मुद्रण क्या है इसकी शुरुआत कैसे हुई ?

मुद्रण क्या है

मुद्रण को भी आजकल कला में शामिल किया गया है। मुद्रण क्षेत्र में क्रांतिकारी प्रगति भी हुई है। साधारण भाषा में कागज, कपड़ा या पत्रों पर प्रकाशित शब्दों या डिजाइन को मुद्रण कहा जाता है।

मुद्रण से पहले पुस्तकें के छापने की व्यवस्था नहीं थी। एक पुस्तक की प्रति बनाने में महीनों लग जाते थे। ताड़ के पत्तों पर या कागज़ पर लेखक एक-एक अक्षर लिखता था, जिसके कारण पुस्तक की प्रतियाँ ज़्यादा लोगों तक नहीं पहुँच पाती थी। इसलिए कुछ ही लोगों तक ज्ञान सीमित रह जाता था। 

16वीं शताब्दी में मुद्रण कला का प्रारंभ हुआ। इससे यह लाभ हुआ कि बिना ज्यादा परिश्रम के कागज़ पर एक ही दिन में कई सौ प्रतियाँ छापी जाने लगीं। इस से ज्ञान का विस्तार तो हुआ और शिक्षा का प्रसार भी हुआ, किंतु पुस्तकों की छपाई कागज़ पर हाथ से ही होती थी। सामग्री को पृष्ठ की शक्ल में कंपोज़ किया जाता था और उसे कागज़ पर हाथ से दबाकर छापा जाता था।

मुद्रण की शुरुआत 

ईसवी सनृ 105 में एक चीनी श्री टस्त्साई लून ने कपास एवं मलमल की सहायता से कागज बनाया। ई0 सन् 712 में चीन में एक सीमाबद्ध एवं स्पष्ट ब्लॉक प्रिंन्टिग की शुरुआत हुई (मुद्रण सामाग्री प्रौद्योगिकी, लेखक एम0 एन0 लिडविडे एवं दस्टोरी आफ प्रिंटिंग इरर्विग बी0 सीमोन)। शब्दों का लकड़ी का ब्लाक बनाया जाता, फिर उसका स्पर्श कागज पर उतारा जाता था। ई0 स0 770 में तुन हे्रग राजवंश के संस्थापक श्री वाग वांचिस ने एक प्राचीन ग्रन्थ ‘धर्मसूत्र‘ को मुद्रित किया। करीब 1000 पृष्ठों का दूसरा बौद्ध ग्रंथ भी इसी काल में छापा गया।

मुद्रण कला के आविष्कार और विकास का श्रेय भी चीन को है। मुद्रण काल का अर्थ अलग अलग ढले मुद्रण (टाइप) को एक ढंग से जमाकर शब्द, रेखा (लाइन) परिच्छेद (पैराग्राफ) तथा पृष्ठ बनाना तथा उसके पृष्ठ भाग पर स्याही लगाकर दबाव द्वारा कागज या अन्य वस्तु पर उसका प्रतिरूप (छाप) लेना होता है। ई0 सन् 1041 में एक चीनी व्यक्ति श्री पिन्शैग ने मिट्टी के मुद्रण (टाइप) बनाये। इन अक्षर टाइप (मुद्रों) को जमाया जा सकता था और छाप लेने के पश्चात उन्हें अपने अपने स्थान में वापस रखा जाता था। उनका उपयोग पुन: जमाने में हो सकता था।(मुद्रण सामग्री प्रौद्योगिकी, लेखक एम0 एन0 लिडविडे तािा ‘द स्टोरी आफ प्रिंटिगं’ लेखक इरर्विग बी0 सीमोन)।

कोरियन लोगों ने कुछ समय पश्चात लकड़ी एवं धातु पर खोदकर चल अक्षर बनाये। धातु के चलमुद्र द्वारा प्रथम पुस्तक ई0 सन् 1224-1241 के मध्य कोरिया में छापी गई। दूसरी पुस्तक जो इसी प्रकार सन् 1368 में छापी गई थी। वह ब्रिटिश संग्रहालय में आज भी मौजूद है। मुबेकिल टाइपों द्वारा मुद्रण कला का आविष्कार तो हुआ परन्तु यह कला पनप न पायी। इसका प्रमुख कारण चीनी, जापानी तथा कोरिया भाषा में 49000 से अधिक अक्षरों का होना था। इस ला की उन्नति एवं प्रयास यूरोप में हुआ।

