखने की यह प्रक्रिया चाहें शैशवावस्था हो या बाद की अवस्था हो, मूलतः: एक ही है और वह है भाषा सुनने और बोलने का अवसर। बालक को यदि अपने परिवेश की भाषा सुनने तथा सुने हुए ध्वनि संकेतों को उच्चारित करने का पर्याप्त अवसर मिलता है तो वह भाषा सीख लेता है। 

वस्तुत: भाषा सीखने का सर्व प्रमुख साधन है सीखी जाने वाली भाषा के बोलने वालों के बीच रहना, उनके द्वारा प्रयुक्त भाषा को सुनना, उस भाषा का अनुकरण करना अर्थात फार दी प्रैक्टिकल स्टडी ऑफ फोरेंन लैग्वेजेज में भाषा सीखने की इस प्रक्रिया पर विस्तार से प्रकाश डाला है।

भाषा सीखने की कोई विशिष्ट प्रतिभा जैसी बात नहीं है जो किसी में विद्यमान होती है और किसी में नही होती। भाषा सीखने के लिए सामान्य बुद्धि की आवश्यकता होती है जो सभी बालकों को प्राय: प्रकृतिप्रदत्त रूप से सुलभ होती है। भाषा सीखने का सर्व प्रमुख स्रोत है उस भाषा के नेटिव स्पीकर्स के बीच रहना, उस भाषा को सुनना और बोलना। प्रत्येक व्यक्ति जो गूंगा, बहरा और जड बुद्धि का नही है, पाँच वर्ष का होते- होते अपनी मातृभाषा सीख लेता है चाहे वह भाषा अन्य भाषा-भाषियों के लिए कितनी भी जटिल क्यों न हो। 

सभी को अपनी मातृभाषा बड़ी सरल और सहज लगती है और इसका सबसे बड़ा कारण यही है कि उसके सीखने की प्रक्रिया बड़ी सहज होती है। इस साहज प्रक्रिया द्वारा यदि हम अन्य भाषा सीखें तो उसका अर्जन भी सरल हो जाये अर्थात उस भाषा के मूल प्रयोक्ताओं से भाषा सुनने और बोलने का अवसर मिले।

भाषा एक आदत है और भाषा सीखना आदत निर्माण की प्रक्रिया है आदत डालने की प्रक्रिया में निम्नलिखित चरण होते हैं-
  1. ध्वनि संकेतों को सुनना और पहचानना-बालक घर में तथा आस-पड़ोस में लोगों के मुख से निस्तृत ध्वनि संकेतों को सुनता है और उनकी पहचान करने लगता है। पहले वह ध्वनियों को पहचानता है और फिर तत्संबंधी अर्थों (वस्तु, कार्य, विचार आदि) भी जानने का प्रयत्न करता है। भाषा सीखने का यह प्रथम चरण है। इस स्तर पर बालक को यदि शुद्ध मानक भाषा सुनने का अवसर मिलता है तो भाषा संबंधी अच्छी आदत की नींव पड़ती है।
  2. अनुकरण करना:-बालक सुनी हुई भाषा का अनुकरण करता है वह ध्वनि संकेतों को पहचानता ही ही अपितु विभिन्न ध्वनियों का अंतर ही समझने लगता है और तद्नुसार उनका उच्चारण करने लगता है। प्रारंभ में वह उन ध्वनि संकेतों का अर्थ भली भांति नहीं जानता, पर उन्हें बोलने का प्रयास करता है और धीरे-धीरे अर्थ भी जानने लगता है।
  3. आवृत्ति:- बालक को पुन: बोलने का अभ्यास कराना चाहिये। वस्तुत: बालक प्रयत्न और त्रुटि के सिद्धांत द्वारा भाषा सीखता है। उसका प्रारंभिक उच्चारण अशुद्ध होता है पर वह बार-बार प्रयत्न करके उसे शुद्ध करता है। वाक्य रचना संबंधी त्रुटियाँ भी होती रहती हैं वह शुद्धता का प्रयास करता रहता है। अत: कथन, पुर्नकथन, भाषा प्रयोग की आवृत्ति आदि भाषा सीखने के लिए आवश्यक साधन है।
  4. विविधता:-आवृत्ति के साथ-साथ भाषा संबंधी प्रयोगों एवं अभ्यासों में विभिन्नता भी लानी चाहिये जिससे बालक विभिन्न ध्वनि संकेतों एवं तद्निहित अर्थो तथा प्रयोग संबंधी विभिन्नताओं की पहचान कर सके। इसके द्वारा ही उसकी भाषा की शक्ति का क्रमोत्तर विकास होता है।
  5. चयन:-भाषा की कुछ क्षमता हो जाने पर बालक में यह योग्यता भी विकसित होनी चाहिये कि वह यथाप्रसंग एवं यथा अवसर उपयुक्त भाषा सामग्री का चयन और प्रयोग कर सके। विविध प्रकार की भाषा संबंधी अभ्यास इस दृष्टि से आवश्यक है।
भाषा की आदत बनने की प्रक्रिया में यह अवस्थाएं महत्व रखती हैं पर यह स्पष्ट रूप से समझ लेना चाहिये कि यह अवस्थाएं एक दूसरे से पृथक और उत्तरोत्तर विकास की अवस्थाएं न होकर परस्पर संबद्ध एवं पूरक अवस्थाएं हैं। भाषा शिक्षक के लिए आवश्यक है कि वह इन अवस्थाओं का महत्व समझते हुए इनका यथोचित प्रयोग करें।

