हीगल के राज्य संबंधी विचार, #Hegel

हीगल के राज्य संबंधी विचार सम्पूर्ण राजनीतिक चिन्तन में एक महत्त्वपूर्ण एवं मौलिक विचार हैं। उसके प्रमुख राज्य संबंधी विचार ‘फिनोमिनोलॉजी ऑफ स्पिरिट’ तथा ‘फिलोसॉफी ऑफ राइट’ नामक ग्रन्थों में वर्णित हैं। हीगल ने जर्मनी की तत्कालीन राजनीतिक दुर्दशा को देखकर अपने चिन्तन को खड़ा किया था ताकि जर्मनी का एकीकरण हो सके और जर्मनी एक शक्तिशाली राष्ट्र के रूप में उभर सके। इसी उद्देश्य को ध्यान में रखकर उसने राज्य को बहुत महत्त्व प्रदान किया है।

हीगल के राज्य संबंधी विचार

हीगल के अनुसार इस संसार में जो चीज वास्तविक है, विवेकमय है, जो विवेकमय है, वास्तविक है। इसका तात्पर्य यह है कि जो वस्तु अस्तित्व में है वह तर्क के अनुकूल है और जो तर्क के अनुकूल है वह अस्तित्व में है। हीगल का मानना है कि पूर्ण विचार या तर्क का ज्ञान धीरे-धीरे तर्कसंगत शैली से ही हो सकता है। हीगल के अनुसार राज्य में पूर्ण विचार या दैवी आत्मा पूर्ण रूप से स्वत: सिद्ध अनुभूति को प्राप्त होता है। अर्थात् राज्य तर्क पर आधारित है। किसी वस्तु की सत्य प्रकृति का ज्ञान राज्य में ही सम्भव है। 

हीगल ने अरस्तू के आदर्श राज्य की वास्तविकता का खण्डन करते हुए कहा है कि सभी राज्य तर्कसंगत होते हैं, क्योंकि उनका विकास ऐतिहासिक क्रम में होता है। अर्थात् संसार की समस्त घटनाएँ एक पूर्व निश्चित योजना के अनुसार घटित होती है। इसके पीछे दैवी आत्मा या विश्वात्मा का हाथ होता है। इसलिए राज्य जैसी संस्था भी ‘पृथ्वी पर भगवान का अवतरण’ (March of God on Earth) है।

हीगल ने अपने लेख 'The German Constitution' में राज्य को परिभाषित करते हुए कहा है कि- “राज्य मानवों का एक ऐसा समुदाय है जो सामूहिक रूपसे सम्पत्ति की रक्षा के लिए संगठित होता है। इसलिए सार्वजनिक सेना और सत्ता का निर्माण कर ही राज्य की स्थापना की जा सकती है।” यद्यपि हीगल ने शक्ति को राज्य का अनिवार्य तत्त्व माना है लेकिन राज्य अपने क्षेत्र में कानून के अनुसार कार्य करता है, शक्ति के द्वारा नहीं। उसके अनुसार राज्य किसी समझौते का परिणाम न होकर ऐतिहासिक विकास, सामुदायिक जीवन एवं परिवर्तित परिस्थितियों का परिणाम है। 

हीगल ने ग्रीक दर्शन से प्रभावित होकर अपनी पुस्तक 'Philosophy of Rights' में राज्य का व्यापक अर्थ में प्रयोग करते हुए राज्य को एक सर्वोच्च नैतिक समुदाय कहा है। 

उसके अनुसार- “राज्य मानव जीवन की सम्पूर्णता का प्रतीक है जिसमें परिवार, नागरिक समाज तथा राजनीतक राज्य क्षणिक हैं। इसमें नैतिक शक्तियाँ ही व्यक्तियों के जीवन को अनुशासित रखती हैं।”

राज्य की उत्पत्ति 

हीगल के अनुसार राज्य किसी समझौते की उपज न होकर विश्वात्मा का द्वन्द्वात्मक पद्धति से होने वाले विकास का परिणाम है तथा इसका अपना व्यक्तित्व है। हीगल का कहना है कि संसार में सभी जड़ व चेतन पदार्थ विश्वात्मा से ही जन्म लेते हैं और उसी में ही विलीन हो जाते हैं। यह विश्वात्मा (आत्मतत्त्व) आत्मज्ञान के अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए विश्व में अनेक रूप धारण करती है। वह निर्जीव वस्तुओं, वनस्पतियों और पशुओं के माध्यम से गुजरती हुई मानव का रूप धारण करती है। मानव विश्वात्मा का श्रेष्ठ रूप है। इसके बाद इसका परिवार तथा समाज के रूप में प्रकटीकरण होता है जो राज्य पर जाकर रुक जाता है क्योंकि राज्य विश्वात्मा का पृथ्वी पर साक्षात् अवतरण होता है।