कागज बनाने की कला भी पूर्व से यूरोप में 11 वीं शताब्दी में लायी गयी और जर्मनी में ई0 सन् 1336 में प्रथम पेपर मिल की स्थापना हुई। जर्मनी के जानगटेनबर्ग को मुद्रण का पितामह कहा जात है। इनके टाइपों के लिए पंच मैट्रिक्स, मोल्ड आदि बनाने का योजनाबद्ध कार्य शुरू किया मुद्र (टाइप) बनाने हेतु उसने सीसा टिन और बिसमथ धातु के उचित मिश्रण का तरीका ढूंढ निकाला। गटेनबर्ग ने उचित मुद्रण स्याही भी बनायी एवं हैंड प्रेस का प्रथम बार मुद्रण कार्य सम्पन्न किया। पहले लकड़ी के टाइप का इस्तेमाल होता था।

मुद्रण का कार्य जर्मन से आरंभ होकर यूरोपीय देशों में विकसित हुआ। कोलग्ने, आग्जबर्ग बेसह, टोम पेनिस,एन्टवर्ण, पेरिस आदि मुद्रण के प्रमुख केन्द्र बने। ई0 सन् 1475 में सर विलियम केकस्टन मुद्रण कला इंग्लैंड में लाये तथा वेस्टमिनिस्टर एबे में उनका प्रथम प्रेस स्थापित हुआ। पुर्तगाल में इसकी शुरुआत 1544 में हुई।

भारत में मुद्रण कला पुर्तगाली मिशनरियों द्वारा ई0 सन् 1550 में लायी गई गोवा में प्रथम प्रिंटिग प्रेस धार्मिक पुस्तकों के मुद्रण हेतु शुरू किया। दूसरा प्रेस कोचीन में सन् 1316 में स्थपित हुआ। भी मजी पारेख प्रथम भारतीय थे जिन्होंने दीव में सन् 1670 में एक उद्योग के रूप में प्रेस शुरू किया। भारत में प्रथम समाचार पत्र ‘बम्बे कैरियर’ सन् 1777 में एक पारसी व्यक्ति रुस्तमजी करिशापजी द्वारा शुरू किया गया। बम्बई के पश्चात् कलकत्ता में मुद्रणालय स्थापित किया गया। 20 जनवरी, 1780 (शनिवार) में आगस्टक हिकी ने ‘कलकत्ता जनरल एडवाइजर’ नामक पत्र की शुरुआत की भारत में देवनागरी टाइप ढालने का इतिहास ई0 सन् 1704 में शुरू हुआ था। कलकत्ते में एक कलाकार एवं डिजाइनर ने देवनागरी टाइप बनाने का प्रयास किया, परन्तु वह प्रयास अधूरा रह गया।

इसी समय मुंबई में एक पारसी कलाकार फर्दुन जी मर्जवान ने भारतीय भाषा में कुछ सांचे बनाये। किन्तु देवनागरी अक्षर मुद्र ढालने का श्रेय मुंबई के प्रसिद्ध मुद्रक श्री जावजी दादाजी को प्राप्त है। अपने मित्र श्री राणेजी आरू की सहायता से बहुत ही सुन्दर स्वरूप के अक्षर खोदे। श्री जावजी दादा जी द्वारा मुंबई में स्थापित सागर टाइप फाउण्ड्री तथा उसमें ढले टाइप फेस अभी भी भारत में अपना ऊंचा स्थान बनाए रखे हुए है।

मुद्रण के प्रकार 

आज मुद्रण प्रगति के शिखर पर पहुंच गया है। इसके बारे में संक्षिप्त जानकारी इस प्रकार है। 

1. लेटर प्रेस मुद्रण 

लेटर प्रेस प्रिंटिंग तथा अक्षर मुद्रण को रिलीफ प्रिंटिंग, रेज्ड सरफेस प्रिंटिंग या टाइपोग्राफिक प्रिंटिंग भी कहते हैं। इसमें समुद्र तल, उप मुद्रण तल से ऊपर उठा होता है। इसलिए इस शाखा की मुद्रण प्रक्रिया में मुद्रण स्याही केवल ऊपर उठे हुए मुद्रण तल पर ही लगती है। स्याही लगाने के उपरांत उस पर कागज रखकर मशीन द्वारा दबाव दिया जाता है। इससे मुद्रण तल का प्रतिरूप कागज पर उठ जाता है। 

