क्रियात्मक अनुसंधान क्या है इसकी क्या आवश्यकता है?

क्रियात्मक अनुसंधान एक प्रकार की अनुसंधान नीति है, जिसका उपयोग सामाजिक समस्याओं और विद्यालय संबंधी समस्याओं का अध्ययन करना और इन समस्याओं का समाधान ढूंढना ही क्रियात्मक अनुसंधान का मुख्य उद्देश्य है। क्रियात्मक अनुसंधान संबंधी शोध कार्यों का प्रारंभ सर्वप्रथम अमेरिका में कोलियार ने सन् 1933 में किया। इसके पश्चात लेविन, रॉबिन्सन और कोरे आदि विद्वानों ने इसमें महत्वपूर्ण योगदान दिया। इस विषय में विस्तृत अध्ययन से पूर्व हमें इसके अर्थ को समझना आवश्यक है।

अनुभव सिद्ध अनुसंधान के आधार पर क्रियात्मक अनुसंधान किया जाता है। इसमें तात्कालिक समस्याओं का समाधान घटना स्थल पर ही करने पर बल दिया जाता है, जिससे कार्यों में सुधार लाया जा सके। क्रियात्मक अनुसंधान के संपादन, संचालन और क्रियान्वयन पर सामाजिक अनुसंधानकर्ता का तो अधिकार क्षेत्र है ही वह सर्वोत्तम ढंग से इसे पूर्ण कर सकता है। लेकिन इस प्रकार के अनुसंधानों को शिक्षक, प्राचार्य, प्रशासक, पर्यवेक्षक और समाज सुधारक भी प्रशिक्षण के पश्चात इस कार्य को कर सकते है। 

इस अनुसंधान के आधार पर वह स्थानीय तात्कालिक समस्या के संबंध में अध्ययन कर उन नीतियों का निर्धारण कर सकते है, जिससे वह समस्याओं का सुधार कर सकते है। यह एक प्रकार का व्यावहारिक अनुसंधान है।

क्रियात्मक अनुसंधान वह अनुसंधान है, जो तात्कालिक समस्या समाधान के उद्देश्य से घटना स्थल पर वैज्ञानिक ढंग से किया जाता है।’’ जिसके आधार पर क्रियाओं या तात्कालिक समस्याओं में निर्देशन, सुधार और मूल्यांकन के रूप में किया जाता है, न कि सार्वभौमिक वैधता के रूप में। इसके द्वारा किसी भी प्रकार के नियमों और सिद्धांतों का विकास और प्रतिपादन नहीं किया जाता है।

क्रियात्मक अनुसंधान की संकल्पना 

क्रियात्मक अनुसंधान की संकल्पना का जन्म स्टीफन एम. कोरे (1953) के विचारों में हुआ। कई लेखकों ने इस संकल्पना को लेविन से जोड़ने का प्रयास किया है। एक लेखक ने, 1926 में इसका विकास हुआ, ऐसा भी लिखा है। साथ ही यह भी कहा है कि इस प्रत्यय की उत्पत्ति का स्रोत ‘आधुनिक मानव-व्यवस्था’ सिद्धान्त है। ये विचार भ्रामक हैं। क्रियात्मक अनुसंधान की संकल्पना केवल कोरे की है तथा उसकी उत्पत्ति केवल 1953 में लिखी गई उनकी पुस्तक Action Research to Improve School Practices (1953) से ही मानी जाती है। इससे पहले कभी किसी ने इस शब्दावली का प्रयोग नहीं किया। यह दूसरी बात है कि किन्हीं दूसरे लेखकों के विचारों में कोरे के विचारों की समानता एवं साद्दश्यता रही हो। 

मौलि के अनुसार भी इस संकल्पना के विकास के लिए कोरे को ही उत्तरदायी माना गया है। मौलि का कहना है कि जब उपरोक्त पुस्तक (1953) प्रकाशित हुई तो अध्यापकों ने उसका बहुत स्वागत किया क्योंकि वे जिन समस्याओं से जूझ रहे थे, उनके समाधान के उपाय उन्हें नहीं सूझ रहे थे और इस पुस्तक में इन समाधानों को खोजने की दिशाएँ सुझाई गई थीं। यह सुझाव ही क्रियात्मक अनुसंधान था। 