राज्य का विकास

हीगल का मानना है कि विश्वात्मा का द्वन्द्वात्मक रूप से चरम लक्ष्य की ओर विकास होता है। विश्वात्मा बाह्य जगत् में विकास के अनेक स्तरों को पार करती हुई सामाजिक संस्थाओं के रूप में प्रकट होती हैं। ये संस्थाएँ परिवार, समाज व राज्य हैं। परिवार का उद्भव व्यक्ति की भौतिक आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए होता है। परिवार का आधार पारस्परिक प्रेम व सहिष्णुता है। परिवार राज्य की उत्पत्ति की प्रथम सीढ़ी है। परिवार व्यक्ति की सभी आवश्यकताओं को पूरा नहीं कर सकता। ज्यों-ज्यों परिवार में सदस्यों की संख्या बढ़ती है तो परिवार व्यक्ति की सभी आवश्यकताओं का भार सहन नहीं कर पाता है। अपनी बढ़ी हुई आवश्यकताओं को पूरा करने के उद्देश्य से व्यक्ति समाज की ओर अग्रसर होते हैं। इसे हीगल ने बुर्जुआ समाज या नागरिक समाज का नाम दिया है। समाज में पारस्परिक निर्भरता प्रतिस्पर्धा और स्वार्थ पर आधारित होती है। इसके कारण संघर्ष की स्थिति पैदा हो जाती है और पुलिस की शक्ति भी अस्तित्व में आ जाती है। 

इस संघर्ष की स्थिति पर नियन्त्रण करने तथा पारस्परिक प्रेम व सहयोग की भावना पैदा करने के लिए राज्य का जन्म होता है जो परिवार तथा नागरिक समाज दोनों का सम्मिलित रूप है। इस प्रकार हीगल ने परिवार को वाद, नागरिक समाज को प्रतिवाद मानकर संवाद रूप में राज्य की उत्पत्ति की बात स्वीकार की है। संवाद के रूप में राज्य परिवार और नागरिक समाज दोनों से उत्कृष्ट होता है। यह समाज में एकता व सामंजस्य की स्थापना करता है और उसे सामाजिक हितों के अनुकूल कार्य करने के लिए प्रेरित करता है।

राज्य और नागरिक समाज में अन्तर

हीगल ने परिवार और राज्य में अन्तर स्वीकार किया है। उसके अन्तर के प्रमुख आधार हैं :
  1. परिवार पारस्पारिक स्नेह और प्रेम भावना पर आधारित होता है, नागरिक समाज समझौते और स्वार्थ के बँधनों से बँधा हुआ एक समूह है।
  2. परिवार के सदस्यों में एकता की भावना होती है, नागरिक समाज के सदस्यों में घोर प्रतिस्पर्धा होती है।
  3. परिवार कृषि-प्रधान आर्थिक व्यवस्था पर आधारित होता है, नागरिक समाज उद्योग-प्रधान आर्थिक व्यवस्था पर आधारित होता है।
  4. परिवार एक आंगिक (Organic) व्यवस्था है, नागरिक समाज कृत्रिम और यान्त्रिक व्यवस्था है।
  5. परिवार में विवादों का निपटारा करने के लिए किसी कानून की आवश्यकता नहीं पड़ती, नागरिक समाज में झगड़ों का निपटारा करने के लिए कानून की व्यवस्था करनी पड़ती है।
  6. नागरिक समाज में किए गए कार्यों के बदले पारिश्रमिक मिलता है, परिवार में नहीं।
  7. परिवार में धैर्य व सहिष्णुता की भावना पाई जाती है, नागरिक समाज में इसका अभाव होता है।

हीगल के राज्य की विशेषताएँ

हीगल के राज्य संबंधी उपर्युक्त विचारों का व्यापक अध्ययन करने के पश्चात् उसके राज्य की निम्नलिखित विशेषताएँ उभरकर आती हैं :

