रवीन्द्रनाथ टैगोर के शैक्षिक विचार

बीन्द्रनाथ टैगोर के शैक्षिक विचार
रवीन्द्रनाथ टैगोर

रवीन्द्रनाथ टैगोर का जन्म 7 मई 1861 ई. को कलकत्ता (प.बंगाल) के जोड़ासांको भवन में हुआ था। ठाकुर वंष भट्ट नारायण जो संस्कृत के प्रसिद्ध नाटक ‘वेणी संहारम्' के रचनाकार हैं, की संतान है । ऐसा कहा जाता है कि ये बंगाल के निवासी नहीं थे वरन् वे उन पंच कान्यकुब्जों में से थे जिन्हें आदिषूर ने कन्नौज (उ.प्र.) से बुलाकर बंगाल में बसाया था । वहाँ पर्याप्त सम्पत्ति प्रदान कर प्रतिष्ठित किया था। पहले इनके वंश की अल्ल 'ठाकुर' नहीं थी पर जब वे लोग यषोहर से आकर गोविंदपुर में बस गए तो वहाँ पार्श्ववर्ती निम्न जाति के रवीन्द्रनाथ टैगोर का शैक्षिक दर्शन उनके स्वयं के जीवन से प्रभावित है। रवीन्द्रनाथ टैगोर शिक्षा के पाश्चात्य विचारकों के विचारों से पूर्णत: जागरूक थे, उन्होंने अपने विचारों को प्राचीनभारतीय विचारों पर आधारित किया। रवीन्द्रनाथ टैगोर परंपरागत शिक्षा व्यवस्था के प्रति निष्क्रिय थे जो बच्चे को कक्षाकक्ष या घर की चारदीवारियों में सीमित करता है। 

उनके अनुसार,प्रकृति बालक की उत्तम पाठ्यचर्या तथा शिक्षक है। रवीन्द्रनाथ टैगोर के शैक्षिक सिद्धान्तों काविश्लेषण कर यह कहा जा सकता है कि वह प्रकृतिवाद के साथ-साथ प्रयोजनवाद केभी अनुयायी थे। परंतु उनका शैक्षिक दर्शन अधिकांश: प्रकृतिवादी शिक्षा व्यवस्था पर आधारित है। 

लोग इन्हें ठाकुर कहकर पुकारने लगे जो बंगाल में ब्राह्मणों के लिए एक प्रचलित संबोधन था। इनके पितामह द्वारकानाथ ठाकुर तथा पिताश्री देवेन्द्रनाथ ठाकुर बंगाल के प्रमुख जाने माने व्यक्तियों में गिने जाते थे इनकी माता का नाम शारदा देवी था। “अपने माता- - पिता की वे 14वीं संतान थे उनसे छोटे एकमात्र भाई बधेन्द्रनाथ बचपन में ही गुजर गए। सबसे बड़े भाई द्विजेन्द्रनाथ कवि और दार्षनिक थे। उनके बाद क्रमषः अन्य भाई बहन थे सत्येन्द्रनाथ (प्रथम भारतीय आई.सी.एस.), हेमेन्द्रनाथ, वीरेन्द्रनाथ, सौदामिनी, ज्योतिरीद्रनाथ (संगीत विषारद के नाटककार), सुकुमारी, शरतकुमारी, स्वर्णकुमारी ( उपन्यास लेखिका), वर्णकुमारी और सोमेन्द्रनाथ। सबसे बड़ी बहन और भाई पुष्पेन्द्रनाथ भी बचपन में ही गुजर गए ।'