क्रियात्मक अनुसंधान की संकल्पना कोरे के मस्तिष्क में घर कर गई। इसके पीछे उनके अनुभवों की पृष्ठभूमि थी। जो अनुसंधान 1950 तक अमरीका में शिक्षा के क्षेत्र में हो रहे थे, उनसे कोरे अत्यन्त क्षुब्ध थे क्योंकि उनकी उपयोगिता बहुत सीमित थी। विद्यालयी शिक्षा पर उसका वांछनीय प्रभाव नहीं पड़ रहा था। विद्यालयों के समक्ष अनेक समस्याएँ थीं, परन्तु शैक्षिक अनुसंधान उन दिनों-प्रतिदिन की समस्याओं, जिनसे अध्यापक जूझ रहे थे, के समाधान उपलब्ध नहीं करा पा रहे थे। अधिकतर अनुसंधानों का उद्देश्य वृहद् न्यादर्श को लेकर सूचनाएँ एकत्र करके उनके आधार पर व्यापक सिद्धान्तों एवं नियमों का प्रतिपादन करना होता था। अनुसंधान के ये परिणाम केवल सिद्धान्तों तक ही सीमित रहते थे। केवल ज्ञान-भंडार ही उनसे भरता था। शिक्षा की प्रक्रिया को सुदृढ़ बनाने में, विद्यालयों की दिन-प्रतिदिन की समस्याओं को सुलझाने में, अध्यापकों के कार्य की कुशलता बढ़ाने में, विद्यार्थियों की शैक्षिक उन्नति में, इन अनुसंधानों से कोई सहायता नहीं मिलती थी। इस प्रकार इन अनुसंधानों की व्यावहारिक उपयोगिता नाममात्र की थी। अतः मूलभूत अनुसंधान की अनुपयोगिता से क्षुब्ध होकर कोरे ने नये ढंग से अनुसंधान के विषय में सोचना आरंभ किया। उनका विचार था कि जब तक अध्यापक अनुसंधान से नहीं जुड़ेगा, अनुसंधान के परिणामों का विद्यालय की स्थिति को सुदृढ़ बनाने में क्रियान्वयन नहीं हो सकता। 

कोरे ने अपनी पुस्तक (1953) में एक स्थान पर स्वयं लिखा है कि पहले मुझे शिक्षा-जगत के अनुसंधान-विशेषज्ञों में बहुत विश्वास था और मैं उनसे कहा करता था कि वे विद्यालयों का अध्ययन करें और बताएँ कि उन्हें क्या करना चाहिए, परन्तु अब मेरा यह विश्वास बहुत कुछ टूट चुका है। उनकी संस्तुतियों को शिक्षा-जगत के कार्यकर्ताओं के व्यवहारों में उतारना एक बहुत बड़ी समस्या है जिसका अभी तक कोई समाधान उपलब्ध नहीं हो सका है। सावधानी अनुसंधान उन्हीं को करना चाहिए जिन्हें अध्ययन के परिणामों के आधार पर अपनी कार्य-प्रणाली में परिवर्तन लाना है। अतः उन्होंने इस बात पर बल दिया कि विद्यालय की जो समस्याएँ हैं, उनके समाधान खोजने हेतु विद्यालय के स्तर पर ही अनुसंधान किया जाना चाहिए और ये अनुसंधान सामान्यतः अध्यापकों द्वारा ही किए जाने चाहिए, जिससे कि उनके द्वारा प्राप्त परिणामों का शैक्षिक क्रियाओं को सबल बनाने में प्रयोग भी किया जा सके। अपने इन विचारों को कोरे ने क्रियात्मक अनुसंधान की संकल्पना में संजोया तथा उन्हें विकसित किया। जब 1962 के आस-पास कोरे भारत में एन.सी.ई.आर.टी. में परामर्शक रहे, तब हमारे देश में भी उनके विचारों तथा ‘क्रियात्मक अनुसंधान’ की संकल्पना का प्रचार हुआ। उन्हें हमारे यहाँ के शिक्षा-शास्त्रियों ने भी हर्षपूर्वक स्वीकार किया। एनसी. ई.आर.टी. ने शैक्षिक अनुसंधान पर उनकी एक पुस्तक (कोरे, 1962) भी प्रकाशित की। उसमें विस्तार से इस संकल्पना की उन्होंने व्याख्या की।

 क्रियात्मक अनुसंधान की परिभाषा

विभिन्न विद्वानों ने क्रियात्मक अनुसंधान की अलग-अलग परिभाषाएं दी है। कुछ इस प्रकार है:-

कोरे के अनुसार ‘‘(सन् 1953) क्रियात्मक अनुसंधान वह प्रक्रिया है, जिसके द्वारा व्यावहारिक कार्यकर्ता वैज्ञानिक ढंग से अपनी समस्याओं का अध्ययन, अपने निर्णय और क्रियाओं में निर्देशन, सुधार और मूल्यांकन करते है।’’

जार्ज मॉऊली ने 1964 में इसकी परिभाषा इस प्रकार से दी है ‘‘शिक्षक के समक्ष उपस्थित समस्याओं में अनेक समस्याएं तत्काल समाधान चाहती है। इसलिए तात्कालिक समस्या समाधान के उद्देश्य से घटनास्थल पर किया गया अनुसंधान ही क्रियात्मक अनुसंधान कहलाता है।’’

क्रियात्मक अनुसंधान की आवश्यकता

क्रियात्मक अनुसंधान की सहायता से स्थानीय तात्कालिक समस्याओं का तुरंत समाधान किया जा सकता है तथा समस्याओं का अपेक्षाकृत बहुत जल्दी निराकरण और समाधान किया जा सकता है। अत: इस अनुसंधान पद्धति की महती आवश्यकता है। क्रियात्मक अनुसंधान में जनतांत्रिक मूल्यों को अधिक महत्व दिया जाता है। अत: अनुसंधानकर्ता द्वारा जब संबंधित समस्या में सुधार किया जाता है तब इससे अधिक से अधिक संबंधित लोग लाभान्वित होते है। जब किसी क्षेत्र विशेष के लोगों की तात्कालिक समस्या के संबंध में जनतांत्रित मूल्यों के आधार पर नीति निर्माण करना चाहे तब इसमें क्रियात्मक अनुसंधान विधि का सहारा लिया जा सकता है। ऐसी समस्याओं के समाधान हेतु क्रियात्मक अनुसंधान को आवश्यकता पड़ती है। 