1. राज्य दैवी संस्था है : हीगल ने राज्य को विश्वात्मा का साकार रूप माना है। उसके अनुसार राज्य ‘भगवान का पृथ्वी पर अवतरण’ है। अनन्त युगों से असीम रूपों में विकसित होने वाली विश्वात्मा - भगवान का चरम रूप होने के कारण यह स्वत:सिद्ध और स्पष्ट है। ईश्वर ने अपनी दैवी इच्छा को प्रकट करने के लिए राज्य को अपना साधन बनाया है। इसलिए यह पृथ्वी पर विद्यमान एक दैवीय विचार है।

2. राज्य एक साध्य तथा एक समष्टि है : हीगल का राज्य अपना उद्देश्य स्वयं ही है। राज्य का अस्तित्व व्यक्तियों के लिए नहीं है। व्यक्ति का अस्तित्व राज्य के लिए है। राज्य से परे नैतिक विकास असम्भव है क्योंकि राज्य से परे विश्वात्मा का आध्यात्मिक विकास उसी प्रकार सम्भव नहीं है, जिस प्रकार मनुष्य से आगे भौतिक विकास सम्भव नहीं है। राज्य पृथ्वी पर विश्वात्मा का अन्तिम रूप के कारण अपने आप में एक साध्य है। अपने आप में साध्य होने के कारण राज्य एक समष्टि है। 

हीगल ने अपने ग्रन्थ 'Philosophy of History' में कहा है कि “मनुष्य का सारा मूल्य और महत्त्व उसकी समूची आध्यात्मिक सत्ता केवल राज्य में ही सम्भव है।” इसका अर्थ यह है कि व्यक्ति राज्य का अंग होने के कारण ही नैतिक महत्त्व रखता है। राज्य के आदेशों का पालन करने में ही व्यक्ति की भलाई है। इस प्रकार हीगल ने कहा है कि व्यक्ति का अस्तित्व राज्य में ही है, बाहर नहीं। 

उसने कहा है- “राज्य अपने आप में ही निरपेक्ष और निश्चित साध्य है।”

3. सर्वोच्च नैतिकता का प्रतिनिधि : राज्य सब प्रकार के नैतिक बन्धनों से मुक्त है। सर्वोच्च संस्था होने के नाते राज्य को नैतिकता का पाठ पढ़ाने की आवश्यकता नहीं पड़ती। यह स्वयं ही नैतिकता के सिद्धान्तों का सृजन करता है। यह अपने नागरिकों के लिए काूनन का निर्माण करते समय उनके द्वारा पालन की जाने वाली नैतिकता के मानदण्डाकें का भी निर्धारण करता है। कोई भी व्यक्ति अन्तरात्मा या नैतिक कानून के आधार पर राज्य की आज्ञा का विरोध नहीं कर सकता। राज्य उन सभी परम्पराओं और प्रथाओं का सर्वोत्तम व्याख्याकार है जिनके आधार पर व्यक्ति की अन्तरात्मा उसे विवेकपूर्ण ढंग से कार्य करने के लिए प्रेरित करती है। 

राज्य ही यह बता सकता है कि उचित व अनुचित क्या है। इसलिए राज्य जो भी कार्य करता है, सही होता है। इसी आधार पर राज्य नैतिकता का सर्वोच्च मानदण्ड है।

4. अन्तरराष्ट्रीय सम्बन्धों में राष्ट्र राज्य की सर्वोच्चता : हीगल का राज्य अन्तरराष्ट्रीय नैतिकता व कानून से ऊपर है। हीगल का कहना है कि अन्तरराष्ट्रीय सम्बन्धों में स्वार्थ-सिद्धि का उद्देश्य राज्य का प्रमुख उद्देश्य होता है। इस उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए राज्य सब प्रकार के बन्धनों से मुक्त है। वह आत्मरक्षा के लिए अन्य राज्यों के साथ कैसा व्यवहार कर सकता है। राज्य अपने हितों को पूरा करने के लिए सन्धियों व समझौतों का भी उल्लंघन कर सकता है। हीगल का कहना है कि राज्य अन्तरराष्ट्रीय कानून व सन्धियों का पालन उसी सीमा तक करते हैं जहाँ तक उनके हितों का पोषण होता है। अन्त में यही कहा जा सकता है कि हीगल का राज्य प्रभुसत्ता सम्पन्न है।