यह उठा हुआ मुद्रण तल टाइप स्टिरियों, लाइन एवं हाफटोन ब्लॉक होता है। इससे प्लेटन, सिलिण्डर तथा रोटरी प्रिंटिंग मशीन द्वारा मुद्रण कार्य सम्पन्न होता है।

2. लिथोग्राफी तथा प्लेनोग्राफिक मुद्रण 

जब मुद्रण प्रक्रिया में मुद्रण तल और अ-मुद्रण तल एक ही समतल में रहते है। ऐसे मुद्रण को प्लेनोग्राफिक प्रिंटिंग कहा जाता है। इस मुद्रण विधि में मुद्रण एवं अमुद्रण दोनों तल रासायनिक क्रिया से अलग किये जाते हैं। ग्रीज तथा पानी एक दूसरे से अलग रहते है। मुद्रण तल स्याही, जो चिकनी हाेती है, का बना होता है तथा अ-मुद्रण तल पर चिकनाई नहीं होती है। जिस पर पानी लगता है। समतल मुद्रण में दो शक्तियां आवश्यक है। वह जो मुद्रण स्याही को अपेक्षित भाग की ओर खींचें तथा दूसरी वह जो मुद्रण स्याही को शेष भागों से दूर करें, यह कार्य रासायनिक प्रक्रिया के द्वारा होता है। 

लिथोग्राफिक प्रिंटिंग में स्टोन के मुद्रण तल पर स्याही लगती है और उसकी छाप सीधे कागज पर ले ली जाती है स्टोन के स्थान पर जस्ते अथवा एल्यूमीनियम की प्लेट का भी प्रयोग किया जाता है। मुद्रण तल पर इमेज उल्टी रहती है जो कागज पर उतरने के पश्चात् सीधी आ जाती है। 

इस मुद्रण शाखा के अन्तर्गत लिथों, फोटो लिथो, आफॅसेट, फोटो अफॅसेट इत्यादि मुद्रण आत है। इसमें कई रंगों की एक साथ छपाई हो सकती है।

3. इण्टेग्लियों मुद्रण

जब मुद्रण तल, मुद्रण तल से नीचे खुदा हुआ होता है और ऐसे खुदे हुए तल या निम्न तल से मुद्रण कार्य सम्पन्न होता है तब इसे इण्टेग्लियों प्रिंटिंग कहते है। प्लेट पर खोद कार्य किया जाता है। समूचे प्लेट पर स्याही निचली स्थिति में स्थित मुद्रण तल में भर जाती है। इसके उपरांत समूचे प्लेट से स्याही पोछीं जाती है। गैर प्लेट पर कागज रखकर दबाव दिया जाता है, जिससे खुदे हुए तल में भरी स्याही कागज उठ जाती है। इसे इण्टेग्लियों प्रिंटिंग, कापर प्लेट प्रिंटिंग, स्टील प्लेट प्रिंटिंग, रिसेस प्रिंटिंग आदि नामों से संबोधित किया जाता है।

4. स्टेन्सिल मुद्रण

स्टेन्सिल को जाली कटा तल भी कह सकते हैं। इस मुद्रण प्रकार में मुद्रण तेज काटा जाता है। इसे अब स्टेन्सिल कहते हैं। मुद्रण कार्य करने के लिए इस कटे भाग में स्याही लगायी जाती है जो सिल्क स्क्रीन में से पार होकर कागज या अन्य पदार्थ पर छप जाती है। इस मिश्रण विधि से कागज, कार्ड, बांच, लकड़ी, धातु, कैनवास आदि पर छपाई की जा सकती है।

5. जिरोग्राफी या शुष्क मुद्रण

इस मुद्रण विधि में प्रथम किसी भी अधातु प्लेट पर मुद्रण किये जाने वाला चित्र या अक्षर धनात्मक किया जाता है। अब उस पर ऋणात्मक चाज्र्ड पाउडर छिड़का जाता है। इसे प्रकाश किरणों में अनावृत करने से पाउडर चित्र से चिपक जाता है। शेष पाउडर पोछ दिया जाता है। कागज पर मुद्रण कार्य सम्पन्न करने हेतु इस मुद्रण तल को एक सेकण्ड मात्र गरम करने से पाउडर पिघलता है और चित्र का प्रतिरूप कागज पर मुद्रित हो जाता है।

6. फोटोग्राफी मुद्रण

इसमें नेगेटिव फिल्म मुद्रण क्षेत्र होता है। इस फिल्म में से प्रकाश क्रिया कागज पर प्रकाश किरणों को छोड़कर मुद्रण कार्य सम्पन्न किया जाता है।

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