क्रियात्मक अनुसंधान के आधार पर किसी अध्ययन समस्या का मूल्यांकन बहुत अच्छे ढंग से हो जाता है। इस विधि में समस्या का अध्ययन वास्तविक परिस्थितियों में किया जाता है तथा कई बार अनुसंधानकर्ता स्वयं उसी समूह का सहभागी निरीक्षणकर्ता ;च्ंतजपबपचमदजए वइेमतनमतद्ध होता है। अत: यह विधि समस्या के मूल्यांकन में उपयोगी है।

क्रियात्मक अनुसंधान का उपयोग

क्रियात्मक अनुसंधान एक महत्वपूर्ण विद्या है इसके विभिन्न उपयोग इस प्रकार है।

1. स्थानीय तात्कालिक समस्याओं का तुरंत अध्ययन करने में :- स्थानीय तात्कालिक समस्याओं का इतनी जल्दी अध्ययन किसी अन्य अनुसंधान पद्धति द्वारा नहीं किया जा सकता।

2. घटना स्थल पर ही अध्ययन करने में :- इसमें क्रियात्मक अनुसंधान कर्ता इकाइयों का अध्ययन घटनास्थल पर ही कर लेता है। अध्ययन इकाइयों जहां रहती है या करती है, या काम करती है अथवा किसी उद्देश्य से एकत्रित होती है वहीं पर उनसे उनकी समस्या के संबंध में आंकड़े एकत्र कर समस्या का समाधान किया जाता है। क्रियात्मक अनुसंधान में किसी प्रयोगशाला आदि की आवश्यकता नहीं होती है।

3. सरलता एवं सुविधाजन ढंग से अध्ययन करने में :- क्रियात्मक अनुसंधान एक प्रकार से लचीले सिद्धांतों पर आधारित अनुसंधान प्रक्रिया है। इसके नियम बहुत अधिक कठोर नहीं है। अत: स्थानीय तात्कालिक समस्याओं का अध्ययन बहुत सुविधाजनक ढंग से किया जा सकता है। लचीली पद्धति का यह अर्थ कदापि नहीं है कि अनुसंधानकर्ता मनमाने ढंग से अध्ययन करता है। वह अध्ययन में वैज्ञानिक दृष्टिकोण अवश्य अपनाता है। वस्तुनिष्ठता का पूरा-पूरा ध्यान रखता है, जनतांत्रिक और मानवीय मूल्यों को भी महत्व देता है, अन्तत: वह वैज्ञानिक विधि के पक्षों का अनुसरण जहां तक संभव होता हैे करता है।

4. विस्तृत क्षेत्र में अध्ययन हेतु :- यद्यपि क्रियात्मक अनुसंधान का क्षेत्र स्थानीय स्तर पर तात्कालिक समस्याओं के अध्ययन तक ही सीमित है लेकिन इसका दायरा बहुत विस्तृत इसलिए है क्योंकि इसके अन्तर्गत जहां जहां मनुष्य है वहां वहां की सभी प्रकार की तात्कालिक स्थानीय समस्याओं का अध्ययन इसकी सहायता से किया जा सकता है। इसके माध्यम से अध्ययन क्षेत्र की समस्याओं का निराकरण, सुधार, समाधान और समस्याओं के संबंध में नीति निर्माण तक किया जा सकता है।

क्रियात्मक अनुसंधान के पद और प्रक्रिया

क्रियात्मक अनुसंधान के पद और प्रक्रिया निश्चित नहीं है किन्तु जहाँ तक हो सके वैज्ञानिक दृष्टिकोण के साथ विज्ञान के नियमों का पालन किया जाना आवश्यक है। इसके प्रमुख पद इस प्रकार से है:-
  1. समस्या का चयन :- अपने अनुसंधान के लिये ऐसी ही समस्या का चुनाव किया जाना चाहिए जो समाधान योग्य है।
  2. अध्ययन समस्या का वैज्ञानिक विश्लेषण और अध्ययन उद्देश्यों का चयन उचित ढंग से करना। 
  3. अध्ययन इकाईयों का चयन।
  4. आंकड़ों के संग्रह के लिये यंत्र और सामग्री का उचित चुनाव।
  5. अनुसंधान योजना को अनुसंधान रणनीति समझकर बनाना।
  6. आंकड़ों का संकलन लिखित रूप में करना।
  7. अनार्वस्तु विश्लेषण के आधार पर समस्या के संबंध में परिणाम प्राप्त करना।
  8. अनुसंधान परिणामों के आधार पर समस्या का निराकरण।

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