5. व्यक्ति की स्वतन्त्रता में वृद्धि का साधन है : हीगल का कहना है कि राज्य मनुष्य की स्वतन्त्रता को विकसित करने और बढ़ाने का साधन है। व्यक्ति केवल राज्य में रहकर ही पूर्ण स्वतन्त्रता का उपभोग कर सकता है। व्यक्ति राज्य में ही अपने बाहरी अहम् को अपने आन्तरिक अहम् के स्तर तक उन्नत कर सकता है। हीगल का कहना है कि सच्ची स्वतन्त्रता राज्य के कानूनों का पालन करने में है। इसके द्वारा व्यक्ति समाज के हितों के साथ सामंजस्य स्थापित करके अपने व्यक्तित्व का पूर्ण विकास कर सकता है। हीगल का कहना है कि राज्य व्यक्ति की वास्तविक स्वतन्त्रता को प्राप्त करने का प्रमुख साधन है। व्यक्ति की सच्ची स्वतन्त्रता राज्य के आदेशों का पालन करने में है, विरोध करने में नहीं।

राज्य और व्यक्ति में विरोध नहीं : हीगल के अनुसार राज्य और व्यक्ति के हित एक हैं। राज्य व्यक्ति की सच्ची, निष्पक्ष एवं नि:स्वार्थ इच्छा का प्रतिनिधित्व करता है। इसलिए राज्य और व्यक्ति के हितों में विरोध नहीं है।

6. राज्य पूर्ण विवेक की अभिव्यक्ति है : हीगल के अनुसार राज्य आत्म-चेतना की शाश्वत व आवश्यक सत्ता है। राज्य वर्तमान चेतना के रूप में एक दैवी इच्छा है जो संगठित संसार के रूप में अपना उद्घाटन करती है। राज्य रक्त सम्बन्ध या भौतिक स्वार्थ पर आधारित संस्था न होकर विवेक पर आधारित एक संस्था है।

7. पैतृक एवं संवैधानिक राजतन्त्र का समर्थन : हीगल के अनुसार राज्य की सम्प्रभुता राजा में निहित है, जनता में नहीं। लेकिन सम्प्रभु कानून के दायरे में काम करने वाला होना चाहिए। इसके लिए प्रत्येक राज्य का अपना संविधान होना चाहिए। हीगल का मानना है कि राजा समुदाय की इच्छा का सामूहिक प्रतिनिधि होता है। यह राज्य की एकता का प्रतीक होता है। उसे विधायिका और कार्यपालिका के विषयों में निर्णय देने का अधिकार होता है। राजा ही संविधान और राज्य के व्यक्तित्व को साकार रूप प्रदान करता है। 

हीगल ने कहा है कि राजा को कोई विशेषाधिकार प्राप्त नहीं हो सकता। उसकी जो भी स्थिति है, वह वैधानिक स्थिति के कारण ही हो सकती है। इस प्रकार हीगल ने वैधानिक राजतन्त्र का समर्थन करके राजा की निरंकुशता को अस्वीकार किया है। वह केवल संवैधानिक राजतन्त्र का ही समर्थन करता है।

8. युद्ध का पक्षधर : हीगल का मानना है कि युद्ध मानव के सर्वोत्तम गुणों को प्रकट करते हैं। इनके व्यक्तियों में एकता की भावना पैदा होती है और उनका नैतिक विकास होता है। युद्ध विश्व इतिहास का निर्माण करते हैं। ये गृह-युद्ध को रोकते हैं और आन्तरिक शक्ति में वृद्धि करते हैं। इससे नागरिकों में देश-प्रेम की भावना का संचार होता है। हीगल का मानना है कि स्थायी शांति का विचार जनता को पथभ्रष्ट करता है। 

हीगल का यह भी मानना है कि आत्मा अपने उद्देश्य की पूर्ति राष्ट्रों में युद्ध के द्वारा ही करती है। इसलिए उसने कहा है कि- “विश्व-इतिहास, विश्व का न्यायालय है।” युद्ध में ही विश्वात्मा का सच्चा रूप प्रकट होता है।

