इतिहास में यह एक विवादास्पद मुद्दा रहा है कि क्या बेंथम को एक राजनीतिक दार्शनिक माना जाए या नहीं। कई लेखक उसको राजनीतिक दार्शनिक की बजाय एक राजनीतिक सुधारक मानते हैं। उनके अनुसार बेंथम का ध्येय किसी राजनीतिक सिद्धान्त का प्रतिपादन करना नहीं था बल्कि अपने सुधारवादी कार्यक्रम की पृष्ठभूमि के लिए राज्य के सम्बन्ध में कुछ विचार प्रस् करना था ताकि इंगलैण्ड की शासन प्रणाली में वांछित सुधार किए जा सकें। उसके प्रमुख राजनीतिक विचार उसके सुधारवादी कार्यक्रम का ही एक हिस्सा हैं।
बेंथम के राजनीतिक विचार
बेंथम के प्रमुख राजनीतिक विचार हैं :-
इस प्रकार बेंथम राज्य की उत्पत्ति के ‘सामाजिक समझौता सिद्धान्त’, ‘आदर्शवादी सिद्धान्त’, ‘आंगिक सिद्धान्त’, आदि का खण्डन करते हुए राज्य की उत्पत्ति का आधार सामाजिक उपयोगिता को मानते हुए राज्य को एक कृत्रिम संस्था स्वीकार करता है। उसके अनुसार राज्य व्यक्तियों के हितों का योग मात्र है। वह राज्य को एक साध्य न मानकर एक साधन मात्र मानता है जिसका उद्देश्य सार्वजनिक हित में वृद्धि करने के साथ-साथ ‘अधिकतम लोगों के लिए अधिकतम सुख’ को खोजना है।
राज्य की विशेषताएँ - बेंथम के सिद्धान्त के अनुसार राज्य को निम्नलिखित विशेषताएँ है :
राज्य के कार्य - बेंथम के अनुसार राज्य के कार्य सकारात्मक न होकर नकारात्मक हैं। उसने राज्य को व्यक्ति की अपेक्षा कम महत्त्व प्रदान किया है। उसके अनुसार राज्य के कार्य हैं :-
कानून का उद्देश्य - बेंथम का मानना है कि कानून का उद्देश्य भी सामाजिक उपयेागिता है। कानून व्यक्ति के आचरण को अनुशासित करता है जिससे समाज में ‘अधिकतम व्यक्तियों के अधिकतम सुख’ में वृद्धि होती है। बेंथम के अनुसार कानून के चार उद्देश्य हैं - सुरक्षा, आजीविका, सम्पन्नता तथा समानता। बेंथम का कहना है कि सार्वजनिक आज्ञा पालन ही कानून को स्थायित्व प्रदान करके उसे प्रभावी बनाता है और उसे अधिकतम लोगों के अधिकतम सुख को प्राप्त करने में योगदान देता है। इसलिए कानून की भाषा स्पष्ट व सरल होनी चाहिए ताकि साधारण व्यक्ति भी उसका ज्ञान प्राप्त कर सके।
कानून के प्रकार - बेंथम ने कानून का वर्गीकरण करते हुए उसे चार भागों में बाँटा है :
इस प्रकार बेंथम ने तत्कालीन न्याय-व्यवस्था के दोषों पर भली-भान्ति विचार करके उन्हें अपने दर्शन में प्रस् किया है। उसके न्याय-सम्बन्धी विचार आज भी प्रासंगिक है। जैसे दोष उसने उस समय बताए थे, वे आज भी विद्यमान हैं।
- बेंथम के राज्य सम्बन्धी विचार
- बेंथम के सरकार सम्बन्धी विचार
- बेंथम के सम्प्रभुता सम्बन्धी विचार
- प्राकृतिक अधिकारों सम्बन्धी धारणा
- बेंथम के कानून सम्बन्धी विचार
- बेंथम के न्याय सम्बन्धी विचार
बेंथम के राज्य सम्बन्धी विचार
बेंथम राज्य को एक कृत्रिम संस्था मानता है। उसने राज्य की उत्पत्ति के ‘सामाजिक समझौता सिद्धान्त’ का खण्डन किया है। वह राज्य की उत्पत्ति के सामाजिक समझौता को नकारते हुए कहता है कि इस प्रकार का समझौता कभी हुआ ही नहीं था और यदि हुआ भी हो तो वर्तमान पीढ़ी को इसे स्वीकार करने के लिए बाध्य करना न्यायसंगत नहीं है। उसका कहना है कि इस बात का कोई प्रमाण नहीं है कि समझौता हुआ हो। उसका कहना है कि यदि समझौता होना स्वीकार कर भी लिया जाए तो समझौते द्वारा आज्ञा पालन के कर्त्तव्य की कोई निश्चित व्याख्या नहीं की जा सकती।