भाषा और विकास

मानव जीवन के विकास में सबसे अधिक योगदान भाषा का ही रहता है। मानव एक सामाजिक प्राणी है उसे समाज में रह कर ही सारे काम पूरे करने पड़ते हैं वैसे ही उसे अपने मन के भावों, विचारों, अनुभवों आदि को दसू रों तक पहुँचाने के लिए तथा उनके विचारों आदि ग्रहण करने के लिए भाषा को ही माध्यम बनाना पड़ता है। 

प्रकृति ने मानव को वाणी देकर ही उसे शेष सभी प्राणियों से श्रेष्ठ बना दिया है। सभी की अपनी भाषा होती है चाहे वह मानव हो या पशु-पक्षी । भाषा को वैचारिक आदान-प्रदान का माध्यम कहा जाता है भाषा के बिना मनुष्य सर्वथा अपूर्ण है और अपने इतिहास तथा परम्परा से विच्छिन्न है।

भाषा एक ऐसी प्रक्रिया है जो मानव जीवन में बहुत पहले आरंभ हो जाती है। नवजात बिना किसी भाषा के जन्म लेता है किन्तु मात्र 10 मास में ही बोली गयी बातों को अन्य ध्वनियों से अलग करने में सक्षम हो जाता है। विकास एक प्रक्रिया है जिसे मानवीय जीवन की शुरूआत में शुरू किया जाता है। शिशुओं का विकास भाषा के बिना शुरू होता है, फिर भी 10 महीने तक, बच्चे भाषण की आवाज को अलग कर सकते हैं और वे अपनी माँ की आवाज और भाषण पैटर्न पहचानने लगते हैं और जन्म के बाद अन्य ध्वनियों से उन्हें अलग करने लगते हैं। 

भाषा के विकास को सीखने की साधारण प्रक्रियाओं के द्वारा आगे बढ़ना माना जाता है जिसमें बच्चों को भाषाई इनपुट से शब्दों, अर्थो और शब्दों के प्रयोग और बोलने का उपयोग होता है।

भाषा की उत्पत्ति का संबंध इस बात से है कि मानव ने सर्वप्रथम किस काल में अपने मुख से निसृत होने वाली ध्वनियों को वस्तुओं पदार्थों, भावों से जोड़ा। इतिहास के किस काल में मानव ने सामूहिक स्तर पर यह निश्चय किया कि किस शब्द का क्या अर्थ होगा।