9. राज्य परम्पराओं व प्रथाओं का अन्तिम व्याख्याकार है।

10. राज्य का आदेश व कार्य कभी गलत नहीं होता।

11. राज्य का अपना स्वतन्त्र अस्तित्व होता है।

इस प्रकार कहा जा सकता है। कि हीगल ने यूनानी दार्शनिकों की तरह राजय को सर्वश्रेष्ठ संस्था माना है, जिसका अपना व्यक्तित्व है। हीगल का राज्य साध्य है, साधन नहीं। सभी व्यक्ति राज्य रूपी समष्टि के अंग हैं। उनका अपना कोई स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं है। उनके अधिकार व स्वतन्त्रताएँ राज्य में ही निहित हैं। राज्य विश्वात्मा की सर्वोत्तम इच्छा का प्रकटीकरण होने के कारण सर्वश्रेष्ठ आध्यात्मिक निकाय है। इसलिए हीगल ने राज्य को पृथ्वी पर ईश्वर का अवतरण कहकर नास्तिकवाद पर करारा प्रहार किया है। वह निरंकुश शासकों के लिए एक नए मार्ग को प्रशस्त करता है।

हीगल के राज्य संबंधी विचार की आलोचना

यद्यपि हीगल ने राज्य के सम्बन्ध में अपने कुछ महत्त्वपूर्ण विचार प्रस् किए हैं, लेकिन फिर भी उसके राज्य संबंधी  विचारों की आलोचना हुई है। उसकी आलोचना के प्रमुख आधार हैं :-
  1. आलोचकों का मानना है कि राज्य की उत्पत्ति परिवार और नागरिक समाज के मध्य संघर्ष से होना उचित नहीं है। परिवार और नागरिक समाज में संघर्ष या तनाव जैसी कोई स्थिति नहीं होती। प्लामेनाज ने हीगल के इस सिद्धान्त को गलत ठहराया है। उसका कहना है कि परिवार और नागरिक समाज में ऐसा कोई संघर्ष नहीं होता जिसके निराकरण के लिए राज्य की आवश्यकता पड़े।
  2. हीगल की सम्भ्प्रभुता की धारणा अस्पष्ट है। हीगल इस बात को स्पष्ट नहीं करता कि सम्प्रभु के क्या अधिकार हैं ? एक तथ्य तो यह कहता है कि राजा का कार्य नीति निर्धारण करना है, परन्तु दूसरी तरफ वह यह भी कहता है कि राजा किसी कानून पर केवल अपनी सहमति ही प्रकट करता है, कानून का निर्माण नहीं करता। अत: यह धारणा अस्पष्ट है।
  3. हीगल का राज्य को व्यक्तित्व प्रदान करने का सिद्धान्त गलत है। मैकाइवर ने कहा है कि- “जिस तरह एक वृक्षों का समूह एक वृक्ष नहीं माना जा सकता, उसी प्रकार व्यक्तियों के समूह को एक व्यक्ति नहीं माना जा सकता।”
  4. हीगल का राज्य का सिद्धान्त अराजकता को बढ़ावा देने वाला है। उसने राज्य को सभी नैतिक बन्धनों से मुक्त कर दिया है। उसने राज्य को अन्तर्राष्ट्रीय कानून व सन्धियों का उल्लंघन करने का अधिकार देकर विश्व शान्ति के लिए खतरा पैदा कर दिया है।
  5. स्वतन्त्रता को कानून के साथ मिलाना न्यायसंगत नहीं है।
  6. यह अन्तरराष्ट्रीयवाद का विरोधी है। यह केवल राष्ट्र-राज्य की धारणा का ही पोषक है।
  7. हीगल सर्वसत्ताधिकारवादी राज्य का समर्थन करता है। उसने जन-सम्प्रभुसत्ता को अस्वीकार करके जनमत की उपेक्षा की है। उसने जातीयता, राष्ट्रवाद, शक्ति और युद्ध का समर्थन करके राज्य की वेदी पर व्यक्ति का बलिदान कर दिया है।
इस प्रकार हीगल के राज्य संबंधी विचारों की अनेक आलोचनाएँ हुई हैं, लेकिन उसके सिद्धान्त का महत्त्व कम नहीं आंका जाना चाहिए। उसका प्रगति का विचार एक महत्त्वपूर्ण विचार है। उसने राज्य को व्यक्ति के विकास का महत्त्वपूर्ण उपकरण मान लिया है। उसने राजनीति और नैतिकता में मधुर सम्बन्ध स्थापित किया है। उसने संविधानवाद का समर्थन किया है। उसका यह सिद्धान्त शासन की निरंकुशता का पूरा विरोध करता है। इसलिए उसने संवैधानिक राजतन्त्र का ही समर्थन किया है। 

अन्त में यही कहा जा सकता है कि हीगल के राज्य संबंधी विचार राजनीतिक चिन्तन को एक महत्त्वपूर्ण व अमूल्य देन हैं।

Post a Comment

Previous Post Next Post