बेंथम का मानना है कि मनुष्य द्वारा कानून तथा सरकार की अधीनता स्वीकार करने का मुख्य कारण मूल समझौता न होकर वर्तमान हित व उपयोगिता है। सरकारों का अस्तित्व इसलिए है कि वे सुख को बढ़ाती हैं। मनुष्य कानून और राज्य की आज्ञा का पालन इसलिए करते हैं कि वे जानते हैं कि “आज्ञा पालन से होने वाली संभावित हानि आज्ञा का पालन न करने से होने वाली हानि से कम होती है।” इसलिए राज्य की उत्पत्ति का आधार सामाजिक उपयोगिता है न कि सामाजिक समझौता।
उसके अनुसार- “राज्य एक काल्पनिक संगठन है जो व्यक्तियों के हितों का योग मात्र है।” राज्य का हित उसमें रहने वाले व्यक्तियों के हितों का योग मात्र होता है। बेंथम के मतानुसार- “राज्य व्यक्तियों का एक समूह है जिसका संगठन उपयोगिता अथवा सुख की वृद्धि करने के लिए किया गया है।” उसके अनुसार राज्य का ध्येय या लक्ष्य न तो व्यक्ति के व्यक्तित्व को निखारना है और न ही समुदाय के सद् और नैतिक जीवन की उन्नति करना है बल्कि वह तो ‘अधिकतम लोगों के अधिकतम सुख’ में वृद्धि करना है।
इस प्रकार बेंथम राज्य की उत्पत्ति के ‘सामाजिक समझौता सिद्धान्त’, ‘आदर्शवादी सिद्धान्त’, ‘आंगिक सिद्धान्त’, आदि का खण्डन करते हुए राज्य की उत्पत्ति का आधार सामाजिक उपयोगिता को मानते हुए राज्य को एक कृत्रिम संस्था स्वीकार करता है। उसके अनुसार राज्य व्यक्तियों के हितों का योग मात्र है। वह राज्य को एक साध्य न मानकर एक साधन मात्र मानता है जिसका उद्देश्य सार्वजनिक हित में वृद्धि करने के साथ-साथ ‘अधिकतम लोगों के लिए अधिकतम सुख’ को खोजना है।
अत: राज्य की उत्पत्ति का यह सिद्धान्त सीमित व संकुचित है। इसके अनुसार राज्य व्यक्ति के सुख का साधन मात्र है। यह एक व्यक्तिवादी धारणा है।
- यह अधिकतम सुख को बढ़ाने वाला एक मानवी अभिकरण है।
- यह व्यक्ति के अधिकारों का स्रोत है।
- यह व्यक्ति के हितों में वृद्धि करने का एक साधन है।
- इसका लक्ष्य अपने नागरिकों के सुख में वृद्धि करना है।
- यह दण्ड-विधान द्वारा नागरिकों को अनुचित कार्यों को करने से रोकने वाला साधन है।
राज्य के कार्य - बेंथम के अनुसार राज्य के कार्य सकारात्मक न होकर नकारात्मक हैं। उसने राज्य को व्यक्ति की अपेक्षा कम महत्त्व प्रदान किया है। उसके अनुसार राज्य के कार्य हैं :-
- राज्य लोगों के सुख में वृद्धि तथा दु:ख में कमी करने का प्रयास करता है।
- वह नागरिकों को गलत कार्यों को करने से रोककर उनके आचरण का नियन्त्रित करता है।
बेंथम के सरकार सम्बन्धी विचार