भाषा विकास बौद्धिक विकास की सर्वाधिक उत्तम कसौटी मानी जाती है। बालकों को सर्वप्रथम भाषा ज्ञान परिवार से होता है कार्ल सी गैरिसन के अनुसार स्कूल जाने से पूर्व बालकों में भाषा ज्ञान का विकास बौद्धिक विकास की सबसे अच्छी कसौटी है। 

भाषा का विकास भी विकास के अन्य पहलुओं के लाक्षणिक सिद्धांतों के अनुसार होता है। यह विकास परिपक्वता तथा अधिगम दोनों के फलस्वरूप होता है और इसमें नई अनुक्रियाएं सीखनी होती हैं और पहले की सीखी हुई अनुक्रियाओं का परिष्कार करना होता है।

भाषा विकास की प्रक्रिया

भाषा अर्जन जन्म के समय नहीं होता है, वरन् बच्चे के बाह्य जगत और आंतरिक मानसिक प्रक्रियाओं के बीच अन्त: क्रिया से विकास के माध्यम से होता है।

पहले सीखने वाले के मन में संज्ञानात्मक प्रक्रियाएं चल रही होती है। मनोविज्ञानी पियाजे,, ने विकासात्मक अवस्थाओं को उसी तरह स्पष्ट किया जिसमें बच्चे की तर्कसंगत विवेचन और अन्य संकल्पनात्मक क्षमताएं अंतनिर्हित होती है। ये बच्चे में भाषा प्रयोग में दिखाई देते हैं और वे बच्चे को भाषा में संरचना खोजने योग्य बनाते हैं, जिसे वह परिवेश से प्राप्त करता है। 

इसके अतिरिक्त एक अन्य मनोविज्ञानी, व्यगोत्सकी ने विवेचन किया है कि ये क्षमताएं लगातार विस्तरित होती रहती हैं और जानकारियों को रूपांतरित करती हैं तथा पहले से अर्जित भाषा द्वारा विस्तारित होती हैं। इस प्रकार संज्ञानात्मक, सामाजिक और भाषा अर्जन कौशल साथ-साथ विकसित होते हैं।

पियाजे ने बच्चे और उसके परिवेश के बीच अंत:क्रिया में निम्नलिखित अवस्थाओं पर विचार किया। आत्मसात्करण अवस्था, जब बच्चा परिवेश से उद्दीपन ग्रहण करता है और पहले ही अर्जित अनुक्रियाओं के रूप में अनुक्रिया करता है, तब अनुक्रियाओं की नई अभिरचनाएं विकसित करने के लिए वह अपने स्वयं के विचारों को पुर्नगठित करता है। 

पियाजे ने जिसे बच्चे के संज्ञान में पुरानी और नई रूपरेखा कहा है यह उनके बीच एक अंत:क्रिया है। इसके बाद पियाजे अगली अवस्था का वर्णन करते हैं, जो समायोजन की है। जिसमें रूपरेखा अधिक पूरी तरह से पुर्नगठित हो जाती है।

उनके अनुसार, जिस अवस्था से बच्चा जन्म से लगभग 24 महीने तक अपने संज्ञानात्मक विकास में गुजरता है, वह संवेदी प्रेरक है, जब बच्चा अपने परिवेश से क्रिया करता है, स्पर्श कर और दख्े ाकर, अपने परिवेश से भिन्न-भिन्न वस्तुएँ आत्मसात् करके समझता है। वे इस अवस्था में अर्मूत संकल्पनाओं से व्यवहार करने की स्थिति में नहीं होते हैं। फिर, पूर्व संक्रियात्मक अवस्था में दो सात वर्ष की आयु तक बच्चा प्रतीकात्मकता विकसित करता है। और अवधारणाओं से परिचित होता है जैसे संख्या, समय श्रेणियाँ और दृष्टव्य जटिलताएं। इस अवस्था में वे प्रतिबिम्बों, चित्रकारी और रंग भरना तथा अक्षरों को समझ सकते हैं।