रवीन्द्रबाबू का बचपन बड़े ही खुशहाल वातावरण में व्यतीत हुआ । उनकी प्रारम्भिक शिक्षा-दीक्षा ओरिएण्टल सेमीनरी में हुई। लेकिन अत्यधिक नियन्त्रण के कारण वो अधिक अध्ययन नहीं कर पाए। उसके बाद उन्हें नॉर्मल स्कूल में दाखिल किया गया। लेकिन वो स्कूल के वातावरण में खुद को ढाल पाते इससे पहले ही अध्यापक महोदय से मधुर व्यवहार नहीं रहे। ये रवीन्द्रबाबू का वो चंचल बालपन था जो उनके पिता ने उन्हें सहज व सरल ढंग से सिखाने का प्रयास किया था यही आगे जाकर उनके साहित्य में देखा जा सकता है। बाल्यावस्था में ही रविबाबू ने लेखनी प्रारम्भ कर दी सात वर्ष की अवस्था में उन्होंने प्रकृति का चित्रण अपनी कविता में किया। उनका बचपन प्रकृति और नदियों की गोद में व्यतीत हुआ इसलिए आधुनिक विदेशी विद्वानों ने उन्हें नदी का कवि कहकर संबोधित किया।

वर्ष 1873 ई. में रवीन्द्रनाथ ठाकुर पिता के साथ हिमालय भ्रमण पर निकले और उसी समय में उन्होंने शान्ति निकेतन का प्रथम बार परिदृष्य देखा। सन् 1875 ई. में उनकी माता श्रीमती शारदा देवी का स्वर्गवास हो गया। इससे उनके करूण हृदय को अपार आघात हुआ। इसके कुछ समय बाद उनकी सर्वप्रथम रचना कविकथा, वनफूल (काव्य संग्रह), गाथा (खण्ड काव्य) प्रकाशित हुए। भानुसिंह संगीत ( गीत ) के बाद 16 वर्ष की आयु में 20 सितम्बर 1877 को वे विदेश भ्रमण पर गए । नवम्बर 1878 ई. में लौट आए। उन्होंने अपने विदेश भ्रमण का वृतान्त 'भारती' पत्रिका में प्रकाशित कराया, जिससे यह ज्ञात होता है कि यह यात्रा उन्हें रुचि नहीं इसके बाद पुनः वो लेखन कार्य में लग गए।

9 दिसम्बर 1883 कांग्रेस की स्थापना के दो वर्ष पूर्व को मृणालिनी देवी के साथ उनका विवाह सम्पन्न हुआ वैवाहिक जीवन का आपने कार्य कुषलता के साथ निर्वाह किया आपकी कुल पाँच संतानें हुई, जिसमें तीन पुत्रियाँ

रवीन्द्रनाथ टैगोर स्व-शिक्षा में विश्वास करते थे जो आत्मबोध पर आधारित होती है। रवीन्द्रनाथ टैगोर बच्चे के संपूर्ण स्वतंत्रता में विश्वास करते थे। यह स्वतंत्रता बुद्धि, निर्णय, हृदय,ज्ञान, क्रिया तथा आराधना से संबंधित है। 

रवीन्द्रनाथ टैगोर निपुणता पूर्वक कार्य करने में विश्वास रखते थे। “वैश्विकता” की अवधारणा रवीन्द्रनाथ टैगोर की शिक्षा की अवधारणा में स्पष्ट रूप में विद्यमान है। 

वे मानते हैं कि वास्तविक शिक्षा वह है जिसे व्यक्ति अपनी आत्मा से परे गए बिना सोचते एवं कार्य करते हैं तथा बिना आस्था एवं कार्य के सार्वभौमिक आत्मा का बोध करते हैं।