बेंथम के सरकार या शासन सम्बन्धी विचार भी उसके उपयोगितावादी सिद्धान्त पर ही आधारित हैं। बेंथम राज्य और सरकार में अन्तर करते हुए सरकार को राज्य का एक छोटा सा संगठन मानता है तो कानून तथा अधिकतम सुख के लक्ष्य को कार्यान्वित करता है। बेंथम उपयोगितावाद के सिद्धान्त की कसौटी पर विभिन्न शासन प्रणालियों को परखकर गणतन्त्रीय सरकार का ही समर्थन करता है। उसका विश्वास है कि “अन्ततोगत्वा प्रतिनिधि लोकतन्त्र ही एक ऐसी सरकार है जिसमें अन्य सभी प्रकार की सरकारों की तुलना में अधिकतम लोगों की अधिकतम सुख प्राप्त कराने की क्षमता है।”उसके विचारानुसार गणतन्त्रीय सरकार में कुशलता, मितव्ययिता, बुद्धिमत्ता तथा अच्छाई जैसे गुण पाए जाते हैं। उसके विचार में राजतन्त्र बुद्धिमानों का शासन तो है, परन्तु वह ‘अधिकतम लोगों के अधिकतम सुख’ का पालन करने में असक्षम है। गणतन्त्र में कानून बनाने का अधिकार जनता के पास होने के कारण कानून जनता के हित में बनते हैं और ‘अधिकतम लोगों के अधिकतम सुख’ का लक्ष्य सरलता से प्राप्त हो सकता है। इसी तरह कुलीनतन्त्र में बुद्धिमत्ता तो पाई जाती है, क्योंकि यह गुणी और अनुभवी व्यक्तियों द्वारा संचालित होती है, लेकिन इसमें ईमानदारी कम पाई जाती है।
यह शासन व्यवस्था भी “अधिकतम लोगों के अधिकतम सुख’ के सिद्धान्त की उपेक्षा करती है। गणतन्त्र में जनता व शासक के हितों में समानता रहती है। इसलिए ‘अधिकतम लोगों के अधिकतम सुख’ का ध्येय गणतन्त्र में ही प्राप्त किया जा सकता है, अन्य शासन-प्रणालियों में नहीं। अत: गणतन्त्रीय सरकार ही सर्वोत्तम सरकार है।
बेंथम के सम्प्रभुता सम्बन्धी विचार
बेंथम ने राज्य की सम्प्रभुता का समर्थन किया है। उसका मानना है कि शासक सभी व्यक्तियों और सब बातों के सम्बन्ध में कानून बना सकता है। चूँकि कानून आदेश होता है, अतएव यह सर्वोच्च शक्ति का ही आदेश हो सकता है। बेंथम का मानना है कि राज्य का अस्तित्व तभी तक रहता है, जब तक सर्वोच्च सत्ता की आज्ञा की अनुपालन लोगों द्वारा स्वभावत: की जाती है। बेंथम के अनुसार राज्य सम्प्रभु होता है, क्योंकि उसका कोई कार्य गैर-कानूनी नहीं होता। कानूनी दृष्टि से सम्प्रभु निरपेक्ष एवं असीमित होता है। उस पर प्राकृतिक कानून एवं प्राकृतिक अधिकार का कोई बन्धन नहीं हो सकता। लेकिन बेंथम के अनुसार सम्प्रभु निरंकुश, अमर्यादित एवं अपरिमित नहीं हो सकता। बेंथम के अनुसार व्यक्ति उसी सीमा तक सम्प्रभु की आज्ञा का पालन और कानून का आदर करते हैं, जिस सीमा तक वैसा करना उनके लिए लाभदायक और उपयोगी होता है।बेंथम के मतानुसार शासक कानून बनाने का अधिकार तो रखता है लेकिन वह उसी सीमा तक कानून बना सकता है जहाँ तक व्यक्तियों के अधिकतम हित के लक्ष्य की प्राप्ति होती हो। यदि कानून व्यक्तियों के लिए लाभदायक व उपयोगी न हों तो जनता का यह कर्त्तव्य हो जाता है कि वह शासक व उसके द्वारा बनाए गए कानूनों का प्रतिरोध करे।
इस प्रकार हॉब्स की तरह बेंथम भी कानून-निर्माण को सम्प्रभु का सर्वोच्च अधिकार मानता है लेकिन वह कार्यपालिका और न्यायपालिका सम्बन्धी अधिकारों को सम्प्रभु को नहीं सौंपता। वह शासक की असीमित शक्तियों के विरुद्ध है। उसके अनुसार शासक समस्त सामाजिक सत्ता का केन्द्र नहीं है। उसका सम्प्रभु तो कानून निर्माण के क्षेत्र में ही सर्वोच्च है, अन्य में नहीं।