अगली अवस्था, मूर्त संक्रियात्मक अवस्था (7-11 वर्ष) में बच्चा बहुत सी मानसिक प्रक्रियाएं कर सकता है और संकल्पना करने में सक्षम होता है। औपचारिक संक्रियात्मक अवस्था (11 वर्ष और बाद में), वे परिणाम निकालना, निगमन और निरपेक्ष अवधारणाओं को समझ सकते है। यह विकास सामान्यत: भाषा अर्जन से संबंधित और उसमें लक्षित होते है, यद्यपि अवस्थाएं ठीक-ठीक समान्तर नहीं होती हैं। यह काफी हद तक व्यक्तिगत क्षमताओं पर और जानकारियों के प्रकार पर निर्भर करता है जो समाज और परिवेश द्वारा प्रदान की जाती है।

उपर्युक्त का अनुसरण करते हुए यह कहा जा सकता है कि एक अर्जनक्रम होता है पहले छोटी और सरलीकृत संरचनाएं समझी और अर्जित की जाती हैं और तब संकेतों (कूटभाषा) का विस्तार होता है। 

स्लोबिन द्वारा किये गये अनुसंधान का परिणाम “अर्जन सिद्धांतों” अथवा प्रचालन सिद्धांतों के निर्माण में निम्न प्रकार हैं-

अर्थ:-बच्चा अंतनिर्हित अर्थ के लिए स्पष्ट संकेत ढूढ़ता है। लघुकृत या संपीडित रूप से पहले पूरा रूप यह दिखाने के लिए प्रयुक्त किया जाता है, कि बच्चे के लिए पूरा अर्थ महत्वपूर्ण है। उदाहरणार्थ, बच्चा उसने जो पुस्तक पढ़ी के स्थान पर वह पुस्तक जो उसने पढी़ ‘Id’  के स्थान पर ‘I Would’  कहने को प्राथमिकता दते ा है।

रूपान्तरण:- (मॉडिफिकेशन)- बच्चे शब्दों के रूप में परिवर्तन को खोजते हैं: बच्चे मानते हैं कि शब्दों को उसके अर्थो में परिवर्तन लाने के लिए प्रणाली बद्ध तरीके से रूपान्तरित किया जाता है। यह देखने के लिए एक परीक्षण किया गया था कि अंगे्रजी भाषा का अर्जन करने वाले बच्चे तब क्या करते हैं जब उन्हें दो शब्द ‘Wug और Gutch’ दिये गये जो पशुओं के चित्रों के संकेत दे रहे थे। 

जब पहला चित्र दिखाया गया, बच्चों ने कहा ‘Wugs’ जबकि उन्हें जब दूसरा दिखाया गया, उन्होनें कहा ‘Gutches’  । यह एक जागरूकता दर्शाता है कि वे इन सिद्धांत को समझ सकते हैं जिन पर दो शब्दों को रूपान्तरित किया जा रहा था। यद्यपि वे सामान्यीकरण कर सकते हैं, जब उनके नियम का अपवादों से सामना होता है। इसलिए वे सभी एक समान दिखाई देने वाले शब्दों House, Mouse, Louse आदि पर ‘es’ जोड़ सकते हैं।

क्रम:- (आर्डर) बच्चे शब्दों, प्रत्ययों, उपसर्गो का क्रम ढूढ़तें हैं, बच्चे सुसंगति का अनुसरण करते हैं कि शब्दों में, शब्दों के भागों का क्रम और वाक्यों में, शब्दों का क्रम है। बच्चे अंग्रेजी सीखने की विकास अवस्था में तत्वों जैसे ‘ed,talk,toy,the को गलत जगह रखते हैं। वास्तव में वे Articles बाद की अवस्था में अर्जित कर सकते हैं, इसलिए पिछली अवस्था में वे toy के बदले the toy कह सकते हैं परन्तु वे the toy के रूप में इसे अर्जित नहीं करेंगे। 

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