रवीन्द्रनाथ टैगोर के शैक्षिक विचार

रवीन्द्रनाथ टैगोर के शैक्षिक विचार Rabindranath Tagore ke shaikshik vichar रवीन्द्रनाथ टैगोर के शैक्षिक दर्शन के सिद्धांत निम्नलिखित हैं:
  1. सभी के लिए शिक्षा का लक्ष्य आत्मबोध होना चाहिए।
  2. उन्होंने प्राचीन वैदान्तिक शिक्षा के साथ आधुनिक पाश्चात्य वैज्ञानिक अभिवृत्तियों को
  3. संश्लेषित कर शिक्षा का लक्ष्य निर्मित किया।
  4. सृजनशील विद्यार्थियों को विकसित करने हेतु, बच्चे को आत्म अभिव्यक्ति के लिए
  5. अवसर प्रदान करना चाहिए।
  6. वह शारीरिक, बौद्धिक, नैतिक तथा धार्मिक विकास के साथ मानव शक्ति के समेि कत
  7. विकास का समर्थन करते थे।
  8. वह व्यक्ति द्वारा रह रहे वातावरण के साथ समायोजन तथा अन्य व्यक्तियों के रहने
  9. वाले वातावरण में समायोजन के समर्थक थे।
  10. बच्चों को पुस्तकों के माध्यम से ज्ञान की प्राप्ति के लिए दबाव नहीं देना चाहिए।
  11. शिक्षा का लक्ष्य बच्चे को आत्मसंतुष्ट बनाना तथा जीविकोपार्जन करना है।
  12. शिक्षा को बच्चों को राष्ट्रीय संस्कृति के विचारों एवं मूल्यों के अभ्यास हेतु योग्य
  13. बनाना चाहिए।
  14. शिक्षा को बच्चों को संपूर्ण मानव बनने के लिए प्रशिक्षित करना चाहिए।

पाठ्यचर्या तथा शिक्षण विधियाँ

रवीन्द्रनाथ टैगोर का दृष्टिकोण है कि पाठ्यचर्या गतिविधियों तथा वास्तविक जीवन के व्यापक अनुभवों पर आधारित होनी चाहिए। उन्होंने बच्चे के सृजनात्मक विकास हेतु अधिसंख्य पाठ्यसहगामी गतिविधियों को पाठ्यचर्या के आवश्यक भाग के रूप में सम्मिलित करनेका सुझाव दिया। उन्होंने इतिहास, भूगोल, प्रकृति अध्ययन, कृषि तथा प्रायोगिक विषयों जैसे अध्ययन के विषयों को उद्यानिकी, क्षेत्र अध्ययन, प्रयोगशाला कार्य, कला, मूर्तिकला,व्यावसायिक एवं तकनीकी विषयों के साथ विद्यालय पाठ्यचर्या के भाग के रूप मेंसुझाया। सृजनात्मक तथा सांस्कृतिक गतिविधियाँ जैसे नृत्य, गायन, चित्रकला, डिजाइनिगं ,सिलाई, कताई, बुनाई तथा पाककला पाठ्यचर्या का भाग होना चाहिए। 

रवीन्द्रनाथ टैगोर ने टहलते हुए शिक्षण, चर्चा एवं प्रश्नोत्तर विधि, गतिविधि, भ्रमण, क्षेत्र भ्रमण आदि को शिक्षण विधियों के रूप में सुझाया।

विद्यालय, शिक्षक तथा अनुशासन की अवधारणारवीन्द्रनाथ टैगोर ने सुझाया कि विद्यालय शांतिपूर्ण स्थान पर स्थित होना चाहिए, जहां बच्चाएकाग्रचित्त हो सके तथा प्रकृति के साथ सम्बन्ध स्थापित कर सके। शैक्षिक संस्थानों कोसांस्कृतिक धरोहर को संरक्षित तथा हस्तांरित करना चाहिए। शिक्षक को चिंतनशीलअभ्यासकर्ता होना चाहिए तथा बच्चे के साथ प्रेम, स्नेह, सहानुभूति तथा स्वीकारोक्ति पूर्वकव्यवहार करना चाहिए। 

शिक्षक को बच्चों को उपयोगी एवं रचनात्मक गतिविधियों में लगाना चाहिए तथा उनको अपने अनुभवों द्वारा सीखने हेतु प्रोत्साहित करना चाहिए। शिक्षक को विद्यार्थियों के लिए सहयोगात्मक वातावरण का निर्माण करना चाहिए। रवीन्द्रनाथ टैगोरने स्व-निर्देशित अनुशासन के अभ्यास के लिए सुझाव दिए तथा विद्यार्थियों पर अनुशासन थोपने की बात का विरोध किया क्योंकि केवल स्व-अनुशासन विद्यार्थियों को आत्म विकास में सहायता कर सकता है।

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