बेंथम ने टामस पेन तथा गॉडविन जैसे प्राकृतिक अधिकारों के सिद्धान्त के समर्थक विचारकों का खण्डन करते हुए कहा कि प्राकृतिक अधिकार केवल एक प्रलाप और मूर्खता का नंगा नाच हैं। उसका मानना है कि प्राकृतिक अधिकारों का निर्माण केवल सामाजिक परिस्थितियों में होता है। वे अधिकारों का निर्माण केवल सामाजिक परिस्थितियों में होता है। वे अधिकार ही उचित हो सकते हैं जो ‘अधिकतम लोगों के अधिकतम सुख’ के लक्ष्य को प्राप्त कराने में सहायक हों। बेंथम ने कहा है- “अधिकार मानव जीवन के सुखमय जीवन के वे नियम हैं जिन्हें राज्य के कानून मान्यता प्रदान करते हैं।”
अत: अधिकार प्रकृति-प्रदत्त न होकर समाज-प्रदत्त होते हैं। वे मनुष्य के सुख के लिए हैं जिन्हें राज्य मान्यता देता है और उनके अनुसार अपनी नीति बनाता है। राज्य ही अधिकारों का स्रोत है। नागरिक प्राकृतिक अधिकारों के लिए राज्य के विरुद्ध किसी प्रकार का दावा नहीं कर सकते, क्योंकि अधिकारों के साथ कुछ कर्त्तव्य भी बँधे हैं जिनके अभाव में अधिकार निष्प्राण व निरर्थक हैं।
इस प्रकार कहा जा सकता है कि बेंथम ने प्राकृतिक अधिकारों की धारणा को कोरी मूर्खता बताया है। उसके अनुसार अधिकार कानून की देन है और अच्छे कानून की परख ‘अधिकतम लोगों की अधिकतम सुख’ प्रदान करने के लक्ष्य को प्राप्त करने पर ही हो सकती है। इस तरह बेंथम ने प्राकृतिक अधिकारों की धारणा का खण्डन करते हुए उन्हें काल्पनिक कहा है।
इस प्रकार हॉब्स की तरह बेंथम भी कानून-निर्माण को सम्प्रभु का सर्वोच्च अधिकार मानता है लेकिन वह कार्यपालिका और न्यायपालिका सम्बन्धी अधिकारों को सम्प्रभु को नहीं सौंपता। वह शासक की असीमित शक्तियों के विरुद्ध है। उसके अनुसार शासक समस्त सामाजिक सत्ता का केन्द्र नहीं है। उसका सम्प्रभु तो कानून निर्माण के क्षेत्र में ही सर्वोच्च है, अन्य में नहीं।
प्राकृतिक अधिकारों सम्बन्धी धारणा
बेंथम ने प्राकृतिक अधिकारों की धारणा का खण्डन करते हुए प्राकृतिक अधिकारों के सिद्धान्त को मूर्खतापूर्ण, काल्पनिक, आधारहीन व आडम्बरपूर्ण बताया है। उसने कहा है- “प्राकृतिक अधिकार बकवास मात्र हैं - प्राकृतिक और हस्तान्तरणीय अधिकार आलंकारिक बकवास हैं - शब्दों के ऊपर भी बकवास है।” उसके मतानुसार प्रकृति एक अस्पष्ट शब्द हैं, इसलिए प्राकृतिक अधिकारों की धारणा भी निरर्थक है। उसके मतानुसार अधिकार प्राकृतिक न होकर कानूनी हैं जो सम्प्रभु की सर्वोच्च इच्छा का परिणाम हैं। उसके अनुसार पूर्ण स्वतन्त्रता पूर्ण रूप से असम्भव है, इसलिए अधिकार प्राकृतिक न होकर कानूनी हैं।बेंथम ने टामस पेन तथा गॉडविन जैसे प्राकृतिक अधिकारों के सिद्धान्त के समर्थक विचारकों का खण्डन करते हुए कहा कि प्राकृतिक अधिकार केवल एक प्रलाप और मूर्खता का नंगा नाच हैं। उसका मानना है कि प्राकृतिक अधिकारों का निर्माण केवल सामाजिक परिस्थितियों में होता है। वे अधिकारों का निर्माण केवल सामाजिक परिस्थितियों में होता है। वे अधिकार ही उचित हो सकते हैं जो ‘अधिकतम लोगों के अधिकतम सुख’ के लक्ष्य को प्राप्त कराने में सहायक हों। बेंथम ने कहा है- “अधिकार मानव जीवन के सुखमय जीवन के वे नियम हैं जिन्हें राज्य के कानून मान्यता प्रदान करते हैं।”
अत: अधिकार प्रकृति-प्रदत्त न होकर समाज-प्रदत्त होते हैं। वे मनुष्य के सुख के लिए हैं जिन्हें राज्य मान्यता देता है और उनके अनुसार अपनी नीति बनाता है। राज्य ही अधिकारों का स्रोत है। नागरिक प्राकृतिक अधिकारों के लिए राज्य के विरुद्ध किसी प्रकार का दावा नहीं कर सकते, क्योंकि अधिकारों के साथ कुछ कर्त्तव्य भी बँधे हैं जिनके अभाव में अधिकार निष्प्राण व निरर्थक हैं।
इस प्रकार कहा जा सकता है कि बेंथम ने प्राकृतिक अधिकारों की धारणा को कोरी मूर्खता बताया है। उसके अनुसार अधिकार कानून की देन है और अच्छे कानून की परख ‘अधिकतम लोगों की अधिकतम सुख’ प्रदान करने के लक्ष्य को प्राप्त करने पर ही हो सकती है। इस तरह बेंथम ने प्राकृतिक अधिकारों की धारणा का खण्डन करते हुए उन्हें काल्पनिक कहा है।
बेंथम के कानून सम्बन्धी विचार
बेंथम का विचार है कि मनुष्य एक स्वाथ्र्ाी प्राणी होने के नाते सदैव अपने सुख की प्राप्ति में लगा रहने के कारण दूसरों के हितों के रास्ते में बाधा उत्पन्न कर सकता है। ऐसी स्थिति से निपटने के लिए कुछ बन्धनों का होना जरूरी है। इसलिए राज्य के पास कानून की शक्ति होती है जो परस्पर विरोधी हितों से उत्पन्न संघर्ष से अधिक कारगर ढंग से निपटने में सक्षम होती है।बेंथम का मत है- “विभिन्न अनुशस्तियों के द्वारा व्यक्ति के हित और समुदाय के हितों के मध्य तालमेल बैठाया जाना चाहिए।”
बेंथम का मानना है कि इन अनुशस्तियों में सबसे अधिक कारगर अनुशस्ति कानून की होती है। राज्य मूलत: कानून का निर्माण करने वाला संगठन है और यह अपने व्यक्तियों पर कानून के द्वारा ही नियन्त्रण रखता है।
बेंथम के मतानुसार- “कानून सम्प्रभु का आदेश है। कानून सम्प्रभुता की इच्छा का प्रकटीकरण है। समाज के व्यक्ति स्वाभाविक रूप से कानून की आज्ञा का पालन करते हैं। कानून न तो विवेक का और न ही किसी अलौकिक शक्ति की आज्ञा है। सामान्य रूप से यह उस सत्ता का आदेश है, जिसका पालन समाज के व्यक्ति अपनी आदत के कारण करते हैं।” कानून व्यक्ति की मनमानी पर अंकुश है। यह व्यक्ति व समुदाय के हितों में तालमेल बैठाने का साधन है जो अपना कार्य दण्ड व पुरस्कार के माध्यम से करता है। कानून का सम्बन्ध व्यक्ति के समस्त कार्यों से न होकर केवल उन्हीं कार्यों का नियमन करने से है जो व्यक्ति के अधिकतम सुख के लक्ष्य को प्राप्त कराने के लिए आवश्यक है।
बेंथम का मानना है कि कानून इच्छा की अभिव्यक्ति है। ईश्वर और मनुष्य के पास तो इच्छा होती है लेकिन प्रकृति के पास कोई इच्छा नहीं होती। इसलिए दैवी कानून और मानवीय कानून तो हो सकते हैं, लेकिन प्राकृतिक कानून नहीं हो सकते। दैवी कानून भी अनिश्चित होता है। अत: मानवीय कानून ही सर्वोच्च कानून होता है जो समाज व व्यक्ति के सम्बन्धों का सही दिशा निर्देशन व नियमन कर पाने में सक्षम होता है।
बेंथम के मतानुसार- “कानून सम्प्रभु का आदेश है। कानून सम्प्रभुता की इच्छा का प्रकटीकरण है। समाज के व्यक्ति स्वाभाविक रूप से कानून की आज्ञा का पालन करते हैं। कानून न तो विवेक का और न ही किसी अलौकिक शक्ति की आज्ञा है। सामान्य रूप से यह उस सत्ता का आदेश है, जिसका पालन समाज के व्यक्ति अपनी आदत के कारण करते हैं।” कानून व्यक्ति की मनमानी पर अंकुश है। यह व्यक्ति व समुदाय के हितों में तालमेल बैठाने का साधन है जो अपना कार्य दण्ड व पुरस्कार के माध्यम से करता है। कानून का सम्बन्ध व्यक्ति के समस्त कार्यों से न होकर केवल उन्हीं कार्यों का नियमन करने से है जो व्यक्ति के अधिकतम सुख के लक्ष्य को प्राप्त कराने के लिए आवश्यक है।
बेंथम का मानना है कि कानून इच्छा की अभिव्यक्ति है। ईश्वर और मनुष्य के पास तो इच्छा होती है लेकिन प्रकृति के पास कोई इच्छा नहीं होती। इसलिए दैवी कानून और मानवीय कानून तो हो सकते हैं, लेकिन प्राकृतिक कानून नहीं हो सकते। दैवी कानून भी अनिश्चित होता है। अत: मानवीय कानून ही सर्वोच्च कानून होता है जो समाज व व्यक्ति के सम्बन्धों का सही दिशा निर्देशन व नियमन कर पाने में सक्षम होता है।
कानून का उद्देश्य - बेंथम का मानना है कि कानून का उद्देश्य भी सामाजिक उपयेागिता है। कानून व्यक्ति के आचरण को अनुशासित करता है जिससे समाज में ‘अधिकतम व्यक्तियों के अधिकतम सुख’ में वृद्धि होती है। बेंथम के अनुसार कानून के चार उद्देश्य हैं - सुरक्षा, आजीविका, सम्पन्नता तथा समानता। बेंथम का कहना है कि सार्वजनिक आज्ञा पालन ही कानून को स्थायित्व प्रदान करके उसे प्रभावी बनाता है और उसे अधिकतम लोगों के अधिकतम सुख को प्राप्त करने में योगदान देता है। इसलिए कानून की भाषा स्पष्ट व सरल होनी चाहिए ताकि साधारण व्यक्ति भी उसका ज्ञान प्राप्त कर सके।
कानून के प्रकार - बेंथम ने कानून का वर्गीकरण करते हुए उसे चार भागों में बाँटा है :
- नागरिक कानून (Civil Law)
- फौजदारी कानून (Criminal Law)
- संवैधानिक कानून (Constitutional Law)
- अन्तरराष्ट्रीय कानून (International Law)
बेंथम के न्याय सम्बन्धी विचार
अपने अन्य विचारा ें की ही तरह बेंथम ने न्याय को भी उपयोगिता के आधार पर परिभाषित किया है। बेंथम का कहना है कि कानून पर आधारित होने के कारण न्याय का परिणाम उपयोगिता होना चाहिए। बेंथम ने अपने न्याय सम्बन्धी विचारों में तत्कालीन इंगलैण्ड की न्याय व्यवस्था की कटु आलोचनाएँ की हैं। उसने कहा है कि मुकद्दमे में वादी और प्रतिवादी दोनों पक्षों के लिए न्याय प्राप्ति के मार्ग में दुर्गम बाधाएँ उपस्थित हो जाती हैं। उन्हें न्याय प्राप्त करने के लिए भारी फीसें वकीलों को देनी पड़ती हैं। साथ में ही समय अधिक लगता है। न्याय प्राप्त करने के लिए न्यायपालिका के कर्मचारियों को कदम कदम पर सुविधा शुल्क देने पड़ते हैं। इसलिए बेंथम के तत्कालीन न्याय-व्यवस्था पर टिप्पणी करते हुए लिखा है- “इस देश में न्याय बेचा जाता है, बहुत महंगा बेचा जाता है और जो व्यक्ति इसके विक्रय मूल्य को नहीं चुका सकता है, न्याय पाने से वंचित रह जाता है।” बेंथम न्यायधीशों को एक कम्पनी की संज्ञा देता है। यह कम्पनी अपने लाभ के लिए उन कानूनों का सहारा लेती है जिन्हें अपने लाभ के लिए न्यायधीशों ने बनाया है।इस प्रकार बेंथम ने तत्कालीन न्याय-व्यवस्था के दोषों पर भली-भान्ति विचार करके उन्हें अपने दर्शन में प्रस् किया है। उसके न्याय-सम्बन्धी विचार आज भी प्रासंगिक है। जैसे दोष उसने उस समय बताए थे, वे आज भी विद्यमान हैं।
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